*नवरात्र के पावन अवसर पर चल रही नारीगाथा पर आज एक विषय पर सोंचने को विवश हो गया कि नारियों पर हो रहे अत्याचारों के लिए दोषी किसे माना जाय ??? पुरुषवर्ग को या स्वयं नारी को ??? परिणाम यह निकला कि कहीं न कहीं से नारी की दुर्दशा के लिए नारी ही अधिकतर जिम्मेदार है | जब अपने साथ कम दहेज लेकर कोई नववधू ससुराल पहुँचती है तो उसे ताने देने वाली उसरी सास व ननद भी नारी ही होती हैं | जल्दी से जल्दी पौत्र के दर्शन की लालसा रखकर कन्या पैदा होने पर बहू को तिरस्कृत करने वाली सास भी नारी ही है | लगातार कई कन्याओं के जन्म पर बहू का वित्छेदन कराने वाली व कोख में कन्या की बलि देने वाली भी एक नारी ही होती है | ऐसा क्यों है ???? इस पर विचार करने पर परिणाम मिला कि यह सब संस्कारों का प्रभाव है | क्योंकि एक नारी हमेशा कोमलांगी , सहनशील , संस्कारवान, संस्कृति की धरोहर को अपने अंदर समेटे हुए विशाल हृदया, विनयी, लज्जाशील रही है | किन्तु जहां ही इन गुणों का परित्याग हुआ है वहाँ नारी का अपमान होते देर नहीं लगी है | नारी को ही संस्कारों की धात्री क्यों कहा जाता है? क्यों पुरुष को ये गौरव नहीं मिला ????? नारी का हर रूप मनभावन होता है जब वह छोटी सी नन्ही परी के रूप मे जन्म लेती है अपनी मन मोहक कलाओं से सबके दिलों पर छा जाती है |* *आज के पाश्चात्य संस्कृति से ओतप्रोत नारी का केवल बाहरी सौंदर्य देखने वाले विक्षिप्तों ने तो इसकी परिभाषा ही बदल दी है | अपनी अवस्थिति के लिए नारी स्वयं भी कई बार दोषी होती है | शायद कुछ आजाद विचारों वाली महिलाएं मेरे कथन से सहमत न हों , किन्तु सत्य तो सत्य है | उत्तम संस्कारों वाली महिलाएं अपनी संतानों को ही नहीं बल्कि कई पीढ़ियों को शुद्ध कर देती है | इसलिए नारी का संस्कारी होना उतना ही जरूरी है जितना हम सब जीवों और पेड़ पौधों को जीवित रहने के लिए पानी | उसे विभिन्न रूपों मे अपने दायित्वों का भली भांति निर्वहन करना होता है और हमेशा वह ही स्त्री खरी उतर पाती है जो इन गुणों से परिपूर्ण होती है | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि क्षमा, प्रेम, उदारता, निरभिमानता , विनय , समता ,शांति , धीरता , वीरता , सेवा , सत्य, पर दुःख कातरता , शील , सद्भाव , सद्गुण इन सभी सौंदर्य से युक्त नारी गरिमामयी बन पाती है | लज्जा नारी का भूषण है और यह शील युक्त आँखों मे रहता है | समानता का गुण भी महिलाओं को ही प्राप्त है किन्तु आज की नारी असमान रहने को ही अपनी विजय मानती है | जबकि वह चाहे तो समान दृष्टि रख कर परिवारों को टूटने से बचा सकती है | सिर्फ अपना अपना करने चाहत ने आज परिवारों को तोड़ दिया है जबकि ये गुण संस्कारी महिलाओं का नहीं है | उसे तो समानता का गुण मिला है | उसे अपने निज गुण का ही अनुसरण करना चाहिए | दुःख कष्ट और प्रतिकूलता सहन करने का स्वाभाविक गुण महिलाओं को ही प्राप्त है | नारी पुरुष की अपेक्षा अधिक सहन शील होती है | कुशल प्रबंधन का स्वाभाविक गुण भी महिलाओं का है वे बहुत अच्छी तरह एवं श्रेणी बद्ध तरीके से हर काम को अंजाम देती है, घर हो या बाहर दोनों जगहों पर नारी ने स्वयं को सिद्ध किया है |* *इतने सारे गुण होने पर भी यदि नारी में संस्कार नहीं होते हैं तो ये गुण अवगुण में परिवर्तित हो जाते हैं और नारी ही नारी की दुशमन बन जाती है |*