*सनातन
धर्म के आधारस्तम्भ एवं इसके प्रचारक हमारे ऋषि महर्षि मात्र तपस्वी एवं त्यागी ही न हो करके महान विचारक , मनस्वी एवं मवोवैज्ञानिक भी थे | सनातन
धर्म में समय समय पर बताया गया समयानुकूल व्रत विधान यही सिद्ध करता है | विचार कीजिए कि जब ज्येष्ठ माह में सूर्य की तपन एवं उमस से आम जनमानस तप रहा होता है उस समय एक ऐसा व्रत विधान रखा जिसमें चौबीस घण्टे तक जल तक वर्जित कर दिया गया है | इसे "निर्जला एकादशी" / भीमसेनी एकादशी के नाम से जाना जाता है | निर्जला एकादशी का नियम-निर्देश केवल संयोग नहीं हो सकता | यदि हम ज्येष्ठ की भीषण गर्मी में एक दिन सूर्योदय से लेकर दूसरे दिन सूर्योदय तक बिना पानी के उपवास करें तो बिना बताए ही हमें जल की आवश्यकता, अपरिहार्यता, विशेषता पता लग जाएगा | जीवन बिना भोजन, वस्त्र के कई दिन संभाला जा सकता है, परंतु जल और वायु के अभाव में नहीं | शायद उन दूरदर्शी महापुरुषों को काल के साथ ही शुद्ध पेयजल के भीषण अभाव और त्रासदी का भी अनुमान रहा होगा | इसीलिए केवल प्रवचनों, वक्तव्यों से जल की महत्ता बताने के अतिरिक्त उन्होंने उसे व्रत श्रेष्ठ एकादशी जैसे सर्वकालिक सर्वजन हिताय व्रतोपवास से जोड़ दिया | वैसे तो वर्ष भर में चौबीस एकादशी होती है और सभी एकादशियों का व्रत सबको ही करना चाहिए परंतु यदि कोई वर्ष भर यह व्रत करने में सक्षम न हो तो ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष की "निर्जला एकादशी" का व्रत कर लेने मात्र से उसे सभी एकादशियों के व्रत सा फल प्राप्त हो जाता है | ऐसा हमारे पुराणों में वर्णन है | निर्जला एकादशी को जल का महत्त्व यह है कि किसी भी दान से बढ़कर पुण्य जल भरे घड़े को दान करने से प्राप्त हो जाता है |* *आज के दिन प्रात:काल उठकर स्नान ध्यान करके भगवान विष्णु को साक्षी मानकर निर्जल रहते हुए व्रत का संकल्प ले तथा ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए दिन भर स्वयं को काम , क्रोध , मद , लोभ , ईर्ष्या , द्वेष , अहंकार े बचाये रखते हुए भगवान श्री विष्णु का पूजन पीले वस्त्र , पीले फल एवं पीले पुष्पों से करे तथा दान करने के लिए जल से भरा घड़ा एवं पंखा संकल्प करके किसी सुपात्र (जरूरतमंद) को इस मंत्र के साथ प्रदान करे | "देवदेव ऋषीकेश संसारार्णवतारक ! उद्कुम्भ प्रदानेन नय मां परमां गतिम् !!" तो उसे इस दान-पुण्य का कई गुना फल प्राप्त होता है और पेयजल के संरक्षण, संवर्द्धन एवं सदुपयोग का संदेश भी। भीमसेनी एकादशी नाम पड़ने के पीछे एक कथानक का विवरण पुराणों में प्राप्त होता है ! जो कि मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" बताना चाहूँगा :-- युधिष्ठिर , अर्जुन , नकुल , सहदेव , कुन्ती एवं द्रौपदी सभी वर्ष भर एकादशी का व्रत करते रहते थे परंतु भीम से यह नहीं हो पाता था | उन्होंने पितामह भीष्म से पूछा कि आखिर मैं क्या करूँ जिससे कि हमें भी यह पुण्य प्राप्त हो ! क्योंकि उदर में वृक नामक अग्नि के कारण मुझे सदैव भूख ही लगी रहती है | तब पितामह भीष्म ने भीम को ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी निर्जल रहने का विधान बताया | भीष्म द्वारा निर्देशित व्रत करके भीम ने वर्ष भर की एकादशी का पुण्य प्राप्त किया और इसे भीमसेनी एकादशी कहा जाने लगा |* *भारतीय ऋषि और मनीषी मात्र तपस्वी एवं त्यागी ही नहीं थे, उनके कुछ प्रयोगों, व्रतों, उपवासों, अनुष्ठानों के विधि-विधान एवं निर्देशों से तो प्रतीत होता है कि वे बहुत ऊँचे दर्जे के मनस्विद, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक विचारक भी थे |*