*मानव जीवन अत्यनेत दुर्लभ है , इस सुंदर शरीर तो पाकरके मनुष्य के लिए कुछ भी करना असम्भव नहीं है | किसी भी कार्य में सफलता का सफल सूत्र है निरंतर अभ्यास | प्राय: लोग शिकायत करते हैं कि मन तो बहुत होता है कि सतसंग करें , सदाचरण करें परंतु मन उचट जाता है | ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि उन्हें अभ्यास की आवश्यकता है | निरंतर अभ्यास करने वाले ही एक दिन सफलता के उच्चशिखर को स्पर्श करने में सफल हो पाते हैं | जिस प्रकार चट्टान से निरंतर टकराती समुद्र की लहरें चट्टान पर अपना निशान छोड़ जाती हैं , मिट्टी का घड़ा पत्थर को घिसते घिसते एक गड्ढा बमा देता है | नदी की धारा के लुढ़कता पत्थर एक दिन शिवलिंग का रूप ले लेता है उसी प्रकार निरंतर अभ्यास करते रहने से सफलता अवश्य प्राप्त होती है | जो लोग कहते हैं कि सतसंग कथा में मन नहीं लगता उन्हें भगवान के मुखारविन्द से वाचिक श्रीमद्भगवद्गीता का अवलोकन करना चाहिए जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण "अर्जुन" से कहते हैं :- "असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ! अभ्यासेन् तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते !!" अर्थात :- हे महाबाहो ! नि:सन्देह मन चञ्चल और कठिनता से वश में होने वाला है , परन्तु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है | कहने का तात्पर्य यह है कि यदि निरंतर अभ्यास किया जाय तो इस चञ्चल मन को भी वश में किया जा सकता है | बार बार का अभ्यास स्वभाव का निर्माण करता है | यदि अभ्यास अच्छे कार्य के लिए अच्छे कर्मों का होता है तो अच्छा स्वभाव बनता है और यदि अभ्यास बुरे कार्यों का हो गया तो बुरा एवं निकृष्ट स्वभाव बन जाता है | यदि किसी का स्वभाव बुरा बन भी गया है तो उसे निराश होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि उसका भी उपचार अभ्यास ही है | बुरी आदतों को भी अभ्यास से ही दूर किया जा सकता है बस आवश्यकता है निरंतरता की |*
*आज मनुष्य की मानसिकता परिवर्तित दिख रही है आज मनुष्य निराश बहुत जल्दी हो जाता है और यह कहने लगता है कि "क्या करूँ प्रयास तो बहुत करता हूँ परंतु हमसे होता ही ही नहीं !" जो लोग ऐसा कहते हैं उनसे मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" यही कहना चाहता हूँ कि उन्होंने अभ्यास किया ही नहीं | विचार कीजिए कि तैराकी करना , साईकिल चलाना , छोटे बड़े वाहन चलाना क्या बिना अभ्यास के सम्भव है ? जब यह सभी कार्य अभ्यास से हो सकते हैं तो असम्भव क्या है ? यदि आध्यात्मिक क्षेत्र में जाना है तो शांति , आत्मिक उत्कर्ष और दिव्यता के अभीप्सु साधक के लिए अभ्यास की और भी अधिक आवश्यकता होती है क्योंकि इन्द्रियाँ एवं मन तो प्रारम्भ से ही गलत मार्गों पर ढकेलते रहते हैं क्षणिक सुख प्राप्त करने के लिए कुछ भी करने को मनुष्य आतुर हो जाता है | इस धारा के विपरीत इन्हें ऊर्ध्वमुखी दिशा देने के लिए दृढ़ संकल्प एवं अभ्यास की निरंतरता की परम आवश्यकता होती है | मनुष्य का मन सदैव मनमानी करना चाहता है जो भी अपने मन को मनमानी करने की छूट देता है समझ लो वह अपने सुधार के लिए संकल्पित नहीं हैं | यदि दृढ़ संकल्प के साथ निरंतर अभ्यास किया जाय तो मन को भी नियंत्रित किया जा सकता है | मनुष्य के दुखों का कारण मनुष्य का अनियंत्रित मन ही है | जब मन अनियंत्रित हो जाता है तो मनुष्य अभ्यास से विरत हो जाता होकर लक्ष्य से भटक जाता है और मन की अनुशासनहीनता एवं दुराचरण के कारण मनुष्य में एकाग्रता का अभाव हो जाता है | अभ्यास का प्रभाव तभी पड़ता है जब उसमें निरंतरता हो | यह निरंतर अभ्यास का ही प्रभाव है कि मनुष्य सर्कस में अनेकों करतब तो दिखाता ही है साथ खूंखार पशुओं को भी नियंत्रित किये रहता है | जब यह सब अभ्यास से किया जा सकता है तो मन को भी अभ्यास के द्वारा सतसंग कथा एवं सदाचरण की ओर उन्मुख किया जा सकता है | बस आवश्यकता है ईमानदारी के साथ निरंतर अभ्यास की |*
*अभ्यास तभी सफल हो पायेगा जब दृढ़ संकल्प के साथ एक दिन भी नागा किये बिना निरंतर उसमें संलग्न रहे | अभ्यास के क्रम में यदि एक दिन की भी ढील दे दी जाती है तो यह मन दुबारा अभ्यास की ओर जाने ही नहीं देता |*