*मानव जीवन बड़ा ही रहस्यमय है | इस जीवन में दो चीजे मनुष्य को प्रभावित करती हैं पहला स्वार्थ और दूसरा परमार्थ | जहाँ स्वार्थ का मतलब हुआ स्व + अर्थ अर्थात स्वयं का हित , वहीं परमार्थ का मतलब हुआ परम + अर्थ अर्थात परमअर्थ | परमअर्थ के विषय में हमारे मनीषी बताते हैं कि जो आत्मा के हितार्थ , आत्मा के आनन्द के लिए कार्य किया जाता है वह परमार्थ कहलाता है | और जो मात्र शरीर के हित के लिए , शरीर के आनंद के लिए कार्य किया जाय वह स्वार्थ कहलाता है | स्वार्थ के लिए लिखते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी मानस में बताते हैं कि :- "सुर नर मुनि सब कर यह रीती ! स्वारथ लाइ करइं सब प्रीती !!" अर्थात देवता , मनुष्य और ऋषि - मुनि कोई भी हो सब स्वार्थ के लिए ही प्रेम करते हैं | जिन ऋषियों / मुनियों ने मोह माया का त्याग लोक कल्याणार्थ कर दिया वे दिव्यात्मायें स्वार्थी कैसे हो सकती हैं यह विचारणीय विषय है | स्वार्थी तो इस संसार में सभी हैं परंतु मेरा " आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि स्वार्थी दो प्रकार के होते हैं पहला ज्ञानी स्वार्थी और दूसरा अज्ञानी स्वार्थी | ज्ञानी स्वार्थी का स्वार्थ अपनी आत्मा के आनंद के लिए होता है और आत्मा को आनन्द परमात्मप्राप्ति के बाद ही हो सकता है | ज्ञानी स्वार्थी भगवत्प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार के पूजा , पाठ , जप , तप आदि करता रहता है | उसका एक ही स्वार्थ होता है वह भी भगवान से | वहीं अज्ञानी स्वार्थी स्वयं के आनंद के लिए संसार के लोगों से प्रेम करता है | स्वार्थ तो सबमें है परन्तु यहाँ प्रत्येक प्राणी , वस्तु , भोग आदि की मर्यादा निश्चित है जहाँ इस मर्यादा की सीमारेखा का उल्लंघन करके मनुष्य सिर्फ अपना भला सोंचने लगता है वहीं स्वार्थ दर्शित होने लगता है |*
*आज आधुनिकता की चकाचौंध है जिस प्रकार मनुष्य की विषय लोलुपता बढ़ी है उसी प्रकार आज प्रत्येक मनुष्य में स्वार्थ के दर्शन सहज ही हो जाते हैं | आज मनुष्य परोपकार की भावना का त्याग कर चुका है | इंद्रिय सुखों के लालच में मन से इतना स्वार्थी हो गया है कि उसे अपने हित के अलावा दूसरों का हित दिखाई ही नहीं पड़ता है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" यह कह सकता हूं कि आज अज्ञानी स्वार्थियों की भरमार है संसार में , जो सांसारिक विषय वासनाओं , इच्छाओं की पूर्ति के लिए लोगों से स्वार्थमय प्रेम का दिखावा करता है | लोग एक - दूसरे से इस प्रकार प्रेम का प्रदर्शन करते देखे जा सकते हैं जैसे कि दोनों एक दूसरे के लिए ही बने हों | परंतु प्राय: यह भी देखा गया है कि स्वयं का स्वार्थ सिद्ध हो जाने के बाद आँखें भी फेर लेते हैं और उनका दिखावे का प्रेम अन्तर्ध्यान हो जाता है | इस संसार में नि:स्वार्थ प्रेम करने वाला कोई भी नहीं है | कहने में संकोच नहीं है कि एक पिता का पुत्र से , पुत्र का पिता से , भाई का भाई से , पति का पत्नी से , पत्नी का पति से एवं संसार में व्याप्त सभी रिश्तों में सर्वत्र स्वार्थ है चाहे वह लेशमात्र ही क्यों न हो | एक माँ अपने बच्चे को नि:स्वार्थ प्रेम करती है परंतु तभी तक जब तक वह किशोर नहीं हो जाता | आज लोग स्वार्थ का वास्तविक अर्थ भी नहीं जानते हैं यदि असली स्वार्थ कर लिया जाय तब तो जीवन ही धन्य हो जायेगा | जैसे आप दूध को मथकर तो मक्खन निकाल सकते हैं परंतु चूने के पानी को चाहे जीवनभर मथते रहो परंतु उसमें मक्खन नहीं निकल सकता | वैसे ही यदि असली स्वार्थ आनंद (भगवान) की प्राप्ति के लिए आत्मा के हितार्थ स्वयं को मथोगे तब तो वह आनंद प्राप्त हो जायेगा , परंतु यदि संसार में नकली स्वार्थ के लिए स्वयं को मथा जायेगा तो कभी आनंद की प्राप्ति नहीं हो सकती क्योंकि यह संसार चूने का पानी है |*
*स्वार्थी तो सभी हैं परंतु प्रत्येक व्यक्ति को ज्ञानी (असली) स्वार्थी बनने का प्रयास करना चाहिए | जिससे कि कल्याण का मार्ग प्रशस्त हो |*