*इस धरा धाम पर जन्म लेकर मनुष्य अपने जीवन में अनेकों क्रियाकलाप करता है परंतु इस मानव जीवन को उच्च शिखर पर ले जाने के लिए मनुष्य में दो आस्थायें प्रकट की जानी चाहिए प्रथम तो यह है कि अपने जीवन में विवेकवान , चरित्रवान सुसंस्कृत और प्रतिभावान बने | क्योंकि ऐसा करके ही मनुष्य सभ्य समुदाय का प्राणी गिना जा सकता है , और दूसरा कार्य समाजनिष्ठ उदारचेत्ता बनकर "आत्मवत् सर्वभूतेषु" की भावना विकसित करें तथा "वसुधैव कुटुंबकम्" की मान्यता को स्द्ध करते हुए दूसरों का दुख बंटाये , और अपना सुख बांटे | हमारे पूर्वजों ने आदर्श और सिद्धांतों को प्रतिपादित करने के लिए बहुत कुछ कहा है और बहुत कुछ लिखा भी है जिसका सार निकलकर यही आता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसे अपने समाज के सबसे निम्न कोटि की प्राणी को भी अपना अभिन्न अंग मानकर संकीर्ण स्वार्थपरता से बचते हुये दबे - कुचले एवं पिछड़े लोगों को उठाने एवं बढ़ाने का कार्य करना चाहिए | मनुष्य जीवन में यही दो प्रधान कर्तव्य एवं दायित्व का पालन करते हुए प्रत्येक मनुष्य को अपनी संस्कृति एवं सभ्यता का पालन करते रहना चाहिए | अपनी मानवोचित मर्यादा में रहते हुए दूसरों को हानि पहुंचा कर अपना स्वार्थ सिद्ध करने , दुष्कर्म करने एवं बिलासी और संग्रही बनने से स्वयं को बचाने का प्रयास करते रहना चाहिए | ऐसा करने वाला मनुष्य ही समाज के लिए समर्पित हो कर समाज के उत्थान के लिए कार्य कर सकता है | पूरे धरती को ही अपना परिवार मानकर हमारे ऋषियों ने कोई भी नियम या मान्यता किसी वर्णविशेष के लिए न बनाकर मानवमात्र के लिए बनाया था | पूर्वकाल में मनुष्य अपने मानवोचित कर्मों के कारण ही इस धरती को स्वर्ग बनाने का उद्योग करता रहा है | अपनी इन्हीं मान्यताओं के कारण ही भारत समस्त विश्व में पूज्यनीय रहा है |*
*आज समय बदला , परिवेश बदला और साथ ही बदल गयी मनुष्य की मानसिकता | आज मनुष्य "आत्म सर्वभूतेषु" की भावना भूल चुका है | आज मनुष्य जो भी कार्य कर रहा है वह अपने लिए कर रहा है किसी दूसरे के लिए कार्य करना उसे भार लगने लगा है | जहां हमारे पूर्वजों ने "वसुधैव कुटुंबकम" की भावना को प्रसारित किया था वहीं आज का मनुष्य पूरी धरती को परिवार मानने की बात तो छोड़ दीजिए अपने ही परिवार को अपना नहीं मान पा रहा है | आज मनुष्य का परिवार सिर्फ अपनी पत्नी और बच्चों तक ही सीमित होकर रह गया है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" आज देख रहा हूं कि मनुष्य दिन प्रतिदिन परमस्वार्थी , बिलासी एवं संग्रही होता चला जा रहा है | आज का परिवेश वह है कि ज्यादा से ज्यादा धन अर्जित करने के लिए मनुष्य पाप कर्म भी बड़े प्रेम से कर रहा है | जहां दीन दुखियों को ऊपर उठाने की बात कही गई है वहीं आज का मनुष्य एक-दूसरे के सर पर पैर रखकर के आगे बढ़ने के लिए तत्पर है | आज मानवता फूट-फूट कर रो रही है , संस्कृति और सभ्यता का लोप होता जा रहा है | जगह जगह पर आए दिन पाप अपना तांडव कर रहा है | क्या इसी प्रकार के भारत की रूपरेखा हमारे पूर्वजों ने तैयार की थी ?? आज स्वर्ग लोक में बैठे हमारे पूर्वज , हमारे देश के महापुरुष अपने देश भारत की दुर्दशा को देखकर के अवश्य रो रहे होंगे | हम क्या थे और क्या हो गए ?? इसका कारण आज के मनुष्य की संस्कारहीनता मुख्य है | संस्कार विहीन समाज निरंतर पतन की ओर अग्रसर होता रहता है और आज वही देखने को मिल रहा है |*
*अपनी संस्कृति और सभ्यता को बचाने का एक ही उपाय है कि अपने पूर्वजों के द्वारा स्थापित संस्कारों का पुन: पालन किया जाय आने वाली पीढ़ियों को उन संस्कारों के महत्व को समझाया जाय |*