*आदिकाल से सनातन धर्म में पाप एवं पुण्य को बहुत महत्त्व दिया गया है | सत्कमों को पुण्यदायक एवं कदाचारण-दुराचरण को पापों का जनक माना जाता रहा है | हमारे धर्मग्रन्थ मानवमात्र को पापकर्मों से बचने की शिक्षा देते हैं ताकि मनुष्य को मरणोपरांत नर्कलोक की यातना न भुगतना पड़े | कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य को सदैव पाप कर्मों से बचने का उपाय करते रहना चाहिए | किंतु यह भी सत्य है कि जीवन-यापन हेतु किए जाने वाले दैनिक कर्मों के दौरान जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे, मनुष्य पाप कर बैठता है, या उससे पापकर्म होते रहते हैं | "मनुस्मृति" में उन कर्मों का वर्णन मिलता है जिन्हें जीवन-धारण हेतु प्रायः प्रतिदिन किया जाता है और जो मनुष्य को पाप का भागी बनाते हैं | मनुष्य द्वारा अन्जाने में पाप कहाँ हो जाते हैं इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है | "पञ्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः ! कण्डनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन !!" अर्थात :- चुल्ली (चूल्हा), चक्की, झाड़ू-पोछे के साधन, सिलबट्टा तथा पानी का घड़ा, ये पांच पाप के कारण हैं जिनका व्यवहार करते हुए मनुष्य पापों से बधता है | कहने का अर्थ है कि चूल्हा-चक्की, झाड़ू-पोंछा आदि का प्रयोग करते समय कुछ न कुछ पापकर्म हो ही जाता है, जैसे घुन-कीड़े जैसे जीवों की हत्या हो ही जाती है | यद्यपि किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए परंतु जीवन-धारण के कार्य में ऐसे पापों से बचना संभव नहीं है परंतु इनके फल को भोगने से बचने का उपाय भी मनुस्मृति में बतलाया गया है | "तासां क्रमेण सर्वासां निष्कृत्यर्थं महर्षिभिः ! पञ्च क्लृप्ता महायज्ञाः प्रत्यहं गृहमेधिना !! अर्थात इन सबसे क्रमानुसार निवृत्ति हेतु महर्षियों ने गृहस्थाश्रमियों के लिए प्रतिदिन पांच महायज्ञों का विधान सुझाया है | किसी पापकर्म के दोष से मुक्त होने के लिए हमें उसके बदले समुचित सत्कर्म करने चाहिए | अर्थात पुण्यकार्य करके हम पापकर्मजनित हानि की भरपाई कर सकते हैं | दानपुण्य, देवोपासना, सदुपदेश, मनुष्यों तथा अन्य प्राणियों का हितसाधन आदि कर्म इस श्रेणी में आते हैं | ऐसा करना एक प्रकार का प्रायश्चित्त करना है | इन कर्मों के फल से बचने के लिए मनुष्य ब्रह्मयज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ एवं अतिथियज्ञ आदि का विधान बताया गया है |*
*आज हम आधुनिक युग में जीवन यापन कर रहे हैं जहां मनुष्य की लगभग सभी व्यवस्थाएं बदल गई हैं जीवन तथा जीवन जीने का ढंग परिवर्तित हो गया है | चुल्हा-चौकी जैसे कार्य आज के मशीनी युग में कुछ हद तक स्वप्न हो चुके हैं | परंतु फिर भी दैनिक जीवन में उठने-बैठने, खाने-पीने, चलने-फिरने आदि जैसे कार्य करते समय जाने-अनजाने व्यक्ति को पाप का दोष लगता रहता है | भले ही प्रत्येक कार्य में मशीनों का प्रयोग हो रहा हो परंतु वे व्यक्ति पाप के परोक्षतः भागी होंगे ही जिनके हेतु मशीनें कार्यरत हों | उन दोषों के निवारण के लिए उपरोक्त पंचमहायज्ञ प्रत्येक मनुष्य को करना ही चाहिए | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" देख रहा हूं कि आज लोगों के द्वारा जाने - अनजाने पाप कर्म तो हो रहे हैं परंतु उनके प्रायश्चित करने का विधान मनुष्य नहीं करना चाहता है | पंच महायज्ञ क्या है ? यह जानना आवश्यक है | ब्रम्हयज्ञ अर्थात विद्यादान , पितृयज्ञ अर्थात अपने पितरों के लिए तर्पण करते रहना , देवयज्ञ अर्थात हवन पूजन करते रहना , भूतयज्ञ अर्थात बलिवैश्वदेव एवं पंच बलि का विधान करते रहना एवं अतिथि यज्ञ अर्थात आतिथ्य सत्कार करते रहना | यह पंच महायज्ञ बताए गए हैं , जिन्हें प्रत्येक मनुष्य को नित्य करते रहना चाहिए जिससे कि जाने-अनजाने में हुए पाप कर्म समाप्त होते रहे | इन्हें ही प्रायश्चित बताया गया है परंतु आज या तो हम इनके विषय में जानते नहीं हैं या फिर जानते भी करना नहीं चाहते हैं यही कारण है कि मनुष्य अनेक प्रकार के कष्टों से घिरा रहता है | सनातन धर्म मानव जीवन के प्रत्येक अंग के क्रियाकलापों पर प्रकाश डालता है परंतु ज्ञान के अभाव में मनुष्य इन के विधान को जान नहीं पाता और पाप कर्म करके उसका प्रायश्चित नहीं कर पाता |*
*सनातन धर्म इतना वृहद एवं दिव्य है कि इसमें कोई भी कर्म ऐसा नहीं है जिस का विधान न बताया गया हो आवश्यकता है इनके विषय में जानने की |*