कर्म की प्रधानता
*सनातन धर्म में सदैव से कर्म को ही प्रधान माना गया है एवं अनासक्त होकर कर्मेंद्रियों से कर्मयोग का आचरण करने वाले पुरुषों को श्रेष्ठ पुरुष कहा गया है और यही karma meaning है| अपने द्वारा किए गए कर्म के आधार पर ही जीव की अगली योनियों का निर्धारण होता है | मनुष्य अपने कर्मों का भाग्य विधाता स्वयं है जो जैसा कर्म karma करता है उसको वैसा फल प्राप्त होता है | जीवों को पूर्व जन्म के कर्मानुसार मानव योनि प्राप्त होती है जिसके माध्यम से वह अपने सत्कर्म के द्वारा पूर्व मे किये हुए कर्मों के भोग को कम कर सकता है | मनुष्य के समस्त कर्म मन , वाणी एवं कर्म के द्वारा ही सम्पन्न होते हैं और मनुष्य इसका फल भी मन , वाणी एवं शरीर के द्वारा ही भोगता है | कर्मों के अनुसार ही मनुष्य को उत्तम , मध्यम एवं अधम गति प्राप्त होती है | मनुष्य के द्वारा पापकर्म भी इन्हीं तीनों के द्वारा सम्पन्न होते हैं | दूसरों का अहित , पराई वस्तु का लोभ एवं अंधविश्वास मानसिक पापकर्म कहे गये हैं |
असत्य भाषण , अनर्गल प्रलाप , चुंगली आदि वाणी के पापकर्म हैं वहीं अन्याय से दूसरों का धन हरण करना , परस्त्री गमन आदि शारीरिक पापकर्म कहे गये हैं | इन कृत्यों को करने वाला दिखावे के लिए ताहे जितना बड़ा आध्यात्मिक , सामाजिक एवं धार्मिक हो परंतु अपने द्वारा किये गये कर्मों के फलभोग से कदापि नहीं बच सकता क्योंकि यही प्रकृति का नियम है , जो जैसा बीज डालेगा उसको वैसी ही फसल प्राप्त होगी | तीन प्रकार के कर्म सनातन वांग्मय में बताये गये हैं :- सात्त्विक , राजस , तामस | सत्त्व का लक्षण है धर्म , रज का अर्थ एवं तम का प्रधान लक्षण है काम | जो मनुष्य सात्त्विक कर्म करता है उसे देवत्व की प्राप्ति होती | राजस कर्म करने वाले पुन: मनुष्य गति को प्राप्त होते हैं तथा तामस कर्म करने वाले निकृष्च या तिर्यक गति के अधिकारी बनते हैं | अब यह मनुष्य के ऊपर निर्भर है कि वह कैसा कर्म करके कैसी गति पाना चाहता है |* *आज समाज में अनाचार , भ्रष्टाचार , पापाचार देखने को मिल रहा है वह मनुष्यों के कर्मों का ही परिणाम है | आज अधिकतर मनुष्य राजस कर्म करके अर्थ प्राप्त करना चाहते हैं | यह आवश्यक भी है क्योंकि यह युग ही अर्थप्रधान है | अर्थप्रधान युग में मनुष्य को सिर्फ अर्थ (धन) दिखाई पड़ता है !
धन कमाने के चक्कर में मनुष्य इतना अंधा हो गया है कि उसने सारे नियम , संस्कारों को उतार कर फेंक दिया है | विचार कीजिए कि जहाँ मनुष्यों का दीवन कर्म प्रधान माना जाता था वहाँ अब जीवन अर्थप्रघान हो गया है |
अर्थप्रधान होना भी गलत नहीं है परंतु मनुष्य को अर्थोपार्जन करते समय इतना अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि मेरे द्वारा किया जा रहा यह कर्म कहीं पापकर्मों की श्रेणी में तो नहीं आ रहा है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" देख रहा हूँ कि आज के मनुष्यों की स्थिति बड़ी भयावह है | कर्म अकर्म करके मृत्यु को प्राप्त हो रहे मनुष्य जब अघोगति को प्राप्त होते हैं तो घरवाले पितृदोष से परेशान होकर विद्वानों के पास चक्कर लगाते हैं | विद्वानों द्वारा किये गये अनुष्ठानों शान्ति मिल सकती है परंतु कर्मों का भोग नहीं मिटाया जा सकता | प्रत्येक मनुष्य को इस जीवन के साथ , जीवन के बाद क्या होगा ? इस विषय में विचार अवश्य करना चाहिए | जिस दिन मनुष्य जीवन के बाद वाली स्थिति पर विचार करने लगेगा उसी दिन उसके कर्म सत्कर्म में परिवर्तित हो जायेंगे | जीवन में यह परिवर्तन लाने के लिए मनुष्यों को समय समय पर अपने धर्मग्रंथों का अध्ययन एवम् बुजुर्गों का मार्गदर्शन अवश्य लेते रहना चाहिए | जिससे कि कोई अपकर्म / दुष्कर्म करने के पहले विवेक जागृत हो जाय और वह ऐसे किसी भी कर्म से बच जाय जो उसके लिए जीवन में या जीवन के बाद दुखदायी सिद्ध हों |* *किये गये कर्मों को कोई भी काट नहीं सकता है | यह जीव को स्वयं ही भोगना पड़ेगा | अत: मनुष्य को कोई भी कर्म करने के पहले उसके परिणाम पर भी विचार अवश्य कर लेना चाहिए |*