*इस मायामय संसार में कोई भी ऐसा प्राणी (विशेषकर मनुष्य) नहीं है जो कि सुख की इच्छा न रखता हो ! प्रत्येक प्राणी सुखी ही रहना चाहता है | कोई भी नहीं चाहता कि उसे दुख प्राप्त हो | परंतु इस संसार में यह जीव स्वतंत्र नहीं है | काल के अधीन रहकर कर्मानुसार सुख एवं दुख जीव भोगता रहता है | यदि जीव स्वतंत्र होता तो भला दुख क्यों भोगता | कुछ लोग सुख प्राप्त करने के लिए तरह तरह के उद्योग करते रहते हैं , परंतु यदि यह समझ लिया जाय कि जो भलीभाँति कर्म करना जानते हैं वे सुखी रहते हैं और जो नहीं जानते दुख भोगना पड़ता है तो यह कहना भी ठीक नहीं होगा क्योंकि ऐसा देखा जाता है कि बड़े-बड़े कर्म कुशल विद्वानों को भी कुछ सुख नहीं मिलता और मूर्खों का कभी दुख से पाला नहीं पड़ता इसलिए जो लोग अपनी बुद्धि अकरम से सुख पाने का घमंड करते हैं उनका वह अभिमान व्यर्थ है यदि स्वीकार कर लिया जाए कि उन्होंने दुख को मिटाने का उपाय जान लिया है तो यह भी व्यर्थ ही है क्योंकि जो जीव परतंत्र है वह कभी भी ऐसे उपायों के विषय में जान ही नहीं सकता प्रत्येक मनुष्य जानता है कि यह संसार सागर जिसका नाम मृत्युलोक है यहां से एक दिन जाना ही जाना है पूरे ऐश्वर्य को छोड़ देने की बात को सोचकर की भला कौन सुखी हो सकता है और मृत्यु से बचा जा सके ऐसा कोई उपाय इस संसार में आज तक नहीं मिला है आता सुख और दुख के विषय में ज्यादा विचार ना करके सतत अपने कर्म करते रहने चाहिए |* *आज के भौतिकवादी युग में कुछ लोग बड़ी - बड़ी कोठियां बनवा करके , महंगी गाड़ियाँ खरीद करके , पुत्रियों का विवाह करके स्वयं को सुखी मानते हैं | परंतु क्या वे सुखी हैं ?? जी नहीं उनको अपना यह ऐश्वर्य और ज्यादा विस्तृत न हो पाने का दुख सताता रहता है | एक विद्वान (आचार्य) लौकिक की अपेक्षा पारलौकिक (स्वर्ग ) सुख की कामना से पूजा पाठ यज्ञादि करता रहता है | परंतु उनका स्वर्गसुख भी तब तक ही है जब तक उनका पुण्य है , पुण्य क्षीण (समाप्त) हो जाने के बाद पुन: वही दुख भरे संसार में आना है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" सोंचता हूँ कि एक सन्यासी जो स्वर्गसुख की भी कामना नहीं करता और न ही मृत्युलोक में ही आना चाहता है , इसी उद्देश्य से वह साधना किया करता है | परंतु साधना काल में उसे भी नाना प्रकार के दुखों का सामना करना ही पड़ता है | न धनी सुखी ! न कर्मकाण्डी सुखी !! और न ही सन्यासी सुखी !!! तो आखिर इस संसार में सुखी कौन है ?? यह विचारणीय विन्दु है | अनेकानेक विद्वानों के विचारों का श्रवण एवं सद्ग्रंथों के अध्ययन से जो सार निकलता है वह यही है कि :-- एक ऐश्वर्यशाली व्यक्ति के सुख का अनुभव सबको नहीं सकता | विद्वान के यज्ञादि क्रियाओं के बारे में भी सबको
ज्ञान नहीं हो सकता | और संन्यासी जी का सुख तो और गूढ़ है उसे तो जप-तप के बाद ही समझा जा सकता है | परंतु एक साधारण मनुष्य के लिए जो सुख
सतसंग में मिल सकता है वह अन्यत्र कहीं नहीं | भगवान जब बहुत कृपा करते हैं , तो सत्संग देते हैं , तभी सत्संग का सुयोग मिलता है | सत्संग कोई ऋतुकालिक
व्यापार नहीं है कि श्रावण में किया और भादों में भूल गए | सच मानिए नित्य सत्संग होता रहे , इससे बढ़कर ठाकुर की और कोई कृपा नहीं |* *सतसंग से बढ़कर कोई सुख नहीं | बंगला , मोटरकार हो संसार में , समाज में मान हो , सम्मान हो तो कृपा है | लेकिन अति कृपा तब है जब हम सत्संग में बैठते हैं | अत: नित्य समय निकालकर सतसंग करते रहें |*