*सनातन धर्म में व्रत , पूजन आदि करते रहने के विधान बताए गए हैं | उन सब का फल प्राप्त करने के लिए लोग तरह - तरह के अनुष्ठान करते हैं | इन अनुष्ठानों का एक ही उद्देश्य होता है -- परमात्मा की उपासना या परमात्मा को प्राप्त करने का उपाय कहा जा सकता है | यह सारे व्रत , सारे अनुष्ठान करने पर भी उसका फल मात्र सदाचारी को ही प्राप्त होता है | आचारहीन को कदापि नहीं | नारायणावतार महर्षि वेदव्यास जी ने भविष्यपुराण के उत्तरपर्व में लिखा है ----- "आचारहीनं न पुनन्ति वेदा यद्यप्यधीता: सह षड्भिरंगै: | छन्दास्येनं मृत्युकाले त्यजन्ति नीडं शकुन्ता इव जातपक्षा: || अर्थात आचारहीन व्यक्ति को छ: अंगोॉ के साथ अधीत वेद भी पवित्र नहीं कर सकते | जैसे पंछी पंख निकलने के बाद अपने घोसले को छोड़ देता है वैसे ही ये वेद आचारहीन को मृत्यु के समय परित्याग कर देते हैं | जैसे कपाल में रखा हुआ जल , कुत्ते की चर्मपात्र (मशक) में रखा दूध स्थान दोष से अशुद्ध हो जाता है उसी प्रकार आचारहीन व्यक्ति भी अशुद्ध ही है | इसलिए अपने आचार की यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए | आपके आचार से ही समाज में आपका स्थान निर्धारित होता है | धन तो आता जाता रहता है | जो धन से हीन है वह दीन नहीं कहा जा सकता परंतु जो अपने आचरण से गिरा हुआ है वह गिरा ही रहता है | वह मरे हुए के समान है | क्योंकि आचार ही धर्म और कुल का मूल है | आचार से च्युत व्यक्ति न तो कुलीन हो सकता है और न ही धार्मिक |*
*आज समाज का कायाकल्प हो रहा है | सदाचार एवं आचरण का पाठ पढाने वाले गुरुकुल नहीं रह गये हैं | आज प्रत्येक विद्यालय में अंग्रेजी शिक्षा पद्धति का बोलबाला है | यह ऐसी शिक्षापद्धति है जिसका भारतीय संस्कृति एवं संस्कार से कोई मतलब नहीं है अपितु इस पद्धति से हमारी संस्कृति का ह्रास ही हुआ है | आज विद्यालयों में गुरु एवं शिष्य के बीच जिस प्रकार का बर्ताव देखा जा रहा वह कौन सा सदाचार का निर्माण करेगा ??? समाज में आज भी वृहदस्तर पर धार्मिक आयोजन हो रहे हैं जिससे आयोजक की ख्याति तो हो रही है परंतु उनके द्वारा यदि सदाचार का पालन नहीं किया जा रहा है तो इन अनुष्ठानों को करने से क्या लाभ प्राप्त होगा यह तो परमात्मा ही जाने | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि -- मनुष्य के उत्थान एवं पतन में मनुष्य का आचरण मुख्य भूमिका निभाता है | जहाँ अपने आचार - विचार से ही मनुष्य उन्नति के शिखर प्राप्त कर लेता है वहीं आचारहीन मनुष्य पतनोन्मुखी होकर नष्ट हो जाता है | उत्थान का आधार है- सही दिशा निर्धारण और सज्जनता भरा आचरण | पतन का कारण है - अनुपयुक्त चिन्तन और उसके नशे में कुमार्ग का अनुसरण | उठने और गिरने के दोनों मार्ग हर किसी के लिए खुले पड़े हैं | इनमें से कोई किसी का भी स्वेच्छापूर्वक वरण कर सकता है | मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, इस तथ्य की यथार्थता अपने उदाहरण से सर्वथा सत्य एवं सार्थक सिद्ध कर सकता है |*
*मानवी सत्ता का सृजन उत्कृष्टता की ओर अग्रसर हो सकने वाली सामर्थ्य के साथ हुआ है | यह उसका अपना चुनाव एवं रुझान है कि चाहे वह उत्थान के राजमार्ग को छोड़कर पतन की राह पर चले और दुर्भाग्य जैसी दुर्गति को भोगे |*