*जीव इस संसार में अनेक योनियों में भ्रमण करता हुआ जब मानव योनि प्राप्त करता है तो उसका परम लक्ष्य होता है मोक्ष प्राप्त करना अर्थात आवागमन से छुटकारा प्राप्त करना | आवागमन छुटकारा पाने के लिए हमारे धर्म ग्रंथों में अनेक अनेक उपाय बताये गये हैं | जप - तप , साधना , उपासना आदि अनेकों प्रकार के साधन यहां उपलब्ध है , आवश्यकता है उनको समझने की | प्राय: लोग अपने मन में विचार किया करते हैं कि अपने इष्ट देव की साधना कैसे की जाय ? लोग अपने इष्ट देव की साधना करने के लिए आंख बंद करके ध्यान लगाते हैं परंतु पालथी मारकर आंख बंद कर लेने से साधना नहीं हो सकती | यदि साधक को अपने ईष्टदेव को अपनी साधना से प्रसन्न करना है तो उसे अपने मन , क्रम , वचन एवं ध्यान चारों को संभालने की आवश्यकता है | सर्वप्रथम तो मन की एकाग्रता होनी चाहिए , उसके बाद क्रम अर्थात अपने कर्मों के प्रति , कर्तव्यों के प्रति सजगता क्योंकि जब साधक अपने कर्तव्यों के प्रति शिथिल हो जाता है तो उसकी साधना पूर्ण नहीं हो सकती | उसके बाद सत्य वचन अर्थात वाणी से सत्य का आश्रय ग्रहण करके ही साधना की जा सकती है , अब ध्यान का स्थान आता है | यहाँ ध्यान का बहुत ही गंभीर अर्थ है | आंख मूंद कर चुपचाप बैठ जाना ध्यान नहीं हो सकता है बल्कि साधक को एकाग्रता पूर्वक लक्ष्य पर दृष्टि रखना ही ध्यान है | आम बोलचाल की भाषा में हमारे अभिभावक हमको समझाया करते हैं कि किसी भी काम को ध्यान से करना चाहिए इसका अर्थ यह नहीं की आंख मूंदकर पालथी लगाकर हमको वह काम करना चाहिए | इस निर्देश का अर्थ यही है कि आप अपने कार्य के प्रति सजग / सावधान रहते हुए अपने लक्ष्य पर ध्यान लगाएं यदि साधक ऐसा नहीं कर पाता है तो उसकी साधना सफल नहीं हो सकती | कहने का तात्पर्य है कि साधक को साधना करने के लिए मन क्रम वचन एवं ध्यान पर अपनी दृष्टि रखते हुए इनको शास्त्रोक्त मत से संभाल लेने के बाद ही साधक साधना में सफल हो सकता है , अन्यथा उसकी साधना मात्र दिखावा बनकर रह जाती है | इस प्रकार की साधना यदि साधक के द्वारा की जाती है तो उसकी सफलता में संदेह नहीं रह जाता है परंतु आज के युग में विरले ही ऐसे मनुष्य मिल सकते हैं जिन्होंने अपने मन को एकाग्र कर लिया हो , अपने कर्तव्य पथ पर दृढ़ रहते हुए सदैव सत्य का आश्रय लेते हुए अपने ईष्ट के ध्यान में मगन हों ! इसीलिए आज साधक अपनी साधना में सफल नहीं हो पा रहे हैं |*
*आज के युग में प्राय: मनुष्यों के पास समय का अभाव हो गया है | यदि भगवान का नित्य पूजन भी करना है तो मनुष्य जल्दी-जल्दी में भगवान का पूजन एक भार समझ कर कर रहा है | मनुष्य भगवान का पूजन तो करने बैठ जाता है परंतु उसका मन अन्यत्र विचरण किया करता है ऐसे में साधना कैसे सफल हो सकती हैं ? जिस प्रकार आज मनुष्यों के मनोभावों में परिवर्तन हुआ है उसको देखते हुए यह कहा जा सकता है कि कोई ऐसा मिल ही नहीं सकता जो सदैव सत्य का आश्रय लेकर चलता हूो झूठ बोलकर मनुष्य अपने बिगड़े काम बनाने का आदी सा हो गया है | एक दूसरे के प्रति ईर्ष्या भाव रखते हुए जीवन यापन करने वाला मनुष्य भला साधक बनकर साधना कैसे कर सकता है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" आज के परिवेश को देखकर यह कह सकता हूं कि आज साधना करने वाले साधना कम और दिखावा अधिक करते हैं उसके बाद सारा दोष ईश्वर को देते हैं | जैसा कि मानस में बाबा जी ने उद्धरण दिया है :- "कालहिं कर्महिं ईश्वरहिं मिथ्या दोष लगाइ" | कभी समय को , कभी अपने कर्म को और कभी ईश्वर को दोषी बताकर के मनुष्य अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेता है जबकि पूर्व काल की भाँति आज भी मनुष्य का वही शरीर है , वही मन है और साधना के उपाय भी वही हैं जिन्हें करके हमारे पूर्वजों ने अनेक सिद्धियां प्राप्त की थी | आज अगर परिवर्तित हुआ है तो वह है मनुष्य की मानसिकता एवं उसके मनोभाव | मनुष्य के मनोभाव ही उसको आगे नहीं बढ़ने देना चाहते | ऐसा नहीं है कि आज साधक नहीं रह गए हैं परंतु यह भी अकाट्य सत्य है कि आज अधिकतर लोग साधना करने का दिखावा मात्र करते हैं | जिस दिन मनुष्य मन , क्रम , वचन एवं ध्यान इन चारों को संभालकर साधना करने बैठेगा उसी दिन आज के युग में भी उसकी साधना अवश्य सफल होगी इसमें कोई संदेह नहीं |*
*साधक अपने ईष्टदेव की साधना करके उन्हें प्रसन्न करते रहें हैं परंतु आज यदि ऐसा करने की लालसा है तो सर्वप्रथम अपने को एकाग्र अथवा अपने वश में करना ही होगा | यगि मन वश में हो गया तो समझ लोकि साधना पूर्ण हो गयी |*