*माता - पिता के संयोग से परिवार में जन्म लेने के बाद मनुष्य धीरे धीरे समाज को जानता - पहचानता है क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक जीव है। समाज ही उसका कर्मक्षेत्र है। अतः उसे स्वयं को समाज के लिए उपयोगी बनाना पड़ता है। मनुष्य ईश्वर की भक्ति एवं सेवा बहुत ही तन्मयता से करता है परंतु समाज की ओर बगुत ही कम ध्यान दे पाता है जबकि ईश्वर पूजा का फल तभी प्राप्त हो सकता है जब मनुष्य के हृदय में दया , दान एवं परोपकार की भावना हो | सीधा सा अर्थ है कि यदि इन भावों को हृदय में जागृत करके समाज के दबे कुचले , असहाय , निर्बल एवं दुखियों के सहायता एवं परोपकार के भाव हृदय में आ जायं तो यही सच्ची ईश्वर की सेवा कही जायेगी क्योंकि परोपकार और सहानुभूति पर ही समाज स्थापित है । इस संसार में जहाँ स्वार्थ का ही बोलबाला है वहाँ भी कुछ लोग अपने-अपने स्वार्थ का थोड़ा-बहुत त्याग करके ही समाज को स्थिर रखते हैं | हमें प्राईमरी की कक्षाओं में प्रात: प्रार्थना के माध्यम से संकल्प कराया जाता है कि :--- "हम दीन - दु:खी , निर्बलों विकलों के सेवक बन संताप हरें ! जो हैं अटके भूले भटके उनको तारें खुद तर जावें !!" समाज के प्रति दया एवं परोपकार की भावना हृदय में प्राथमिक कक्षाओं से ही आरोपित की जाती रही हैं ! यही भारतीय संस्कृति की विशालता है | नि:स्वार्थ भाव से समाज सेवा करने वाले अनेकों चरित्र हमारे इतिहास में देखने व पढ़ने को मिलते हैं | ऐसे लोगों को समाजसेवी या समाजसेविका का नाम दिया जाता रहा है | यह नाम भी उन्हें उनके इन सराहनीय कार्यों के लिए समाज के द्वारा ही प्रदान किया जाता था | यह उन समाजसेवियों का सम्मान समाज के द्वारा किये जाने की विधा थी | अपना कार्य एवं अपने लिए साधन जुटाने का कार्य तो सभी करते हैं परंतु जो दूसरों के भी जीवनोपयोगी आवश्यकताओं का ध्यान देकर यथासमय उसकी पूर्ति करने का प्रयास करे वही सच्चा समाजसेवी है |*
*आज के आधुनिक समाज में समाजसेवियों की बाढ़ सी आ गयी है | यह एक सुखद संकेत है | किसी के कुसमय में उनके साथ खड़े होकर उनकी सहायता करना ही सच्ची ईश्वर सेवा है | परंतु आज समाज सेवा करने से ज्यादा अपना नाम करने की होड़ सी लगी हुई है | जहाँ पहले ऐसे लोगों को समाज के द्वारा "समाजसेवी" की उपाधि दी जाती थी वहीं आज लोग स्वयं अपने नाम के आगे "समाजसेवी" लिखकर स्वयं का प्रचार कर रहा है | इसमें इन तथाकथित समाजसेवियों का स्वार्थ (अपना नाम करने का) छुपा होता है जबकि मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि सेवा निःस्वार्थ भाव से होनी चाहिए | जो व्यक्ति निःस्वार्थ भाव से दुखियों की सेवा करता है, वह लोकप्रिय बन जाता है | अनेक समाजसेवी तो ऐसे हैं जो समाज का अर्थ ही नहीं जानते | किसी बीमार व्यक्ति को चिकित्सालय में जाकर के एक दर्जन केला देकर चार लोग फोटो खिंचवा कर के शोसलमीडिया पर उसे डालकर समाज सेवा का दम्भ भरते हैं | अनेक समाजसेवी ऐसे भी हैं जो यह नहीं जानते हैं कि समाज का प्रथम अंग / प्रथम इकाई परिवार होता है | आज परिवार का भरण पोषण एवं उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति न कर पाने वाले स्वयं को समाजसेवी कह कर प्रचारित कर रहे हैं | किसी के माता-पिता वृद्धावस्था में कष्ट भोग रहे हैं तो किसी ने अपनी पत्नी का त्याग करके समाज सेवा करना प्रारंभ किया है | ऐसे समाजसेवी जो अपने परिवार का सम्मान नहीं कर पा रहे हैं वे समाज की आवश्यकताओं की कितनी पुर्ति करेंगे ? यह एक यक्ष प्रश्न है | समाज सेवा कोई साधारण कार्य नहीं है , समाज सेवा करने के पहले व्यक्ति को अपने परिवार की सेवा एवं उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति का ध्यान अवश्य देना चाहिए , अन्यथा समाजसेवी लिखने का कोई अर्थ नहीं है | इसे पाखंड एवं थोथा प्रदर्शन ही कहा जाएगा | यद्यपि जिस प्रकार हाथ की पांचों उंगलियां बराबर नहीं होती हैं उसी प्रकार सभी समाजसेवी भी ढोंगी नहीं कहे जा सकते , परंतु आज के समाज में यह भी सत्य है व्यर्थ के समाजसेवी होने का ढोंग करने वालों की संख्या कुछ अधिक ही बढ़ रही है | इससे समाज का भला नहीं होने वाला है अतः ऐसे लोगों को आईना दिखाने की आवश्यकता है |*
*समाज सेवा त्याग का एक अनूठा उदाहरण है ! यह एक साधना है !! इसे हमारे शास्त्रों में तपस्या भी कहा गया है | अतः समाज सेवा करने के पहले मनुष्य को एक साधक बनना पड़ता है |*