*मानव जीवन एक
यात्रा है | जन्म लेने के बाद मनुष्य अपने जीवनकाल में भाँति - भाँति के क्रिया - कलाप करते हुए एक निश्चित दूरी तय करके अपनी जीवनयात्रा पूरी करता है | मनुष्य के जन्म लेने के बाद से ही जीवन पर्यन्त उसे पग - पग पर मार्गदर्शन की आवश्यकता पड़ती है | प्रारम्भकाल में यह मार्गदर्शन माँ तो आगे चलकर गुरुओं के द्वारा जीवन पर्यन्त मिलता रहता है | इस संसार में मनुष्य के आवश्यकता की सभी वस्तुएं विद्यमान हैं , बस उसे प्राप्त करने के लिए मनुष्य को पात्र बनना पड़ता है | किसी से भी कुछ पाने के लिए मनुष्य को स्वयं में शिष्यत्व भाव को पैदा करना होता है | बिना शिष्य बने यहाँ कुछ भी नहीं मिल सकता | शिष्य बनने का अर्थ यही होता है कि आपको जहाँ से भी कुछ प्राप्त हो रहा हो वहाँ आपको शिष्य बनकर सम्बन्धित
ज्ञान अर्जित कर लेना चाहिए | साक्षात भगवान के अंशावतार होते हुए भी भगवान दत्तात्रेय के जीवन में अनेकों गुरु आये , जिनमें मनुष्य के अतिरिक्त पशु , पक्षी , कीट , पतंगे भी थे | भगवान दत्तात्रेय ने हमें यह शिक्षा दी है कि जीवन में कुछ भी प्राप्त करने के लिए शिष्य बनना पड़ेगा |* *आज समय परिवर्तित हो गया है | आज लोगों को शिष्य बनने में शर्म लगने लगी है | पढ लिख कर विद्वानों की श्रेणी में तो लोग आ गये हैं परंतु कहीं न कहीं से उनके भीतर "एको$हं द्वितीयोनास्ति" की भावना ने भी जन्म ले लिया है | आज सब गुरु ही बनकर उपदेश देने चाहते हैं , शिष्य कोई बनना ही नहीं चाहता | ज्ञान की कोई आयु नहीं होती ! मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" आप सबका ध्यानाकर्षण उस प्रसंग की ओर कराना चाहूँगा जहाँ श्राप से पीड़ित होकर राजा परीक्षित गंगा के किनारे बैठ गये थे , पाराशर , व्यास आदि अनेक ऋषि - महर्षि भी आ गये थे | इनहीं सब के बीच में जब शुकदेव स्वामी पधारे तो सभी ऋषि - महात्माओं ने उनकी योग्यता को देखते हुए उठकर उनका सम्मान किया , इसमें उनके पिता व्यास जी एवं पितामह पाराशर जी भी सम्मिलित थे | परंतु आज यदि हमें अपनी उम्र से कम आयु का बालक कुछ बताने का प्रयास करता है तो हमें क्रोध आ जाता है , और हम उसको यह कहकर डाँट देते हैं कि "जितनी तुम्हारी उम्र है उससे ज्यादा तो हमें यह विद्या प्रीप्त किये हो गया !" जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए | आज विद्वानों में इसी सामंजस्य का अभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है | आज के तथाकथित विद्वान ग्रहण करने की क्षमता को खोते जा रहे हैं | यही कारण है कि आज जगह - जगह पर कुतर्क होते देखे जा सकते हैं | विद्वानों का कार्य है
समाज को ज्ञान बाँटना परंतु इसके साथ यह भी आवश्यक है कि उसको दूसरों की बात को भी सुनने की क्षमता स्वयं में रखनी चाहिए | यहाँ मृत्युलोक में कोई भी पूर्ण नहीं है | एक दूसरे का सहयोग (मार्गदर्शन) लेते हुए जीवनयात्रा पूरी करनी चाहिए |* *यहाँ गुरु बन जाना ही सब कुछ नहीं है ! गुरु बनकर भी स्वयं में शिष्य भाव पैदा करके दूसरों से ज्ञानार्जन करने वाला ही सच्चा गुरु एवं मार्गदर्शक बन सकता है |*