*भारतीय संस्कृति में नारियों को सदैव सम्माननीय एवं पूजनीय माना गया है | अपने सभी रूपों में नारी सदैव आदर का पात्र रही है | वैदिक काल में नारियों की स्थिति बहुत ही सुदृढ़ हुआ करती थी परंतु मध्यकाल आते-आते विदेशी आक्रांताओं के भय से नारियों को पुरुष प्रधान समाज के बनाए गए नियमों का पालन विवशता में करना पड़ा | एक नारी के जीवन में सबसे कठिन क्षण तब उपस्थित होता है जब वह पति के द्वारा त्याग दी जाती है या उसके पति की मृत्यु हो जाती है | ऐसी स्थिति में समाज उसे बहुत ही दीन हीन दृष्टि से देखने लगता है | पति के द्वारा त्यागी हुई या विधवा हुई स्त्रियों के लिए पुरुष प्रधान समाज ने कुछ ऐसी सीमाएं निर्धारित कर दी जिससे ऐसी नारियों का जीवन नारकीय हो गया | जहां एक और पत्नी की मृत्यु हो जाने के बाद पुरुष दूसरा विवाह करने के लिए स्वतंत्र माना जाता है वही विधवा हुई या पति के द्वारा त्यागी हुई नारी का जब दूसरा विवाह होता है तो उस पर उंगली उठाकर आक्षेप लगाने वाले तथा इसे सनातन के विरुद्ध कहने वालों की एक लंबी कतार समाज में खड़ी हो जाती है | जबकि हमारे सनातन शास्त्रों ने विधवा विवाह का कभी भी विरोध नहीं किया है | नारी सदैव पुरुष के संरक्षण में ही दिव्य जीवन व्यतीत कर सकती है इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हमारे श्रुति ग्रंथों ने ऐसी नारियों को विवाह करने का निर्देश प्रस्तुत किया है , परंतु पुरुष प्रधान समाज इस बात को स्वीकार न करके शास्त्रों में कही गई बातों का भी लोप करके नारी को प्रताड़ित करता रहा है |*
*आज के आधुनिक युग में जहां नारी पुरुष के बराबर कदम से कदम मिलाकर चल रही है ऐसे में भी पानी के लोग रूढ़िवादी परंपरा को अपना करके किसी भी नारी के द्वारा पुनर्विवाह को मान्यता नहीं देना चाहता है | कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि नारी को पुनर्विवाह करने का निर्देश भारतीय सनातन परंपराओं में कदापि है ही नहीं | ऐसे सभी विद्वानों को मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" बताना चाहूंगा कि इस सृष्टि का सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद को माना जाता है और ऋग्वेद में नारियों के पुनर्विवाह की आज्ञा प्रदान की गई है | यथा :- "'उदीर्ष्व नार्यभि जीवलोकं गतासुमेतमुप शेष एहि ! हस्तग्राभस्य दिधिषोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभि सम्बभूथ !!" अर्थात :- पति की मृत्यु के बाद उसकी विधवा उसकी याद में अपना सारा जीवन व्यतीत कर दे, ऐसा कोई धर्म नहीं कहता | उस स्त्री को पूरा अधिकार है कि वह आगे बढ़कर किसी अन्य पुरुष से विवाह करके अपना जीवन सफल बनाए | ऋग्वेद के अट्ठारहवे मंडल के दसवें अध्याय का यह आठवां श्लोक पुनर्विवाह की मान्यता प्रदान कर रहा है | ऐसे में विद्वानों के बीच इस बात की बहस होना की नारी को पुनर्विवाह नहीं करना चाहिए व्यर्थ ही है | जब एक पुरुष पुनर्विवाह कर सकता है तो नारी क्यों नहीं ? यह विचारणीय विषय है | रूढ़िवादी परंपराओं से आगे बढ़कर अपनी सनातन परंपराओं को लेकर के नए युग में जीवन जीने की आवश्यकता है | नारी यदि निधवा हो जाती है तो उसका कोई दोष नहीं होता है | कई ऐसे उदाहरण भी देखने को मिलते हैं कि विवाहोपरान्त पति - पत्नी का प्रथम मिलन भी नहीं हो पाता और पति की मृत्यु हो जाती है | ऐसे में एक कन्या से नारी बनकर तुरंत विधवा बनी बालिका का जीवन कैसे कटेगा ? अत: उसका पुनर्विवाह कर देना कहीं से भी गलत नहीं है |*
*विधवा बनकर कुमार्गगामी हो जाने की अपेक्षा पुनर्विवाह करके नए जीवन को प्रारंभ करना ही श्रेयस्कर है |*