*मानव जीवन में शत्रु - मित्र , दिन - रात , सकारात्मकता - नकारात्मकता की तरह ही सुख एवं दुख भी आते जाते रहते हैं | यह सारे क्रियाकलाप या रिश्ते - नाते मनुष्य की सोच के ऊपर निर्भर होते हैं | यह मनुष्य स्वयं तय करता है कि वह सुखी रहना चाहता है या दुखी ? क्योंकि इसके मूल में मनुष्य की सोच ही होती है | जब मनुष्य की सोच के अनुसार कार्य हो जाता है तो वह सुखी हो जाता है वहीं जब उसके विपरीत परिणाम मिलता है तो मनुष्य के दुख सागर हिलोरे मारने लगता है | ईश्वर द्वारा बनाई गई प्रकृति संपूर्ण मानव जाति के लिए एक जैसा व्यवहार करती है परंतु प्राकृतिक व्यवहार से एक साथ सभी लोग सुखी नहीं रह सकते हैं | जैसे कि जब बादल गरजकर बरसते हैं तो किसान प्रसन्न हो जाता है क्योंकि उसकी सोच के अनुरूप उसकी फसल को जल की आवश्यकता थी , परंतु वही एक कुम्हार को अपार दुख हो जाता है क्योंकि उसके बनाए हुए मिट्टी के बर्तन उस बरसात से नष्ट हो जाते हैं | संसार में मनुष्य सब कुछ अपने अनुसार चाहता है | जब उसके विपरीत कार्य होने लगता है तब मनुष्य के हृदय में दुख हो जाता है , मनुष्य अपने जीवन में जानबूझकर किसी को अपना शत्रु नहीं बनाना चाहता है परंतु मनुष्य के कार्य के अनुसार , उसकी मनोवृति के अनुसार उसके शत्रु एवं मित्र बनते चले जाते हैं | मनुष्य के कार्यों से प्रसन्न रहने वाले उसके मित्र बन जाते हैं परंतु जब मनुष्य को कोई सफलता मिलती है तो इसी संसार में उससे ईर्ष्या करने वाले उस से शत्रुता भी मानने लगते हैं | सत्यता तो यह है कि ना तो प्रकृति और ना ही मनुष्य कोई किसी का शत्रु नहीं होता है | यह मनुष्य की मनोवृत्ति है जो शत्रु एवं मित्र , सुख एवं दुख का अनुभव करती है | मनुष्य को किसी भी घटना - दुर्घटना पर ईश्वर को दोषी न मान करके उसका कारक स्वयं को मानना चाहिए , क्योंकि ईश्वर सबके लिए समान व्यवहार करता है परंतु मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार ही फल प्राप्त करता है | मनुष्य के किए हुए कर्म प्रतिफल के रूप में उसके समक्ष उपस्थित हो जाते हैं , परंतु मनुष्य इस बात को न मान करके सारा दोष ईश्वर को लगा देता है | जबकि यह विचार करना चाहिए कि हमने ऐसा क्या किया कि आज हम को यह दुख मिला है , इसका कारण क्या है ??*
*आज मनुष्य दुख से निवृति पाने के लिए अनेकों प्रकार से ईश्वर की आराधना तो करता है परंतु उसके मनोभाव ईश्वर की ओर उन्मुख नहीं हो पाते हैं और एक निश्चित समय अवधि तक वह किए गए अनुष्ठान का फल न मिलने पर दुखी हो जाता है एवं ईश्वर को दोषी मानने लगता है | आज प्राय: यह देखने को मिलता है कि जब कोई प्रियजन स्वयं से दूर हो जाता है तो मनुष्य को बड़ा दुख होता है | इस दुख को उत्पन्न होने का एक ही कारण है मनुष्य की सोच | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि मनुष्य यदि सकारात्मक विचार करें तो शायद उसको जीवन में दुख कभी हो ही नहीं सकता है | सकारात्मक विचार एवं सकारात्मक कार्य तभी हो सकते हैं जब मनुष्य का पालन पोषण स्वच्छ एवं संस्कारित वातावरण में हुआ हो ऐसे वातावरण में पले बड़े व्यक्ति मानव सभ्यता के सभी गुण स्वयं में आत्मसात कर लेते हैं एवं आदर्श जीवन जीते हुए सुख का अनुभव तो करते ही हैं साथ ही संसार में सब को ही अपना मित्र बना सकते , परंतु दुर्भाग्यपूर्ण है मनुष्य सांसारिक दुखों का ध्यान तो देता है परंतु अपने भीतर विद्यमान दुर्गुणों की ओर से अनभिज्ञ रहता है | जिस दिन मनुष्य को अपने भीतर के दोष दिखने प्रारंभ हो जाएं एवं वह उनका शमन करने लगे उसी दिन से उसके दुख एवं उसके शत्रु स्वयं समाप्त हो जाएंगे |*
*अपने सुखमय जीवन को दुख पूर्ण बनाने का दायित्व स्वयं मनुष्य का ही है | मनुष्य की सोच , मनोवृत्ति एवं उसके विचार जहां उसके दुख का कारण बनते हैं वही मनुष्य के दोष ही उसके परम शत्रु के रूप में उसके समक्ष उपस्थित रहते हैं |*