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‼ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼
🔴 *आज का सांध्य संदेश* 🔴
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*संसार में मनुष्य सहित जितने भी जीव हैं सब अपने सारे क्रिया कलाप स्वार्थवश ही करते हैं | तुलसीदास जी ने तो अपने मानस के माध्यम से इस संसार से ऊपर उठकर देवताओं तक के लिए लिख दिया है कि – “सुर नर मुनि सब कर यह रीती | स्वारथ लाइ करइं सब प्रीती ||” अर्थात – देव , दानव, मानव कोई भी इस असाध्य रोग से बच नहीं पाया है | नि:स्वार्थ प्रेम बिरले ही देखने को, या सुनने को मिलता है | जब मनुष्य मां के गर्भ में होता है तभी से वह भगवान से कहने लगता है , भगवान से सौदा करने लगता है कि – हे भगवन ! हमें इस नर्क से बाहर निकालो , मैं आपका भजन संसार में पहुंचकर करूँगा | अब सोंचिए कि – वह गर्भस्थ शिशु भी यदि भगवान का भजन करने की प्रतिज्ञा लेता है तो उसमें भी उसका स्वार्थ होता है कि इसके बदले हमें इस गर्भरूपी नर्क से मुक्ति मिल जायेगी | कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान की माया तो मनुष्य के जन्म लेने के बाद उसे घेरती है परंतु स्वार्थ तो उसके पास इस संसार को देखने के पहले ही आ जाता है | इस स्वार्थ से आज तक किसी को बचते हुए नहीं देखा गया है | सारा संसार ही स्वार्थमय है | स्वार्थ होना कोई गलत नहीं है | गलत है नकारात्मक विषयों में स्वार्थ की पराकाष्ठा का उल्लंघन कर देना |*
*आज स्वार्थ को समाज में अनुचित समझा जाता है किसी को स्वार्थी कहना उसके लिए अपशब्द के समान है | जबकि संसार का प्रत्येक मनुष्य स्वयं स्वार्थी होता है ! क्योंकि मनुष्य द्वारा कर्म करने का आरम्भ ही स्वार्थ के कारण है यदि मनुष्य का स्वार्थ समाप्त हो जाए तो उसे कर्म करने की आवश्यकता ही क्या है ? मनुष्य को जब अपने तथा अपने परिवार के पोषण के लिए अनेकों वस्तुओं की आवश्यकता होती है तो उसमे स्वार्थ उत्पन्न होता है जिसके कारण वह कर्म करके अपने स्वार्थ सिद्ध करता है अर्थात मनुष्य की आवश्यकता ही स्वार्थ है एंव स्वार्थ ही कर्म है | यदि आवश्यकता ना हो तो स्वार्थ समाप्त एंव स्वार्थ ना हो तो कर्म समाप्त अर्थात स्वार्थ के कारण ही संसार का प्रत्येक प्राणी कर्म करता है इसीलिए संसार को स्वार्थी संसार कहा जाता है | यह मनुष्य एवं अन्य जीवों का जीवन निर्वाह करने का स्वार्थ सिद्ध करना स्वभाविक तथा मर्यादित कार्य है जो संसार का संचालन अथवा कर्म है | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि स्वार्थ जब तक संतुलित है तब तक ही उचित है अन्यथा स्वार्थ की अधिकता होते ही जीवन में तथा समाज में अनेकों समस्याएँ उत्पन्न होने लगती हैं | अपितु संसार में जितनी भी समस्याएँ हैं सभी मनुष्य के स्वार्थ की अधिकता के कारण ही उत्पन्न हैं | मनुष्य में जब स्वार्थ की अधिकता उत्पन्न होनी आरम्भ होती है तो वह स्वार्थ पूर्ति के लिए अनुचित कार्यों को अंजाम देने लगता है जिससे उसके जीवन में भ्रष्टाचार का आरम्भ होता है | जिसके अधिक बढने से मनुष्य धीरे धीरे अपराध की ओर बढने लगता है | मनुष्य के स्वार्थ में लोभ का जितना अधिक मिश्रण होता है मनुष्य उतना ही अधिक भयंकर अपराध करने पर उतारू हो जाता है | यह स्थिति मनुष्य में विवेक की कमी अथवा विवेकहीनता होने पर अधिक भयंकर होती है , क्योंकि मनुष्य परिणाम की परवाह करना छोड़ देता है या परिणाम से बेखबर हो जाता है जो उसके विनाश का कारण बन जाता है।*
*मनुष्य में स्वार्थ की अधिकता का कारण मन की चंचलता है , जो मनुष्य को जगह जगह पर अपमानित कराती है।अत: सम्मानित जीवन जीना है तो स्वार्थ का संतुलन बनाकर रखना होगा।*
🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺
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सभी भगवत्प्रेमियों को *"शुभ संध्या वन्दन"*----🙏🏻🙏🏻🌹
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आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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