*सनातन
धर्म में तपस्या का बहुत बड़ा महत्व बताया गया है | किसी भी अभीष्ट को प्राप्त करने के लिए उसका लक्ष्य करके तपस्या करने का वर्णन पुराणों में जगह जगह पर प्राप्त होता है | तपस्या करके हमारे पूर्वजों ने मनचाहे वरदान प्राप्त किए हैं | तपस्या का वह महत्व है , तपस्या के बल पर ब्रह्माजी सृजन , विष्णु जी पालन एवं भगवान रूद्र संहार करते हैं | ऐसा भी कहा गया है कि तपस्या के बल पर शेषनाग जी ने इस धरती को धारण कर रखा है | जब तपस्या में इतनी शक्ति है तो यह जान लेना आवश्यक है कि आखिर तपस्या है ? और कैसे की जा सकती है ?? तप का असली अर्थ है त्याग | मनुष्य यदि अपनी सांसारिक आकांक्षाओं और अपने दुर्गुणों का त्याग कर दे, तो वह सच्चा तपस्वी है | सदाचार और सद्गुणों से मन निर्मल बन जाता है | जिसका मन और हृदय पवित्र हो जाता है, वह स्वतः ही भक्ति के मार्ग पर चल पड़ता है | उस पर भगवान कृपा करने को आतुर हो उठते हैं | इस प्रकार दुर्गुणों का त्याग करके एवं सद्गुणों को अपनाकर हमारे पूर्वजों ने भगवान की कृपा प्राप्त की है | किसी मनोहर, शांत, स्वच्छ वातावरण में एकाग्रचित विराजमान होकर तथा संसार के सभी कार्यों तथा समय व्यतीत होने की चिंता से मुक्त होकर बुद्धि द्वारा प्राप्त जानकारियों को एकत्रित करके विवेक द्वारा मंथन द्वारा
ज्ञान प्राप्त करने के प्रयास को तपस्या कहा जाता है | तपस्या पद्धति के द्वारा ही ज्ञान की प्राप्ति सरलता पूर्वक संभव हो पाती है परन्तु उसके लिए कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों का ध्यान रखना आवश्यक होता है | सर्व प्रथम तपस्या के लिए मन पर नियन्त्रण एवं एकाग्रता होना परम आवश्यक है क्योंकि मन की चंचलता तपस्या को प्रभावित करती है जिससे तपस्या में विघ्न उत्पन्न होता है | मन को कल्पनाओं तथा भावनाओं में बहने से रोकना अर्थात मन को भटकने से रोकने पर ही ध्यान लगाना संभव होता है जो तपस्या करने में सबसे अधिक आवश्यक कार्य होता है क्योंकि मन सदैव मनुष्य को पथ भ्रष्ट करता है | दूसरे किसी भी अभीष्ट को प्राप्त करने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति का होना बहुत आवश्यक है मन को एकाग्र करके इच्छाशक्ति से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ना ही तपस्या कहलाया है |* *आज भी अनेकों लोग अपना घर परिवार , समाज छोड़ कर के तपस्या करने का लक्ष्य लेकर के निकल पड़ते हैं | परंतु न तो वे अपने मन पर नियंत्रण कर पाते हैं और न ही अपनी इच्छा शक्ति को दृढ रख पाते हैं | आज अनेकों ऐसे उदाहरण देखने को मिल जाते हैं जहां दिखाने के लिए सब कुछ छोड़ कर के लोग संत तो बन जाते हैं परंतु सांसारिकता का त्याग नहीं कर पाते हैं ऐसे में उन्हें तपस्वी कहना कहां तक उचित है | गृहस्थ धर्म का पालन करने वाले प्रायः सभी लोग व्रत अनुष्ठान एवं चातुर्मास्य व्रत का पालन करके कल्पवास भी करते हैं परंतु उनका मन सांसारिकता से हट नहीं पाता है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" समाज में हो रहे कृत्यों को देख कर कह सकता हूं कि गंगा की रेत में कल्पवास करने वाले अनेक कल्पवासी संसार के देखने में तो तपस्या कर रहे होते हैं परंतु उनके मन में सांसारिक कामनाएं पूर्ववत् बनी रहती है | ऐसे में किसी तपस्या का फल कैसे मिल सकता है ?? मैं तो मानता हूं कि तपस्या करने के लिए ना तो घर छोड़ने की आवश्यकता है और ना ही कल्पवास करने की | अपने घर में रहकर के सांसारिक दुर्गुणों का त्याग करके मनुष्य तपस्या कर सकता है | और ऐसा अनेकों महापुरुषों ने किया भी है | सनातन धर्म में किसी के ऊपर कहीं भी बंधन नहीं लगाया गया है | आवश्यकता है सांसारिकता अर्थात संसार में व्याप्त दुर्गुणों का त्याग करने की | ऐसा करने वाला तपस्वी कहा जा सकता है |* *काम , क्रोध , मद , लोभ , मात्सर्य , ईर्ष्या , द्वेष , कपट , छल आदि का पूर्ण रूप से क्या कर देने वाला ही इस संसार में तपस्वी कहे जाने योग्य है |*