*सनातन धर्म में उपासना एवं साधना का विशेष महत्व है | जिस प्रकार यात्रा दो पैरों के सहारे करनी पड़ती है और गाड़ी दो पहियों के आधार पर लुढ़कती है उसी प्रकार आत्मिक प्रगति के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए उपासना एवं साधना नामक दोनों पैरों के सहारे ही चलना पड़ता है | जिस प्रकार एक किसान अपने खेत में बीज बोने के पहले उसमें पानी भर कर जुताई करके खेत का कूड़ा कचरा निकलता है , खाद डालता है तब उसमें बीज डालता है इससे अच्छी फसल की संभावना निश्चित हो जाती है | उसी प्रकार उपासना मनोभूमि में उगने वाला बीज है , उसके फलने फूलने की आशा तभी की जा सकती है जब मनोभूमि का उसी प्रकार परिष्कार किया जाय जिस प्रकार कृषक अपने खेतों का करता है | जितना महत्व उपासना का है उतना ही महत्व साधना का भी है | साधना क्या है ? जीवन को पवित्र और परिष्कृत , संतुष्ट और संतुलित , उत्कृष्ट और आदर्श बनाने के लिए अपने गुण , कर्म , स्वभाव को उच्चस्तरीय बनाने का निरंतर प्रयास करते रहना ही साधना है | उपासना - पूजा तो निर्धारित समय का क्रियाकलाप पूरा कर लेने के बाद समाप्त हो जाती है परंतु साधना चौबीस घंटे चलानी पड़ती है | साधना का अर्थ होता है साध लेना | अपने प्रत्येक विचार पर चौकीदार की तरह कड़ी नजर रखनी पड़ती है कि कहीं कुछ अनुचित , अनुपयुक्त तो नहीं हो रहा है ? जहां भूल दिखाई दे उसे तुरंत सुधारा जाय , जहां विकार पाया जाय तुरंत उसकी चिकित्सा की जाय , जहां पर अधर्म देखा जाए वहां लड़ने के लिए तैयार हो जाया जाय , यही साधना है | जिस प्रकार सीमा रक्षक प्रहरियों को हर घड़ी शत्रु की चालों एवं घातों का पता लगाने के लिए लैस रहना पड़ता है वैसे ही जीवन संग्राम के हर मोर्चे पर हमें सतर्क और तत्पर रहने की आवश्यकता पड़ती है , और यही तत्परता साधना कही गई है |*
*आज के आधुनिक युग में साधना एवं उपासना का अर्थ ही बदल कर रह गया है | आज अनेकों मठाधीश इस प्रकार समाज में मिल जाते हैं जो किसी भी स्थान के महंथ , धर्मोपदेशक या समाज के धार्मिक गुरु तो कहे जाते हैं परंतु उनको साधना एवं उपासना का अर्थ ही नहीं मालूम होता है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" आज समाज की स्थिति देख रहा हूं जहां पर लोग साधना करने को बैठते तो हैं परंतु उनका मन संसारी विषयों में लिप्त रहता है | कोई भी उपासना / पूजन करते समय या साधना करते समय वह बीच-बीच में संसार की बातें भी किया करते हैं इसे कौन सी साधना कहा जाय ? यह विषय विचारणीय है | जहां साधना का अर्थ अपने मन को साधने से है वही साधना करते समय यदि मन चलायमान हो जाए तो साधना करने का क्या अर्थ रह गया है | हृदय में काम , क्रोध , मद , लोभ , ईर्ष्या एवं अहंकार भरकर के मनुष्य साधना करने का ढोंग करता है , शायद इसीलिए आज साधक को साधना का उपयुक्त फल नहीं मिल पा रहा है | किसी भी क्रिया को करने के पहले जिस प्रकार उसकी जानकारी होना परम आवश्यक होता है उसी प्रकार उपासना एवं साधना करने के पहले उसके तथ्यों पर विचार अवश्य करना चाहिए | जीवन साधना का प्रथम सोपान है स्वयं को कुमार्ग की तरफ जाने से बचाना , क्योंकि जब तक ऐसा नहीं होगा मनुष्य भावविहीन ही रहेगा , और भावविहीन साधना से शरीर की स्वच्छता एवं एकाग्रता भले ही कुछ सीमा तक बढ़ सकती है परंतु आत्मिक प्रगति का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता |*
*किसी भी साधना को करने के पहले मनुष्य को अपने कर्म एवं स्वभाव में सद्गुणों का समुचित समावेश करके अपने मन को साधना पड़ता है | इस प्रकार अपने व्यक्तित्व को परिष्कृत करके ही मनुष्य आत्मिक प्रगति के मार्ग पर बढ़ सकता है |*