*इस संसार में मनुष्य अनेकों प्रकार के कर्म करके अपने कर्मों के अनुसार फल प्राप्त करता रहता है | मनुष्य जाने अनजाने में कृत्य - कुकृत्य किया करता है | कभी-कभी तो अपराधी अपराध करने के बाद भी दंड नहीं पाता तो उसको यह नहीं सोचना चाहिए कि वह पूर्णतया दण्ड से मुक्त हो गया है क्योंकि एक दिन सबको ही यह संसार छोड़कर के भगवान के यहां जाना होता है और वहां न्याय की तराजू पर उसे तोला ही जाएगा | वहां कोई चतुरता काम नहीं आती है और कुकर्म को कराहते हुए अपने कुकृतियों का फल भोगना ही पड़ता है | हमारे पुराण बताते हैं कि हमारे सभी कर्मों का लेखा जोखा रखने की जिम्मेदारी चित्रगुप्त जी की है परंतु यह भी सत्य है कि मनुष्य के के कृत्यों का लेखा-जोखा मनुष्य का अचेतन मस्तिष्क भी करता रहता है | वहां ऐसी स्वयं संचालित प्रक्रिया स्थापित है जो उन कृत्यों के आधार पर दु:ख / दंड की व्यवस्था यथावत बनाती रहती है | यह दंड मनुष्य को मानसिक रोगों के रूप में , शारीरिक रोगों के रूप में , स्वभाव की विकृति के कारण स्वजनों से मनोमालिन्य के रूप में मिलता रहता है | मनुष्य अपने कर्मों का दंड भोग रहा है यह बाहर के लोग जान पायें चाहे ना जाने पाये परंतु मनुष्य का अशांत एवं बेचैन मन स्वयं के कृत्यों का स्मरण अवश्य करता है , और मन ही मन विचार भी करता है कि हमने जो कर्म किए हैं शायद उसी के फल के रूप में हमको यह मानसिक अशांति या शारीरिक रोग प्राप्त हुआ है | मनुष्य को अपने किए हुए कर्मों का स्मरण हो जाने पर रात - रात भर नींद नहीं आती है और यह मानसिक कष्ट किसी कारागार में मिलने वाले शारीरिक कष्ट से कहीं अधिक होता है | इतना सब होने के बाद भी मनुष्य अपनी आपराधिक प्रवृत्तियों पर रोक नहीं लगा पाता है इसका कारण होता है मनुष्य का कलुषित अंतः करण | कलुषित अंतः करण होने पर सिर्फ कुकृत्य ही नहीं होते हैं बल्कि मनुष्य किसी भी विषय को छिपाने का , किसी को भी ठगने का , झूठ बोलने व छल करने का प्रयत्न भी करता रहता है , और ऐसा करने वाला कलुषित अंतःकरण स्वयं दंड भी भोगता है | अपने किए हुए कर्मों के कर्म फल से न तो कोई बचा है और न ही बच पाएगा |*
*आज चारों ओर जिस प्रकार त्राहि-त्राहि मची हुई है उसका कारण कोई अन्य जीव ना हो करके स्वयं मनुष्य एवं उसके द्वारा किए जा रहे कृत्य ही हैं | आज छल , कपट , ठगी एवं अन्य नकारात्मक कृत्यों के वशीभूत होकरके मनुष्य ही मनुष्य के लिए घातक बन रहा है | ऐसा करते हुए मनुष्य भूल जाता है कि हमें संसार में भले ही इसका दंड नहीं मिल रहा है परंतु ईश्वर के न्याय से नहीं बचा जा सकता है | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि आज जिस प्रकार मनुष्य एक दूसरे से झूठ , छल , कपट एवं धोखा देने का व्यवहार कर रहा है उसके कर्मफल से वह कदापि नहीं बच सकता है ! क्योंकि दूसरों को धोखा देना तो बहुत सरल है पर अपने आप को धोखा कैसे दिया जा सकता है ? अपने हृदय को तो वास्तविकता पता होती है कि हम क्या कर रहे हैं , और एक समय ऐसा आता है जब मनुष्य अपने द्वारा किए गए नकारात्मक कार्यों के लिए अपने हृदय में पछताता है | मनुष्य सब कुछ करते हुए भी अपने अचेतन मन की वस्तुस्थिति से अवगत रहता है और इस दुराव , छल , पाखंड , प्रपंच की प्रक्रिया से स्वयं प्रभावित होता रहता है | छल , कपट के साथ किए गए कुकृत्य दूसरों के लिए कष्टदाई तो होते ही हैं साथ ही अपने अंतःकरण को भी प्रभावित करते हैं और ऐसे कृत्यों की प्रतिक्रिया हुए बिना नहीं रहती है , इस सच्चाई को मानना ही पड़ेगा |*
*प्रत्येक कर्म - कुकर्म अपने निर्धारित विधान के अनुसार कर्ता को दंड दिए बिना नहीं छोड़ता वह सब किस क्रिया - प्रक्रिया के द्वारा संपन्न होता है इसका निर्धारण मनुष्य के कर्म ही करते हैं , अतः प्रत्येक मनुष्य को कोई भी कृत्य करने के पहले विचार अवश्य कर लेना चाहिए |*