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*‼️ भगवत्कृपा हि केवलम् ‼️*
🚩 *सनातन परिवार* 🚩
*की प्रस्तुति*
🌼 *वैराग्य शतकम्* 🌼
🌹 *भाग - पच्चीसवाँ* 🌹
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*गंगातीरे हिमगिरिशिलाबद्धपद्मासनस्य*
*ब्रह्मध्यानाभ्यसनविधिना योगनिद्रां गतस्य !*
*किं तैर्भाव्यम् मम सुदिवसैर्यत्र ते निर्विशंकाः*
*सम्प्राप्स्यन्ते जरठहरिणाः श्रृगकण्डूविनोदम् !! ४१ !!*
*अर्थात्:-* अहा ! वे सुख के दिन कब आएंगे, जब हम गंगा किनारे, हिमालय की शालिओं पर, पद्मासन लगाकर, विधान-अनुसार आँख मूंदकर, ब्रह्म का ध्यान करते हुए, योग निद्रा में मग्न होंगे और बूढ़े बूढ़े हिरन निर्भय हो, हमारे शरीर की रगड़ से, अपने शरीर की खुजली मिटाते होंगे ?
*जिन पुरुषों को यह सुख प्राप्त है, वही सच्चे सुखिया हैं - उन्ही का जीवन धन्य है !*
प्रेमी के प्रेम में तन्मय हो जाने में ही मजा है | जब पूरी तरह से ध्यान लग जाता है, तब शरीर पर पक्षी बैठे या जानवर, खुजली मिटावे या चाहे जो करे, कोई खबर नहीं रहती | *ऐसे ध्यानियों को ही सिद्धि मिलती है |*
*प्रेम के विषय में कबीर जी कहते हैं -*
*प्रेम-प्रेम सब कोई कहै, प्रेम न चीन्हे कोए !*
*आठ पहर भीना रहे, प्रेम कहावे सोये !!*
*लौ लागी जब जानिये, छूटि न कबहुँ जाए !*
*जीवन लौ लागी रहे, मूआ माहिं समाये !!*
*अर्थात्:-* प्रेम-प्रेम सब कहते हैं, पर प्रेम को कोई नहीं जानता | *जिसमें आठ पहर डूबा रहे वही प्रेम है |* लौ लगी तभी समझो, जबकि लौ छूट न जाए | *ज़िन्दगी भर लौ लगी रहे और मरने पर प्यार में समा जाये |*
*अपना भाव :-*
चित्त का स्वभाव है, कि वह अगली-पिछली बातों को याद करता है | इन्द्रियों का स्वभाव है, कि वे अपने अपने विषयों की ओर झुकती हैं | कान आवाज़ सुनना चाहता है | नेत्र नयी वस्तु देखना चाहते हैं; *पर इस तरह ईश्वर-उपासना करने से कोई लाभ नहीं |* वृथा अमूल्य समय नष्ट करना है | ईश्वर-उपासना करने वाले को, सबसे पहले अपने चित्त और इन्द्रियों को, उनके कामों से हटा कर अपने अधीन कर लेना चाहिए | बिना चित्त के एक तरफ हुए और बिना इन्द्रियों को उनके काम से रोके - ध्यान नहीं लग सकता |
*ध्यान करनेवाला न शरीर को हिलावे और न किसी तरफ देखे |* अगर किसी तरफ भयानक शब्द हो या कोई जीव काटे, तो भी ध्यानी का ध्यान न टूटना चाहिए | *आजकल अधिकाँश कर्मकाण्डी गोमुखी में हाथ चलाते जाते हैं और मन में अनेक गढ़न्त गढ़ते जाते हैं | कोई कुछ कहता है, तो उसकी भी सुन लेते हैं | ऐसी ईश्वरोपासना से क्या लाभ ?*
*प्रेम कैसा होना चाहिए इस विषय पर एक दृष्टांत प्रस्तुत है:--*
*एक गोपी का कृष्ण में आदर्श प्रेम*
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एक बार एक गोपी यशोदा के घर दीपक जलाने आई | वहां *कृष्ण* खेल रहे थे । वह *कृष्ण* के प्रेम में ऐसी पगी कि उसने बत्ती के बजाय अपनी ऊँगली दीपक पर लगा दी | यहाँ तक कि उसकी सारी ऊँगली जल गयी, पर उसे खबर न हुई; किसी दुसरे ने उसे चेत कराया तो उसे चेत हुआ |
*सत्य तो यही है कि* दिखावे के प्रेम से कोई लाभ नहीं , प्रेम हो तो ऐसा हो कि अष्ट पहर चौंसठ घडी अपने प्रेमी का ही ध्यान रहे और उसमें मनुष्य ऐसा डूबा रहे कि तनबदन की भी सुध न रहे | *वैसे प्रेम से ही जगदीश मिलते हैं |*
*इसीलिए भाव दिया है कि :-*
*ब्रह्मध्यान धर गंगतट, बैठूँगो तज संग !*
*कबधौं वह दिन होयगो, हिरन खुजावत अंग !!*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" पञ्चविंश भाग: !!*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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