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*‼️ भगवत्कृपा हि केवलम् ‼️*
🚩 *सनातन परिवार* 🚩
*की प्रस्तुति*
🌼 *वैराग्य शतकम्* 🌼
🌹 *भाग - छब्बीसवाँ* 🌹
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*स्फुरत्स्फारज्योत्स्नाधवलिततले क्वापि पुलिने*
*सुखासीनाः शान्तध्वनिषु द्युसरितः !!*
*भवाभोगोद्विग्नाः शिवशिवशिवेत्यार्तवचसः*
*कदा स्यामानन्दोद्गमबहुलबाष्पाकुलदृशः !! ४२ !!*
*अर्थात्:-* वह समय कब आवेगा, जब हम पवित्र गंगा के ऐसे स्थान पर जो चन्द्रमा की चांदनी से चमक रहा होगा , सुख से बैठे होंगे और रात के समय, जब सब तरह का शोरगुल बन्द होगा, आनन्दाश्रुपूर्ण नेत्रों से, संसार के विषय दुखों से थक कर, सर्वशक्तिमान शिव की रटना लगा रहे होंगे ?
*अपना भाव:-*
इस संसार में आने के बाद मनुष्य जब कुछ विवेकवान हो जाता है और अपने आस - पास जन्म एवं मृत्यु का रहस्य जानने लगता है अपने बड़ों व गुरुजनों से संसार की नश्वरता के विषय में भी जानने लगता है | माया एवं मायामय संसार के विषय में सुनकर भी मनुष्य इस संसार से विरक्त नहीं हो पाता क्योंकि वह अपनों के मोहजाल में फंसा होता है | परंतु इसी मायामय संसार में धन्य हैं वे लोग जिन्हे संसारी झूठे विषय-सुखों से घृणा हो गयी है, जो यहाँ के जंजालों से थक गए हैं जिन्होंने मोह जाल तोड़कर गङ्गा के पवित्र किनारे पर वास कर लिया है और निस्तब्ध चांदनी रात में, गदगद होकर, शिव शिव रटते हैं | *और लोग जो संसार के मोहपाश में फंसे हुए हैं, अपना जीवन वृथा खोते हैं !*
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*महादेवो देवः सरिदपि च सैषा सुरसरिद्गुहा*
*एवागारं वसनमपि ता एव हरितः !*
*सुहृदा कालोऽयं व्रतमिदमदैन्यव्रतमिदं*
*कियद्वा वक्ष्यामो वटविटप एवास्तु दयिता !! ४३ !!*
*अर्थात्:-* महादेव ही एक हमारा देव हो, जाह्नवी ही हमारी नदी हो, एक गुफा ही हमारा घर हो, दिशा ही हमारे वस्त्र हों, समय ही हमारा मित्र हो, किसी के सामने दीन न होना ही हमारा मित्र हो, अधिक क्यों कहें, वटवृक्ष ही हमारी अर्धांगिनी हो |
*उपरोक्त श्लोकानुसार अपना भाव:--*
जो हज़ारों लाखों देवताओं को छोड़कर एक परमात्मा को ही अपना देव समझता है, रात-दिन उसी के ध्यान में मग्न रहता है; जो गंगा तट पर बस्ता है; गंगा में स्नान करता है; गंगा जल ही पीता है; जो कपड़ों की भी जरुरत नहीं रखता; दिशों को ही अपने वस्त्र समझता है; काल को ही अपना मित्र मानता है; किसी के सामने दीनता नहीं करता, किसी से कुछ नहीं मांगता; वटवृक्ष के आश्रय में रहकर भगवान् का भजन करता और वटवृक्ष को ही अपने दुःख-सुख की संगिनी प्राणवल्लभा समझता है, *वही पुरुष धन्य है |*;उसका ही जगत में आना सफल है | परमात्मा की दया या पूर्वजन्म के पुण्यों से ही ऐसी बुद्धि होती है | *ऐसी बुद्धि के प्रभाव से ही वह दुखों से छूटकर नित्यानन्द में मग्न रहता है |*
*किसी ने कहा भी है:--*
*देव, ईश, सुरसरि सरित, दिशा वसन गिरी गेह !*
*सुहृत्काल वट कामिनी, व्रत अदैन्य सुख एह !!*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" षड्विंशोभाग: !!*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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