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*‼️ भगवत्कृपा हि केवलम् ‼️*
🚩 *सनातन परिवार* 🚩
*की प्रस्तुति*
🌼 *वैराग्य शतकम्* 🌼
🌹 *विश्राम - भाग* 🌹
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*गताँक से आगे :---*
*आघ्रातं मरणेन जन्म जरया विद्युच्चलं यौवनं*
*सन्तोषो धनलिप्सया शमसुखं प्रौढाङ्गनाविभ्रमैः !*
*लोकैर्मत्सरिभिर्गुणा वनभुवो व्यालैर्नृपा दुर्जनैः*
*अस्थैर्येण विभूतिरप्यपहृता ग्रस्तं न किं केन वा !! १०० !!*
*अर्थात्:-* मृत्यु ने जन्म को ग्रस रक्खा है, बुढ़ापे ने बिजली के समान चञ्चल युवावस्था को ग्रस रक्खा है, धन की इच्छा ने सन्तोष को ग्रस रक्खा है, जलनेवालों ने गुणों को ग्रस रक्खा है, सर्प और जंगली जानवरों ने वन को ग्रस रक्खा है, दुष्टों ने राजाओं को ग्रस रक्खा है, अस्थिरता या चञ्चलता ने धनैश्वर्य को ग्रस रक्खा है; तब ऐसी कौन सी चीज़ है, जो किसी दूसरी नाशक चीज़ के चंगुल में नहीं है ?
*अपना भाव:--*
*इस संसार में निर्भय कोई नहीं है* जन्म को मृत्यु का भय है, जवानी को बुढ़ापे का भय है, सन्तोष को लोभ का भय है, शान्ति को स्त्रियों के हावभाव और विलासों का भय है, गुणों को उनसे जलने या कुढ़नेवालों का भय है, वन में सर्प और हिंसक पशुओं का भय है, राजाओं में दुष्ट दरबारियों का भय है, धन और ऐश्वर्य में क्षणभंगुरता का भय है | *संसार में ऐसी कोई अच्छी वास्तु नहीं है, जिसे किसी का भय न हो | संसार और संसार के सभी पदार्थ नाशमान हैं | ऐसी कोई चीज़ नहीं है, जिसका काल नाश नहीं कर देता अथवा जिसे किसी तरह का भय नहीं है |* संसार की यह दशा है, तब भी तो मनुष्य चेत नहीं करता, यही तो आश्चर्य की बात है | *अज्ञानी मनुष्य, मोहवश, अपना हानि-लाभ नहीं देखता; संसार की झूठी माया में फंसा रहता है ।|*
*तुलसीदास जी ने ठीक ही कहा है -*
*करत चातुरी मोहवश, लखत न निज हित हान !*
*शूक मर्कट इव गहत हठ, तुलसी परम सुजान !!*
*दुखिया सकल प्रकार शठ, समुझि परत तोई नाहिं !*
*लखत न कण्टक मीन जिमि, अशन भखत भ्रम नाहिं !!*
*अर्थात्:-* विषयों के संसर्ग से मनुष्य के मन में कामना - इच्छा पैदा होती है | जब इच्छा पूरी नहीं होती, तब क्रोध होता है और क्रोध से मोह की उत्पत्ति होती है | मोह होने से प्राणी को अपना हित या परलोक की हानि नहीं दीखती | राग-द्वेष प्रभृति के कारण उसमें ज्ञानदृष्टी नहीं रहती; पर पढ़ने-लिखने के कारण वह अपने तई परम चतुर समझता है और जिस तरह हठ करके तोता बहेलिये के फन्दे में आप ही फंस जाता है और पिंजरे में कैद हो जाता है तथा बन्दर छोटे मुंह की ठिलिया में रोटी के लिए हाथ डालकर बंदरवाले के कब्जे में हो जाता है; उसी तरह विषयी पुरुष, विषयों के लालच में आकर, अपने तई संसार-बन्धन में फंसा लेता है |
*अपना भाव:--*
मनुष्य भूख, प्यास, रोग, शोक, दरिद्रता, प्रिय-वियोग, बुढ़ापा, जन्म-मरण, चौरासी लाख योनियों में दुःख-भोग तथा नरक प्रभृति से हर तरह दुखी है, उसे ज़रा भी सुख नहीं है, पर वह मोह के मारे ऐसा अन्धा हो रहा है कि उसे कांटे में लगे चारे के लिए फंसने वाली मछली कि तरह कुछ भी नहीं सूझता | जिस तरह मछली को रोटी का टुकड़ा प्यारा है; उसी तरह मनुष्य को विषय-भोग प्यारा है | जिस तरह मछली को काँटा है, उसी तरह मनुष्य को ममता का काँटा है । *अथात्:- अज्ञानी मनुष्य विषय रुपी चारे के लोभ से ममता के कांटे में फंसकर अपना नाश कराता है; पर आश्चर्य यह कि वह दुःख को दुःख नहीं समझता; तरह-तरह के भयों से घिरा हुआ नाना प्रकार के संकट झेलता है; मछली, तोते और बन्दर की तरह बन्धन में फंसता है, पर निकलना नहीं चाहता |* इन दुःखों का उसे तनिक भी ध्यान नहीं आता | *नित्य लोगों को मरते हुए देखता है, नित्य बूढ़ों को असह्य कष्ट उठाते देखता है; पर आप नहीं समझता कि मेरी भी यही गति होनेवाली है |* उल्टा हर साल जन्मतिथि को वर्षगाँठ का उत्सव करता है | मित्रों और रिश्तेदारों को निमंत्रण देता है , गाना बजाना और नाच रंग कराता है | कैसी बात है, *जहाँ दुख करना चाहिए, वहां नादान मनुष्य ख़ुशी मनाता है , उसे समझना चाहिए कि हर सालगिरह को उसकी उम्र का एक साल कम होता है |*
*महात्मा सुन्दरदास जी ने क्या खूब कहा है -*
*जबतें जनम लेत, तबही तें आयु घटे !*
*माई तो कहत, मेरो बड़ो होत जात है !!*
*आज और काल और दिन-दिन होत और*
*दौरयो दौरयो फिरत, खेलत और खात है !!*
*बालपन बीत्यो, जब यौवन लाग्यो है*
*यौवनहु बीते बूढ़ो डोकरो दिखात है !*
*"सुन्दर" कहत, ऐसे देखत ही बूझिगयो*
*तेल घटी गए, जैसे दीपक बुझात है !!*
*अर्थात्:-* प्राणी जब से जन्म लेता है, तभी से उसकी उम्र घटने लगती है , माँ समझती है कि मेरा लाल बड़ा होता जाता है ! दिन-दिन उसके रंग बदलते हैं , बचपन में खाता खेलता और भागा फिरता है ! बचपन के बीतते ही जवानी आ जाती है और जवानी के बीतते ही बुढ़ापा आ जाता है और वह बूढा डोकरा सा दिखने लगता है ! *सुन्दरदास कहते हैं* कि देखते-देखते जिस तरह तेल घट जाने से चिराग बुझ जाता है; उसी तरह वह बुझ जाता है; यानी मर जाता है |
*सारांश:--*
*ग्रस्यो जन्म को मृत्यु, जरा यौवन को ग्रास्यौ !*
*ग्रसिवे को सन्तोष, लोभ यह प्रगट प्रकास्यो !!*
*तैसहि समदृष्टि ग्रसित, बनिता बिलास वर !*
*मत्सर गुण ग्रसिलेत, ग्रसत वन को भुजङ्गवर !*
*नृप ग्रसित किये इन दुर्जनन, कियौ चपलता धन ग्रसित !*
*कछुहु न देख्यौ बिन ग्रसित जग, याही तें चित अति त्रसित !!*
*इस प्रकार आज राजा भर्तृहरि द्वारा विरचित "वैराग्य शतकम्" पूर्ण हुआ ! इन ६३ भागों में मेरे द्वारा लिखे गये भावों में यदि कहीं त्रुटि रह गयी हो तो विद्वत समाज बालक समझ कर क्षमा प्रदान करेंगे !* 🙏🙏
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" त्रिषष्टितमो भाग: !!*
*शेष अगले भाग में:--*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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