*मानव जीवन में सत्संग का होना परम आवश्यक है क्योंकि सत्संग ही मानव जीवन का दायित्व है | सत्संग से साधन की अभिव्यक्ति होती है और तभी साधन और जीवन की एकता होती है | जीवन में साधन और असाधन की द्वन्दात्मक स्थिति रहती है और जब तक यह द्वंदात्मक स्थित रहती है तब तक मनुष्य को "मैं" की अनुभूति होती रहती है | सत के साम्राज्य में श्रेणी भेद नहीं होता | सभी मान्यताएं निकाल देने पर योग , विश्राम और अनंत प्रेम स्त: अभिव्यक्त हो जाता है | सत्संग से योग , बोध , प्रेम की प्राप्ति होती है | सत्संग का अर्थ है जाने हुए असत् का त्याग और सत की स्वीकृति | सत्य क्या है ? सत्य यह है कि इस संसार में अपना कुछ नहीं है सब कुछ हमें ईश्वर के द्वारा दिया गया है ! दूसरों के द्वारा दिए गए साम्राज्य को अपना मानना मनुष्य की मूर्खता है | सत्संग करने के बाद मनुष्य का मन निर्मल हो जाता है और दोष मुक्त होकर विशुद्ध भाव से मनुष्य सत्संग में अपनी ओर से देने और औरों से लेने का प्रयास करता है | सत्संग कोई साधक ही कर सकता है और साधक वही कहा जा सकता है जो दूसरों के दोषों को न देख कर के उनसे गुण ग्रहण करने का प्रयास करें | सत्संग करने के बाद भी यदि मनुष्य में छिद्रान्वेषण (दूसरों की कमी निकालना ) करने की प्रवृत्ति बनी रह गई तो समझ लो उसने जीवन में सत्संग किया ही नहीं | जिस पर भगवान की कृपा होती है वही सत्संग में जा पाता है और सत्संग के जाने के बाद भी यदि मनुष्य में अपने ज्ञान का , अपने पद का , अपने नाम का किंचित भी अहंकार रह गया तो यह मान लिया जाए कि भगवान की कृपा पाने के बाद भी , सत्संग में आने के बाद ही वह सत्संग से विरक्त ही है क्योंकि ऐसे मनुष्य सत्संग करने नहीं बल्कि अपने वक्तव्यों पर अपनी प्रशंसा सुनकर के दूसरों में दोष देखते हुए आत्मानुशंसा में लगे रहते हैं तो विचार कीजिए यह किस प्रकार का सत्संग कर रहे हैं |*
*आज अनेकों प्रकार की सत्संग सभायें आयोजित की जाती हैं , नित्य प्रति सत्संग किया भी जा रहा है परंतु आज के सत्संग मनुष्य की मानसिकता के अनुसार ही दिखाई पड़ रहे हैं | आज मनुष्य नित्य सत्संग करने के बाद भी दूसरों के दोषों को ही देखता है ! स्वयं में अहंकार की भावना रखते हुए अपने वक्तव्य को श्रेष्ठ एवं अन्य के वक्तव्यों में कमी निकालना आज के विद्वानों का स्वभाव बन गया है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" देख रहा हूं कि अनेकों सत्संगी तो ऐसे हैं जो सत्संग के माध्यम से अपनी प्रशंसा सुनने की लिए ही सत्संग में उपस्थित होते हैं | यदि सत्संग किया जा रहा है तो सत्संग के भाव को समझना बहुत आवश्यक है | सत्संग से प्रेम की उत्पत्ति होती है और प्रेम सदैव देना जानता है लेने की प्रवृत्ति प्रेम की नहीं होती है | सत्संग का अर्थ होता है किसी भी वस्तु को , किसी भी वक्तव्य को अपने लिए नहीं मानना परंतु आज यह भाव देखने को नहीं मिल रहा है | अपने साथ में सत्संगियों का संग करने से अहंकार रहित होने के लिए आज सत्संग करने की आवश्यकता है | इसके लिए सर्वप्रथम मनुष्य को स्वयं को सही करना होगा दूसरों में दोष ना देख करके उनकी अच्छाइयों को खोजना होगा अन्यथा सत्संग करने से कुछ भी नहीं प्राप्त होने वाला है |*
*सत्संग करने वाला साधक होता है और साधक कभी भी अहंकार के वशीभूत नहीं होता ना ही दूसरों के दोषों को देखता है क्योंकि साधक यह मानता है कि सारे दोष मुझ में ही हैं | जिस दिन मनुष्य इस भाव को अपना लेगा उसी दिन उसका सत्संग करना सार्थक हो जाएगा |*