*सनातन धर्म एक विशाल वृक्ष है जिसकी कई शाखायें हैं | विश्व के जितने भी धर्म या सनातन के जितने भी सम्प्रदाय हैं सबका मूल सनातन ही है | सृष्टि के प्रारम्भ में जब वेदों का प्राकट्य हुआ तो "एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति" की भावना के अन्तर्गत एक ही ईश्वर एवं एक ही धर्म था जिसे वैदिक धर्म कहा जाता था | धीरे - धीरे वैदिक विधानों का विस्तार हुआ एवं एक ईश्वर से अनेकों ईश्वर विशेषकर पंचदेवों (गणेश , विष्णु , शिव , दु्र्गा एवं सूर्य) का पूजन सनातन के अनुयायियों के लिए अनिवार्य हो गया | तब सनातन में भी अन्कों सम्प्रदाय (शैव , वैष्णव , शाक्त , गाणपत्य एवं सौर्य ) हो गये | एक समय ऐसा भी आया जब आदि शंकराचार्य जी ने भारत के सनातनियों को आपस में लड़ते देखा तो उनको एक करना प्रारम्भ किया और वैष्णवों में भी एक नया सम्प्रदाय बनाया जिसे "स्मार्त्त" का नाम दिया | आदि शंकराचार्य जी ने वैष्णव एवं स्मार्त्त की व्याख्या करते हुए समझाने का प्रयास भी किया कि जो लोग वेदों को मानते हुए तथा किसी वैष्णव सम्प्रदाय के गुरु से विधिवत दीक्षा लेकर कंठी माला ग्रहण करते हैं या तप्त मुद्रा से शंख - चक्र का निशान गुदवाते हैं तथा सात्त्विक भोजन लेते हैं वे ही वैष्णव कहे जाने के योग्य हैं | शंकर ने स्पष्ट किया है कि गृहस्थ धर्म का पालन करने वाले वैष्णव नहीं बल्कि स्मार्त्त ही माने जायेंगे | श्रुति एवं स्मृति यही दो माध्यम हैं अपने धर्म का पालन करने का | श्रुति अर्थात सुना हुआ ( वेद ) स्मृति अर्थात याद किया हुआ जिसके अन्तर्गत सूत्र, आगम, तंत्र और स्मृतियां हैं जो वेदों के तत्व ज्ञान और नियमों की परंपरा से व्याख्या करते हैं | ये सभी स्मृति ग्रंथ कहे गये हैं | स्मृतियों को धर्मशास्त्र भी कहा जाता है | इन स्मृतियों को मानने वाले एवं पंचदेवों का पूजन करने वाले ही "स्मार्त" कहे गये हैं | अपने ईष्ट (विष्णु ) को छोड़कर अन्य किसी भी देवी - देवता को न मानने वाले ही परम वैष्णव कहे जा सकते हैं | गृहस्थ - धर्म का पालन करने वाले वैष्णव कहे तो जाते हैं परंतु वे स्मार्त्त की ही श्रेणी में आते हैं | ये अनेकों सम्प्रदाय होने के बाद भी सबका मूल भगवान विष्णु ही हैं | कहा गया है कि :-- "आकाशात्पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम् ! सर्वदेव नमस्कार: केशवं प्रति गच्छति !! अर्थात :- जिस प्रकार आकाश से गिरा हुआ जल अनेक माध्यमों से सागर में ही पहुँचता है उसी प्रकार किसी भी देवी - देवता का पूजन और किया हुआ प्रणाम भगवान विष्णु को ही प्राप्त होता है | यह समझने की आवश्यकता है |*
*आज प्राय: विद्वानों में वैष्णव एवं स्मार्त्त के विषय पर चर्चा होती रहती है कभी कभी तो यह चर्चा विवादित बहस भी बनते देखी जा रही है | स्वयं को वैष्णव बताते हुए विद्वतमण्डली उसके अनेकों उदाहरण भी प्रस्तुत करती है जबकि सत्यता यह है कि वे स्वयं वैष्णव का अर्थ नहीं जानते हैं | एक सत्यनिष्ठ वैष्णव अपने ईष्ट के अतिरिक्त किसी भी अन्य को नहीं मानता चाहे वह उनके ईष्ट का ही अन्य स्वरूप क्यों न हो | तुलसीदास जी वृन्दावन में भगवान कन्हैया को तब तक मस्तक नहीं झुकाते हैं जब तक उनके हाथ में मुरली की जगह धनुष बाण नहीं आ गया | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" मात्र इतना ही कहना चाहूँगा कि वैष्णव तो सभी हैं परंतु अपनी - अपनी श्रेणी अलग है | जिस प्रकार किसी रेलगाड़ी में यात्री एक ही स्थान पर जाने वाले होते हैं परंतु सबके डिब्बों की श्रेणियां भिन्न होती हैं उसी प्रकार सनातन धर्म एक रेलगाड़ी है | आज स्वयं को वैष्णव कहने वाले कितने लोग हैं जो भगवान विष्णु के अतिरिक्त किसी अन्य देवी - देवता को नहीं मानते हैं ?? तामसिक भोजन (लहसुन - प्याज) न करने वाला ही वैष्णव हो सकता है ! आज गृहस्थी में रहकर इनका त्याग करने वाले कितने लोग हैं ?? काम क्रोधादि षडरिपुओं पर विजय प्राप्त करके ब्रह्म , मुक्ति , भोग , योग एवं संसार को विधिवत जान लेने वाला ही वैष्णव है | महाभारत के अनुसार चार वेद एवं सांख्यशास्त्र (पांचरात्र) का ज्ञान रखने वाले ही वैष्णव की श्रेणी में आते हैं शेष सभी स्मार्त्त ही हैं | यह ज्ञान रखने वाले आज कितने लोग हैं ?? कहने का तात्पर्य यह है कि आज लगभग सभी लोग "स्मार्त्त" की ही श्रेणी में रखे जाने के योग्य हैं | स्वयं को स्मार्त्त की श्रेणी में रखना कोई अपमान की बात नहीं है | भविष्य के एक वैष्णव का जन्म स्मार्त्त (ग्राहस्थ्य) में ही होता है , अत: इस विषय पर कभी भी बहस नहीं करनी चाहिए |*
*हम चाहे वैष्णव हों या स्मार्त्त हमें अपने - अपने धर्म एवं कर्म का पालन करने में तत्पर रहना चाहिए | कर्म ही वह साधन है जिसके माध्यम से इस संसार में सफलता प्राप्त करके परलोक में भी सफल हुआ जा सकता है |*