*सनातन धर्म के अनुसार श्राद्ध का अर्थ है :- श्रद्धा पूर्वक अपने पितरों को प्रसन्न करना | "सर्वश्रद्धया दत्त श्राद्धम्" अर्थात जो कुछ श्रद्धा से किया जाय वह श्राद्ध कहलाता है | इसी श्राद्ध नामक वृत्ति को धारण करने के उद्देश्य से आश्विन कृष्णपक्ष श्राद्धपक्ष कहलाता है | इसमें परिजन अपने पितरों को अपनी श्रद्धांजलि तर्पण / पिण्डदान आदि के माध्यम से अर्पित करते हैं | जिसके भी परिजन अपने शरीर को छोड़कर चले गये हैं उनकी तृप्ति और उन्नति के लिए श्रद्धा के साथ जो शुभ संकल्प और तर्पण किया जाता है वही श्राद्ध है | ऐसी मान्यता है कि मृत्यु के देवता यमराज श्राद्ध पक्ष की अवधि में जीवों को मुक्त कर देते हैं ताकि वे स्वजनों के यहाँ जाकर तर्पण एवं उसके साथ किये गये कर्मकाण्ड के भावों को ग्रहण कर सकें | परिवार में तीन पीढ़ियों तक का श्राद्ध किया जाता है | श्राद्ध करने का दायित्व वैसे तो पुत्र को दिया गया है परंतु यदि पुत्र न हो या होकर भी मृत हो गया हो गया हो तो पौत्र , प्रपौत्र या विधवा पत्नी भी श्राद्ध कर सकती है | उसी प्रकार पुत्र के न होने पर मृतका पत्नी का श्राद्ध पति भी कर सकता है | हमारे देश के हर समाज में , हर वर्ग में पूर्वजों के नाम पर यज्ञ , तप , दान , स्वाध्याय आदि किया जाता रहा है | यहाँ भूखों को भोजन कराने , जरुरतमंदों की सहायता करने की प्रथा आदि से ही रही है | कालांतर में मताग्रही समाज में इतने प्रभावी हो गये कि श्राद्ध आदि कर्मकाण्ड अपने उद्देश्य से भटक से गये | किसी भी नीति / नियम को यदि मनुष्य बदलने लगता है तो उसके अनेक कारण होते हैं , यही कारण मनुष्य को दुराग्रही बना देते हैं | उसी प्रकार कुछ लोगों के दुराग्रह ने तो इन कर्मकाण्डों को मात्र धार्मिक कर्मकाण्ड एवं पाखण्ड तक घोषित कर किया , और धीरे धीरे श्राद्ध अपनी पहचान खोता चला जा रहा है |*
*आज के आधुनिक युग में श्राद्ध करने वाले समाज में कुछ ही बचे हैं | जहाँ पहले समाज के चारों वर्ण अपनी व्यवस्थाओं के अनुसार श्रद्धा से श्राद्ध करते थे वहीं आज इसका स्वरूप बदल सा गया है इसके कारण पर यदि विचार करते हुए इतिहास के पन्नों को झांका जाय तो सब कुछ स्पष्ट हो जाता है | पूर्वकाल के कुछ कतिपय लोगों ने कुछ स्वार्थपूर्ति के उद्देश्य से धार्मिक कृत्यों को आम जनमानस के ऊपर जबर्दस्ती थोपना प्रारम्भ कर दिया और किसी के भी द्वारा इन कृत्यों को न सम्पादित कर पाने के की स्थिति में उसे समाज में बहिष्कृत में करने का काम किया | जिससे कि लोगों को यह लगा कि समाज के अगुआ कहे जाने वाले लोग अपने स्वार्थपूर्ति के लिए ऐसा कर रहे हैं | जहाँ तक मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि कोई भी धार्मिक कृत्य न तो किसी के ऊपर जबर्दस्ती थोपना चाहिए और उसे उन कृत्यों को न कर पाने पर दण्डित एवं बहिष्कृत करना चाहिए | पूर्व में किया गया यही बहिष्कार समाज के टूटने एवं सनातन के प्रति विरोध का प्रमुख कारण कहा जा सकता है | धार्मिक कृत्य सदैव श्रद्धाभाव से सम्पन्न किया जाता है | आज अनेक लोग ऐसे हैं जो पितृपक्ष एवं श्राद्ध को न जानते हैं और न ही मानते हैं | क्योंकि वे इसे ब्राह्मणों के द्वारा स्वयं के खाने एवं दान लेने की विशेष प्रक्रिया मात्र समझते हैं | यदि ऐसी मानसिकता उनकी है तो इसके पीछे कहीं न कहीं पूर्व में किये गये सामाजिक बहिष्कार ही मुख्य रूप से मिलते हैं | ऐसे लोगों को विचार करना चाहिए कि श्राद्ध किसी ब्राह्मण या याचक के लिए नहीं वरन् अपने पूर्वजों के लिए करना है जिससे कि पूवर्ज तृप्त होकर आशीर्वाद प्रदान करके कुल की उन्नति का मार्ग प्रशस्त करते हैं | प्रत्येक व्यक्ति को अपने कुलाचार का पालन करते हुए उसी के अनुसार पितरों को तर्पण , श्राद्ध या फिर बने हुए भोजन को अग्नि के माध्यम से कव्य ( बसन्दर ) अवश्य प्रदान करना चाहिए |*
*"ब्राह्मणों ने अपने खाने - पीने के लिए श्राद्घ की व्यवस्था बनायी है" ऐसा कहने वाले विकृत मानसिकता के लोग ब्राह्मणों को भोजन बिल्कुल न करायें परंतु अपनी कुलरीति के अनुसार पितरों का श्राद्ध अवश्य करें |*