*इस संपूर्ण सृष्टि में आदिकाल से लेकर आज तक अनेकों विद्वान हुए हैं जिनकी विद्वता का लोहा संपूर्ण सृष्टि ने माना है | अपनी विद्वता से संपूर्ण विश्व का मार्गदर्शन करने वाले हमारे महापुरुष पूर्वजों ने आजकल की तरह पुस्तकीय ज्ञान तो नहीं प्राप्त किया था परंतु उनकी विद्वता उनके लेखों एवं साहित्य से प्रस्फुटित होती है | कबीरदास , सूरदास , तुलसीदास , मीराबाई आदि ने कितनी पुस्तकें पढ़ी थी ?? यह विचारणीय विषय है | परंतु उनके लिखे साहित्य एवं उनके गाए हुए पद आज भी अपनी अमिट छाप छोड़ते हैं | इन महापुरुषों ने पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा जगत में व्यावहारिक ज्ञान अधिक प्राप्त किया था | पुस्तकों का भंडार लगा लेने मात्र से यदि विद्वता आने लगती तो शायद उपरोक्त विद्वान कालजयी रचना न कर पाते | पुस्तकीय ज्ञान से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है अनुभव एवं समाज में ऊंच-नीच का ज्ञान होना | जिसके पास समाज का ज्ञान नहीं है , अपने आसपास के वातावरण का अनुभव नहीं है वह सैकड़ों किताबें पढ़ने के बाद विद्वान नहीं हो सकता | आदिकाल में जब मनुष्य इतना शिक्षित नहीं था तब ऐसे ऐसे ग्रंथ लिखे गए जिनका कोई जवाब ही नहीं , उन महापुरुषों को ज्ञान कहां से प्राप्त हुआ ? उनके ज्ञान का एक ही आधार था सद्गुरु से मिली शिक्षा एवं व्यावहारिक ज्ञान | समाज के परिवेश को देखते हुए अपने अनुभव के आधार पर मनुष्य जो कर सकता है वह शायद पुस्तकों को पढ़कर के कदापि नहीं कर सकता , क्योंकि पुस्तकों में विषयवद्ध सामग्री होती है और समाज में प्रतिपल नई घटनाएं घटा करती हैं जिसका अनुभव मनुष्य एकत्रित करता रहता है | जिसने सामाजिक परिवेश से परे हटकर पुस्तकें पढ़ने में ही सारा जीवन व्यतीत कर दिया उसको डिग्रियां भले मिल सकती हैं परंतु वह विद्वता कभी नहीं आ सकती जिसके कारण मनुष्य को विद्वान कहा जाता है |*
*आज के युग में प्राय: युवा व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करने की बजाय मोटी-मोटी पुस्तकें पढ़ते रहते हैं | यदि वे परम लक्ष्य की प्राप्ति करना चाहते हैं तो उन्हें विद्या के वास्तविक उद्देश्य को समझना होगा | शास्त्र या ग्रंथ लक्ष्य के निकट पहुंचने का मार्ग भर बताते हैं | एक बार यदि आप सही मार्ग जान लेते हैं, तो फिर शास्त्रों-ग्रंथों की जरूरत न के बराबर रह जाती है | तदुपरांत व्यावहारिक ज्ञान ही काम आता है | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का अनुभव है कि जिस प्रकार आम को खाए बिना रखे रहने से उसका स्वाद नहीं पता चलता है उसी प्रकार शिक्षा और ज्ञान का व्यवहार किए बिना उसका कोई उपयोग नहीं है | पठन-पाठन और वाचन का ज्ञान चाहे जितना अधिक क्यों ना हो वह अंत में पुस्तक में ही रह जाता है | इसकी अपेक्षा जो ज्ञान हमें जीवन की प्रत्यक्ष बातों से अनुभव के माध्यम से मिलता है वही सच्चा ज्ञान है , क्योंकि एक कहावत कही जाती है कि "रत्ती भर ऐसा ज्ञान सेर भर पण्डिताई से बहुत अच्छा समझा जाता है" कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य संस्कृत , अरबी , फारसी , हिंदी अथवा संसार की कोई भी भाषा के व्याकरणों का जीवन भर विन्यास क्यों न करता रहे परंतु उसकी कार्यशीलता की वृद्धि नहीं हो सकती है , इसी प्रकार मौलिकता तथा नूतनता तर्कशास्त्र के हजारों पृष्ठों को पढ़ने से नहीं आती है | इन सब विद्याओं के लिए प्रत्यक्ष व्यवहार एवं अनुभव का होना बहुत आवश्यक है | प्रत्येक मनुष्य को पुस्तकीय ज्ञान तो प्राप्त करना ही चाहिए परंतु इसके साथ ही सामाजिकता एवं अपने आसपास के परिवेश के अनुसार व्यावहारिक ज्ञान एवं जीवन का अनुभव प्राप्त करना चाहिए , क्योंकि इसी आधार पर मनुष्य आने वाली पीढ़ियों का मार्गदर्शन कर सकता है | यही मनुष्य की विद्वता कही जा सकती है जो कि उसके व्यवहार से परिलक्षित होती है | हमारे बुजुर्ग आज की अपेक्षा भले ही कम पढ़े लिखे हैं परंतु जहां सारी विद्या विफल हो जाती है वहां उनका अनुभव कार्य को संपन्न कर देता है | इसलिए अनुभव एवं व्यावहारिक ज्ञान का होना परम आवश्यक है |*
*पढ़ लिख कर मनुष्य उच्च कोटि की शिक्षा तो प्राप्त कर लेता है परंतु उस विद्या का प्रयोग कैसे किया जाएगा ? कहां पर क्या बोलना है ? कहां पर क्या व्यवहार करना है ? यदि इसका ज्ञान नहीं है तो उसकी उच्च कोटि की शिक्षा व्यर्थ ही है |*