*सनातन धर्म में प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपने पितरों का श्राद्ध तर्पण करना अनिवार्य बताया गया है | जो व्यक्ति तर्पण / श्राद्ध नहीं कर पाता है उसके पितर उससे अप्रसन्न होकर के अनेकों बाधाएं खड़ी करते हैं | जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के लिए श्राद्ध एवं तर्पण अनिवार्य है उसी प्रकार श्राद्ध पक्ष के कुछ नियम हमारे महापुरुषों के द्वारा बनाए गए हैं , जिसका पालन करना प्रत्येक श्राद्धकर्ता का परम कर्तव्य बनता है | जो माता-पिता बचपन से यह सिखाते थे कि चोरी करना , झूठ बोलना , किसी के साथ छल करना आदि पाप है वही माता-पिता मृत्योपरान जब पितर योनि को प्राप्त करते हैं तो भला वह यह कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं कि हमारी संतान इन कुकृत्यों को करें , इसीलिए श्राद्ध पक्ष में प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह निश्चित किया गया है कि जो व्यक्ति अपने पितरों का तर्पण / श्राद्धादि करता है उसे इन विशेष सोलह दिनों में चोरी , बेईमानी , झूठ , छल , कपट , हिंसा आदि दुर्गुणों से स्वयं को बचा कर रखना चाहिए | प्रातःकाल पितरों का तर्पण करके दिन भर इन दुर्गुणों में व्यस्त रहने वाले व्यक्ति के द्वारा किया गया तर्पण पितरों को कदापि स्वीकार्य नहीं हो सकता , क्योंकि श्राद्ध श्रद्धा का विषय और श्रद्धा तभी उत्पन्न हो सकती है जब मनुष्य इन दुर्गुणों से स्वयं को बचाए रखे | जब तक मनुष्य का हृदय निर्मल नहीं होगा तब तक हृदय में श्रद्धा नहीं उत्पन्न हो सकती और जब हृदय में श्रद्धा नहीं होगी तो श्राद्ध भी दिखावे का ही हो सकता है | अत: जिस प्रकार तर्पण किया जाता है उसी प्रकार इन अवगुणों से भी बचने का प्रयास अवश्य करना चाहिए | स्वच्छ एवं निर्मल हृदय के द्वारा ही देवताओं एवं पितरों की कृपा प्राप्त की जा सकती है |*
*आज के युग में प्रायः देखने को मिलता कि लोग सुबह उठकर स्नान ध्यान करके पितरों का तर्पण तो बड़ी लगन से करते हैं परंतु अपने दुर्गुणों का त्याग नहीं कर पाते हैं | जहां एक और हमारे सनातन ग्रंथों में बताया गया कि इन विशेष दिनों में हमारे पितर अपने परिवार के आसपास ही मंडराते रहते हैं | किसी न किसी रूप में उनका आगमन हमारे घर या दरवाजे तक अवश्य होता है ऐसे में प्रेम के साथ तर्पण करने वाले दरवाजे पर पहुंच गए किसी भिखारी को दुत्कार कर भगा देना तर्पण को कहाँ तक सफल करेगा ? विचार कीजिए यदि आपके भीतर क्रोध आ गया तो क्या आपका तर्पण सफल माना जाएगा | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" आज के समाज को देखकर यह विचार करने पर विवश हो जाता हूं कि जिस प्रकार आज सनातन की मान्यताओं अवहेलना प्रत्येक विषय में की जा रही है उसी प्रकार अपने जन्मदाता पितरों के लिए भी किया जा रहा है | पितर हमारे लिए सर्वश्रेष्ठ है , क्योंकि मनुष्य जीवन भर किसी देवता विशेष का पूजन करता है तो उससे क्या प्राप्त होगा यह पता ही नहीं होता है ! परंतु हमारे पितर , हमारे पूर्वज तो हम को सब कुछ दे करके जाते हैं | रहने के लिए घर , खेती करने के लिए खेत , व्यापार , बैंकों में जमा धन तक हमारे लिए छोड़कर जाने वाले हमारे पितर देवताओं से भी श्रेष्ठ होते हैं | उनके तर्पण में यदि हम अपने दुर्गुणों का त्याग न कर पाए तो यह सत्य है कि हमसे बड़ा कृतघ्न कोई नहीं हो सकता | क्योंकि जब यह निश्चित कर दिया गया है कि दुर्गुणों का त्याग किए बिना पितरों को तर्पण नहीं मिल सकता है तो यह कृतघ्नता ही कही जायेगी | आज मनुष्य अपने इन दुर्गुणों का त्याग नहीं कर पा रहा है और उसके बाद अपने पितरों की कृपा प्राप्त करने की आकांक्षा रखता है जो कि असंभव है | वैसे तो मनुष्य को दीवन भर इन दुर्गुणों से बचना चाहिए परंतु जीवन भर के लिए न सही तो इन विशेष सोलह दिनों में अपने दुर्गुणों का त्याग करने का प्रयास अवश्य करना चाहिए | जिससे कि हमारे द्वारा किया गया तर्पण एवं श्राद्धादि हमारे पितरों को प्राप्त हो सके |*
*किसी भी धार्मिक कृत्य में दिखावा कदापि नहीं करना चाहिए | कम करें परंतु जो भी करें वह सच्ची श्रद्धा एवं भाव के साथ करें | यह भी आवश्यक है कि साथ ही उसके विषय में जो नियम बताए गए हो उसका पालन करता रहे तो फल अवश्य प्राप्त होगा |*