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9 फरवरी 2022

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दूसरे दिन पद्मसिंह सदन को साथ किसी लेकर स्कूल में दाखिल कराने चले। किंतु जहां गए, साफ जवाब मिला ‘स्थान नहीं है।’ शहर में बारह पाठशालाएं थीं। लेकिन सदन के लिए कहीं स्थान न था।
शर्माजी ने विवश होकर निश्चय किया कि मैं स्वयं पढ़ाऊंगा। प्रातःकाल तो मुवक्किलों के मारे अवकाश नहीं मिलता। कचहरी से आकर पढ़ाते, किंतु एक ही सप्ताह में हिम्मत हार बैठे। कहां कचहरी से आकर पत्र पढ़ते थे, कभी हारमोनियम बजाते, कहां अब एक बूढ़े तोते को रटाना पड़ता था। वह बारंबार झुंझलाते, उन्हें मालूम होता कि सदन मंद-बुद्धि है। यदि वह कोई पढ़ा हुआ शब्द पूछ बैठता, तो शर्माजी झल्ला पड़ते। वह स्थान उलट-पुलटकर दिखाते, जहां वह शब्द प्रथम आया था। फिर प्रश्न करते और सदन ही से उस शब्द का अर्थ निकलवाते। इस उद्योग में काम कम होता था, किंतु उलझन बहुत थी। सदन भी उनके सामने पुस्तक खोलते हुए डरता। वह पछताता कि कहां-से-कहां यहां आया, इससे तो गांव ही अच्छा था। चार पंक्तियां पढ़ाएंगे, लेकिन घंटों बिगड़ेंगे। पढ़ा चुकने के बाद शर्माजी कुछ थक-से जाते। सैर करने को जी नहीं चाहता। उन्हें विश्वास हो गया कि इस काम की क्षमता मुझमें नहीं है।
मुहल्ले में एक मास्टर साहब रहते थे। उन्होंने बीस रुपए मासिक पर सदन को पढ़ाना स्वीकार किया। अब चिंता हुई कि रुपए आएं कहां से? शर्माजी फैशनेबुल मनुष्य थे, खर्च का पल्ला सदा दबा ही रहता था। फैशन का बोझ अखरता तो अवश्य था, किंतु उसके सामने कंधा न डालते थे। बहुत देर तक एकांत में बैठे सोचते रहे, किंतु बुद्धि ने कुछ काम न किया, तब सुभद्रा के पास जाकर बोले– मास्टर बीस रुपए पर राजी है।
सुभद्रा– तो क्या मास्टर ही न मिलते थे। मास्टर तो एक नहीं सौ है, रुपए कहां हैं?
शर्माजी– रुपए भी ईश्वर कहीं से देंगे ही।
सुभद्रा– मैं तो कई साल से देख रही हूं, ईश्वर ने कभी विशेष कृपा नहीं की। बस, इतना दे देते हैं कि पेट की रोटियां चल जाएं, वही तो ईश्वर हैं!
पद्मसिंह– तो तुम्हीं कोई उपाय निकालो।
सुभद्रा– मुझे जो कुछ देते हो, मत देना बस!
पद्मसिंह– तुम तो जरा-सी बात में चिढ़ जाती हो।
सुभद्रा– चिढ़ने की बात ही करते हो, आय-व्यय तुमसे छिपा नहीं है, मैं और कौन-सी बचत निकाल दूंगी? दूध-घी की तुम्हारे यहां नदी नहीं बहती, मिठाई-मुरब्बे में कभी फफूंदी नहीं लगी, कहारिन के बिना काम चलने ही का नहीं, महाराजिन का होना जरूरी है। और किस खर्चे में कमी करने को कहते हो?
पद्मसिंह– दूध ही बंद कर दो।
सुभद्रा– हां, बंद कर दो। मगर तुम न पीओगे, सदन के लिए तो लेना ही होगा।
शर्माजी फिर सोचने लगे। पान-तंबाकू का खर्च दस रुपए मासिक से कम न था, और भी कई छोटी-छोटी मदों में कुछ-न-कुछ बचत हो सकती थी। किंतु उनकी चर्चा करने से सुभद्रा की अप्रसन्नता का भय था। सुभद्रा की बातों से उन्हें स्पष्ट विदित हो गया था कि इस विषय में उसे मेरे साथ सहानुभूति नहीं है। मन में बाहर के खर्च का लेखा जोड़ने लगे। अंत में बोले– क्यों, रोशनी और पंखे के खर्च में कुछ किफायत हो सकती है?
सुभद्रा– हां, हो सकती है, रोशनी की क्या आवश्यकता है, सांझ ही से बिछावन पर पड़े रहें। यदि कोई मिलने-मिलाने आएगा, तो आप ही चिल्लाकर चला जाएगा, या घूमने निकल गए, नौ बजे लौटकर आए, और पंखा तो हाथ से भी झला जा सकता है। क्या जब बिजली नहीं थी, तो लोग गर्मी के मारे बावले हो जाते थे?
पद्मसिंह– घोड़े के रातिब में कमी कर दूं?
सुभद्रा– हां, यह दूर की सूझी। घोड़े को रातिब दिया ही क्यों जाए, घास काफी है। यही न होगा कि कूल्हे पर हड्डियां निकल आएंगी। किसी तरह मर-जीकर कचहरी तक ले ही जाएगा, यह तो कोई नहीं कहेगा कि वकील साहब के पास सवारी नहीं है।
पद्मसिंह– लड़कियों की पाठशाला को दो रुपए मासिक चंदा देता हूं, नौ रुपए क्लब का चंदा है, तीन रुपए मासिक अनाथालय को देता हूं। यह सब चंदे बंद कर दूं तो कैसा हो।
सुभद्रा– बहुत अच्छा होगा। संसार की रीति है कि पहले अपने घर में दीया जलाकर मस्जिद में जलाते हैं।
शर्माजी सुभद्रा की व्यंग्यपूर्ण बातों को सुन-सुनकर मन में झुंझला रहे थे, पर धीरज के साथ बोले– इस तरह कोई पंद्रह रुपए मासिक तो मैं दूंगा, शेष पांच रुपए का बोझ तुम्हारे ऊपर है। मैं हिसाब-किताब नहीं पूछता, किसी तरह संख्या पूरी करो।
सुभद्रा– हां, हो जाएगा, कुछ कठिन नहीं है। भोजन एक ही समय बने, दोनों समय बनने की क्या जरूरत है? संसार में करोड़ों मनुष्य एक ही समय खाते हैं, किंतु बीमार या दुबले नहीं होते।
शर्माजी अधीर हो गए। घर की लड़ाई से उनका हृदय कांपता था, पर यह चोट न सही गई। बोले– तुम क्या चाहती हो कि सदन के लिए मास्टर न रखा जाए और वह यों ही अपना जीवन नष्ट करे? चाहिए तो यह था कि तुम मेरी सहायता करती, उल्टे और जी जला रही हो। सदन मेरे उसी भाई का लड़का है, जो अपने सिर पर आटे-दाल की गठरी लादकर मुझे स्कूल में दाखिल कराने आए थे। मुझे वह दिन भूले नहीं हैं। उनके उस प्रेम का स्मरण करता हूं, तो जी चाहता है कि उनके चरणों में गिरकर घंटो रोऊं। तुम्हें अब अपने रोशनी और पंखे के खर्च में, पान-तंबाकू के खर्च में, घोड़े-साईस के खर्च में किफायत करना भारी मालूम होता है, किंतु भैया मुझे वार्निश वाले जूते पहनाकर आप नंगे पांव रहते थे। मैं रेशमी कपड़े पहनता था, वे फटे कुर्ते पर ही काटते थे। उनके उपकारों और भलाइयों का इतना भारी बोझ मेरी गर्दन पर है कि मैं इस जीवन में उससे मुक्त नहीं हो सकता। सदन के लिए मैं प्रत्येक कष्ट सहने को तैयार हूं। उसके लिए यदि मुझे पैदल कचहरी जाना पड़े, उपवास करने पड़े, अपने हाथों से उसके जूते साफ करने पड़ें, तब भी मुझे इनकार न होगा; नहीं तो मुझ जैसा कृतघ्न संसार में न होगा।
ग्लानि से सुभद्रा का मुखकमल कुम्हला गया। यद्यपि शर्माजी ने वे बातें सच्चे दिल से कहीं थीं, पर उसने यह समझा कि यह मुझे लज्जित करने के निमित्त कही गई हैं। सिर नीचा करके बोली– तो मैंने यह कब कहा कि सदन के लिए मास्टर न रखा जाए? जो काम करना ही है, उसे कर डालिए। जो कुछ होगा, देखा जाएगा। जब दादाजी ने आपके लिए इतने कष्ट उठाए है तो यही उचित है कि आप भी सदन के लिए कोई बात उठा न रखें। मुझसे जो कुछ करने को कहिए, वह करूं। आपने अब तक कभी इस विषय पर जोर नहीं दिया था, इसलिए मुझे यह भ्रम हुआ कि यह कोई आवश्यक खर्च नहीं है। आपको पहले ही दिन से मास्टर का प्रबंध करना चाहिए था। इतने आगे-पीछे का क्या काम था? अब तक तो यह थोड़ा-बहुत पढ़ भी चुका होता। इतनी उम्र गंवाने के बाद जब पढ़ने का विचार किया है, तो उसका एक दिन भी व्यर्थ न जाना चाहिए।
सुभद्रा ने तत्क्षण अपनी लज्जा का बदला ले लिया। पंडितजी को अपनी भूल स्वीकार करनी पड़ी। यदि अपना पुत्र होता, तो उन्होंने कदापि इतना सोच-विचार न किया होता।
सुभद्रा को अपने प्रतिवाद पर खेद हुआ। उसने पान बनाकर शर्माजी को दिया। यह मानो संधिपत्र था। शर्माजी ने पान ले लिया, संधि स्वीकृत हो गई।
जब वह चलने लगे तो सभद्रा ने पूछा– कुछ सुमन का पता चला?
शर्माजी– कुछ भी नहीं। न जाने कहां गायब हो गई, गजाधर भी नहीं दिखाई दिया। सुनता हूं, घर-बार छोड़कर किसी तरफ निकल गया है।
दूसरे दिन से मास्टर साहब सदन को पढ़ाने लगे। नौ बजे वह पढ़ाकर चले जाते, तब सदन स्नान-भोजन करके सोता। अकेले उसका जी घबराता, कोई संगी न साथी, न कोई हंसी न दिल्लगी, कैसे जी लगे। हां, प्रातःकाल थोड़ी-सी कसरत कर लिया करता था। इसका उसे व्यसन था। अपने गांव में उसने एक छोटा-सा अखाड़ा बनवा रखा था। यहां अखाड़ा तो न था, कमरे में ही डंड कर लेता। शाम को शर्माजी उसके लिए फिटन तैयार करा देते। तब सदन अपना सूट पहनकर गर्व के साथ फिटन पर सैर करने निकलता। शर्माजी पैदल घूमा करते थे। वह पार्क या छावनी की ओर जाते, किंतु सदन उस तरफ न जाता। वायु-सेवन में जो एक प्रकार का दार्शनिक आनंद होता है, उसका उसे क्या ज्ञान। शुद्ध वायु की सुखद शीतलता, हरे-भरे मैदानों की विचारोंत्पादक निर्जनता और सुरम्य दृश्यों की आनंदमयी निस्तब्धता– उसमें इनके रसास्वादन की योग्यता न थी। उसका यौवनकाल था, जब बनाव-श्रृंगार का भूत सिर पर सवार रहता है। वह अत्यंत रूपवान, सुगठित, बलिष्ठ युवक था। देहात में रहा, न पढ़ना न लिखना, न मास्टर का भय, न परीक्षा की चिंता, सेरों दूध पीता था। घर की भैंसें थीं, घी के लोंदे-के-लोंदे उठाकर खा जाता। उस पर कसरत का शौक। शरीर बहुत सुडौल निकल आया था। छाती चौड़ी, गर्दन तनी हुई, ऐसा जान पड़ता था, मानो देह में ईंगुर भरा हुआ है।
उसके चेहरे पर वह गंभीरता और कोमलता न थी, जो शिक्षा और ज्ञान से उत्पन्न होती है। उसके मुख से वीरता और उद्दंडता झलकती थी। आंखें मतवाली, सतेज और चंचल थीं। वह बाग का कलमी पौधा नहीं, वन का सुदृढ़ वृक्ष था। निर्जन पार्क या मैदान में उस पर किसकी निगाह पड़तीं? कौन उसके रूप और यौवन को देखता। इसलिए वह कभी दालमंडी की तरफ जाता, कभी चौक की तरफ। उसके रंग-रूप, ठाट-बाट पर बूढ़े-जवान सबकी आँखें उठ जातीं। युवक उसे ईर्ष्या से देखते, बूढ़े स्नेह से। लोग राह चलते-चलते उसे एक आंखे देखने के लिए ठिठक जाते। दुकानदार समझते कि यह किसी रईस का लड़का है।
इन दुकानों के ऊपर सौंदर्य का बाजार था। सदन को देखते ही उस बाजार में एक हलचल मच जाती। वेश्याएं छज्जों पर आकर खड़ी हो जातीं और प्रेम कटाक्ष के बाण उस पर चलातीं। देखें, यह बहका हुआ कबूतर किस छतरी पर उतरता है? यह सोने की चिड़िया किस जाल में फंसती है?
सदन में वह विवेक तो था नहीं, जो सदाचरण की रक्षा करता है। उसमें वह आत्मसम्मान भी नहीं था, जो आंखों को ऊपर नहीं उठने देता। उसकी फिटन बाजार में बहुत धीरे-धीरे चलती। सदन की आंखें उन्हीं रमणियों की ओर लगी रहतीं। यौवन के पूर्वकाल में हम अपनी कुवासनाओं के प्रदर्शन पर गर्व करते हैं, उत्तरकाल में अपने सद्गुणों के प्रदर्शन पर। सदन अपने को रसिया दिखाना चाहता था, प्रेम से अधिक बदनामी का आकांक्षी था। इस समय यदि उसका कोई अभिन्न मित्र होता, तो सदन उससे अपने कल्पित दुष्प्रेम की विस्तृत कथाएं वर्णन करता।
धीरे-धीरे सदन के चित्त की चंचलता यहां तक बढ़ी कि पढ़ना-लिखना सब छूट गया। मास्टर आते और पढ़ाकर चले जाते। लेकिन सदन को उनका आना बहुत बुरा मालूम होता। उसका मन हर घड़ी बाजार की ओर लगा रहता। वही दृश्य आंखों में फिरा करते। रमणियों के हाव-भाव और मृदु मुस्कान के स्मरण में मग्न रहता। इस भांति दिन काटने के बाद ज्यों ही शाम होती, यह बन-ठनकर दालमंडी की ओर निकल जाता। अंत में इस कुप्रवृत्ति का वही फल हुआ, जो सदैव हुआ करता है।
तीन ही चार मास में उसका संकोच उड़ गया। फिटन पर दो आदमी दूतों की तरह उसके सिर पर सवार रहते। इसलिए वह इस बाग में फूलों में हाथ लगाने का साहस न कर सकता था। वह सोचने लगा कि किसी भांति इन दूतों से गला छुड़ाऊं। सोचते-सोचते उसे एक उपाय सूझ गया। एक दिन उसने शर्माजी से कहा– चाचा, मुझे एक अच्छा-सा घोड़ा ले दीजिए। फिटन पर अपाहिजों की तरह बैठे रहना कुछ अच्छा नहीं मालूम होता। घोड़े पर सवार होने से कसरत भी हो जाएगी और मुझे सवारी का भी अभ्यास हो जाएगा।
जिस दिन से सुमन गई थी, शर्माजी को कुछ चिंतातुर रहा करते थे। मुवक्किल लोग कहते कि आजकल इन्हें न जाने क्या हो गया है। बात-बात पर झुंझला जाते हैं। हमारी बात ही न सुनेंगे तो बहस क्या करेंगे। जब हमको मेहनताना देना है, तो क्या यही एक वकील हैं? गली-गली तो मारे फिरते हैं। इससे शर्माजी की आमदनी दिन-प्रतिदिन कम होती जाती थी। यह प्रस्ताव सुनकर चिंतित स्वर में बोले– अगर इसी घोड़े पर जीन खिंचा लो तो कैसा हो? दो-चार दिन में निकल जाएगा।
सदन– जी नहीं; बहुत दुर्बल है, सवारी में न ठहरेगा। कोई चाल भी तो नहीं; न कदम, न सरपट। कचहरी से थका-मांदा आएगा तो क्या चलेगा।
शर्माजी– अच्छा, तलाश करूंगा, कोई जानवर मिला तो ले लूंगा।
शर्माजी ने चाहा कि इस तरह बात टाल दूं। मामूली घोड़ा भी ढाई-तीन सौ से कम में न मिलेगा, उस पर कम-से-कम पच्चीस रुपए मासिक का खर्च अलग। इस समय वह इतना खर्च उठाने में समर्थ न थे, किंतु सदन कब माननेवाला था? नित्यप्रति उनसे तकाजा करता, यहां तक कि दिन में कई बार टोकने की नौबत आ पहुंची। शर्माजी उसकी सूरत देखते ही सूख जाते। यदि उससे अपनी आर्थिक दशा साफ-साफ कह देते, तो सदन चुप हो जाता, लेकिन अपनी चिंताओं की रामकहानी सुनाकर वह उसे कष्ट में नहीं डालना चाहते थे।
सदन ने अपने दोनों साइसों से कह रखा था कि कहीं घोड़ा बिकाऊ हो तो हमें कहना। साइसों ने दलाली के लोभ से दत्तचित्त होकर तलाश की। घोड़ा मिल गया। डिगवी नाम के एक साहब विलायत जा रहे थे। उनका घोड़ा बिकनेवाला था। सदन खुद गया, घोड़े को देखा, उस पर सवार हुआ, चाल देखी। मोहित हो गया। शर्माजी से आकर कहा– चलिए, घोड़ा देख लीजिए, मुझे बहुत पसंद है।
शर्माजी को अब भागने का कोई रास्ता न रहा, जाकर घोड़े को देखा, डिगवी साहब से मिले, दाम पूछे। उन्होंने चार सौ रुपये मांगे, इससे कौड़ी कम नहीं।
अब इतने रुपए कहां से आएं? घर में अगर दौ-सौ रुपए थे तो वह सुभद्रा के पास थे, और सुभद्रा से इस विषय में शर्माजी को सहानुभूति की लेशमात्र भी आशा न थी। उपकारी बैंक के मैनेजर बाबू चारुचन्द्र से उनकी मित्रता थी। उनसे उधार लेने का विचार किया, लेकिन आज तक शर्माजी को ऋण मांगने का अवसर नहीं पड़ा था। बार-बार इरादा करते और फिर हिम्मत हार जाते। कहीं वह इनकार कर गए तब? इस इनकार का भीषण भय उन्हें सता रहा था। वह यह बिल्कुल न जानते थे कि लोग कैसे महाजन पर अपना विश्वास जमा लेते हैं। कई बार कलम-दवात लेकर रुक्का लिखने बैठे, किंतु लिखें क्या, यह न सूझा।
इसी बीच सदन डिगवी साहब के यहां से घोड़ा ले आया। जीन-साज का मूल्य ५० रुपए और हो गया। दूसरे दिन रुपए चुका देने का वादा हुआ। केवल रात-भर की मोहलत थी, प्रातःकाल रुपए देना परमावश्यक था। शर्माजी की हैसियत के आदमी के लिए इतने रुपए का प्रबन्ध करना कोई मुश्किल न था। किंतु उन्हें चारों ओर अंधकार दिखाई देता था। उन्हें आज अपनी क्षुद्रता का ज्ञान हुआ। जो मनुष्य कभी पहाड़ पर नहीं चढ़ा है, उसका सिर एक छोटे से टीले पर भी चक्कर खाने लगता है। इस दुरावस्था में सुभद्रा के सिवा उन्हें कोई अवलंब न सूझा। उसने उनकी रोनी सूरत देखी तो पूछा–
आज इतने उदास क्यों हो? जी तो अच्छा है।
शर्माजी ने सिर झुकाकर उत्तर दिया– हां, जी तो अच्छा है।
सुभद्रा– तो चेहरा क्यों उतरा है?
शर्माजी– क्या बताऊं, कुछ कहा नहीं जाता, सदन के मारे हैरान हूं। कई दिन से घोड़े की रट लगाए हुए था। आज डिगवी साहब के यहां से घोड़ा ले आया, साढ़े चार सौ रुपए के मत्थे डाल दिया।
सुभद्रा ने विस्मित होकर कहा– अच्छा, यह सब हो गया और मुझे खबर ही नहीं।
शर्माजी– तुमसे कहते हुए डर मालूम होता था।
सुभद्रा– डर की कौन बात थी? क्या मैं सदन की दुश्मन थी, जो जल-भुन जाती? उसके खेलने-खाने के क्या और दिन आएंगे? कौन बड़ा खर्च है, तुम्हें ईश्वर कुशल से रखें, ऐसे चार-पांच सौ रुपए कहां आएंगे और कहां जाएंगे। लड़के का मन तो रह जाएगा। उसी भाई का तो बेटा है, जिसने आपको पाल-पोसकर आज इस योग्य बनाया।
शर्माजी इस व्यंग्य के लिए तैयार थे। इसीलिए उन्होंने सदन की शिकायत करके यह बात छेड़ी थी। किंतु वास्तव में उन्हें सदन का यह व्यसन दुःखजनक नहीं मालूम होता था, जितनी अपनी दारुण धनहीनता। सुभद्रा की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए उसके हृदय में पैठना जरूरी था। बोले– चाहे जो कुछ हो, मुझे तो तुमसे कहते हुए डर लगता है, मन की बात कहता हूं। लड़कों का खाना-खेलना सबको अच्छा लगता है, पर घर में पूंजी हो तब। दिन-भर से इसी फिक्र में पड़ा हुआ हूं। कुछ बुद्धि काम नहीं करती। सबेरे डिगवी साहब का आदमी आएगा, उसे क्या उत्तर दूंगा? बीमार भी पड़ जाता, तो एक बहाना मिल जाता।
सुभद्रा– तो यह कौन मुश्किल बात है, सबेरे चादर ओढ़कर लेट रहिएगा, मैं कह दूंगी आज तबीयत अच्छी नहीं है।
शर्माजी हंसी रोक न सके। इस व्यंग्य में कितनी निर्दयता, कितनी विरक्ति थी। बोले– अच्छा, मान लिया कि आदमी कल लौट गया, परसों तो डिगवी साहब जानेवाले ही हैं। कल कोई-न-कोई फिक्र करनी ही पड़ेगी।
सुभद्रा– तो वही फिक्र आज ही क्यों नही कर डालते?
शर्माजी– भाई चिढ़ाओ मत। अगर मेरी बुद्धि काम करती तो तुम्हारी शरण क्यों आता? चुपचाप काम न कर डालता? जब कुछ नहीं बन पड़ा है, तब तुम्हारे पास आया हूं। बताओं, क्या करूं?
सुभद्रा– मैं क्या बताऊं? आपने तो वकालत पढ़ी है, मैं तो मिडिल तक भी नहीं पढ़ी, मेरी बुद्धि यहां क्या काम देगी? इतना जानती हूं कि घोड़े को द्वार पर हिनहिनाते सुनकर बैरियों की छाती धड़क जाएगी। जिस वक्त आप सदन को उस पर बैठे देखेंगे, तो आंखें तृप्त हो जाएंगी।
शर्माजी– वही तो पूछता हूं कि यह अभिलाषाएं कैसे पूरी हों?
सुभद्रा– ईश्वर पर भरोसा रखिए, वह कोई-न-कोई जुगत निकालेगा ही।
शर्माजी– तुम तो ताने देने लगीं।
सुभद्रा– इसके सिवा मेरे पास और है ही क्या? अगर आप समझते हों कि मेरे पास रुपए होंगे, तो यह आपकी भूल है। मुझे हेर-फेर करना नहीं आता, संदूक की चाबी लीजिए, सौ-सवा सौ रुपए पड़े हुए हैं, निकाल ले जाइए। बाकी के लिए और कोई फिक्र कीजिए। आपके कितने ही मित्र हैं, क्या दो-चार सौ रुपए का प्रबन्ध नहीं कर देंगे।
यद्यपि पद्यसिंह यही उत्तर पाने की आशा रखते थे, पर इसे कानों से सुनकर वह अधीर हो गए। गांठ जरा भी हल्की न पड़ी। चुपचाप आकाश की ओर ताकने लगे, जैसे कोई अथाह जल में बहा जाता हो।
सुभद्रा संदूक की चाबी देने को तैयार तो थी, लेकिन संदूक में सौ रुपए की जगह पूरे पाँच सौ रुपए बटुए में रखे हुए थे। यह सुभद्रा की दो साल की कमाई थी। इन रुपयों को देख-देख सुभद्रा फूली न समाती थी। कभी सोचती, अबकी घर चलूंगी, तो भाभी के लिए अच्छा-सा कंगन लेती चलूंगी और गांव की सब कन्याओं के लिए एक-एक साड़ी। कभी सोचती, यहीं कोई काम पड़ जाए और शर्माजी रुपये के लिए परेशान हों, तो मैं चट निकालकर दे दूंगी। वह कैसे प्रसन्न होंगे। चकित हो जाएंगे। साधारणतः युवतियों के हृदय में ऐसे उदार भाव नहीं उठा करते। वह रुपए जमा करती हैं, अपने गहनों के लिए, सुभद्रा बड़ी धनी घर की बेटी थी, गहनों से मन भरा हुआ था।
उसे रुपयों का जरा भी लोभ न था। हां, एक ऐसे अनावश्यक कार्य के लिए उन्हें निकालने में कष्ट होता था, पर पंडितजी की रोनी सूरत देखकर उसे दया आ गई, बोली– आपने बैठे-बिठाए यह चिंता अपने सिर ली। सीधी-सी तो बात थी। कह देते, भाई रुपए नहीं हैं, तब तक किसी तरह काम चलाओ। इस तरह मन बढ़ाना कौन-सी अच्छी बात है? आज घोड़े की जिद है, कल मोटरकार की धुन होगी, तब क्या कीजिएगा? माना कि दादाजी ने आपके साथ बड़े अच्छे सलूक किए हैं, लेकिन सब काम अपनी हैसियत देखकर ही किए जाते हैं। दादाजी यह सुनकर आपसे खुश न होंगे।
यह कहकर वह झमककर उठी और संदूक में से रुपयों की पांच पोटलियां निकाल लाई, उन्हें पति के सामने पटक दिया और कहा– यह लीजिए पांच सौ रुपए हैं, जो चाहे कीजिए। रखे रहते तो आप ही के काम आते, पर ले जाइए, किसी भांति आपकी चिंता तो मिटे। अब संदूक में फूटी कौड़ी भी नहीं है।
पंडितजी ने हकबकाकर रुपयों की ओर कातर नेत्रों से देखा, पर उन पर टूटे नहीं। मन का बोझ हल्का अवश्य हुआ, चेहरे से चित्त की शांति झलकने लगी। किंतु वह उल्लास, वह विह्वलता, जिसकी सुभद्रा को आशा थी, दिखाई न दी। एक ही क्षण में वह शांति की झलक भी मिट गई। खेद और लज्जा का रंग प्रकट हुआ। इन रुपयों में हाथ लगाना उन्हें अतीव अनुचित प्रतीत हुआ। सोचने लगे, मालूम नहीं सुभद्रा ने किस नीयत से यह रुपये बचाए थे, मालूम नहीं, इनके लिए कौन-कौन से कष्ट सहे थे।
सुभद्रा ने पूछा– सेंत का धन पाकर भी प्रसन्न नहीं हुए?
शर्माजी ने अनुग्रहपूर्ण दृष्टि से देखकर कहा– क्या प्रसन्न होऊं? तुमने नाहक यह रुपए निकाले। मंि जाता हूं, घोड़े को लौटा देता हूं। कह दूंगा, ‘सितारा-पेशानी’ है या और कोई दोष लगा दूंगा। सदन को बुरा लगेगा, इसके लिए क्या करूं।
यदि रुपए देने के पहले सुभद्रा ने यह प्रस्ताव किया होता, तो शर्माजी बिगड़ जाते। इसे सज्जनता के विरुद्ध समझते और सुभद्रा को आड़े हाथों लेते, पर इस समय सुभद्रा के आत्मोत्सर्ग ने उन्हें वशीभूत कर लिया था। समस्या यह थी कि घर में सज्जनता दिखाएं या बाहर? उन्होंने निश्चय किया कि घर में इसकी आवश्यकता है, किंतु हम बाहरवालों की दृष्टि में मान-मर्यादा बनाए रखने के लिए घरवालों की कब परवाह करते हैं?
सुभद्रा विस्मित होकर बोली– यह क्या? इतनी जल्दी कायापलट हो गई। जानवर लेकर उसे लौटा दोगे, तो क्या बात रह जाएगी? यदि डिगवी साहब फेर भी लें, तो यह उनके साथ कितना अन्याय है? वह बेचारे विलायत जाने के लिए तैयार बैठे हैं। उन्हें यह बात कितनी अखरेगी? नहीं, यह छोटी-सी बात है, रुपए ले जाइए, दे दीजिए। रुपया इन्हीं दिनों के लिए जमा किया जाता है। मुझे इनकी कोई जरूरत नहीं है, मैं सहर्ष दे रही हूं। यदि ऐसा ही है, तो मेरे रुपए फेर दीजिएगा, ऋण समझकर लीजिए।
बात वही थी, पर जरा बदले हुए रूप में शर्माजी ने प्रसन्न होकर कहा– हां, इस शर्त पर ले सकता हूं। मासिक किस्त बांधकर अदा करूंगा। 

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रचनाएँ
सेवासदन
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प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। सेवासदन में नारी जीवन की समस्याओं के साथ-साथ समाज के धर्माचार्यों, मठाधीशों, धनपतियों, सुधारकों के आडंबर, दंभ, ढोंग, पाखंड, चरित्रहीनता, दहेज-प्रथा, बेमेल विवाह, पुलिस की घूसखोरी, वेश्यागमन, मनुष्य के दोहरे चरित्र, साम्प्रदायिक द्वेष आदि सामाजिक विकृतियों का विवरण मिलता है।सेवासदन उपन्यास की मुख्य समस्या क्या है? “सेवासदन” में प्रेमचन्द दिखाते है कि हमारी सामाजिक कुरीतियाँ स्त्रियों के जीवन को विवश करती है । इसकी मुख्य समस्या मध्य वर्गीय लोगों की आडंबर प्रियता से संबंधित है । प्रेमचन्द यह बताना चाहता है कि मनुष्य को जीने के लिए धन द्वारा प्राप्त सुख के समान मन द्वारा प्राप्त सुख भी चाहिए ।प्रेमचंद ने जहाँ एक ओर नारी की सामाजिक पराधीनता उसके फलसवरूप उत्पन्न समस्याओं को अपने इस उपन्यास में अभिव्यक्ति प्रदान की है, वहीं दूसरी ओर यह भी दिखलाया है कि किस प्रकार उनके नारी-पात्र उपन्यास के अंत तक आते-आते सामाजिक अन्याय से मुक्ति पाने का मार्ग स्वयं ही खोज देते हैं।
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सेवासदन (भाग 1)

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1 पश्चाताप के कड़वे फल कभी-न-कभी सभी को चखने पड़ते हैं, लेकिन और लोग बुराईयों पर पछताते हैं, दारोगा कृष्णचन्द्र अपनी भलाइयों पर पछता रहे थे। उन्हें थानेदारी करते हुए पच्चीस वर्ष हो गए, लेकिन उन्हों

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दारोगाजी के हल्के में एक महन्त रामदास रहते थे। वह साधुओं की एक गद्दी के महंत थे। उनके यहां सारा कारोबार ‘श्री बांकेबिहारीजी’ के नाम पर होता था। ‘श्री बांकेबिहारीजी’ लेन-देन करते थे और बत्तीस रुपये प्र

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पण्डित कृष्णचन्द्र रिश्वत लेकर उसे छिपाने के साधन न जानते थे । इस विषय में अभी नोसिखुए थे । उन्हें मालूम न था कि हराम का माल अकेले मुश्किल से पचता है । मुख्तार ने अपने मन मे कहा, हमीं ने सब कुछ किया औ

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कृष्णचन्द्र अपने कस्बे में सर्वप्रिय थे । यह खबर फैलते ही सारी बस्ती में हलचल मच गई । कई भले आदमी उनकी जमानत करने आये लेकिन साहब ने जमानत न ली । इसके एक सप्ताह बाद कृष्णचन्द्र पर रिश्वत लेने का अभियो

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फागुन में सुमन का विवाह हो गया। गंगाजली दामाद को देखकर बहुत रोई। उसे ऐसा दुःख हुआ, मानो किसी ने सुमन को कुएं में डाल दिया। सुमन ससुराल आई तो यहां की अवस्था उससे भी बुरी पाई, जिसकी उसने कल्पना की थी।

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सुमन को ससुराल आए डेढ़ साल के लगभग हो चुका था, पर उसे मैके जाने का सौभाग्य न हुआ था। वहां से चिट्ठियां आती थीं। सुमन उत्तर में अपनी मां को समझाया करती, मेरी चिंता मत करना, मैं बहुत आनंद से हूं, पर अब

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गजाधरप्रसाद की दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो चोरों के बीच में अशर्फियों की थैली लिए बैठा हो। सुमन का वह मुख-कमल, जिस पर वह कभी भौंरे की भांति मंडराया करता था, अब उसकी आँखों में जलती हुई आग के समान था। वह

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दूसरे दिन से सुमन ने चिक के पास खड़ा होना छोड़ दिया। खोंचेवाले आते और पुकार कर चले जाते। छैले गजल गाते हुए निकल जाते। चिक की आड़ में अब उन्हें कोई न दिखाई देता था। भोली ने कई बार बुलाया, लेकिन सुमन ने

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दूसरे दिन सुमन नहाने न गई। सबेरे ही से अपनी एक रेशमी साड़ी की मरम्मत करने लगी। दोपहर को सुभद्रा की एक महरी उसे लेने आई। सुमन ने मन में सोचा था, गाड़ी आवेगी। उसका जी छोटा हो गया। वही हुआ जिसका उसे भ

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दरवाजे पर आकर सुमन सोचने लगी कि अब कहां जाऊं। गजाधर की निर्दयता से भी उसे दुःख न हुआ था, जितना इस समय हो रहा था। उसे अब मालूम हुआ कि मैंने अपने घर से निकलकर बड़ी भूल की। मैं सुभद्रा के बल पर कूद रही थ

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सेवासदन (भाग-2)

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12 पद्मसिंह के एक बड़े भाई मदनसिंह थे। वह घर का कामकाज देखते थे। थोड़ी-सी जमींदारी थी, कुछ लेन-देन करते थे। उनके एक ही लड़का था, जिसका नाम सदनसिंह था। स्त्री का नाम भामा था। मां-बाप का इकलौता लड़का

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सुमन के चले जाने के बाद पद्मसिंह के हृदय में एक आत्मग्लानि उत्पन्न हुई– मैंने अच्छा नहीं किया। न मालूम वह कहां गई। अपने घर चली गई तो पूछना ही क्या, किन्तु वहां वह कदापि न गई होगी। मरता क्या न करता, कह

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दूसरे दिन पद्मसिंह सदन को साथ किसी लेकर स्कूल में दाखिल कराने चले। किंतु जहां गए, साफ जवाब मिला ‘स्थान नहीं है।’ शहर में बारह पाठशालाएं थीं। लेकिन सदन के लिए कहीं स्थान न था। शर्माजी ने विवश होकर निश

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प्राचीन ऋषियों ने इंद्रियों को दमन करने के दो साधन बताए हैं– एक राग, दूसरा वैराग्य। पहला साधन अत्यंत कठिन और दुस्साध्य है। लेकिन हमारे नागरिक समाज ने अपने मुख्य स्थानों पर मीनाबाजार सजाकर इसी कठिन मार

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महाशय विट्ठलदास इस समय ऐसे खुश थे मानों उन्हें कोई संपत्ति मिल गई हो। उन्हें विश्वास था कि पद्मसिंह इस जरा से कष्ट से मुंह न मोड़ेंगे, केवल उनके पास जाने की देर है। वह होली के कई दिन पहले से शर्माजी क

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संध्या का समय है। सदन अपने घोड़े पर सवार दालमंडी में दोनों तरफ छज्जों और खिड़कियों की ओर ताकता जा रहा है। जब से सुमन वहां आई है, सदन उसके छज्जे के सामने किसी-न-किसी बहाने से जरा देर के लिए अवश्य ठहर ज

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बाबू विट्ठलदास अधूरा काम न करते थे। पद्मसिंह की ओर से निराश होकर उन्हें यह चिंता होने लगी कि सुमनबाई के लिए पचास रुपए मासिक का चंदा कैसे करूं? उनकी स्थापित की हुई संस्थाएं चंदों ही से चल रही थीं, लेकि

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शाम हो गई। सुमन ने दिन-भर विट्ठलदास की राह देखी, लेकिन वह अब तक नहीं आए। सुमन के मन में जो नाना प्रकार की शंकाएं उठ रही थीं, वह पुष्ट हो गईं। विट्ठलदास अब नहीं आएंगे, अवश्य कोई विघ्न पड़ा। या तो वह कि

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सुभद्रा को संध्या के समय कंगन की याद आई। लपकी हुई स्नान-घर में गई। उसे खूब याद था कि उसने यहीं ताक पर रख दिया था, लेकिन उसका वहाँ पता न था। इस पर वह घबराई। अपने कमरे के प्रत्येक ताक और आलमारी को देखा,

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विट्ठलदास को संदेह हुआ कि सुमन तीस रुपए मासिक स्वीकार करना नहीं चाहती, इसलिए उसने कल उत्तर देने का बहाना करके मुझे टाला है। अतएव वे दूसरे दिन उसके पास नहीं गए, इसी चिंता में पड़े रहे कि शेष रुपयों का

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सुमन पार्क से लौटी तो उसे खेद होने लगा कि मैंने शर्माजी को वे ही दुखानेवाली बातें क्यों कहीं उन्होंने इतनी उदारता से मेरी सहायता की, जिसका मैंने यह बदला दिया? वास्तव में मैंने अपनी दुर्बलता का अपराध उ

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सदन प्रातःकाल घर गया, तो अपनी चाची के हाथों में कंगन देखा। लज्जा से उसकी आंखें जमीन में गड़ गईं। नाश्ता करके जल्दी से बाहर निकल आया और सोचने लगा, यह कंगन इन्हें कैसे मिल गया? क्या यह संभव है कि सुमन

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यह बात बिल्कुल तो असत्य नहीं है कि ईश्वर सबको किसी-न-किसी हीले से अन्न-वस्त्र देता है। पंडित उमानाथ बिना किसी हीले ही के संसार का सुख-भोग करते थे। उनकी आकाशी वृत्ति थी। उनके भैंस और गाएं न थीं, लेकिन

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सार्वजनिक संस्थाएं भी प्रतिभाशाली मनुष्य की मोहताज होती हैं। यद्यपि विट्ठलदास के अनुयायियों की कमी न थी, लेकिन उनमें प्रायः सामान्य अवस्था के लोग थे। ऊंची श्रेणी के लोग उनसे दूर भागते थे। पद्मसिंह के

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रात के नौ बजे थे। पद्मसिंह भाई के साथ बैठे हुए विवाह के संबंध में बातचीत कर रहे थे। कल बारात जाएगी। दरवाजे पर शहनाई बज रही थी और भीतर गाना हो रहा था। मदनसिंह– तुमने जो गाड़ियां भेजी हैं; वह कल शाम तक

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बरसात के दिन थे, छटा छाई हुई थी। पंडित उमानाथ चुनारगढ़ के निकट गंगा के तट पर खड़े नाव की बाट जोह रहे थे। वह कई गांवों का चक्कर लगाते हुए आ रहे थे और संध्या होने से पहले चुनार के पास एक गांव में जाना च

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पंडित उमानाथ सदनसिंह का फलदान चढ़ा आए हैं। उन्होंने जाह्नवी से गजानन्द की सहायता की चर्चा नहीं की थी। डरते थे कि कहीं यह इन रुपयों को अपनी लड़कियों के विवाह के लिए रख छोड़ने पर जिद्द न करने लगे। जाह्न

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एक रोज उमानाथ ने कृष्णचन्द्र के सहचरों को धमकाकर कहा– अब तुमलोगों को उनके साथ बैठकर चरस पीते देखा तो तुम्हारी कुशल नहीं। एक-एक की बुरी तरह खबर लूंगा। उमानाथ का रोब सारे गांव पर छाया हुआ था। वे सब-के-स

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सेवासदन (भाग-3)

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30 शहर की म्युनिसिपैलिटी में कुल अठारह सभासद थे। उनमें आठ मुसलमान थे और दस हिन्दू। सुशिक्षित मेंबरों की संख्या अधिक थी, इसलिए शर्माजी को विश्वास था कि म्युनिसिपैलिटी में वेश्याओं को नगर से बाहर निकाल

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इस प्रस्ताव के विरोध में हिंदू मेंबरों को जब मुसलमानों के जलसे का हाल मालूम हुआ तो उनके कान खड़े हुए। उन्हें मुसलमानों से जो आशा थी, वह भंग हो गई। कुल दस हिंदू थे। सेठ बलभद्रदास चेयरमैन थे। डॉक्टर श्य

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जिस प्रकार कोई आलसी मनुष्य किसी के पुकारने की आवाज सुनकर जाग जाता है, किंतु इधर-उधर देखकर फिर निद्रा में मग्न हो जाता है, उसी प्रकार पंडित कृष्णचन्द्र क्रोध और ग्लानि का आवेश शांत होने पर अपने कर्त्तव

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सदन के विवाह का दिन आ गया। चुनार से बारात अमोला चली। उसकी तैयारियों का वर्णन व्यर्थ है। जैसी अन्य बारातें होती हैं, वैसी ही यह भी थी। वैभव और दरिद्रता का अत्यन्त करुणात्मक दृश्य था। पालकियों पर कारचोब

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विट्ठलदास ने सुमन को विधवाश्रम में गुप्त रीति से रखा था। प्रबंधकारिणी सभा के किसी सदस्य को इत्तिला न दी थी। आश्रम की विधवाओं से उसे विधवा बताया था। लेकिन अबुलवफा जैसे टोहियों से यह बात बहुत दिनों तक ग

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यद्यपि डॉक्टर साहब का बंगला निकट ही था, पर इन दोनों आदमियों ने एक किराए की गाड़ी की। डॉक्टर साहब के यहां पैदल जाना फैशन के विरुद्ध था। रास्ते में विट्ठलदास ने आज के सारे समाचार बढ़ा-चढ़ाकर बयान किए और

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सदन जब घर पर पहुंचा, तो उसके मन की दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो बरसों की कमाई लिए, मन में सहस्रों मंसूबे बांधता, हर्ष से उल्लसित घर आए और यहां संदूक खोलने पर उसे मालूम हो कि थैली खाली पड़ी है। विचारों

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सदन को व्याख्यानों की ऐसी चाट पड़ी कि जहां कहीं व्याख्यान की खबर पाता, वहां अवश्य जाता, दोनों पक्षों की बातें महीनों सुनने और उन पर विचार करने से उसमें राय स्थिर करने की योग्यता आने लगी। अब वह किसी यु

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जिस दिन से बारात लौट गई, उसी दिन से कृष्णचन्द्र फिर से बाहर नहीं निकले। मन मारे हुए अपने कमरे में बैठे रहते। उन्हें अब किसी को अपना मुंह दिखाते लज्जा आती थी। दुश्चरित्रा सुमन ने उन्हें संसार की दृष्टि

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प्रातःकाल यह शोक-समाचार अमोला में फैल गया। इने-गिने सज्जनों को छोड़कर कोई भी उमानाथ के द्वार पर संवेदना प्रकट करने न आया। स्वाभाविक मृत्यु हुई होती, तो संभवतः उनके शत्रु भी आकर चार आंसू बहा जाते, पर आ

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पद्मसिंह का पहला विवाह उस समय हुआ था, जब वह कॉलेज में पढ़ते थे, और एम. ए. पास हुए, तो वह एक पुत्र के पिता थे। पर बालिका वधू शिशु-पालन का मर्म न जानती थी। बालक जन्म के समय तो हृष्ट-पुष्ट था, पर पीछे धी

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शान्ता ने पत्र तो भेजा, पर उसको उत्तर आने की कोई आशा न थी। तीन दिन बीत गए, उसका नैराश्य दिनों-दिन बढ़ता जा रहा था। अगर कुछ अनुकूल उत्तर न आया, तो उमानाथ अवश्य ही उसका विवाह कर देंगे, यह सोचकर शान्ता क

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शान्ता को आश्रम में आए एक मास से ऊपर हो गया, लेकिन पद्मसिंह ने अभी तक अपने घर में किसी से इसकी चर्चा नहीं की। कभी सोचते, भैया को पत्र लिखूं, कभी सोचते, चलकर उनसे कहूं, कभी विट्ठलदास को भेजने का विचार

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पद्मसिंह की आत्मा किसी भांति इस तरमीम के स्वीकार करने में अपनी भूल स्वीकार न करती थी। उन्हें कदापि यह आशा न थी कि उनके मित्रगण एक गौण बात पर उनका इतना विरोध करेंगे। उन्हें प्रस्ताव के एक अंश के अस्वीक

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सदन जब सुमन को देखकर लौटा, तो उसकी दशा उस दरिद्र मनुष्य की-सी थी, जिसका वर्षों का धन चोरों ने हर लिया हो। वह सोचता था, सुमन मुझसे बोली क्यों नहीं, उसने मेरी ओर ताका क्यों नहीं? क्या वह मुझे इतना नीच

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सेवासदन (भाग-4)

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46 सदन को ऐसी ग्लानि हो रही थी, मानों उसने कोई बड़ा पाप किया हो। वह बार-बार अपने शब्दों पर विचार करता और यही निश्चय करता कि मैं बड़ा निर्दय हूं। प्रेमाभिलाषा ने उसे उन्मत्त कर दिया था। वह सोचता, मुझ

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प्रभाकर राव का क्रोध बहुत कुछ तो सदन के लेखों से ही शांत हो गया था और जब पद्मसिंह ने सदन के आग्रह से सुमन का पूरा वृत्तांत उन्हें लिख भेजा, तो वह सावधान हो गए। म्युनिसपैलिटी में प्रस्ताव को पास हुए ल

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एक महीना बीत गया। सदन ने अपने इस नए धंधे की चर्चा घर में किसी से न की। वह नित्य सबेरे उठकर गंगा-स्नान के बहाने चला जाता। वहां से दस बजे घर आता। भोजन करके फिर चल देता और तब का गया-गया घड़ी रात गए, घर ल

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बाबू विट्ठलदास न्यायप्रिय सरल मनुष्य थे, जिधर न्याय खींच ले जाता, उधर चले जाते थे। इसमें लेश-मात्र भी संकोच न होता था। जब उन्होंने पद्मसिंह को न्यायपथ से हटते देखा, तो उनका साथ छोड़ दिया और कई महीने त

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सदनसिंह का विवाह संस्कार हो गया। झोंपड़ा खूब सजाया गया था। वही मंडप का काम दे रहा था, लेकिन कोई भीड़-भाड़ न थी। पद्मसिंह उस दिन घर चले गए और मदनसिंह से सब समाचार कहा। वह यह सुनते ही आग हो गए, बोले– म

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जैसे सुंदर भाव के समावेश से कविता में जान पड़ जाती है और सुंदर रंगों से चित्र में, उसी प्रकार दोनों बहनों के आने से झोंपड़ी में जान आ गई। अंधी आंखों में पुतलियां पड़ गई हैं। मुर्झाई हुई कली शान्ता अब

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पंडित पद्मसिंह के चार-पांच मास के सदुद्योग का यह फल हुआ कि बीस-पच्चीस वेश्याओं ने अपनी लड़कियों को अनाथालय में भेजना स्वीकार कर लिया। तीन वेश्याओं ने अपनी सारी संपत्ति अनाथालय के निमित्त अर्पण कर दी,

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पंडित मदनसिंह की कई महीने तक यह दशा थी कि जो कोई उनके पास आता, उसी से सदन की बुराई करते-कपूत है, भ्रष्ट है, शोहदा है, लुच्चा है, एक कानी कौड़ी तो दूंगा नहीं, भीख मांगता फिरेगा, तब आटे-दाल का भाव मालूम

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जिस प्रकार कोई मनुष्य लोभ के वश होकर आभूषण चुरा लेता है, पर विवेक होने पर उसे देखने में भी लज्जा आती है, उसी प्रकार सदन भी सुमन से बचता फिरता था। इतना ही नहीं, वह उसे नीची दृष्टि से देखता था और उसकी उ

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संध्या का समय है। आकाश पर लालिमा छाई हुई है और मंद वायु गंगा की लहरों पर क्रीड़ा कर रही है, उन्हें गुदगुदा रही है। वह अपने करुण नेत्रों से मुस्कराती है और कभी-कभी खिलखिलाकर हंस पड़ती है, तब उसके मोती

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एक साल बीत गया। पंडित मदनसिंह पहले तीर्थ यात्रा पर उधार खाए बैठे थे। जान पड़ता था, सदन के घर आते ही एक दिन भी न ठहरेंगे, सीधे बद्रीनाथ पहुंचकर दम लेंगे, पर जब से सदन आ गया है, उन्होंने भूलकर भी तीर्थ-

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कार्तिक का महीना था। पद्मसिंह सुभद्रा को लेकर गंगा-स्नान कराने ले गए थे। लौटती बार वह अलईपुर की ओर से आ रहे थे। सुभद्रा गाड़ी की खिड़की से बाहर झांकती चली आती थी और सोचती थी कि यहाँ इस सन्नाटे में लोग

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