संध्या का समय है। सदन अपने घोड़े पर सवार दालमंडी में दोनों तरफ छज्जों और खिड़कियों की ओर ताकता जा रहा है। जब से सुमन वहां आई है, सदन उसके छज्जे के सामने किसी-न-किसी बहाने से जरा देर के लिए अवश्य ठहर जाता है। इस नव-कुसुम ने उसकी प्रेम-लालसा को ऐसा उत्तेजित कर दिया है। कि अब उसे एक पल चैन नहीं पड़ता। उसके रूप-लावण्य में एक प्रकार की मनोहारिणी सरलता है, जो उसके हृदय को बलात् अपनी ओर खींचती है। वह इस सरल सौंदर्य मूर्ति को अपना प्रेम अर्पण करने का परम अभिलाषी है, लेकिन उसे इसका सुअवसर नहीं मिलता। सुमन के यहां रसिकों का नित्य जमघट रहता है। सदन को यह भय होता है कि इनमें से कोई चाचा की जान-पहचान का मनुष्य न हो। इसलिए उसे ऊपर जाने का साहस नहीं होता।
अपनी प्रबल आकांक्षा को हृदय में छिपाए वह नित्य इसी तरह निराश होकर लौट जाता है। लेकिन आज उसने मुलाकात करने का निश्चय कर लिया है, चाहे कितनी देर क्यों न हो जाए। विरह का दाह उससे सहा नहीं जाता। वह सुमन के कोठे के सामने पहुंचा। श्याम कल्याण की मधुर ध्वनि आ रही थी। आगे बढ़ा और दो घंटे तक पार्क और मैदान में चक्कर लगाकर नौ बजे फिर दालमंडी की ओर चला। आश्विन के चंद्र की उज्जवल किरणों ने दालमंडी की ऊंची छतों पर रुपहली चादर-सी बिछा दी थी। वह फिर सुमन के कोठे के सामने रुका। संगीत-ध्वनि बंद थी; कुछ बोलचाल न सुनाई दी। निश्चय हो गया कि कोई नहीं है। घोड़े से उतरा, उसे नीचे की दुकान के खंभे से बांध दिया और सुमन के द्वार पर खड़ा हो गया। उसकी सांस बड़े वेग से चल रही थी। और छाती जोर से धड़क रही थी।
सुमन का मुजरा अभी समाप्त हुआ था, और उसके मन पर वह शिथिलता छाई हुई थी, जो आंधी के पीछे आने वाले सन्नाटे के समान आमोद-प्रमोद का प्रतिफल हुआ करती है। यह एक प्रकार की चेतावनी होती है, जो आत्मा की ओर से भोग-विलास में लिप्त मन को मिलती है। इस दशा में हमारा हृदय पुरानी स्मृतियों का क्रीड़ा-क्षेत्र बन जाया करता है। थोड़ी देर के लिए हमारे ज्ञानचक्षु खुल जाते हैं।
सुमन का ध्यान इस समय सुभद्रा की ओर लगा हुआ था। वह मन में उससे अपनी तुलना कर रही थी। जो शांतिमय सुख उसे प्राप्त है, क्या वह मुझे मिल सकता है? असंभव! यह तृष्णा-सागर है, यहां शांति-सुख कहां? जब पद्मसिंह के कचहरी से आने का समय होता, तो सुभद्रा कितनी उल्लसित होकर पान के बीड़े लगाती थी, ताजा हलवा पकाती थी, जब वह घर में आते थे, तो वह कैसी-प्रेम विह्वल होकर उनसे मिलने दौड़ती थी। आह! मैंने उनका प्रेमालिंगन भी देखा है, कितना भावमय! कितना सच्चा! मुझे वह सुख कहां? यहां या तो अंधे आते हैं, बातों के वीर। कोई अपने धन का जाल बिछाता है, कोई अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों का। उनके हृदय भावशून्य, शुष्क और ओछेपन से भरे हुए होते हैं।
इतने में सदन ने कमरे में प्रवेश किया। सुमन चौंक पड़ी। उसने सदन को कई दिन देखा था। उसका चेहरा उसे पद्मसिंह के चेहरे से मिलता हुआ मालूम होता था।
हां, गंभीरता की जगह एक उद्दंडता छलकती थी। वह काइयांपन, वह क्षुद्रता, जो इस मायानगर के प्रेमियों का मुख्य लक्षण है, वहां नाम को भी न थी। वह सीधा-सादा, सहज स्वभाव, सरल नवयुवक मालूम होता था। सुमन ने आज उसे कोठों का निरीक्षण करते देखा था। उसने ताड़ लिया था कि कबूतर अब पर तौल रहा है, किसी छतरी पर उतरना चाहता है। आज उसे अपने यहां देखकर उसे गर्वपूर्ण आनंद हुआ, जो दंगल में कुश्ती मारकर किसी पहलवान को होता है। वह उठी और मुस्कुराकर सदन की ओर हाथ बढ़ाया।
सदन का मुख लज्जा से अरुण-वर्ण हो गया। आंखें झुक गईं। उस पर एक रोब-सा छा गया। मुख से एक शब्द भी न निकला।
जिसने कभी मदिरा का सेवन न किया हो, मद-लालसा होने पर भी उसे मुंह से लगाते हुए वह झिझकता है।
यद्यपि सदन ने सुमनबाई को अपना परिचय ठीक नहीं दिया, उसने अपना नाम कुंवर सदनसिंह बताया, पर उसका भेद बहुत दिनों तक न छिप सका। सुमन ने हिरिया के द्वारा उसका पता भली-भांति लगा लिया तभी से वह बड़े चक्कर में पड़ी हुई थी। सदन को देखे बिना उसे चैन न पड़ता, उसका हृदय दिनोंदिन उसकी ओर खिंचता जाता था। उसके बैठे सुमन के यहां किसी बड़े-से-बड़े रईस का गुजर होना भी कठिन था। किंतु वह इस प्रेम को अनुचित और निषिद्ध समझती थी, उसे छिपाती थी।
उसकी कल्पना किसी अव्यक्त कारण से इस प्रेम-लालसा को भीषण विश्वासघात समझती थी। कहीं पद्मसिंह और सुभद्रा पर यह रहस्य खुल जाए, तो वह मुझे क्या समझेंगे? उन्हें कितना दुःख होगा? मैं उनकी दृष्टि में कितनी नीच और घृणित हो जाऊंगी? जब कभी सदन प्रेम-रहस्य की बातें करने लगता, तो सुमन बात को पलट देती, जब कभी सदन की अंगुलियां ढिठाई करना चाहतीं, तो वह उसकी ओर लज्जा-युक्त नेत्रों से देखकर धीरे से उसका हाथ हटा देती। साथ ही वह सदन को उलझाए भी रखना चाहती थी। इस प्रेम-कल्पना से उसे आनंद मिलता था, उसका त्याग करने में वह असमर्थ थी।
लेकिन सदन उसके भावों से अनभिज्ञ होने के कारण उसकी प्रेम-शिथिलता को अपनी धनहीनता पर अवलंबित समझता था। उसका निष्कपट हृदय प्रगाढ़ प्रेम में मग्न हो गया था। सुमन उसके जीवन का आधार बन गई थी। मगर विचित्रता यह थी कि प्रेम-लालसा के इतने प्रबल होते हुए भी वह अपनी कुवासनाओं को दबाता था। उसका अक्खड़पन लुप्त हो गया था। वह वही करना चाहता था, जो सुमन को पसंद हो। वह कामातुरता जो कलुषित प्रेम में व्याप्त होती है, सच्चे अनुराग के अधीन होकर सहृदयता में परिवर्तित हो गई थी, पर सुमन की अनिच्छा दिनों-दिन बढ़ती देखकर उसने अपने मन में यह निर्धारित किया कि पवित्र प्रेम की कदर यहां नहीं हो सकती। यहां के देवता उपासना से नहीं, भेंट से प्रसन्न होते हैं। लेकिन भेंट के लिए रुपए कहां से आएं? मांगे किससे? निदान उसने पिता को एक पत्र लिखा कि मेरे भोजन का अच्छा प्रबंध नहीं है, लज्जावश चाचा साहब से कुछ कह नहीं सकता, मुझे कुछ रुपए भेज दीजिए।
घर पर यह पत्र पहुंचा, तो भामा ने पति को ताने देने शुरू किए, इसी भाई का तुम्हें इतना भरोसा था, घमंड से धरती पर पांव नहीं रखते थे। अब घमंड टूटा कि नहीं? वह भी चाचा पर बहुत फूला हुआ था, अब आंखें खुली होंगी। इस काल में नेकी किसी को याद नहीं रहती, अपने दिन भूल जाते हैं। उसके लिए मैंने कौन-कौन-सा यत्न नहीं किया, छाती से दूध-भर नहीं पिलाया। उसी का यह बदला मिल रहा है। उस बेचारे का कुछ दोष नहीं, उसे मैं जानती हूं, यह सारी करतूत उन्हीं महारानी की है। अब की भेंट हुई, तो वह खरी-खरी सुनाऊं कि याद करे।
मदनसिंह को संदेह हुआ कि सदन ने यह पाखंड रचा है। भाई पर उन्हें अखंड विश्वास था, लेकिन जब भामा ने रुपए भेजने पर जोर दिया, तो उन्हें भेजने पड़े। सदन रोज डाकघर जाता, डाकिए से बार-बार पूछता। आखिर चौथे दिन पच्चीस रुपए का मनीआर्डर आया। डाकिया उसे पहचानता था, रुपए मिलने में कोई कठिनाई न हुई। सदन हर्ष से फूला न समाया। संध्या को बाजार से एक उत्तम रेशमी साड़ी मोल ली। लेकिन यह शंका हो रही थी कि कहीं सुमन उसे नापसंद न करे। वह कुंवर बन चुका था, इसीलिए ऐसी तुच्छ भेंट देते हुए झेंपता था। साड़ी जेब में रख, बड़ी देर तक घोड़े पर इधर-उधर टहलता रहा।
खाली हाथ वह सुमन के यहां नित्य बेधड़क चला जाया करता था, पर आज यह भेंट लेकर जाने में संकोच होता था। जब खूब अंधेरा हो गया, तो मन को दृढ़ करके सुमन के कोठे पर चढ़ गया और साड़ी चुपके से निकालकर श्रंगारदान पर रख दी। सुमन उसके इस विलंब से चिंतित हो रही थी। उसे देखते ही फूल के समान खिल गई। बोली, यह क्या लाए? सदन ने झेंपते हुए कहा, कुछ नहीं, आज एक साड़ी नजर आ गई, मुझे अच्छी मालूम हुई, ले ली, यह तुम्हारी भेंट है। सुमन ने मुस्कराकर कहा, आज इतनी देर तक राह दिखाई, क्या यह उसी का प्रायश्चित है? यह कहकर उसने साड़ी को देखा। सदन की वास्तविक अवस्था के विचार से वह बहुमूल्य कही जा सकती थी।
सुमन के मन में प्रश्न हुआ कि इतने रुपए इन्हें मिले कहां? कहीं घर से तो नहीं उठा लाए? शर्माजी इतने रुपए क्यों देने लगे? या इन्होंने उनसे कोई बहाना करके ठगे होंगे या उठा लाए होंगे। उसने विचार किया कि साड़ी लौटा दूं, लेकिन उससे उसके दुःखी हो जाने का भय था। इसके साथ ही साड़ी को रख लेने से उसके दुरुत्साह के बढ़ने की आशंका थी। निदान उसने निश्चय किया कि इसे अब की बार रख लूं, पर भविष्य के लिए चेतावनी दे दूं। बोली– इस अनुग्रह से कृतार्थ हुई, लेकिन आपसे मैं भेंट की भूखी नहीं। आपकी यही कृपा क्या कम है कि आप यहां तक आने का कष्ट करते हैं। मैं केवल आपकी कृपादृष्टि चाहती हूं।
लेकिन जब इस पारितोषिक से सदन का मनोरथ न पूरा हुआ और सुमन के बर्ताव में उसे कोई अंतर न दिखाई दिया, तो उसे विश्वास हो गया कि मेरा उद्योग-निष्फल हुआ। वह अपने मन में लज्जित हुआ कि मैं एक तुच्छ भेंट देकर उससे इतने बड़े फल की आशा रखता हूं, जमीन से उचककर आकाश से तार तोड़ने की चेष्टा करता हूं। अतएव वह कोई मूल्यवान प्रेमोपहार देने की चिंता में लीन हो गया। मगर महीनों तक उसे इसका कोई अवसर न मिला।
एक दिन वह नहाने बैठा, तो साबुन न था। वह भीतर के स्नानालय में साबुन लेने गया। अंदर पैर रखते ही उसकी निगाह ताक पर पड़ी। उस पर एक कंगन रखा हुआ था। सुभद्रा अभी नहाकर गई थी, उसने कंगन उतारकर रख दिया था, लेकिन चलते समय उसकी सुध न रही। कचहरी का समय निकट था, वह रसोई में चली गई। कंगन वहीं धरा रह गया। सदन ने उसे देखते ही लपककर उठा लिया। इस समय उसके मन में कोई बुरा भाव न था। उसने सोचा, चाची को खूब हैरान करके तब दूंगा, अच्छी दिल्लगी रहेगी। कंगन को छिपाकर बाहर लाया और संदूक में रख लिया।
सुभद्रा भोजन से निवृत्त होकर लेट रही, आलस्य आया, सोई तो तीसरे पहर को उठी। इसी बीच में पंडितजी कचहरी से आ गए, उनसे बातचीत करने लगी, कंगन का ध्यान ही न रहा। सदन कई बार भीतर गया कि देखूं इसकी कोई चर्चा हो रही थी या नहीं, लेकिन उसका कोई जिक्र न सुनाई दिया। संध्या समय जब वह सैर करने के लिए तैयार हुआ, तो एक आकस्मिक विचार से प्रेरित होकर उसने वह कंगन जेब में रख लिया। उसने सोचा, क्यों न यह कंगन सुमनबाई की नजर करूं? यहां तो सुझसे कोई पूछेगा ही नहीं और अगर पूछा भी गया तो कह दूंगा, मैं नहीं जानता। चाची, समझेंगी, नौकरों में से कोई उठा ले गया होगा। इस तरह के कुविचारों ने उसका संकल्प दृढ़ कर दिया।
उसका जी कहीं सैर में न लगा। वह उपहार देने के लिए व्याकुल हो रहा था। नियमित समय से कुछ पहले ही घोड़े को दालमंडी की तरफ फेर दिया। यहां उसने एक छोटा-सा मखमली बक्स लिया, उसमें कंगन को रखकर सुमन के यहां जा पहुंचा। वह इस बहुमूल्य वस्तु को इस प्रकार भेंट करना चाहता था, मानो वह कोई अति सामान्य वस्तु दे रहा हो। आज वह बहुत देर तक बैठा रहा। संध्या का समय उसके लिए निकाल रखा था। किंतु आज प्रेमालाप में भी उसका जी न लगता था। उसे चिंता लगी हुई थी कि यह कंगन कैसै भेंट करूं? जब बहुत देर हो गई, तो वह चुपके से उठा, जेब से बक्स निकाला और उसे पलंग पर रखकर दरवाजे की तरफ चला। सुमन ने देख लिया, पूछा– इस बक्स में क्या है!
सदन– कुछ नहीं, खाली बक्स है।
सुमन– नहीं-नहीं, ठहरिए, मैं देख लूं।
यह कहकर उसने सदन का हाथ पकड़ लिया और संदूकची को खोलकर देखा। इस कंगन को उसने सुभद्रा के हाथ में देखा था। उसकी बनावट बहुत अच्छी थी। पहचान गई, हृदय पर बोझ-सा आ पड़ा। उदार होकर बोली– मैंने आपसे कह दिया था कि मैं इन चीजों की भूखी नहीं हूं। आप व्यर्थ मुझे लज्जित करते हैं।
सदन ने लापरवाही से कहा, मानो वह कोई राजा है– गरीब के पानफूल स्वीकार करना चाहिए।
सुमन– मेरे लिए तो सबसे अमूल्य चीज आपकी कृपा है। वही मेरे ऊपर बनी रहे। इस कंगन को आप मेरी तरफ से अपनी नई रानी साहिबा को दे दीजिएगा। मेरे हृदय में आपके प्रति पवित्र प्रेम है। वह इन इच्छाओं से रहित है। आपके व्यवहार से ऐसा मालूम होता है कि अभी आप मुझे बाजारू औरत ही समझे हुए हैं। आप ही एक ऐसे पुरुष हैं, जिस पर मैंने अपना प्रेम, अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया है, लेकिन आपने अभी तक उसका कुछ मूल्य न समझा!
सदन की आंखें भर आईं। उसने मन में सोचा, यथार्थ में मेरा ही दोष है। मैं उसके प्रेम जैसी अमूल्य वस्तु को इन तुच्छ उपहारों का इच्छुक समझता हूं। मैं हथेली पर सरसों जमाने की चेष्टा में इस रमणी के साथ ऐसा अनर्थ करता हूं। आज इस नगर में ऐसा कौन है, जो उसके एक प्रेम-कटाक्ष पर अपना सर्वस्व न लुटा दे? बड़े-बड़े ऐश्वर्यवान् मनुष्य आते हैं और वह किसी की ओर आंख उठाकर भी नहीं देखती, पर मैं ऐसा भावशून्य नीच हूं कि इस प्रेम-रत्न को कौड़ियों से मोल लेना चाहता हूं। इस ग्लानिपूर्ण भावों से वह रो पड़ा। सुमन समझ गई कि मेरे वह वाक्य अखर गए। करुण स्वर में बोली–
आप मुझसे नाराज हो गए क्या?
सदन ने आंसू पीकर कहा– हां, नाराज तो हूं।
सुमन– क्यों नाराज हैं?
सदन– इसीलिए कि तुम मुझे बाणों से छेदती हो। तुम समझती हो कि मैं ऐसी तुच्छ वस्तुओं से प्रेम मोल लेना चाहता हूं।
सुमन– तो यह चीजें क्यों लाते हैं?
सदन– मेरी इच्छा!
सुमन– नहीं, अब से मुझे क्षमा कीजिएगा।
सदन– खैर देखा जाएगा।
सुमन– आपकी खातिर से मैं इस तोहफे को रख लेती हूं। लेकिन इसे थाती समझती रहूंगी। आप अभी स्वतंत्र नहीं हैं। जब आप अपनी रियासत के मालिक हो जाएं, तब मैं आपसे मनमाना कर वसूल करूंगी। लेकिन अभी नहीं।