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10 फरवरी 2022

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एक महीना बीत गया। सदन ने अपने इस नए धंधे की चर्चा घर में किसी से न की। वह नित्य सबेरे उठकर गंगा-स्नान के बहाने चला जाता। वहां से दस बजे घर आता। भोजन करके फिर चल देता और तब का गया-गया घड़ी रात गए, घर लौटता। अब उसकी नाव घाट पर की सब नावों से अधिक सजी हुई, दर्शनीय थी। उस पर दो-तीन मोढे रखे रहते थे और एक जाजिम बिछी रहती थी। इसलिए शहर के कितने ही रसिक, विनोदी मनुष्य उस पर सैर किया करते थे। सदन किराए के विषय में खुद बातचीत न करता। यह काम उसका नौकर झींगुर मल्लाह किया करता था। वह स्वयं तो कभी तट पर बैठा रहता तो कभी नाव पर जा बैठता था। वह अपने को बहुत समझाता कि काम करने में क्या शरम? मैंने कोई बुरा काम तो नहीं किया है, किसी का गुलाम तो नहीं हूं, कोई आंखें तो नहीं दिखा सकता। लेकिन जब वह किसी भले आदमी को अपनी ओर आते देखता, तो आप-ही-आप उसके कदम पीछे हट जाते और लज्जा से आंखें झुक जातीं। वह एक जमीदार का पुत्र था और एक वकील का भतीजा। उस उच्च पद से उतरकर मल्लाह का उद्यम करने में उसे स्वभावतः लज्जा आती थी, जो तर्क से किसी भांति न हटती। इस संकोच से उसकी बहुत हानि होती थी। जिस काम के लिए वह एक रुपया ले सकता था, उसी के लिए उसे आधे में ही राजी होना पड़ता था। ऊंची दुकान फीके पकवान होने पर भी बाजार में श्रेष्ठ होती है। यहां तो पकवान भी अच्छे थे, केवल एक चतुर सजीले दुकानदार की कमी थी। सदन इस बात को समझता था, पर संकोचवश कुछ कह न सकता था। तिस पर भी डेढ़-दो रुपए नित्य मिल जाते थे और वह समय निकट आता जाता था, जब गंगा-तट पर उसका झोंपड़ा बनेगा और आबाद होगा। वह अब अपने बल-बूते पर खड़े होने के योग्य होता जाता था। इस विचार से उसके आत्मसम्मान को अतिशय आनंद होता था। वह बहुधा रात-की-रात इन्हीं अभिलाषाओं की कल्पना में जागता रहता।
इसी समय म्युनिसिपैलिटी ने वेश्याओं के लिए शहर से हटकर मकान बनवाने का निश्चय किया, लाला भगतराम को इसका ठीका मिला। नदी के इस पार ऐसी जमीन न मिल सकी, जहां वह पजावे लगाते और चूने के भट्ठे बनाते। इसलिए उन्होंने नदी पार जमीन ली थी और वहीं सामान तैयार करते थे। उस पार ईटें, चूना आदि लाने के लिए उन्हें एक नाव की जरूरत हुई। नाव तय करने के लिए मल्लाहों के पास आए। सदन से भेंट हो गई। सदन ने अपनी नाव दिखाई, भगतराम ने उसे पसंद किया। झींगुर से मजूरी तय हुई, दो खेवे रोज लाने की बात ठहरी। भगतराम ने बयाना दिया और चले गए।
रुपए की चाट बुरी होती है। सदन अब वह उड़ाऊ, लुटाऊ युवक नहीं रहा। उसके सिर पर अब चिंताओं का बोझ है, कर्त्तव्य का ऋण है। वह इससे मुक्त होना चाहता है। उसकी निगाह एक-एक पैसे पर रहती है। उसे अब रुपए कमाने और घर बनवाने की धुन है। उस दिन वह घड़ी रात रहे, उठकर नदी किनारे चला आया और झींगुर को जगाकर नाव खुलवा दी। दिन निकलते-निकलते उस पार जा पहुंचा। लौटती बार उसने स्वयं डांड ले लिया और हंसते हुए दो-चार हाथ चलाए, लेकिन इतने से ही नाव की चाल बढ़ते देखकर उसने जोर-जोर से डांड चलाने शुरू कर दिए। नाव की गति दूनी हो गई। झींगुर पहले-पहले तो मुस्कराता रहा, लेकिन अब चकित हो गया।
आज से वह सदन का दबाव कुछ अधिक मानने लगा। उसे मालूम हो गया कि यह महाशय निरे मिट्टी के लौंदे नहीं हैं। काम पड़ने पर यह अकेले नाव को पार ले जा सकते हैं, और अब मेरा टर्राना उचित नहीं।
उस दिन दो खेवे हुए, दूसरे दिन एक ही हुआ। क्योंकि सदन को आने में देर हो गई। तीसरे दिन उसने नौ बजे रात को तीसरा खेवा पूरा किया, लेकिन पसीने से डूबा था। ऐसा थक गया था कि घर तक आना पहाड़ हो गया। इसी प्रकार दो मास तक लगातार उसने काम किया और इसमें उसे अच्छा लाभ हुआ। उसने दो मल्लाह और रख लिए थे।
सदन अब मल्लाहों का नेता था। उसका झोंपड़ा तैयार हो गया था। भीतर एक तख्ता था, दो पलंग, दो लैंप, कुछ मामूली बर्तन भी। एक कमरा बैठने का था, एक खाना पकाने का, एक सोने का। द्वार पर ईंटों का चबूतरा था। उसके इर्द-गिर्द गमले रखे हुए थे। दो गमलों में लताएं लगी हुई थीं, जो झोंपड़े के ऊपर चढ़ती जाती थीं। यह चबूतरा अब मल्लाहों का अड्डा था। वह बहुधा वहीं बैठे तंबाकू पीते। सदन ने उनके साथ बड़ा उपकार किया था। अफसरों से लिखा-पढ़ी करके उन्हें आए दिन बेगार से मुक्त करा दिया था। इस साहस के काम ने उसका सिक्का जमा दिया था। उसके पास अब कुछ रुपए भी जमा हो गए थे और वह मल्लाहों को बिना सूद के रुपए उधार देता था। अब उसे एक पैर-गाड़ी की फिक्र थी, शौकीन आदमियों के सैर के लिए वह एक सुंदर बजरा भी लेना चाहता था और हारमोनियम के लिए तो उसने पत्र डाल ही दिया। यह सब उस देवी के आगमन की तैयारियां थीं, जो एक क्षण के लिए भी उसके ध्यान से न उतरती थी।
सदन की अवस्था अब ऐसी थी कि वह गृहस्थी का बोझ उठा सके, लेकिन अपने चचा की सम्मति के बिना वह शान्ता को लाने का साहस न कर सकता था। वह घर पर पद्मसिंह के साथ भोजन करने बैठता, तो निश्चय कर लेता कि आज इस विषय को छेड़कर तय कर लूंगा। पर उसका इरादा कभी पूरा न होता, उसके मुंह से बात ही न निकलती।
यद्यपि उसने पद्मसिंह से इस व्यवसाय की चर्चा न की थी, पर उन्हें लाला भगतराम से सब हाल मालूम हो गया था। वह सदन की उद्योगशीलता पर बहुत प्रसन्न थे। वह चाहते थे कि एक-दो नावें और ठीक कर लीं जाएं और कारोबार बढ़ा लिया जाए। लेकिन जब सदन स्वयं कुछ नहीं कहता था, तो वह भी इस विषय में चुप रहना ही उचित समझते थे। वह पहले ही उसकी खातिर करते थे, अब कुछ आदर भी करने लगे और सुभद्रा तो उसे अपने लड़के के समान मानने लगी।
एक दिन, रात के समय सदन अपने झोंपड़े में बैठा हुआ नदी की तरफ देख रहा था। आज न जाने क्यों नाव के आने में देर हो रही थी। सामने लैंप जल रहा था। सदन के हाथ में एक समाचार-पत्र था, पर उसका ध्यान पढ़ने में न लगता था। नाव के न आने से उसे किसी अनिष्ट की शंका हो रही थी। उसने पत्र रख दिया और बाहर निकलकर तट पर आया। रेत पर चांदनी की सुनहरी चादर बिछी हुई थी और चांद की किरणें नदी के हिलते हुए जल पर ऐसी मालूम होती थीं, जैसे किसी झरने से निर्मल जल की धारा क्रमशः चौड़ी होती हुई निकलती है। झोंपड़े के सामने चबूतरे पर कई मल्लाह बैठे हुए बातें कर रहे थे कि अकस्मात् सदन ने दो स्त्रियों को शहर की ओर से आते देखा। उनमें से एक ने मल्लाहों से पूछा– हमें उस पार जाना है, नाव ले चलोगे?
सदन ने शब्द पहचाने। यह सुमनबाई थी। उसके हृदय में एक गुदगुदी-सी हुई, आंखों में एक नशा-सा आ गया। लपककर चबूतरे के पास आया और सुमन से बोला– बाईजी, तुम यहां कहां?
सुमन ने ध्यान से सदन को देखा, मानो उसे पहचानती ही नहीं। उसके साथ वाली स्त्री ने घूंघट निकाल लिया और लालटेन के प्रकाश से कई पग हटकर अंधेरे में चली गई। सुमन ने आश्चर्य से कहा– कौन? सदन?
मल्लाहों ने उठकर घेर लिया, लेकिन सदन ने कहा– तुम लोग इस समय यहां से चले जाओ। ये हमारे घर की स्त्रियां हैं, आज यहीं रहेंगी। इसके बाद वह सुमन से बोला– बाईजी, कुशल समाचार कहिए। क्या माजरा है?
सुमन– सब कुशल ही है, भाग्य में जो कुछ लिखा है, वही भोग रही हूँ। आज का पत्र तुमने अभी न पढ़ा होगा। प्रभाकर राव ने न जाने क्या छाप दिया कि आश्रम में हलचल मच गई। हम दोनों बहनें वहां एक दिन भी और रह जातीं, तो आश्रम बिल्कुल खाली हो जाता। वहां से निकल आने में कुशल थी। अब इतनी कृपा करो कि हमें उस पार ले जाने के लिए एक नाव ठीक कर दो। वहां से हम इक्का करके मुगलसराय चली जाएंगी। अमोला के लिए कोई-न-कोई गाड़ी मिल ही जाएगी। यहां से रात कोई गाड़ी नहीं जाती?
सदन– अब तो तुम अपने घर ही पहुँच गईं, अमोला क्यों जाओगी? तुम लोगों को कष्ट तो बहुत हुआ, पर इस समय तुम्हारे आने से मुझे जितना आनंद हुआ, यह वर्णन नहीं कर सकता। मैं स्वयं कई दिन से तुम्हारे पास आने का इरादा कर रहा था, लेकिन काम से छुट्टी ही नहीं मिलती। मैं तीन-चार महीने से मल्लाह का काम करने लगा हूं। यही तुम्हारा झोंपड़ा है, चलो अंदर चलो।
सुमन झोंपड़े में चली गई, लेकिन शान्ता वहीं अंधेरे में चुपचाप सिर झुकाए रो रही थी। जब से उसने सदनसिंह के मुंह से वे बातें सुनी थीं, उस दुखिया ने रो-रोकर दिन काटे थे। उसे बार-बार अपने मान करने का पछतावा होता था। वह सोचती, यदि मैं उस समय उनके पैरों पर गिर पड़ती, तो उन्हें मुझ पर अवश्य दया आ जाती। सदन की सूरत उसकी आंखों में फिरती और उसकी बातें उसके कानों में गूंजती। बातें कठोर थीं, लेकिन शान्ता को वह प्रेम-करुणा से भरी हुई प्रतीत होती थीं। उसने अपने मन को समझा लिया था कि यह सब मेरे कुदिन का फल है, सदन का कोई अपराध नहीं। वह वास्तव में विवश हैं। अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन करना उनका धर्म है। यह मेरी नीचता है कि मैं उन्हें धर्म के मार्ग से फेरना चाहती हूं। हा! मैंने अपने स्वामी से मान किया! मैंने अपने आराध्यदेव का निरादर किया, मैंने अपने कुटिल स्वार्थ के वश होकर उनका अपमान किया। ज्यों-ज्यों दिन बीतते थे, शान्ता की आत्मग्लानि बढ़ती थी। इस शोक, चिंता और विरह-पीड़ा से वह रमणी इस प्रकार सूख गई थी, जैसे जेठ महीने में नदी सूख जाती है।
सुमन झोंपड़े में चली गई, तो सदन धीरे-धीरे शान्ता के सामने आया और कांपते हुए स्वर से बोला– शान्ता।
यह कहते-कहते उसका गला रुंध गया।
शान्ता प्रेम से गद्गद् हो गई। उसका प्रेम उस विरत दशा को पहुंच गया, जब वह संकुचित स्वार्थ से मुक्त हो जाता है।
उसने मन में कहा, जीवन का क्या भरोसा है? मालूम नहीं, जीती रहूं या न रहूं, इनके दर्शन फिर हों या न हों, एक बार इनके चरणों पर सिर रखकर रोने की अभिलाषा क्यों रह जाए? इसका इससे उत्तम और कौन-सा अवसर मिलेगा? स्वामी! तुम एक बार अपने हाथों से उठाकर मेरे आंसू पोंछ दोगे, तो मेरा चित्त शांत हो जाएगा, मेरा जन्म सफल हो जाएगा। मैं जब तक जीऊंगी, इस सौभाग्य के स्मरण का आनंद उठाया करूंगी। मैं तो तुम्हारे दर्शनों की आशा ही त्याग चुकी थी, किंतु जब ईश्वर ने यह दिन दिखा दिया, तब अपनी मनोकामना क्यों न पूरी कर लूं? जीवनरूपी मरुभूमि में यह वृक्ष मिल गया है, तो इसकी छांह में बैठकर क्यों न अपने दग्ध हृदय को शीतल कर लूं।
यह सोचकर शान्ता रोती हुई सदन के पैरों पर गिर पड़ी, किंतु मुरझाया हुआ फूल हवा का झोंका लगते ही बिखर गया। सदन झुका कि उसे उठाकर छाती से लगा ले, चिपटा ले, लेकिन शान्ता की दशा देखकर उसका हृदय विकल हो गया। जब उसने उसे पहले-पहल नदी के किनारे देखा था, तब वह सौंदर्य की एक नई कोमल कली थी, पर आज वह एक सूखी हुई पीली पत्ती थी, जो बसंत ऋतु में गिर पड़ी है।
सदन का हृदय नदीं में चमकती हुई चन्द्र-किरणों के सदृश थरथराने लगा। उसने कांपते हुए हाथों से उस संज्ञाशून्य शरीर को उठा लिया। निराश अवस्था में उसने ईश्वर की शरण ली। रोते हुए बोला– प्रभो, मैंने बड़ा पाप किया है, मैंने एक कोमल संतप्त हृदय को बड़ी निर्दयता से कुचला है, पर इसका यह दंड़ असह्य है। इस अमूल्य रत्न को इतनी जल्दी मुझसे मत छीनो। तुम दयाराम हो, मुझ पर दया करो।
शान्ता को छाती से लगाए हुए सदन झोंपडी में गया और उसे पलंग पर लिटाकर, शोकातुर स्वर से बोला– सुमन, देखो, यह कैसी हुई जाती है। मैं डाक्टर के पास दौड़ा जाता हूं।
सुमन ने समीप आकर बहन को देखा। माथे पर पसीने की बूंदे आ गई थीं, आंखें पथराई हुईं। नाड़ी का कहीं पता नहीं। मुख वर्णहीन हो गया था। उसने तुरंत पंखा उठा लिया और झलने लगी। वह क्रोध जो शान्ता की दशा देख-देखकर महीनों से उसके दिल में जमा हो रहा था, फूट निकला। सदन की ओर तिरस्कारपूर्ण नेत्रों से देखकर बोली– यह तुम्हारे अत्याचार का फल है, यह तुम्हारी करनी है, तुम्हारे ही निर्दय हाथों ने इस फल को यों मसला है। तुमने अपने पैरों से इस पौधे को यों कुचला है। लो, अब तुम्हारा गला छूटा जाता है। सदन, जिस दिन से इस दुखिया ने तुम्हारी वह अभिमान भरी बातें सुनीं, इसके मुख पर हंसी नहीं आई, इसके आंसू कभी नहीं थमे। बहुत गला दबाने से दो-चार कौर खा लिया करती थी। और तुमने उसके साथ यह अत्याचार केवल इसलिए किया कि मैं उसकी बहन हूं, जिसके पैरों पर तुमने बरसों नाक रगड़ी है, जिसके तलुवे तुमने बरसों सहलाए हैं। जिसके प्रेम में तुम महीनों मतवाले हुए रहते थे। उस समय भी तो तुम अपने मां-बाप के आज्ञाकारी पुत्र थे या कोई और थे? उस समय भी तो तुम वही उच्च कुल के ब्राह्मण थे या कोई और थे? तब तुम्हारे दुष्कर्मों से खानदान की नाक न कटती थी? आज तुम आकाश के देवता बने फिरते हो। अंधेरे में जूठा खाने पर तैयार, पर उजाले में निमंत्रण भी स्वीकार नहीं। यह निरी धूर्त्तता है, दगाबाजी है। जैसा तुमने इस दुखिया के साथ किया है, उसका फल तुम्हें ईश्वर देंगे। इसे जो कुछ भुगतना था, वह भुगत चुकी। आज न मरी, कल मर जाएगी, लेकिन तुम इसे याद करके रोओगे। कोई और स्त्री होती, तो तुम्हारी बातें सुनकर फिर तुम्हारी ओर आंख उठाकर न देखती, तुम्हें कोसती, लेकिन यह अबला सदा तुम्हारे नाम पर मरती रही। लाओ, थोड़ा ठंडा पानी।
सदन अपराधी की भांति सिर झुकाए ये बातें सुनता रहा। इससे उसका हृदय कुछ हल्का हुआ। सुमन ने यदि उसे गालियां दी होतीं, तो और भी बोध होता। वह अपने को इस तिरस्कार के सर्वथा योग्य समझता था।
उसने ठंडे पानी का कटोरा सुमन को दिया और स्वयं पंखा झलने लगा। सुमन ने शान्ता के मुंह पर पानी के कई छींटे दिए। इस पर जब शान्ता ने आंखें न खोलीं, तब सदन बोला– जाकर डाक्टर को बुला लाऊं न?
सुमन– नहीं, घबराओ मत। ठंडक पहुंचते ही होश आ जाएगा। डाक्टर के पास इसकी दवा नहीं।
सदन को कुछ तसल्ली हुई, बोला– सुमन, चाहे तुम समझो कि मैं बात बना रहा हूं, लेकिन मैं तुमसे सत्य कहता हूं कि उसी मनहूस घड़ी से मेरी आत्मा को कभी शांति नहीं मिली। मैं बार-बार अपनी मूर्खता पर पछताता था। कई बार इरादा किया कि चलकर अपना अपराध क्षमा कराऊं, लेकिन यही विचार उठता कि किस बूते पर जाऊं? घरवालों से सहायता की कोई आशा न थी, और मुझे तो तुम जानती ही हो कि सदा कोतल घोड़ा बना रहा। बस, इसी चिंता में डूबा रहता था कि किसी प्रकार चार पैसे पैदा करूं और अपनी झोंपड़ी अलग बनाऊं। महीनों नौकरी की खोज में मारा-मारा फिरा, कहीं ठिकाना न लगा। अंत को मैंने गंगा-माता की शरण ली और अब ईश्वर की दया से मेरी नाव चल निकली है। अब मुझे किसी सहारे या मदद की आवश्यकता नहीं है। यह झोंपड़ी बना ली है, और विचार है कि कुछ रुपए और आ जाएं, तो उस पार किसी गांव में एक मकान बनवा लूं। क्योंकि, इनकी तबीयत कुछ संभलती मालूम होती है?
सुमन का क्रोध शांत हुआ। बोली– हां, अब कोई भय नहीं है, केवल मूर्च्छा थी। आंखें बंद हो गईं और होठों का नीलापन जाता रहा।
सदन को ऐसा आनंद हुआ कि यदि वहां ईश्वर की कोई मूर्ति होती, तो उसके पैरों पर सिर रख देता। बोला– सुमन, तुमने मेरे साथ जो उपकार किया है, उसको मैं सदा याद करता रहूंगा। अगर और कोई बात हो जाती, तो इस लाश के साथ मेरी लाश भी निकलती।
सुमन– यह कैसी बात मुंह से निकालते हो। परमात्मा चाहेंगे तो यह बिना दवा के अच्छी हो जाएगी और तुम दोनों बहुत दिनों तक सुख से रहोगे। तुम्हीं उसकी दवा हो। तुम्हारा प्रेम ही उसका जीवन है, तुम्हें पाकर अब उसे किसी वस्तु की लालसा नहीं है। लेकिन अगर तुमने भूलकर भी उसका अनादर या अपमान किया, तो फिर उसकी यही दशा हो जाएगी और तुम्हें हाथ मलना पड़ेगा।
इतने में शान्ता ने करवट बदली और पानी मांगा। सुमन ने पानी का गिलास उसके मुंह से लगा दिया। उसने दो-तीन घूंट पीया और फिर चारपाई पर लेट गई। वह विस्मित नेत्रों से इधर-उधर ताक रही थी, मानो उसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं है। वह चौंककर उठ बैठी और सुमन की ओर ताकती हुई बोली– क्यों, यही मेरा घर है न? हां-हां, यही है, और वह कहां हैं मेरे स्वामी, मेरे जीवन के आधार! उन्हें बुलाओ, आकर मुझे दर्शन दें, बहुत जलाया है, इस दाह को बुझाएं। मैं उनसे कुछ पूछूंगी। क्या नहीं आते? तो लो, मैं ही चलती हूं। आज मेरी उनसे तकरार होगी। नहीं, मैं उनसे तकरार न करूंगी, केवल यही कहूंगी कि अब मुझे छोड़कर कहीं मत जाओ। चाहे गले का हार बनाकर रखो, चाहे पैरों की बेड़ियां बनाकर रखो, पर अपने साथ रखो। वियोग-दुख अब नहीं सहा जाता। मैं जानती हूं कि तुम मुझसे प्रेम करते हो। अच्छा, न सही, तुम मुझे नहीं चाहते, मैं तुम्हें चाहती हूं। अच्छा, यह भी न सही, मैं भी तुम्हें नहीं चाहती, मेरा विवाह तो तुमसे हुआ है, नहीं, नहीं हुआ! अच्छा कुछ न सही, मैं तुमसे विवाह नहीं करती, लेकिन मैं तुम्हारे साथ रहूंगी और अगर तुमने आंख फेरी तो अच्छा न होगा। हां, अच्छा न होगा, मैं संसार में रोने के लिए नहीं आई हूं। प्यारे, रिसाओ मत। यही होगा, दो-चार आदमी हंसेंगे, ताने देंगे। मेरी खातिर उसे सह लेना। क्या मां-बाप छोड़ देंगे, कैसी बात कहते हो? मां-बाप अपने लड़के को नहीं छोड़ते। तुम देख लेना, मैं उन्हें खींच लाऊंगी, मैं अपनी सास के पैर धो-धो पीऊंगी, अपने ससुर के पैर दबाऊंगी, क्या उन्हें मुझ पर दया न आएगी? यह कहते-कहते शान्ता की आंखें फिर बंद हो गई।
सुमन ने सदन से कहा– अब सो रही है, सोने दो। एक नींद सो लेगी, तो उसका जी संभल जाएगा। रात अधिक बीत गई है, अब तुम भी घर जाओ, शर्माजी बैठे घबराते होंगे।
सदन– आज न जाऊंगा।
सुमन– नहीं-नहीं, वे लोग घबराएंगे। शान्ता अब अच्छी है, देखो, कैसे सुख से सोती है। इतने दिनों में आज ही मैंने उसे यों सोते देखा है। सदन नहीं माना, वहीं बरामदे में आकर चौकी पर लेट रहा और सोचने लगा। 

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रचनाएँ
सेवासदन
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प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। सेवासदन में नारी जीवन की समस्याओं के साथ-साथ समाज के धर्माचार्यों, मठाधीशों, धनपतियों, सुधारकों के आडंबर, दंभ, ढोंग, पाखंड, चरित्रहीनता, दहेज-प्रथा, बेमेल विवाह, पुलिस की घूसखोरी, वेश्यागमन, मनुष्य के दोहरे चरित्र, साम्प्रदायिक द्वेष आदि सामाजिक विकृतियों का विवरण मिलता है।सेवासदन उपन्यास की मुख्य समस्या क्या है? “सेवासदन” में प्रेमचन्द दिखाते है कि हमारी सामाजिक कुरीतियाँ स्त्रियों के जीवन को विवश करती है । इसकी मुख्य समस्या मध्य वर्गीय लोगों की आडंबर प्रियता से संबंधित है । प्रेमचन्द यह बताना चाहता है कि मनुष्य को जीने के लिए धन द्वारा प्राप्त सुख के समान मन द्वारा प्राप्त सुख भी चाहिए ।प्रेमचंद ने जहाँ एक ओर नारी की सामाजिक पराधीनता उसके फलसवरूप उत्पन्न समस्याओं को अपने इस उपन्यास में अभिव्यक्ति प्रदान की है, वहीं दूसरी ओर यह भी दिखलाया है कि किस प्रकार उनके नारी-पात्र उपन्यास के अंत तक आते-आते सामाजिक अन्याय से मुक्ति पाने का मार्ग स्वयं ही खोज देते हैं।
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सेवासदन (भाग 1)

9 फरवरी 2022
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1 पश्चाताप के कड़वे फल कभी-न-कभी सभी को चखने पड़ते हैं, लेकिन और लोग बुराईयों पर पछताते हैं, दारोगा कृष्णचन्द्र अपनी भलाइयों पर पछता रहे थे। उन्हें थानेदारी करते हुए पच्चीस वर्ष हो गए, लेकिन उन्हों

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दारोगाजी के हल्के में एक महन्त रामदास रहते थे। वह साधुओं की एक गद्दी के महंत थे। उनके यहां सारा कारोबार ‘श्री बांकेबिहारीजी’ के नाम पर होता था। ‘श्री बांकेबिहारीजी’ लेन-देन करते थे और बत्तीस रुपये प्र

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पण्डित कृष्णचन्द्र रिश्वत लेकर उसे छिपाने के साधन न जानते थे । इस विषय में अभी नोसिखुए थे । उन्हें मालूम न था कि हराम का माल अकेले मुश्किल से पचता है । मुख्तार ने अपने मन मे कहा, हमीं ने सब कुछ किया औ

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कृष्णचन्द्र अपने कस्बे में सर्वप्रिय थे । यह खबर फैलते ही सारी बस्ती में हलचल मच गई । कई भले आदमी उनकी जमानत करने आये लेकिन साहब ने जमानत न ली । इसके एक सप्ताह बाद कृष्णचन्द्र पर रिश्वत लेने का अभियो

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फागुन में सुमन का विवाह हो गया। गंगाजली दामाद को देखकर बहुत रोई। उसे ऐसा दुःख हुआ, मानो किसी ने सुमन को कुएं में डाल दिया। सुमन ससुराल आई तो यहां की अवस्था उससे भी बुरी पाई, जिसकी उसने कल्पना की थी।

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सुमन को ससुराल आए डेढ़ साल के लगभग हो चुका था, पर उसे मैके जाने का सौभाग्य न हुआ था। वहां से चिट्ठियां आती थीं। सुमन उत्तर में अपनी मां को समझाया करती, मेरी चिंता मत करना, मैं बहुत आनंद से हूं, पर अब

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गजाधरप्रसाद की दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो चोरों के बीच में अशर्फियों की थैली लिए बैठा हो। सुमन का वह मुख-कमल, जिस पर वह कभी भौंरे की भांति मंडराया करता था, अब उसकी आँखों में जलती हुई आग के समान था। वह

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दूसरे दिन से सुमन ने चिक के पास खड़ा होना छोड़ दिया। खोंचेवाले आते और पुकार कर चले जाते। छैले गजल गाते हुए निकल जाते। चिक की आड़ में अब उन्हें कोई न दिखाई देता था। भोली ने कई बार बुलाया, लेकिन सुमन ने

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दूसरे दिन सुमन नहाने न गई। सबेरे ही से अपनी एक रेशमी साड़ी की मरम्मत करने लगी। दोपहर को सुभद्रा की एक महरी उसे लेने आई। सुमन ने मन में सोचा था, गाड़ी आवेगी। उसका जी छोटा हो गया। वही हुआ जिसका उसे भ

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दरवाजे पर आकर सुमन सोचने लगी कि अब कहां जाऊं। गजाधर की निर्दयता से भी उसे दुःख न हुआ था, जितना इस समय हो रहा था। उसे अब मालूम हुआ कि मैंने अपने घर से निकलकर बड़ी भूल की। मैं सुभद्रा के बल पर कूद रही थ

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सेवासदन (भाग-2)

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सुमन के चले जाने के बाद पद्मसिंह के हृदय में एक आत्मग्लानि उत्पन्न हुई– मैंने अच्छा नहीं किया। न मालूम वह कहां गई। अपने घर चली गई तो पूछना ही क्या, किन्तु वहां वह कदापि न गई होगी। मरता क्या न करता, कह

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दूसरे दिन पद्मसिंह सदन को साथ किसी लेकर स्कूल में दाखिल कराने चले। किंतु जहां गए, साफ जवाब मिला ‘स्थान नहीं है।’ शहर में बारह पाठशालाएं थीं। लेकिन सदन के लिए कहीं स्थान न था। शर्माजी ने विवश होकर निश

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प्राचीन ऋषियों ने इंद्रियों को दमन करने के दो साधन बताए हैं– एक राग, दूसरा वैराग्य। पहला साधन अत्यंत कठिन और दुस्साध्य है। लेकिन हमारे नागरिक समाज ने अपने मुख्य स्थानों पर मीनाबाजार सजाकर इसी कठिन मार

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महाशय विट्ठलदास इस समय ऐसे खुश थे मानों उन्हें कोई संपत्ति मिल गई हो। उन्हें विश्वास था कि पद्मसिंह इस जरा से कष्ट से मुंह न मोड़ेंगे, केवल उनके पास जाने की देर है। वह होली के कई दिन पहले से शर्माजी क

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संध्या का समय है। सदन अपने घोड़े पर सवार दालमंडी में दोनों तरफ छज्जों और खिड़कियों की ओर ताकता जा रहा है। जब से सुमन वहां आई है, सदन उसके छज्जे के सामने किसी-न-किसी बहाने से जरा देर के लिए अवश्य ठहर ज

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बाबू विट्ठलदास अधूरा काम न करते थे। पद्मसिंह की ओर से निराश होकर उन्हें यह चिंता होने लगी कि सुमनबाई के लिए पचास रुपए मासिक का चंदा कैसे करूं? उनकी स्थापित की हुई संस्थाएं चंदों ही से चल रही थीं, लेकि

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शाम हो गई। सुमन ने दिन-भर विट्ठलदास की राह देखी, लेकिन वह अब तक नहीं आए। सुमन के मन में जो नाना प्रकार की शंकाएं उठ रही थीं, वह पुष्ट हो गईं। विट्ठलदास अब नहीं आएंगे, अवश्य कोई विघ्न पड़ा। या तो वह कि

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सुभद्रा को संध्या के समय कंगन की याद आई। लपकी हुई स्नान-घर में गई। उसे खूब याद था कि उसने यहीं ताक पर रख दिया था, लेकिन उसका वहाँ पता न था। इस पर वह घबराई। अपने कमरे के प्रत्येक ताक और आलमारी को देखा,

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विट्ठलदास को संदेह हुआ कि सुमन तीस रुपए मासिक स्वीकार करना नहीं चाहती, इसलिए उसने कल उत्तर देने का बहाना करके मुझे टाला है। अतएव वे दूसरे दिन उसके पास नहीं गए, इसी चिंता में पड़े रहे कि शेष रुपयों का

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सुमन पार्क से लौटी तो उसे खेद होने लगा कि मैंने शर्माजी को वे ही दुखानेवाली बातें क्यों कहीं उन्होंने इतनी उदारता से मेरी सहायता की, जिसका मैंने यह बदला दिया? वास्तव में मैंने अपनी दुर्बलता का अपराध उ

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सदन प्रातःकाल घर गया, तो अपनी चाची के हाथों में कंगन देखा। लज्जा से उसकी आंखें जमीन में गड़ गईं। नाश्ता करके जल्दी से बाहर निकल आया और सोचने लगा, यह कंगन इन्हें कैसे मिल गया? क्या यह संभव है कि सुमन

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यह बात बिल्कुल तो असत्य नहीं है कि ईश्वर सबको किसी-न-किसी हीले से अन्न-वस्त्र देता है। पंडित उमानाथ बिना किसी हीले ही के संसार का सुख-भोग करते थे। उनकी आकाशी वृत्ति थी। उनके भैंस और गाएं न थीं, लेकिन

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सार्वजनिक संस्थाएं भी प्रतिभाशाली मनुष्य की मोहताज होती हैं। यद्यपि विट्ठलदास के अनुयायियों की कमी न थी, लेकिन उनमें प्रायः सामान्य अवस्था के लोग थे। ऊंची श्रेणी के लोग उनसे दूर भागते थे। पद्मसिंह के

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रात के नौ बजे थे। पद्मसिंह भाई के साथ बैठे हुए विवाह के संबंध में बातचीत कर रहे थे। कल बारात जाएगी। दरवाजे पर शहनाई बज रही थी और भीतर गाना हो रहा था। मदनसिंह– तुमने जो गाड़ियां भेजी हैं; वह कल शाम तक

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बरसात के दिन थे, छटा छाई हुई थी। पंडित उमानाथ चुनारगढ़ के निकट गंगा के तट पर खड़े नाव की बाट जोह रहे थे। वह कई गांवों का चक्कर लगाते हुए आ रहे थे और संध्या होने से पहले चुनार के पास एक गांव में जाना च

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पंडित उमानाथ सदनसिंह का फलदान चढ़ा आए हैं। उन्होंने जाह्नवी से गजानन्द की सहायता की चर्चा नहीं की थी। डरते थे कि कहीं यह इन रुपयों को अपनी लड़कियों के विवाह के लिए रख छोड़ने पर जिद्द न करने लगे। जाह्न

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एक रोज उमानाथ ने कृष्णचन्द्र के सहचरों को धमकाकर कहा– अब तुमलोगों को उनके साथ बैठकर चरस पीते देखा तो तुम्हारी कुशल नहीं। एक-एक की बुरी तरह खबर लूंगा। उमानाथ का रोब सारे गांव पर छाया हुआ था। वे सब-के-स

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सेवासदन (भाग-3)

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30 शहर की म्युनिसिपैलिटी में कुल अठारह सभासद थे। उनमें आठ मुसलमान थे और दस हिन्दू। सुशिक्षित मेंबरों की संख्या अधिक थी, इसलिए शर्माजी को विश्वास था कि म्युनिसिपैलिटी में वेश्याओं को नगर से बाहर निकाल

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इस प्रस्ताव के विरोध में हिंदू मेंबरों को जब मुसलमानों के जलसे का हाल मालूम हुआ तो उनके कान खड़े हुए। उन्हें मुसलमानों से जो आशा थी, वह भंग हो गई। कुल दस हिंदू थे। सेठ बलभद्रदास चेयरमैन थे। डॉक्टर श्य

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जिस प्रकार कोई आलसी मनुष्य किसी के पुकारने की आवाज सुनकर जाग जाता है, किंतु इधर-उधर देखकर फिर निद्रा में मग्न हो जाता है, उसी प्रकार पंडित कृष्णचन्द्र क्रोध और ग्लानि का आवेश शांत होने पर अपने कर्त्तव

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सदन के विवाह का दिन आ गया। चुनार से बारात अमोला चली। उसकी तैयारियों का वर्णन व्यर्थ है। जैसी अन्य बारातें होती हैं, वैसी ही यह भी थी। वैभव और दरिद्रता का अत्यन्त करुणात्मक दृश्य था। पालकियों पर कारचोब

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विट्ठलदास ने सुमन को विधवाश्रम में गुप्त रीति से रखा था। प्रबंधकारिणी सभा के किसी सदस्य को इत्तिला न दी थी। आश्रम की विधवाओं से उसे विधवा बताया था। लेकिन अबुलवफा जैसे टोहियों से यह बात बहुत दिनों तक ग

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यद्यपि डॉक्टर साहब का बंगला निकट ही था, पर इन दोनों आदमियों ने एक किराए की गाड़ी की। डॉक्टर साहब के यहां पैदल जाना फैशन के विरुद्ध था। रास्ते में विट्ठलदास ने आज के सारे समाचार बढ़ा-चढ़ाकर बयान किए और

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सदन जब घर पर पहुंचा, तो उसके मन की दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो बरसों की कमाई लिए, मन में सहस्रों मंसूबे बांधता, हर्ष से उल्लसित घर आए और यहां संदूक खोलने पर उसे मालूम हो कि थैली खाली पड़ी है। विचारों

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सदन को व्याख्यानों की ऐसी चाट पड़ी कि जहां कहीं व्याख्यान की खबर पाता, वहां अवश्य जाता, दोनों पक्षों की बातें महीनों सुनने और उन पर विचार करने से उसमें राय स्थिर करने की योग्यता आने लगी। अब वह किसी यु

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जिस दिन से बारात लौट गई, उसी दिन से कृष्णचन्द्र फिर से बाहर नहीं निकले। मन मारे हुए अपने कमरे में बैठे रहते। उन्हें अब किसी को अपना मुंह दिखाते लज्जा आती थी। दुश्चरित्रा सुमन ने उन्हें संसार की दृष्टि

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प्रातःकाल यह शोक-समाचार अमोला में फैल गया। इने-गिने सज्जनों को छोड़कर कोई भी उमानाथ के द्वार पर संवेदना प्रकट करने न आया। स्वाभाविक मृत्यु हुई होती, तो संभवतः उनके शत्रु भी आकर चार आंसू बहा जाते, पर आ

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पद्मसिंह का पहला विवाह उस समय हुआ था, जब वह कॉलेज में पढ़ते थे, और एम. ए. पास हुए, तो वह एक पुत्र के पिता थे। पर बालिका वधू शिशु-पालन का मर्म न जानती थी। बालक जन्म के समय तो हृष्ट-पुष्ट था, पर पीछे धी

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शान्ता ने पत्र तो भेजा, पर उसको उत्तर आने की कोई आशा न थी। तीन दिन बीत गए, उसका नैराश्य दिनों-दिन बढ़ता जा रहा था। अगर कुछ अनुकूल उत्तर न आया, तो उमानाथ अवश्य ही उसका विवाह कर देंगे, यह सोचकर शान्ता क

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शान्ता को आश्रम में आए एक मास से ऊपर हो गया, लेकिन पद्मसिंह ने अभी तक अपने घर में किसी से इसकी चर्चा नहीं की। कभी सोचते, भैया को पत्र लिखूं, कभी सोचते, चलकर उनसे कहूं, कभी विट्ठलदास को भेजने का विचार

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पद्मसिंह की आत्मा किसी भांति इस तरमीम के स्वीकार करने में अपनी भूल स्वीकार न करती थी। उन्हें कदापि यह आशा न थी कि उनके मित्रगण एक गौण बात पर उनका इतना विरोध करेंगे। उन्हें प्रस्ताव के एक अंश के अस्वीक

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सदन जब सुमन को देखकर लौटा, तो उसकी दशा उस दरिद्र मनुष्य की-सी थी, जिसका वर्षों का धन चोरों ने हर लिया हो। वह सोचता था, सुमन मुझसे बोली क्यों नहीं, उसने मेरी ओर ताका क्यों नहीं? क्या वह मुझे इतना नीच

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सेवासदन (भाग-4)

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46 सदन को ऐसी ग्लानि हो रही थी, मानों उसने कोई बड़ा पाप किया हो। वह बार-बार अपने शब्दों पर विचार करता और यही निश्चय करता कि मैं बड़ा निर्दय हूं। प्रेमाभिलाषा ने उसे उन्मत्त कर दिया था। वह सोचता, मुझ

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प्रभाकर राव का क्रोध बहुत कुछ तो सदन के लेखों से ही शांत हो गया था और जब पद्मसिंह ने सदन के आग्रह से सुमन का पूरा वृत्तांत उन्हें लिख भेजा, तो वह सावधान हो गए। म्युनिसपैलिटी में प्रस्ताव को पास हुए ल

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एक महीना बीत गया। सदन ने अपने इस नए धंधे की चर्चा घर में किसी से न की। वह नित्य सबेरे उठकर गंगा-स्नान के बहाने चला जाता। वहां से दस बजे घर आता। भोजन करके फिर चल देता और तब का गया-गया घड़ी रात गए, घर ल

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बाबू विट्ठलदास न्यायप्रिय सरल मनुष्य थे, जिधर न्याय खींच ले जाता, उधर चले जाते थे। इसमें लेश-मात्र भी संकोच न होता था। जब उन्होंने पद्मसिंह को न्यायपथ से हटते देखा, तो उनका साथ छोड़ दिया और कई महीने त

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सदनसिंह का विवाह संस्कार हो गया। झोंपड़ा खूब सजाया गया था। वही मंडप का काम दे रहा था, लेकिन कोई भीड़-भाड़ न थी। पद्मसिंह उस दिन घर चले गए और मदनसिंह से सब समाचार कहा। वह यह सुनते ही आग हो गए, बोले– म

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जैसे सुंदर भाव के समावेश से कविता में जान पड़ जाती है और सुंदर रंगों से चित्र में, उसी प्रकार दोनों बहनों के आने से झोंपड़ी में जान आ गई। अंधी आंखों में पुतलियां पड़ गई हैं। मुर्झाई हुई कली शान्ता अब

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पंडित पद्मसिंह के चार-पांच मास के सदुद्योग का यह फल हुआ कि बीस-पच्चीस वेश्याओं ने अपनी लड़कियों को अनाथालय में भेजना स्वीकार कर लिया। तीन वेश्याओं ने अपनी सारी संपत्ति अनाथालय के निमित्त अर्पण कर दी,

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पंडित मदनसिंह की कई महीने तक यह दशा थी कि जो कोई उनके पास आता, उसी से सदन की बुराई करते-कपूत है, भ्रष्ट है, शोहदा है, लुच्चा है, एक कानी कौड़ी तो दूंगा नहीं, भीख मांगता फिरेगा, तब आटे-दाल का भाव मालूम

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जिस प्रकार कोई मनुष्य लोभ के वश होकर आभूषण चुरा लेता है, पर विवेक होने पर उसे देखने में भी लज्जा आती है, उसी प्रकार सदन भी सुमन से बचता फिरता था। इतना ही नहीं, वह उसे नीची दृष्टि से देखता था और उसकी उ

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संध्या का समय है। आकाश पर लालिमा छाई हुई है और मंद वायु गंगा की लहरों पर क्रीड़ा कर रही है, उन्हें गुदगुदा रही है। वह अपने करुण नेत्रों से मुस्कराती है और कभी-कभी खिलखिलाकर हंस पड़ती है, तब उसके मोती

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एक साल बीत गया। पंडित मदनसिंह पहले तीर्थ यात्रा पर उधार खाए बैठे थे। जान पड़ता था, सदन के घर आते ही एक दिन भी न ठहरेंगे, सीधे बद्रीनाथ पहुंचकर दम लेंगे, पर जब से सदन आ गया है, उन्होंने भूलकर भी तीर्थ-

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कार्तिक का महीना था। पद्मसिंह सुभद्रा को लेकर गंगा-स्नान कराने ले गए थे। लौटती बार वह अलईपुर की ओर से आ रहे थे। सुभद्रा गाड़ी की खिड़की से बाहर झांकती चली आती थी और सोचती थी कि यहाँ इस सन्नाटे में लोग

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