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10 फरवरी 2022

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पद्मसिंह का पहला विवाह उस समय हुआ था, जब वह कॉलेज में पढ़ते थे, और एम. ए. पास हुए, तो वह एक पुत्र के पिता थे। पर बालिका वधू शिशु-पालन का मर्म न जानती थी। बालक जन्म के समय तो हृष्ट-पुष्ट था, पर पीछे धीरे-धीरे क्षीण होने लगा था। यहां तक छठे महीने माता और शिशु दोनों ही चल बसे। पद्मसिंह ने निश्चय किया, अब विवाह न करूंगा। मगर वकालत पास करने पर उन्हें फिर वैवाहिक बंधन में फंसना पड़ा। सुभद्रा रानी वधू बनकर आई। इसे आज सात वर्ष हो गए।
पहले दो-तीन साल तक तो पद्मसिंह को संतान का ध्यान ही नहीं हुआ। यदि भामा इसकी चर्चा करती, तो वह टाल जाते। कहते, मुझे संतान की इच्छा नहीं। मुझसे यह बोझ न संभलेगा। अभी तक संतान की आशा थी, इसीलिए अधीर न होते थे।
लेकिन जब चौथा साल भी यों ही कट गया, तो उन्हें कुछ निराशा होने लगी। मन में चिंता हुई क्या सचमुच मैं निःसंतान ही रहूंगा। ज्यों-ज्यों दिन गुजरते थे, यह चिंता बढ़ती जाती थी। अब उन्हें अपना जीवन कुछ शून्य-सा मालूम होने लगा। सुभद्रा से वह प्रेम न रहा, सुभद्रा ने इसे ताड़ लिया। उसे दुख तो हुआ, पर इसे अपने कर्मों का फल समझकर उसने संतोष किया।
पद्मसिंह अपने को बहुत समझाते कि तुम्हें संतान लेकर क्या करना है? जन्म से लेकर पच्चीस वर्ष की आयु तक उसे जिलाओ, खिलाओ, पढ़ाओ तिस पर भी यह शंका लगी ही रहती है कि वह किसी ढंग की होगी भी या नहीं। लड़का मर गया, तो उसके नाम को लेकर रोओ। जो कहीं हम मर गए, तो उसकी जिंदगी नष्ट हो गई। हमें यह सुख नहीं चाहिए। लेकिन इन विचारों से मन को शांति न होती। वह सुभद्रा से अपने भावों को छिपाने की चेष्टा करते थे और उसे निर्दोष समझकर उसके साथ पूर्ववत् प्रेम करना चाहते थे, पर जब हृदय पर नैराश्य का अंधकार छाया हो, तो मुख पर प्रकाश कहां से आए? साधारण बुद्धि का मनुष्य भी कह सकता था कि स्त्री-पुरुष के बीच में कुछ-न-कुछ अंतर है। कुशल यही थी कि सुभद्रा की ओर से पतिप्रेम और सेवा में कुछ कमी न थी, दिनोंदिन उसमें और कोमलता आती जाती थी, वह अपने प्रेमानुराग से संतान-लालसा को दबाना चाहती थी, पर इस दुस्तर कार्य में वह उस वैद्य से अधिक सफल न होती थी, जो रोगी को गीतों से अच्छा करना चाहता हो। गृहस्थी की छोटी-छोटी बातों पर, जो अनुचित होने पर भी पति को ग्राह्य हो जाया करती हैं, उसे सदैव दबना पड़ता था और जब से सदन यहां रहने लगा था, कितनी ही बार उसके पीछे तिरस्कृत होना पड़ा। स्त्री अपने पति के बर्छों का घाव सह सकती है, पर किसी दूसरे के पीछे उसकी तीव्र दृष्टि भी उसे असह्य हो जाती है। सदन सुभद्रा की आंखों में कांटे की तरह गड़ता था। अंत को कल वह उबल पड़ी। गर्मी सख्त थी। मिसिराइन किसी कारण से न आई थी, सुभद्रा को भोजन बनाना पड़ा। उसने पद्मसिंह के लिए फुल्कियां पकाई। लेकिन गर्मी से व्याकुल थी, इसलिए सदन के लिए मोटी-मोटी रोटियां बना दी। पद्मसिंह भोजन करने बैठे, सदन की थाली में रोटियां देखीं, तो मारे क्रोध के अपनी फुल्कियां उसकी थाली में रख दीं। और उसकी रोटियां अपनी थाली में डाल लीं। सुभद्रा ने जलकर कुछ कटु वाक्य कहे, पद्मसिंह ने वैसा ही उत्तर दिया। फिर प्रत्युत्तर की नौबत आई। यहां तक कि वह झल्लाकर चौके से उठ गए। सुभद्रा ने मनावन नहीं किया। उसने रसोई उठा दी और जाकर लेट रही, पर अभी तक दो में से एक का भी क्रोध शांत नहीं हुआ। मिसिराइन ने आज खाना बनाया, पर न पद्मसिंह ने खाया, न सुभद्रा ने। सदन बारी-बारी से दोनों की खुशामद कर रहा था, पर एक तरफ से यह उत्तर पाता, अभी भूख नहीं है और दूसरी तरफ से जवाब मिलता खा लूंगी, यह थोड़े ही छूटेगा। यही छूट जाता, तो काहे किसी की धौंस सहनी पड़ती। आश्चर्य था कि सदन से सुभद्रा हंस-हंसकर बातें करती थी और वही इस कलह का मूल कारण था। मृगा खूब जानता है कि टट्टी की आड़ से आने वाला तीर वास्तव में शिकारी की मांस-तृष्णा या मृगया प्रेम है।
तीसरा पहर हो गया था, पद्मसिंह सोकर उठे थे और जम्हाइयां ले रहे थे। उनका हृदय सुभद्रा के प्रति अनुदार, अप्रिय, दग्धकारी भावों से मलिन हो रहा था। सुभद्रा के अतिरिक्त यह प्राणि-मात्र से सहानुभूति करने को तैयार बैठे थे। इसी समय डाकिए ने एक बैरंग चिट्ठी लाकर उन्हें दी। उन्होंने डाकिए को इस अप्रसन्नता की दृष्टि से देखा, मानों बैरंग चिट्ठी लाकर उसने कोई अपराध किया है। पहले तो उन्हें इच्छा हुई कि इसे लौटा दें, किसी दरिद्र मुवक्किल ने इसमें अपनी विपत्ति गाई होगी, लेकिन कुछ सोचकर चिट्ठी ले ली और खोलकर पढ़ने लगे। यह शान्ता का पत्र था। उसे एक बार पढ़कर मेज पर रख दिया। एक क्षण के बाद फिर उठाकर पढ़ा और तब कमरे में टहलने लगे। इस समय यदि मदनसिंह वहां होते, तो वह पत्र उन्हें दिखाते और कहते, यह आपके कुल-मर्यादाभिमान का– आपके लोक-निंदा, भय का फल है। आपने एक मनुष्य का प्राणाघात किया, उसकी हत्या आपके सिर पड़ेगी। पद्यसिंह को मुकदमें की बात पढ़कर एक प्रकार का आनंद-सा हुआ। बहुत अच्छा हो कि यह मुकदमा दायर हो और उनकी कुलीनता का गर्व धूल में मिल जाए। उमानाथ की डिग्री अवश्य होगी और तब भाई साहब को ज्ञात होता कि कुलीनता कितनी मंहगी वस्तु है। हाय! उस अबला कन्या के हृदय पर क्या बीत रही होगी? पद्मसिंह ने फिर उस पत्र को पढ़ा। उन्हें उसमें अपने प्रति श्रद्धा का एक स्रोत-सा बहता हुआ मालूम हुआ। इसने उनकी न्यायप्रियता को उत्तेजित-सा कर दिया। ‘धर्मपिता’ शब्द ने उन्हें वशीभूत कर दिया। उसने उनके हृदय में वात्सल्य के तार का स्वर कंपित कर दिया। वह कपड़े पहनकर विट्ठलदास के मकान पर जा पहुंचे, वहां मालूम हुआ कि वे कुंवर अनिरुद्धसिंह के यहां गए हुए हैं। तुरंत बाइसिकल उधर फेर दी। वह शान्ता के विषय में इसी समय कुछ-न-कुछ निश्चय कर लेना चाहते थे। उन्हें भय था कि विलंब होने से यह जोश ठंडा न पड़ जाए।
कुंवर साहब के यहां ग्वालियर से एक जलतरंग बजाने वाला आया हुआ था। उसी का गाना सुनने के लिए आज उन्होंने मित्रों को निमंत्रित किया था। पद्मसिंह वहां पहुंचे तो विट्ठलदास और प्रोफेसर रमेशदत्त में उच्च स्वर में विवाद हो रहा था और कुंवर साहब, पंडित प्रभाकर राव तथा सैयद तेगअली बैठे हुए इस लड़ाई का तमाशा देख रहे थे।
शर्माजी को देखते ही कुंवर साहब ने उनका स्वागत किया। बोले– आइए, आइए, देखिए यहां घोर संग्राम हो रहा है। किसी तरह इन्हें अलग कीजिए, नहीं तो ये लड़ते-लड़ते मर जाएंगे।
इतने में प्रोफेसर रमेशदत्त बोले– थियासोफिस्ट होना कोई गाली नहीं है। मैं थियासोफिस्त हूं और इसे सारा शहर जानता है। हमारे ही समाज के उद्योग का फल है कि आज अमेरिका, जर्मनी, रूस इत्यादि देशों में आपको राम और कृष्ण के भक्त और गीता, उपनिषद् आदि सद्ग्रंथों के प्रेमी दिखाई देने लगे हैं। हमारे समाज ने हिन्दू जाति का गौरव बढ़ा दिया है, उसके महत्त्व को प्रसारित कर दिया है और उसे उस उच्चासन पर बिठा दिया है, जिसे वह अपनी अकर्मण्यता के कारण कई शताब्दियों से छोड़ बैठी थी, यह हमारी परम कृतघ्नता होगी, अगर हम उन लोगों का यश न स्वीकार करें, जिन्होंने अपने दीपक से हमारे अंधकार को दूर करके हमें वे रत्न दिखा दिए हैं, जिन्हें देखने का हममें सामर्थ्य न था। यह दीपक ब्लाबेट्स्की का हो, या आल्क्ट का या किसी अन्य पुरुष का, हमें इससे कोई प्रयोजन नहीं। जिसने हमारा अंधकार मिटाया हो उसका अनुगृहीत होना हमारा कर्त्तव्य है। अगर आप इसे गुलामी कहते हैं, तो यह आपका अन्याय है।
विट्ठलदास ने इस कथन को ऐसे उपेक्ष्य भाव से सुना, मानो वह कोई निरर्थक बकवाद है और बोले– इसी का नाम गुलामी है, बल्कि गुलाम तो एक प्रकार से स्वतंत्र होता है, उसका अधिकार शरीर पर होता है, आत्मा पर नहीं। आप लोगों ने तो अपनी आत्मा को ही बेच दिया है। आपकी अंग्रेजी शिक्षा ने आपको ऐसा पद्दलित किया है कि जब तक यूरोप का कोई विद्वान किसी विषय के गुण-दोष प्रकट न करे, तब तक आप उस विषय की ओर से उदासीन रहते हैं। आप उपनिषदों का आदर इसलिए नहीं करते कि वह स्वयं आदरणीय है, बल्कि इसलिए करते हैं कि ब्लाबेट्स्की और मैक्समूलर ने उनका आदर किया है आपमें अपनी बुद्धि से काम लेने की शक्ति का लोप हो गया है। अभी तक आप तांत्रिक विद्या की बात भी न पूछते थे। अब जो यूरोपीय विद्वानों ने उसका रहस्य खोलना शुरू किया, तो आपको अब तंत्रों में गुण दिखाई देते हैं। यह मानसिक गुलामी उस भौतिक गुलामी से कहीं गई-गुजरी है। आप उपनिषदों को अंग्रेजी में पढ़ते हैं, गीता को जर्मन में। अर्जुन को अर्जुना, कृष्ण को कृशना कहकर अपने स्वभाषा-ज्ञान का परिचय देते हैं। आपने इसी मानसिक दासत्व के कारण उस क्षेत्र में अपनी पराजय स्वीकार कर ली, जहां हम अपने पूर्वजों की प्रतिभा और प्रचंडता से चिरकाल तक अपनी विजय-पताका फहरा सकते थे।
रमेशदत्त इसका कुछ उत्तर देना ही चाहते थे कि कुंवर साहब बोले उठे– मित्रो! अब मुझसे बिना बोले नहीं रहा जाता। लाला साहब, आप अपने इस ‘गुलामी’ शब्द को वापस लीजिए।
विट्ठलदास– क्यों वापस लूं?
कुंवरसाहब– आपको इसके प्रयोग करने का अधिकार नहीं है।
विट्ठलदास– मैं आपका आशय नहीं समझा।
कुंवरसाहब– मेरा आशय यह है कि हममें कोई भी दूसरों को गुलाम कहने का अधिकार नहीं रखता! अंधों के नगर में कौन किसको अंधा कहेगा? हम सब-के-सब राजा हों या रंक, गुलाम हैं। हम अगर अपढ़, निर्धन, गंवार हैं, तो थोड़े गुलाम हैं। हम अपने राम का नाम लेते हैं, अपनी गाय पालते हैं और अपनी गंगा में नहाते हैं, और हम यदि विद्वान, उन्नत, ऐश्वर्यवान हैं, तो बहुत गुलाम हैं, जो विदेशी भाषा बोलते हैं, कुत्ते पालते हैं और अपने देशवासियों को नीच समझते हैं। सारी जाति इन्हीं दो भागों में विभक्त है। इसलिए कोई किसी को गुलाम नहीं कह सकता। गुलामी के मानसिक, आत्मिक, शारीरिक आदि विभाग करना भ्रांतिकारक है। गुलामी केवल आत्मिक होती है, और दशाएं इसी के अंतर्गत हैं। मोटर, बंगले, पोलो और प्यानों यह एक बेड़ी के तुल्य हैं, जिसने इन बेड़ियों को नहीं पहना, उसी को सच्ची स्वाधीनता का आनंद प्राप्त हो सकता है, और आप जानते हैं, वे कौन लोग हैं? वे हमारे दीन कृषक है, जो अपने पसीने की कमाई खाते हैं, अपने जातीय भेष, भाषा और भाव का आदर करते हैं और किसी के सामने सिर नहीं झुकाते है।
प्रभाकर राव ने मुस्कराकर कहा– आपको कृषक बन जाना चाहिए।
कुंवरसाहब– तो अपने पूर्वजन्म के कुकर्मों को कैसे भोगूंगा? बड़े दिन में मेवे की डालियां कैसे लगाऊंगा? सलामी के लिए खानसामा की खुशामद कैसे करूंगा? उपाधि के लिए नैनीताल के चक्कर कैसे लगाऊंगा? डिनर पार्टी देकर लेडियों के कुत्तों को कैसे गोद में उठाऊंगा? देवताओं को प्रसन्न और संतुष्ट करने के लिए देशहित के कार्यों में असम्मति कैसे दूंगा? यह सब मानव-अधःपतन की अंतिम अवस्थाएं हैं। उन्हें भोग किए बिना मेरी मुक्ति नहीं हो सकती। (पद्मसिंह से) कहिए शर्माजी, आपका प्रस्ताव बोर्ड में कब आएगा? आप आजकल कुछ उत्साहहीन से दिख पड़ते हैं। क्या इस प्रस्ताव की भी वही गति होगी, जो हमारे अन्य सार्वजनिक कार्यों की हुआ करती है?
इधर कुछ दिनों से वास्तव में पद्मसिंह का उत्साह कुछ क्षीण हो गया था। ज्यों-ज्यों उसके पास होने की आशा बढ़ती थी, उनका अविश्वास भी बढ़ता जाता था। विद्यार्थी की परीक्षा जब तक नहीं होती, वह उसी की तैयारी में लगा रहता है, लेकिन परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाने के बाद भावी जीवन-संग्राम की चिंता उसे हतोत्साह कर दिया करती है। उसे अनुभव होता है कि जिन साधनों से अब तक मैंने सफलता प्राप्त की है, वह इस नए, विस्तृत, अगम्य क्षेत्र में अनुपयुक्त हैं। वही दशा इस समय शर्माजी की थी। अपना प्रस्ताव उन्हें कुछ व्यर्थ-सा मालूम होता था। व्यर्थ ही नहीं, कभी-कभी उन्हें उससे लाभ के बदले हानि होने का भय होता था। लेकिन वह अपने संदेहात्मक विचारों को प्रकट करने का साहस न कर सकते थे, कुंवर साहब की ओर विश्वासपूर्ण दृष्टि से देखकर बोले, जी नहीं, ऐसा तो नहीं है। हां, आजकल फुर्सत न रहने से वह काम जरा धीमा पड़ गया है।
कुंवर साहब– उसके पास होने में तो अब कोई बाधा नहीं है?
पद्मसिंह ने तेगअली की तरफ देखकर कहा– मुसलमान मेंबरों का ही भरोसा है।
तेगअली ने मार्मिक भाव से कहा– उन पर एतमाद करना रेत पर दीवार बनाना है। आपको मालूम नहीं, वहां क्या चालें चली जा रही हैं। अजब नहीं है कि ऐन वक्त पर धोखा दें।
पद्मसिंह– मुझे तो ऐसी आशा नहीं है।
तेगअली– यह आपकी शराफत है। यहां इस वक्त उर्दू-हिन्दी का झगड़ा गोकशी का मसला, जुदागाना इंतखाब, सूद का मुआबिजा, कानून इन सबों से मजहबी तास्सुब के भड़काने में मदद ली जा रही है।
प्रभाकर राव– सेठ बलभद्रदास न आएंगे क्या, किसी तरह उन्हीं को समझाना चाहिए।
कुंवर साहब– मैंने उन्हें निमंत्रण ही नहीं दिया, क्योंकि मैं जानता था कि वह कदापि न आएंगे। वह मतभेद को वैमनस्य समझते हैं। हमारे प्रायः सभी नेताओं का यही हाल है। यही एक विषय है, जिसमें उनकी सजीवता प्रकट होती है। आपका उनसे जरा भी मतभेद हुआ और वह आपके जानी दुश्मन हो गए, आपसे बोलना तो दूर रहा, आपकी सूरत तक न देखेंगे, बल्कि अवसर पाएंगे, तो अधिकारियों से आपकी शिकायत करेंगे। अपने मित्रों की मंडली में आपके आचार-विचार, रीति-व्यवहार की आलोचना करेंगे। आप ब्राह्मण हैं तो आपको भिक्षुक कहेंगे, क्षत्रिय हैं तो आपको उजड्ड-गंवार कहेंगे। वैश्य हैं, तो आपको बनिए, डंडी-तौल की पदवी मिलेगी और शूद्र हैं तब तो आप बने-बनाए चांडाल हैं ही। आप अगर गाने में प्रेम रखते हैं, तो आप दुराचारी हैं, आप सत्संगी हैं तो आपको तुरंत ‘बछिया के ताऊ’ की उपाधि मिल जाएगी। यहां तक कि आपकी माता और स्त्री पर भी निंदास्पद आक्षेप किए जाएंगे। हमारे यहां मतभेद महापाप है और उसका कोई प्रायश्चित नहीं। अहा! वह देखिए, डॉक्टर श्यामाचरण की मोटर आ गई।
डॉक्टर श्यामाचरण मोटर से उतरे और उपस्थित सज्जनों की ओर देखते हुए बोले - I am sorry. I was late.
कुंवर साहब ने उनका स्वागत किया औरों ने भी हाथ मिलाया और डॉक्टर साहब एक कुर्सी पर बैठकर बोले– When is the performance going to begin!
कुंवर साहब– डॉक्टर साहब, आप भूलते हैं, यह काले आदमियों का समाज है।
डॉक्टर साहब ने हंसकर कहा– मुआफ कीजिएगा, मुझे याद न रहा कि आपके यहां मलेच्छों की भाषा बोलना मना है।
कुंवर साहब– लेकिन देवताओं के समाज में तो आप कभी ऐसी भूल नहीं करते।
डॉक्टर– तो महाराज, उसका कुछ प्रायश्चित्त करा लीजिए।
कुंवर साहब– इसका प्रायश्चित्त यही है कि आप मित्रों से अपनी मातृभाषा का व्यवहार किया कीजिए।
डॉक्टर– आप राजा लोग है, आपसे यह प्रण निभ सकता है। हमसे इसका पालन क्यों कर हो सकता है? अंग्रेजी तो हमारी Lingua Franca (सार्वदेशिक भाषा) हो रही है।
कुंवर साहब– उसे आप ही लोगों ने तो यह गौरव प्रदान कर रखा है। फारस और काबुल के मूर्ख सिपाहियों और हिंदू व्यापारियों के समागम से उर्दू जैसी भाषा का प्रादुर्भाव हो गया। अगर हमारे देश के भिन्न-भिन्न प्रांतों के विद्वज्जन परस्पर अपनी ही भाषा में संभाषण करते, तो अब तक कभी की सार्वदेशिक भाषा बन गई होती। जब तक आप जैसे विद्वान् लोग अंग्रेजी के भक्त बने रहेंगे, कभी एक सार्वदेशिक भाषा का जन्म न होगा। मगर यह काम कष्टसाध्य है, इसे कौन करे? यहां तो लोगों को अंग्रेजी जैसी समुन्नत भाषा मिल गई, सब उसी के हाथों बिक गए। मेरी समझ में नहीं आता कि अंग्रेजी भाषा बोलने और लिखने में लोग क्यों अपना गौरव समझते हैं। मैंने भी अंग्रेजी पढ़ी है। दो साल विलायत रह आया हूं और आपके कितने ही अंग्रेजी के धुरंधर पंडितों से अच्छी अंग्रेजी लिख और बोल सकता हूं, पर मुझे उससे ऐसी घृणा होती है, जैसे किसी अंग्रेज के उतारे हुए कपड़े पहनने से।
पद्मसिंह ने इन वादों में कोई भाग न लिया। ज्यों ही अवसर मिला, उन्होंने विट्ठलदास को बुलाया और उन्हें एकांत में ले जाकर शान्ता का पत्र दिखाया।
विट्ठलदास ने कहा– अब आप क्या करना चाहते है?
पद्मसिंह– मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता। जब से यह पत्र मिला है, ऐसा मालूम होता है, मानो नदी में बहा जाता हूं।
विट्ठलदास– कुछ-न-कुछ करना तो पड़ेगा।
पद्मसिंह– क्या करूं।
विट्ठलदास– शांता को बुला लाइए।
पद्मसिंह– सारे घर से नाता टूट जाएगा।
विट्ठलदास– टूट जाए। कर्त्तव्य के सामने किसी का क्या भय?
पद्मसिंह– यह तो आप ठीक कहते हैं, पर मुझसे इतनी सामर्थ्य नहीं। भैया को मैं अप्रसन्न करने का साहस नहीं कर सकता।
विट्ठलदास– अपने यहां न रखिए, विधवाश्रम में रख दीजिए, यह तो कठिन नहीं।
पद्मसिंह– हां, यह आपने अच्छा उपाय बताया। मुझे इतना भी न सूझा था। कठिनाई में मेरी बुद्धि जैसे चरने चली जाती है।
विट्ठलदास– लेकिन जाना आपको पड़ेगा।
पद्मसिंह– यह क्यों, आपके जाने से काम न चलेगा?
विट्ठलदास– भला, उमानाथ उसे मेरे साथ क्यों भेजने लगे?
पद्मसिंह– इसमें उन्हें क्या आपत्ति हो सकती है?
विट्ठलदास– आप तो कभी-कभी बच्चों-सी बातें करने लगते हैं। शान्ता उनकी बेटी न सही, पर इस समय वह उसके पिता हैं। वह उसे एक अपरिचित मनुष्य के साथ क्यों आने देंगे?
पद्मसिंह– भाई साहब, आप नाराज न हों, मैं वास्तव में कुछ बौखला गया हूं। लेकिन मेरे चलने में तो बड़ा उपद्रव खड़ा हो जाएगा। भैया सुनेंगें तो वह मुझे मार ही डालेंगे। जनवासे में उन्होंने जो धक्का लगाया था, वह अभी तक मुझे याद है।
विट्ठलदास– अच्छा, आप न चलिए, मैं ही चला जाऊंगा। लेकिन उमानाथ के नाम एक पत्र देने में तो आपको कोई बाधा नहीं?
पद्मसिंह– आप कहेंगे कि यह निरा मिट्टी का लौंदा है, पर मुझमें उतना साहस भी नहीं है। ऐसी युक्ति बताइए कि कोई अवसर पड़े, तो मैं साफ निकल जाऊं। भाई साहब को मुझ पर दोषारोपण का मौका न मिले।
विट्ठलदास ने झुंझलाकर उत्तर दिया– मुझे ऐसी युक्ति नहीं सूझती। भलेमानुस आप भी अपने को मनुष्य कहेंगे। वहां तो वह धुआंधार व्याख्यान देते हैं, ऐसे उच्च भावों से भरा हुआ, मानों मुक्तात्मा हैं और कहां यह भीरुता।
पद्मसिंह ने लज्जित होकर कहा– इस समय जो चाहे कह लीजिए, पर इस काम का सारा भार आपके ऊपर रहेगा।
विट्ठलदास– अच्छा, एक तार तो दे दीजिएगा, या इतना भी न होगा?
पद्मसिंह– (उछलकर) हां, मैं तार दे दूंगा। मैं तो जानता था कि आप राह निकालेंगे। अब अगर कोई बात आ पड़ी, तो मैं कह दूंगा कि मैंने तार नहीं दिया, किसी ने मेरे नाम से दे दिया होगा– मगर एक ही क्षण में उनका विचार पलट गया। अपनी आत्मभीरुता पर लज्जा आई। मन में सोचा, भाई साहब ऐसे मूर्ख नहीं है कि इस धर्मकार्य के लिए मुझसे अप्रसन्न हों और यदि हो भी जाएं, तो मुझे इसकी चिंता न करनी चाहिए।
विट्ठलदास– तो आज ही तार दे दीजिए।
पद्मसिंह– लेकिन यह सरासर जालसाजी होगी।
विट्ठलदास– हां, होगी तो, आप ही समझिए।
पद्मसिंह– मैं चलूं तो कैसा हो?
विट्ठलदास– बहुत ही उत्तम, सारा काम ही बन जाए।
पद्मसिंह– अच्छी बात है, मैं और आप दोनों चलें।
विट्ठलदास– तो कब?
पद्मसिंह– बस, आज तार देता हूं कि हमलोग शान्ता को विदा कराने आ रहे हैं, परसों संध्या की गाड़ी से चले चलें।
विट्ठलदास– निश्चय हो गया?
पद्मसिंह– हां, निश्चय हो गया। आप मेरा कान पकड़कर ले जाइएगा।
विट्ठलदास ने अपने सरल-हृदय मित्र की ओर प्रशंसा की दृष्टि से देखा और दोनों मनुष्य जलतरंग सुनने जा बैठे, जिसकी मनोहर ध्वनि आकाश में गूंज रही थी।
 

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रचनाएँ
सेवासदन
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प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। सेवासदन में नारी जीवन की समस्याओं के साथ-साथ समाज के धर्माचार्यों, मठाधीशों, धनपतियों, सुधारकों के आडंबर, दंभ, ढोंग, पाखंड, चरित्रहीनता, दहेज-प्रथा, बेमेल विवाह, पुलिस की घूसखोरी, वेश्यागमन, मनुष्य के दोहरे चरित्र, साम्प्रदायिक द्वेष आदि सामाजिक विकृतियों का विवरण मिलता है।सेवासदन उपन्यास की मुख्य समस्या क्या है? “सेवासदन” में प्रेमचन्द दिखाते है कि हमारी सामाजिक कुरीतियाँ स्त्रियों के जीवन को विवश करती है । इसकी मुख्य समस्या मध्य वर्गीय लोगों की आडंबर प्रियता से संबंधित है । प्रेमचन्द यह बताना चाहता है कि मनुष्य को जीने के लिए धन द्वारा प्राप्त सुख के समान मन द्वारा प्राप्त सुख भी चाहिए ।प्रेमचंद ने जहाँ एक ओर नारी की सामाजिक पराधीनता उसके फलसवरूप उत्पन्न समस्याओं को अपने इस उपन्यास में अभिव्यक्ति प्रदान की है, वहीं दूसरी ओर यह भी दिखलाया है कि किस प्रकार उनके नारी-पात्र उपन्यास के अंत तक आते-आते सामाजिक अन्याय से मुक्ति पाने का मार्ग स्वयं ही खोज देते हैं।
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सेवासदन (भाग 1)

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दारोगाजी के हल्के में एक महन्त रामदास रहते थे। वह साधुओं की एक गद्दी के महंत थे। उनके यहां सारा कारोबार ‘श्री बांकेबिहारीजी’ के नाम पर होता था। ‘श्री बांकेबिहारीजी’ लेन-देन करते थे और बत्तीस रुपये प्र

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पण्डित कृष्णचन्द्र रिश्वत लेकर उसे छिपाने के साधन न जानते थे । इस विषय में अभी नोसिखुए थे । उन्हें मालूम न था कि हराम का माल अकेले मुश्किल से पचता है । मुख्तार ने अपने मन मे कहा, हमीं ने सब कुछ किया औ

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कृष्णचन्द्र अपने कस्बे में सर्वप्रिय थे । यह खबर फैलते ही सारी बस्ती में हलचल मच गई । कई भले आदमी उनकी जमानत करने आये लेकिन साहब ने जमानत न ली । इसके एक सप्ताह बाद कृष्णचन्द्र पर रिश्वत लेने का अभियो

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फागुन में सुमन का विवाह हो गया। गंगाजली दामाद को देखकर बहुत रोई। उसे ऐसा दुःख हुआ, मानो किसी ने सुमन को कुएं में डाल दिया। सुमन ससुराल आई तो यहां की अवस्था उससे भी बुरी पाई, जिसकी उसने कल्पना की थी।

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सुमन को ससुराल आए डेढ़ साल के लगभग हो चुका था, पर उसे मैके जाने का सौभाग्य न हुआ था। वहां से चिट्ठियां आती थीं। सुमन उत्तर में अपनी मां को समझाया करती, मेरी चिंता मत करना, मैं बहुत आनंद से हूं, पर अब

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गजाधरप्रसाद की दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो चोरों के बीच में अशर्फियों की थैली लिए बैठा हो। सुमन का वह मुख-कमल, जिस पर वह कभी भौंरे की भांति मंडराया करता था, अब उसकी आँखों में जलती हुई आग के समान था। वह

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दूसरे दिन से सुमन ने चिक के पास खड़ा होना छोड़ दिया। खोंचेवाले आते और पुकार कर चले जाते। छैले गजल गाते हुए निकल जाते। चिक की आड़ में अब उन्हें कोई न दिखाई देता था। भोली ने कई बार बुलाया, लेकिन सुमन ने

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दूसरे दिन सुमन नहाने न गई। सबेरे ही से अपनी एक रेशमी साड़ी की मरम्मत करने लगी। दोपहर को सुभद्रा की एक महरी उसे लेने आई। सुमन ने मन में सोचा था, गाड़ी आवेगी। उसका जी छोटा हो गया। वही हुआ जिसका उसे भ

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दरवाजे पर आकर सुमन सोचने लगी कि अब कहां जाऊं। गजाधर की निर्दयता से भी उसे दुःख न हुआ था, जितना इस समय हो रहा था। उसे अब मालूम हुआ कि मैंने अपने घर से निकलकर बड़ी भूल की। मैं सुभद्रा के बल पर कूद रही थ

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दूसरे दिन पद्मसिंह सदन को साथ किसी लेकर स्कूल में दाखिल कराने चले। किंतु जहां गए, साफ जवाब मिला ‘स्थान नहीं है।’ शहर में बारह पाठशालाएं थीं। लेकिन सदन के लिए कहीं स्थान न था। शर्माजी ने विवश होकर निश

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प्राचीन ऋषियों ने इंद्रियों को दमन करने के दो साधन बताए हैं– एक राग, दूसरा वैराग्य। पहला साधन अत्यंत कठिन और दुस्साध्य है। लेकिन हमारे नागरिक समाज ने अपने मुख्य स्थानों पर मीनाबाजार सजाकर इसी कठिन मार

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महाशय विट्ठलदास इस समय ऐसे खुश थे मानों उन्हें कोई संपत्ति मिल गई हो। उन्हें विश्वास था कि पद्मसिंह इस जरा से कष्ट से मुंह न मोड़ेंगे, केवल उनके पास जाने की देर है। वह होली के कई दिन पहले से शर्माजी क

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संध्या का समय है। सदन अपने घोड़े पर सवार दालमंडी में दोनों तरफ छज्जों और खिड़कियों की ओर ताकता जा रहा है। जब से सुमन वहां आई है, सदन उसके छज्जे के सामने किसी-न-किसी बहाने से जरा देर के लिए अवश्य ठहर ज

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बाबू विट्ठलदास अधूरा काम न करते थे। पद्मसिंह की ओर से निराश होकर उन्हें यह चिंता होने लगी कि सुमनबाई के लिए पचास रुपए मासिक का चंदा कैसे करूं? उनकी स्थापित की हुई संस्थाएं चंदों ही से चल रही थीं, लेकि

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शाम हो गई। सुमन ने दिन-भर विट्ठलदास की राह देखी, लेकिन वह अब तक नहीं आए। सुमन के मन में जो नाना प्रकार की शंकाएं उठ रही थीं, वह पुष्ट हो गईं। विट्ठलदास अब नहीं आएंगे, अवश्य कोई विघ्न पड़ा। या तो वह कि

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सुभद्रा को संध्या के समय कंगन की याद आई। लपकी हुई स्नान-घर में गई। उसे खूब याद था कि उसने यहीं ताक पर रख दिया था, लेकिन उसका वहाँ पता न था। इस पर वह घबराई। अपने कमरे के प्रत्येक ताक और आलमारी को देखा,

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विट्ठलदास को संदेह हुआ कि सुमन तीस रुपए मासिक स्वीकार करना नहीं चाहती, इसलिए उसने कल उत्तर देने का बहाना करके मुझे टाला है। अतएव वे दूसरे दिन उसके पास नहीं गए, इसी चिंता में पड़े रहे कि शेष रुपयों का

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सुमन पार्क से लौटी तो उसे खेद होने लगा कि मैंने शर्माजी को वे ही दुखानेवाली बातें क्यों कहीं उन्होंने इतनी उदारता से मेरी सहायता की, जिसका मैंने यह बदला दिया? वास्तव में मैंने अपनी दुर्बलता का अपराध उ

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सदन प्रातःकाल घर गया, तो अपनी चाची के हाथों में कंगन देखा। लज्जा से उसकी आंखें जमीन में गड़ गईं। नाश्ता करके जल्दी से बाहर निकल आया और सोचने लगा, यह कंगन इन्हें कैसे मिल गया? क्या यह संभव है कि सुमन

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यह बात बिल्कुल तो असत्य नहीं है कि ईश्वर सबको किसी-न-किसी हीले से अन्न-वस्त्र देता है। पंडित उमानाथ बिना किसी हीले ही के संसार का सुख-भोग करते थे। उनकी आकाशी वृत्ति थी। उनके भैंस और गाएं न थीं, लेकिन

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सार्वजनिक संस्थाएं भी प्रतिभाशाली मनुष्य की मोहताज होती हैं। यद्यपि विट्ठलदास के अनुयायियों की कमी न थी, लेकिन उनमें प्रायः सामान्य अवस्था के लोग थे। ऊंची श्रेणी के लोग उनसे दूर भागते थे। पद्मसिंह के

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रात के नौ बजे थे। पद्मसिंह भाई के साथ बैठे हुए विवाह के संबंध में बातचीत कर रहे थे। कल बारात जाएगी। दरवाजे पर शहनाई बज रही थी और भीतर गाना हो रहा था। मदनसिंह– तुमने जो गाड़ियां भेजी हैं; वह कल शाम तक

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बरसात के दिन थे, छटा छाई हुई थी। पंडित उमानाथ चुनारगढ़ के निकट गंगा के तट पर खड़े नाव की बाट जोह रहे थे। वह कई गांवों का चक्कर लगाते हुए आ रहे थे और संध्या होने से पहले चुनार के पास एक गांव में जाना च

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पंडित उमानाथ सदनसिंह का फलदान चढ़ा आए हैं। उन्होंने जाह्नवी से गजानन्द की सहायता की चर्चा नहीं की थी। डरते थे कि कहीं यह इन रुपयों को अपनी लड़कियों के विवाह के लिए रख छोड़ने पर जिद्द न करने लगे। जाह्न

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एक रोज उमानाथ ने कृष्णचन्द्र के सहचरों को धमकाकर कहा– अब तुमलोगों को उनके साथ बैठकर चरस पीते देखा तो तुम्हारी कुशल नहीं। एक-एक की बुरी तरह खबर लूंगा। उमानाथ का रोब सारे गांव पर छाया हुआ था। वे सब-के-स

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सेवासदन (भाग-3)

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30 शहर की म्युनिसिपैलिटी में कुल अठारह सभासद थे। उनमें आठ मुसलमान थे और दस हिन्दू। सुशिक्षित मेंबरों की संख्या अधिक थी, इसलिए शर्माजी को विश्वास था कि म्युनिसिपैलिटी में वेश्याओं को नगर से बाहर निकाल

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इस प्रस्ताव के विरोध में हिंदू मेंबरों को जब मुसलमानों के जलसे का हाल मालूम हुआ तो उनके कान खड़े हुए। उन्हें मुसलमानों से जो आशा थी, वह भंग हो गई। कुल दस हिंदू थे। सेठ बलभद्रदास चेयरमैन थे। डॉक्टर श्य

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जिस प्रकार कोई आलसी मनुष्य किसी के पुकारने की आवाज सुनकर जाग जाता है, किंतु इधर-उधर देखकर फिर निद्रा में मग्न हो जाता है, उसी प्रकार पंडित कृष्णचन्द्र क्रोध और ग्लानि का आवेश शांत होने पर अपने कर्त्तव

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सदन के विवाह का दिन आ गया। चुनार से बारात अमोला चली। उसकी तैयारियों का वर्णन व्यर्थ है। जैसी अन्य बारातें होती हैं, वैसी ही यह भी थी। वैभव और दरिद्रता का अत्यन्त करुणात्मक दृश्य था। पालकियों पर कारचोब

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विट्ठलदास ने सुमन को विधवाश्रम में गुप्त रीति से रखा था। प्रबंधकारिणी सभा के किसी सदस्य को इत्तिला न दी थी। आश्रम की विधवाओं से उसे विधवा बताया था। लेकिन अबुलवफा जैसे टोहियों से यह बात बहुत दिनों तक ग

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यद्यपि डॉक्टर साहब का बंगला निकट ही था, पर इन दोनों आदमियों ने एक किराए की गाड़ी की। डॉक्टर साहब के यहां पैदल जाना फैशन के विरुद्ध था। रास्ते में विट्ठलदास ने आज के सारे समाचार बढ़ा-चढ़ाकर बयान किए और

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सदन जब घर पर पहुंचा, तो उसके मन की दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो बरसों की कमाई लिए, मन में सहस्रों मंसूबे बांधता, हर्ष से उल्लसित घर आए और यहां संदूक खोलने पर उसे मालूम हो कि थैली खाली पड़ी है। विचारों

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सदन को व्याख्यानों की ऐसी चाट पड़ी कि जहां कहीं व्याख्यान की खबर पाता, वहां अवश्य जाता, दोनों पक्षों की बातें महीनों सुनने और उन पर विचार करने से उसमें राय स्थिर करने की योग्यता आने लगी। अब वह किसी यु

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जिस दिन से बारात लौट गई, उसी दिन से कृष्णचन्द्र फिर से बाहर नहीं निकले। मन मारे हुए अपने कमरे में बैठे रहते। उन्हें अब किसी को अपना मुंह दिखाते लज्जा आती थी। दुश्चरित्रा सुमन ने उन्हें संसार की दृष्टि

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प्रातःकाल यह शोक-समाचार अमोला में फैल गया। इने-गिने सज्जनों को छोड़कर कोई भी उमानाथ के द्वार पर संवेदना प्रकट करने न आया। स्वाभाविक मृत्यु हुई होती, तो संभवतः उनके शत्रु भी आकर चार आंसू बहा जाते, पर आ

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पद्मसिंह का पहला विवाह उस समय हुआ था, जब वह कॉलेज में पढ़ते थे, और एम. ए. पास हुए, तो वह एक पुत्र के पिता थे। पर बालिका वधू शिशु-पालन का मर्म न जानती थी। बालक जन्म के समय तो हृष्ट-पुष्ट था, पर पीछे धी

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शान्ता ने पत्र तो भेजा, पर उसको उत्तर आने की कोई आशा न थी। तीन दिन बीत गए, उसका नैराश्य दिनों-दिन बढ़ता जा रहा था। अगर कुछ अनुकूल उत्तर न आया, तो उमानाथ अवश्य ही उसका विवाह कर देंगे, यह सोचकर शान्ता क

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शान्ता को आश्रम में आए एक मास से ऊपर हो गया, लेकिन पद्मसिंह ने अभी तक अपने घर में किसी से इसकी चर्चा नहीं की। कभी सोचते, भैया को पत्र लिखूं, कभी सोचते, चलकर उनसे कहूं, कभी विट्ठलदास को भेजने का विचार

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पद्मसिंह की आत्मा किसी भांति इस तरमीम के स्वीकार करने में अपनी भूल स्वीकार न करती थी। उन्हें कदापि यह आशा न थी कि उनके मित्रगण एक गौण बात पर उनका इतना विरोध करेंगे। उन्हें प्रस्ताव के एक अंश के अस्वीक

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सदन जब सुमन को देखकर लौटा, तो उसकी दशा उस दरिद्र मनुष्य की-सी थी, जिसका वर्षों का धन चोरों ने हर लिया हो। वह सोचता था, सुमन मुझसे बोली क्यों नहीं, उसने मेरी ओर ताका क्यों नहीं? क्या वह मुझे इतना नीच

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सेवासदन (भाग-4)

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46 सदन को ऐसी ग्लानि हो रही थी, मानों उसने कोई बड़ा पाप किया हो। वह बार-बार अपने शब्दों पर विचार करता और यही निश्चय करता कि मैं बड़ा निर्दय हूं। प्रेमाभिलाषा ने उसे उन्मत्त कर दिया था। वह सोचता, मुझ

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प्रभाकर राव का क्रोध बहुत कुछ तो सदन के लेखों से ही शांत हो गया था और जब पद्मसिंह ने सदन के आग्रह से सुमन का पूरा वृत्तांत उन्हें लिख भेजा, तो वह सावधान हो गए। म्युनिसपैलिटी में प्रस्ताव को पास हुए ल

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एक महीना बीत गया। सदन ने अपने इस नए धंधे की चर्चा घर में किसी से न की। वह नित्य सबेरे उठकर गंगा-स्नान के बहाने चला जाता। वहां से दस बजे घर आता। भोजन करके फिर चल देता और तब का गया-गया घड़ी रात गए, घर ल

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बाबू विट्ठलदास न्यायप्रिय सरल मनुष्य थे, जिधर न्याय खींच ले जाता, उधर चले जाते थे। इसमें लेश-मात्र भी संकोच न होता था। जब उन्होंने पद्मसिंह को न्यायपथ से हटते देखा, तो उनका साथ छोड़ दिया और कई महीने त

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सदनसिंह का विवाह संस्कार हो गया। झोंपड़ा खूब सजाया गया था। वही मंडप का काम दे रहा था, लेकिन कोई भीड़-भाड़ न थी। पद्मसिंह उस दिन घर चले गए और मदनसिंह से सब समाचार कहा। वह यह सुनते ही आग हो गए, बोले– म

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जैसे सुंदर भाव के समावेश से कविता में जान पड़ जाती है और सुंदर रंगों से चित्र में, उसी प्रकार दोनों बहनों के आने से झोंपड़ी में जान आ गई। अंधी आंखों में पुतलियां पड़ गई हैं। मुर्झाई हुई कली शान्ता अब

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पंडित पद्मसिंह के चार-पांच मास के सदुद्योग का यह फल हुआ कि बीस-पच्चीस वेश्याओं ने अपनी लड़कियों को अनाथालय में भेजना स्वीकार कर लिया। तीन वेश्याओं ने अपनी सारी संपत्ति अनाथालय के निमित्त अर्पण कर दी,

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पंडित मदनसिंह की कई महीने तक यह दशा थी कि जो कोई उनके पास आता, उसी से सदन की बुराई करते-कपूत है, भ्रष्ट है, शोहदा है, लुच्चा है, एक कानी कौड़ी तो दूंगा नहीं, भीख मांगता फिरेगा, तब आटे-दाल का भाव मालूम

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जिस प्रकार कोई मनुष्य लोभ के वश होकर आभूषण चुरा लेता है, पर विवेक होने पर उसे देखने में भी लज्जा आती है, उसी प्रकार सदन भी सुमन से बचता फिरता था। इतना ही नहीं, वह उसे नीची दृष्टि से देखता था और उसकी उ

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संध्या का समय है। आकाश पर लालिमा छाई हुई है और मंद वायु गंगा की लहरों पर क्रीड़ा कर रही है, उन्हें गुदगुदा रही है। वह अपने करुण नेत्रों से मुस्कराती है और कभी-कभी खिलखिलाकर हंस पड़ती है, तब उसके मोती

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एक साल बीत गया। पंडित मदनसिंह पहले तीर्थ यात्रा पर उधार खाए बैठे थे। जान पड़ता था, सदन के घर आते ही एक दिन भी न ठहरेंगे, सीधे बद्रीनाथ पहुंचकर दम लेंगे, पर जब से सदन आ गया है, उन्होंने भूलकर भी तीर्थ-

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कार्तिक का महीना था। पद्मसिंह सुभद्रा को लेकर गंगा-स्नान कराने ले गए थे। लौटती बार वह अलईपुर की ओर से आ रहे थे। सुभद्रा गाड़ी की खिड़की से बाहर झांकती चली आती थी और सोचती थी कि यहाँ इस सन्नाटे में लोग

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