shabd-logo

38

10 फरवरी 2022

18 बार देखा गया 18

जिस दिन से बारात लौट गई, उसी दिन से कृष्णचन्द्र फिर से बाहर नहीं निकले। मन मारे हुए अपने कमरे में बैठे रहते। उन्हें अब किसी को अपना मुंह दिखाते लज्जा आती थी। दुश्चरित्रा सुमन ने उन्हें संसार की दृष्टि में चाहे कम गिराया हो, पर वह अपनी दृष्टि में कहीं के न रहे। वे अपने अपमान को सहन न कर सकते थे। वे तीन-चार साल कैद रहे, फिर भी अपनी आंखों में इतनें नीचे नहीं गिरे थे। उन्हें इस विचार से संतोष हो गया था कि दंड-भोग मेरे कुकर्म का फल है। लेकिन इस कालिमा ने उनके आत्मगौरव का सर्वनाश कर दिया। वह अब नीच मनुष्यों के पास भी नहीं जाते थे, जिनके साथ बैठकर वह चरस की दम लगाया करते थे। वह जानते थे कि मैं उनसे भी नीचे गिर गया हूं। उन्हें मालूम होता था कि सारे संसार में मेरी ही निंदा हो रही है। लोग कहते होंगे कि इसकी बेटी...यह खयाल आते ही वह मर्यादा का नाश करेगी, तो मैंने उसका गला घोंट दिया होता। यह मैं जानता हूं कि वह अभागिनी थी, किसी बड़े धनी कुल में रहने योग्य थी, भोग-विलास पर जान देती थी। पर यह मैं नहीं जानता था कि उसकी आत्मा इतनी निर्बल है। संसार में किसके दिन समान होते हैं? विपत्ति सभी पर आती है। बड़े-बड़े धनवानों की स्त्रियां अन्न-वस्त्र को तरसती हैं, पर कोई उनके मुख पर चिंता का चिह्न भी नहीं देख सकता। वे रो-रोकर दिन काटती है, कोई उनके आंसू नहीं देखता। वे किसी के सामने अपनी विपत्ति की कथा नहीं कहतीं। वे मर जाती हैं, पर किसी का एहसान सिर पर नहीं लेतीं। वे देवियां हैं। वे कुल-मर्यादा के लिए जीती हैं और उसकी रक्षा करती हुई मरती हैं, पर यह दुष्टा, यह अभागिन...और उसका पति कैसा कायर है कि उसने उसका सिर नहीं काट डाला! जिस समय उसने घर से बाहर पैर निकाला, उसने क्यों उसका गला नहीं दबा दिया? मालूम होता है, वह भी नीच, दुराचारी, नार्मद है। उसमें अपनी कुल-मर्यादा का अभिमान होता, तो यह नौबत न आती। उसे अपने अपमान की लाज न होगी, पर मुझे है और मैं सुमन को इसका दंड दूंगा। जिन हाथों से उसे पाला, खिलाया, उन्हीं हाथों से उसके गले पर तलवार चलाऊंगा। यही आंखें उसे खेलती देखकर प्रसन्न होती थीं, अब उसे रक्त में लोटती देखकर तृप्त होंगी। मिटी हुई मर्यादा के पुनरुद्धार का इसके सिवा कोई उपाय नहीं। संसार को मालूम हो जाएगा कि कुल पर मरने वाले पापाचरण का क्या दंड देते हैं।
यह निश्चय करके कृष्णचन्द्र अपने उद्देश्य को पूरा करने के साधनों पर विचार करने लगे। जेलखाने में उन्होंने अभियुक्तों से हत्याकांड के कितने ही मंत्र सीखे थे रात-दिन इन्हीं बातों की चर्चाएं रहती थीं। उन्हें सबसे उत्तम साधन यहीं मालूम हुआ कि चलकर तलवार से उसको मारूं और तब पुलिस में जाकर आप ही इसकी खबर दूं। मजिस्ट्रेट के सामने मेरा जो बयान होगा, उसे सुनकर लोगों की आंखें खुल जाएंगी। मन-ही-मन इस प्रस्ताव से पुलकित होकर वह उस बयान की रचना करने लगे। पहले कुछ सभ्य समाज की विलासिता का उल्लेख करूंगा, तब पुलिस के हथकंडों की कलई खोलूंगा, इसके पश्चात वैवाहिक अत्याचारों का वर्णन करूंगा। दहेज-प्रथा पर ऐसी चोट करूंगा कि सुनकर लोग दंग रह जाएं। पर सबसे महत्त्वशाली वह भाग होगा, जिसमें मैं दिखाऊंगा कि अपनी कुल-मर्यादा के मिटाने वाले हम हैं। हम अपनी कायरता से, प्राण-भय से, लोक-निंदा के डर से, झूठे संतान-प्रेम से, अपनी बेहयाई से, आत्मगौरव की हीनता से, ऐसे पापाचरणों को छिपाते हैं, उन पर पर्दा डाल देते हैं। इसी का यह परिणाम है कि दुर्बल आत्माओं का साहस इतना बढ़ गया है।
कृष्णचन्द्र ने यह संकल्प तो कर लिया, पर अभी तक उन्होंने यह न सोचा कि शान्ता की क्या गति होगी? इस अपमान की लज्जा ने उनके हृदय में और किसी चिंता के लिए स्थान न रखा था। उनकी दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो अपने बालक को मृत्यु-शैया पर छोड़कर अपने किसी शत्रु से बैर चुकाने के लिए उद्यत हो जाए, जो डोंगी पर बैठा हुआ पानी में सर्प देखकर उसे मारने के लिए झपटे और उसे यह सुधि न रहे कि इस झपट से डोंगी डूब जाएगी।
संध्या का समय था। कृष्णचन्द्र ने आज हत्या-मार्ग पर चलने का निश्चय कर लिया था। इस समय उनका चित्त कुछ उदास था। यह वही उदासीनता थी, जो किसी भयंकर काम के पहले चित्त पर आच्छादित हो जाया करती है। कई दिनों तक क्रोध के वेग से उत्तेजित और उन्मत्त रहने के बाद उनका मन इस समय कुछ शिथिल हो गया था। जैसे वायु कुछ समय तक वेग से चलने के बाद शांत हो जाती है। चित्त की ऐसी अवस्था में यह उदासीनता बहुत ही उपयुक्त होती है। उदासीनता वैराग्य का सूक्ष्य स्वरूप है, जो थोड़ी देर के लिए मनुष्य को अपने जीवन पर विचार करने की क्षमता प्रदान कर देती है, उस समय पूर्वस्मृतियां हृदय में क्रीड़ा करने लगती हैं। कृष्णचन्द्र को वे दिन याद आ रहे थे, जब उनका जीवन आनंदमय था, जब वह नित्य संध्या समय अपनी दोनों पुत्रियों को साथ लेकर सैर करने जाया करते थे। कभी सुमन को गोद में उठाते, कभी शान्ता को। जब वे लौटते तो गंगाजली किस तरह प्रेम से दौड़कर दोनों लड़कियों को प्यार करने लगती थी। किसी आनंद का अनुभव इतना सुखद नहीं होता, जितना उसका स्मरण। वही जंगल और पहाड़, जो कभी आपको सुनसान और बीहड़ प्रतीत होते थे, वह नदियां और झीलें जिनके तट पर से आप आंखें बंद किए निकल जाते थे, कुछ समय के पीछे एक अत्यंत मनोरम, शांतिमय रूप धारण करके स्मृतिनेत्रों के सामने आती है और फिर आप उन्हीं दृश्यों को देखने की आकांक्षा करने लगते हैं। कृष्णचन्द्र उस भूतकालिक जीवन का स्मरण करते-करते गद्गद हो गए। उनकी आंखों से आंसू की बूंदें टपक पड़ी। हाय! उस आनंदमय जीवन का ऐसा विषादमय अंत हो रहा है! मैं अपने ही हाथों से अपनी ही गोद की खिलाई हुई लड़की का वध करने को प्रस्तुत हो रहा हूं। कृष्णचन्द्र को सुमन पर दया आई। वह बेचारी कुएं में गिर पड़ी है। क्या मैं अपनी ही लड़की पर, जिसे मैं आंखों की पुतली समझता था, जिसे सुख से रहने के लिए मैंने कोई बात उठा नहीं रखी, इतना निर्दय हो जाऊं कि उस पर पत्थर फेकूं? लेकिन यह दया का भाव कृष्णचन्द्र के हृदय में देर तक न रह सका। सुमन के पापाभिनय का सबसे घृणोत्पादक भाग यह था कि आज उसका दरवाजा सबके लिए खुला हुआ है। हिंदू, मुसलमान सब वहां प्रवेश कर सकते हैं। यह खयाल आते ही कृष्णचन्द्र का हृदय लज्जा और ग्लानि से भर गया।
इतने में पंडित उमानाथ उनके पास आकर बैठ गए और बोले– मैं वकील के पास गया था। उनकी सलाह है कि मुकदमा दायर करना चाहिए!
कृष्णचन्द्र ने चौंककर पूछा– कैसा मुकदमा?
उमानाथ– उन्हीं लोगों पर, जो द्वार से बारात लौटा ले गए।
कृष्णचन्द्र– इससे क्या होगा?
उमानाथ– इससे यह होगा कि या तो वह फिर कन्या से विवाह करेंगे या हर्जाना देंगे।
कृष्णचन्द्र– पर क्या और बदनामी न होगी?
उमानाथ– बदनामी जो कुछ होनी थी हो चुकी, अब किस बात का डर है? मैंने एक हजार रुपए तिलक में दिए, चार-पांच सौ खिलाने-पिलाने में खर्च किए, यह सब क्यों छोड़ दूंगा? यही रुपए कंगाल-कुलीन को दे दूंगा, तो वह खुशी से विवाह करने पर तैयार हो जाएगा। जरा इन शिक्षित महात्माओं की कलई तो खुलेगी।
कृष्णचन्द्र ने लंबी सांस लेकर कहा– मुझे विष दे दो, तब यह मुकदमा दायर करो।
उमानाथ ने क्रुद्ध होकर कहा– आप क्यों इतना डरते हैं?
कृष्णचन्द्र– मुकदमा दायर करने का निश्चय कर लिया है?
उमानाथ– हां, मैंने निश्चय कर लिया है। कल सारे शहर में बड़े-बड़े वकील-बैरिस्टर जमा थे। यह मुकदमा अपने ढंग का निराला है। उन लोगों ने बहुत कुछ देखभाल कर तब यह सलाह दी है। दो वकीलों को तो बयाना तक दे आया हूं।
कृष्णचन्द्र ने निराश होकर कहा– अच्छी बात है। दायर कर दो।
उमानाथ– आप इससे असंतुष्ट क्यों हैं?
कृष्णचन्द्र– जब तुम आप ही नहीं समझते, तो मैं क्या बतलाऊं? जो बात अभी चार गांव में फैली है, वह सारे शहर में फैल जाएगी। सुमन अवश्य ही इजलास पर बुलाई जाएगी, मेरा नाम गली-गली बिकेगा।
उमानाथ– अब इससे कहां तक डरूं? मुझे भी अपनी दो लड़कियों का विवाह करना है। यह कलंक अपने माथे लगाकर उनके विवाह में क्यों बाधा डालूं?
कृष्णचन्द्र– तो तुम यह मुकदमा इसलिए दायर करते हो, जिसमें तुम्हारे नाम पर कोई कलंक न रहे।
उमानाथ ने सगर्व कहा– हां, अगर आप उसका यह अर्थ लगाते हैं तो यही सही। बारात मेरे द्वार से लौटी है। लोगों को भ्रम हो रहा है कि सुमन मेरी लड़की है। सारे शहर में मेरा ही नाम लिया जा रहा है। मेरा दावा दस हजार का होगा। अगर पांच हजार की डिग्री हो गई, तो शान्ता का किसी उत्तम कुल में ठिकाना लग जाएगा। आप जानते हैं, जूठी वस्तु को मिठास के लोभ से लोग खाते हैं। जब तक रुपए का लोभ न होगा शांता का विवाह कैसे होगा? इस प्रकार से मेरे कुल में भी कलंक लग गया। पहले जो लोग मेरे यहां संबंध करने में अपनी बड़ाई समझते थे, वे अब बिना लंबी थैली के सीधे बात भी न करेंगे, समस्या यह है।
कृष्णचन्द्र ने कहा– अच्छी बात है, मुकदमा दायर कर दो। उमानाथ चले गए तो कृष्णचन्द्र ने आकाश की ओर देखकर कहा– प्रभो, अब उठा ले चलो, यह दुर्दशा नहीं सही जाती। आज उन्हें अपमान का वास्तविक अनुभव हुआ। उन्हें विदित हुआ कि सुमन को दंड़ देने से यह कलंक नहीं मिट सकता, जैसे सांप को मारने से उसका विष नहीं उतरता। उसकी हत्या करके उपहास के सिवाय और कुछ न होगा। पुलिस पकड़ेगी; महीनों इधर-उधर मारा-मारा फिरूंगा और इतनी दुर्गति के बाद फांसी पर चढ़ा दिया जाऊंगा। इससे तो कहीं उत्तम यही है कि डूब मरूं। इस दीपक को बुझा दूं, जिसके प्रकाश से ऐसे भयंकर दृश्य दिखाई देते हैं। हाय! यह अभागिनी सुमन बेचारी शान्ता को भी ले डूबी। उसके जीवन का सर्वनाश कर दिया। परमात्मन्! अब तुम्हीं इसके रक्षक हो। इस, असहाय बालिका को तुम्हारे सिवाय और कोई आश्रय नहीं है। केवल मुझे यहां से उठा ले चलो कि इन आंखों से उसकी दुर्दशा न देखूं।
थोड़ी देर में शान्ता कृष्णचन्द्र को भोजन करने के लिए बुलाने आई। विवाह के दिन से आज तक कृष्णचन्द्र ने उसे नहीं देखा था। इस समय उन्होंने उसकी ओर करुण नेत्रों से देखा। धुंधले दीपक के प्रकाश में उन्हें उसके मुख पर एक अलौकिक शोभा दिखाई दी! उसकी आंखें निर्मल आत्मिक ज्योति से चमक रही थीं। शोक और मालिन्य का आभास तक न था। जब से उसने सदन को देखा था, उसे अपने हृदय में एक स्वर्गीय विकास का अनुभव होता था। उसे वहां निर्मल भावों का एक स्रोत-सा बहता हुआ मालूम होता था। उसमें एक अद्भुत आत्मबल का उदय हो गया था। अपनी मामी से वह कभी सीधे मुंह बात न करती थी, पर आजकल घंटों बैठी उसके पैर दबाया करती। अपनी बहनों के प्रति अब उसे जरा भी ईर्ष्या न होती थी। वह अब हंसती हुई कुएं से पानी खींच लाती थी। चक्की चलाने में उसे एक पवित्र आनंद आता था। उसके जीवन में प्रेम का उद्भव हो गया था। सदन उसे न मिला, पर सदन से कहीं उत्तम वस्तु मिल गई। यह सदन का प्रेम था।
कृष्णचन्द्र शान्ता का प्रफुल्ल बदन देखकर विस्मित ही नहीं, भयभीत भी हो गए। उन्हें प्रतीत हुआ कि शोक की विषम वेदना आंसुओं द्वारा प्रकट नहीं हुई, उसने भीषण उन्माद का रूप धारण किया है। उन्हें ऐसा आभासित हुआ कि वह मुझे अपनी कठोर यातना का अपराधी समझ रही है। उन्होंने उसकी ओर कातर नेत्रों से देखकर कहा– शान्ता!
शान्ता ने जिज्ञासु भाव से उनकी ओर देखा।
कृष्णचन्द्र कुंठित स्वर में बोले– आज चार वर्ष हुए कि मेरे जीवन की नाव भंवर में पड़ी हुई है। इस विपत्तिकाल ने मेरा सब कुछ हर लिया, पर अब अपनी संतान की दुर्गति नहीं देखी जाती। मैं जानता हूं कि यह सब मेरे कुकर्म का फल है। अगर मैं पहले ही सावधान हो जाता, तो आज तुमलोगों की यह दुर्दशा न होती। मैं अब बहुत दिन न जीऊंगा। अगर कभी अभागिन सुमन से तुम्हारी भेंट हो जाए, तो कह देना कि मैंने उसे क्षमा किया। उसने जो कुछ किया, उसका दोष मुझ पर है। आज से दो दिन पहले तक मैं उसकी हत्या करने पर तुला हुआ था। पर ईश्वर ने मुझे इस पाप से बचा लिया। उससे कह देना कि वह अपने अभागे बाप और अपनी अभागिनी माता की आत्मा पर दया करे।
यह कहते-कहते कृष्णचन्द्र रुक गए। शान्ता चुपचाप खड़ी रही। अपने पिता पर उसे बड़ी दया आ रही थी। एक क्षण बाद कृष्णचन्द्र बोले– मैं तुमसे भी एक प्रार्थना करता हूं।
शान्ता– कहिए, क्या आज्ञा है?
कृष्णचन्द्र– कुछ नहीं, यही कि संतोष को कभी मत छोड़ना। इस मंत्र से कठिन-से-कठिन समय में भी तुम्हारा मन विचलित न होगा।
शान्ता ताड़ गई कि पिताजी कुछ और कहना चाहते थे, लेकिन संकोचवश न कहकर बात पलट दी। उनके मन में क्या था, यह उससे छिपा न रहा। उसने गर्व से सिर उठा लिया और साभिमान नेत्रों से देखा। उसकी इस विश्वासपूर्ण दृष्टि ने वह सब कुछ और उससे बहुत अधिक कह दिया, जो वह अपनी वाणी से कह सकती थी। उसने मन में कहा, जिसे पातिव्रत जैसा साधन मिल गया है, उसे और किसी साधन की क्या आवश्यकता? इसमें सुख, संतोष और शांति सब कुछ है।
आधी रात बीत चुकी थी। कृष्णचन्द्र घर से बाहर निकले। प्रकृति सुंदरी किसी वृद्धा के समान कुहरे की मोटी चादर ओढ़े निद्रा में मग्न थी। आकाश में चंद्रमा मुंह छिपाए हुए वेग से दौड़ा चला जाता था, मालूम नहीं कहां?
कृष्णचन्द्र के मन में एक तीव्र आकांक्षा उठी। गंगाजली को कैसे देखूं। संसार में यही एक वस्तु उनके आनंदमय जीवन का चिह्न रह गई थी। नैराश्य के घने अंधकार में यही एक ज्योति उनको अपने मन की ओर खींच रही थी। वह कुछ देर तक द्वार पर चुपचाप खड़े रहे, तब एक लंबी सांस लेकर आगे बढ़े। उन्हें ऐसा मालूम हुआ, मानो गंगाजली आकाश में बैठी हुई उन्हें बुला रही है।
कृष्णचन्द्र के मन में इस समय कोई इच्छा, कोई अभिलाषा, कोई चिंता न थी। संसार से उनका मन विरक्त हो गया था। वह चाहते थे कि किसी प्रकार जल्दी गंगातट पर पहुंचूं और उसके अथाह जल में कूद पड़ूं। उन्हें भय था कि कहीं मेरा साहस न छूट जाए। उन्होंने अपने संकल्प को उत्तेजित करने के लिए दौड़ना शुरू किया।
लेकिन थोड़ी दूर चलकर वह फिर ठिठक गए और सोचने लगे, पानी में कूद पड़ना ऐसा क्या कठिन है, जहां भूमि से पांव उखड़े कि काम तमाम हुआ। यह स्मरण करके उनका हृदय एक बार कांप उठा। अकस्मात् यह बात उनके ध्यान में आई कि कहीं निकल क्यों न जाऊं? जब यहां रहूंगा ही नहीं, तो अपना अपमान कैसे सुनूंगा? लेकिन इस बात को उन्होंने मन में जमने न दिया। मोह की कपट-लीला उन्हें धोखा न दे सकी। यद्यपि वह धार्मिक प्रकृति के मनुष्य नहीं थे। और अदृश्य के एक अव्यक्त भय से उनका हृदय कांप रहा था, पर अपने संकल्प को दृढ़ रखने के लिए वह अपने मन को यह विश्वास दिला रहे थे कि परमात्मा बड़ा दयालु और करुणाशील है। आत्मा अपने को भूल गई थी। वह उस बालक के समान थी, जो अपनी किसी सखा के खिलौने तोड़ डालने के बाद अपने ही घर में जाते डरता है।
कृष्णचन्द्र इसी प्रकार आगे बढ़ते हुए कोई चार मील चले गए। ज्यों-ज्यों गंगातट निकट आता जाता था, त्यों-त्यों उनके हृदय की गति बढ़ती जाती थी। भय से चित्त अस्थिर हुआ जाता था। लेकिन वह इस आंतरिक निर्बलता को कुछ तो अपने वेग और कुछ तिरस्कार से हटाने की चेष्टा कर रहे थे। हा! मैं कितना निर्लज्ज, आत्मशून्य हूं। इतनी दुर्दशा होने पर भी मरने से डरता हूं। अकस्मात् उन्हें किसी के गाने की ध्वनि सुनाई दी। ज्यों-ज्यों वे आगे बढ़ते थे, त्यों-त्यों वह ध्वनि निकट आती थी। गाने वाला उन्हीं की ओर चला आ रहा था। उस निस्तब्ध रात्रि में कृष्णचन्द्र को वह गाना अत्यंत मधुर मालूम हुआ। कान लगाकर सुनने लगे–

हरि सों ठाकुर और न जन को।
जेहि-जेहि विधि सेवक सुख पावै तेहि विधि राखत तिन को।।
हरि सों ठाकुर और न जन को।
भूखे को भोजन जु उदर को तृषा तोय पट तन को।।
लाग्यो फिरत सुरभि ज्यों सुत संग उचित गमन गृह वन को।।
हरि सों ठाकुर और न जन को।।

यद्यपि गान माधुर्य-रसपूर्ण न था, तथापि वह शास्त्रोक्त था, इसलिए कृष्णचन्द्र को उसमें बहुत आनंद प्राप्त हुआ था। उन्हें इस शास्त्र का अच्छा ज्ञान था। इसने उनके विदग्ध हृदय को शांति प्रदान कर दी।
गाना बंद हो गया और एक क्षण के बाद कृष्णचन्द्र ने एक दीर्घकाल जटाधारी साधु को अपनी ओर आते देखा। साधु ने उनका नाम और स्थान पूछा। उसके भाव से ऐसा ज्ञात हुआ कि वह उनसे परिचित है। कृष्णचन्द्र आगे बढ़ना चाहते थे कि उसने पूछा– इस समय आप इधर कहां जा रहे हैं?
कृष्णचन्द्र– कुछ ऐसा ही काम आ पड़ा है।
साधु– आधी रात को आपका गंगातट पर क्या काम हो सकता है?
कृष्णचन्द्र ने रुष्ट होकर उत्तर दिया– आप तो आत्मज्ञानी हैं। आपको स्वयं जानना चाहिए।
साधु– आत्मज्ञानी तो मैं नहीं हूं, केवल भिक्षुक हूं। इस समय मैं आपको उधर न जाने दूंगा।
कृष्णचन्द्र– आप अपनी राह जाइए। मेरे काम में विघ्न डालने का आपको क्या अधिकार है?
साधु– अधिकार न होता तो मैं आपको रोकता ही नहीं। आप मुझसे परिचित नहीं हैं, पर मैं आपका धर्मपुत्र हूं, मेरा नाम गजाधर पांडे है!
कृष्णचन्द्र– ओहो! आप गजाधर पांडे है। आपने यह भेष कब से धारण कर लिया? आपसे मिलने की मेरी बहुत इच्छा थी। मैं आपसे कुछ पूछना चाहता था।
गजाधर– मेरा स्थान गंगातट पर एक वृक्ष के नीचे है। चलिए, वहां थोड़ी देर विश्राम कीजिए। मैं सारा वृत्तांत आपसे कह दूंगा।
रास्ते में दोनों मनुष्यों में कुछ बातचीत न हुई। थोड़ी देर में वे उस वृक्ष के नीचे पहुंच गए, जहां एक मोटा– सा कुंदा जल रहा था। भूमि पर पुआल बिछा हुआ था और एक मृगचर्म, एक कमंडल और पुस्तकों का एक बस्ता उस पर रखा हुआ था।
कृष्णचन्द्र आग तापते हुए बोले– आप साधु हो गए हैं, सत्य ही कहिएगा, सुमन की यह कुप्रवृत्ति कैसे हो गई?
गजाधर अग्नि के प्रकाश में कृष्णचन्द्र के मुख की ओर मर्मभेदी दृष्टि से देख रहे थे। उन्हें उनके मुख पर उनके हृदय के समस्त भाव अंकित देख पड़ते थे। वह अब गजाधर न थे। सत्संग और विरक्ति ने उनके ज्ञान को विकसित कर दिया था। वह उस घटना पर जितना विचार करते थे, उतना ही उन्हें पश्चात्ताप होता था। इस प्रकार अनुतप्त होकर उनका हृदय सुमन की ओर से बहुत उदार हो गया था। कभी-कभी उनका जी चाहता था कि चलकर उसके चरणों पर सिर रख दूं।
गजाधर बोले– इसका कारण मेरा अन्याय था। यह सब मेरी निर्दयता और अमानुषीय व्यवहार का फल है। वह सर्वगुण संपन्न थी। वह इस योग्य थी कि किसी बड़े घर की स्वामिनी बनती। मुझ जैसा दुष्ट, दुरात्मा, दुराचारी मनुष्य उसके योग्य न था। उस समय मेरी स्थूल दृष्टि उसके गुणों को न देख सकी। ऐसा कोई कष्ट न था, जो उस देवी को मेरे साथ न झेलना पड़ा हो। पर उसने कभी मन मैला न किया। वह मेरा आदर करती थी। पर उसका यह व्यवहार देखकर मुझे उस पर संदेह होता था कि वह मेरे साथ कोई कौशल कर रही है। उसका संतोष, उसकी भक्ति, उसकी गंभीरता मेरे लिए दुर्बोध थी। मैं समझता था, वह मुझसे कोई चाल चल रही है। अगर वह मुझसे छोटी-छोटी वस्तुओं के लिए झगड़ा करती, रोती, कोसती, ताने देती, तो उस पर मुझे विश्वास होता। उसका ऊंचा आदर्श मेरे अविश्वास का कारण हुआ। मैं उसके सतीत्व पर संदेश करने लगा। अंत में वह दशा हो गई कि एक दिन, रात को एक सहेली के घर पर केवल जरा विलंब हो जाने के कारण मैंने उसे घर से निकाल दिया।
कृष्णचन्द्र बात काटकर बोले– तुम्हारी बुद्धि उस समय कहां गई थी? तुमको जरा भी ध्यान न रहा कि तुम इस अपनी निर्दयता से कितने बड़े कुल को कलंकित कर रहे हो?
गजाधर– महाराज, अब मैं क्या बताऊं कि मुझे क्या हो गया था? मैंने फिर उसकी सुध न ली। पर उसका अंतःकरण शुद्ध था। पापाचरण से उसे घृणा थी। अब वह विधवाश्रम में रहती है और सब उससे प्रसन्न हैं। उसकी धर्मनिष्ठा देखकर लोग चकित हो जाते हैं।
गजाधर की बातें सुनकर कृष्णचन्द्र का हृदय सुमन की ओर से कुछ नरम पड़ गया। लेकिन वह जितना ही इधर नरम था, उतना ही दूसरी ओर कठोर हो गया। जैसे साधारण गति से बहती जलधारा दूसरी ओर और भी वेग से बहने लगती है। उन्होंने गजाधर को सरोष नेत्रों से देखा, जैसे कोई भूखा सिंह अपने शिकार को देखता है। उन्हें निश्चय हो रहा था कि यह मनुष्य मेरे कुल को कलंकित करने वाला है। इतना ही नहीं उसने सुमन के साथ भी अन्याय किया है। उसे नाना प्रकार के कष्ट दिए हैं। क्या मैं उसे केवल इसलिए छोड़ दूं कि वह अब अपने दुष्कृत्यों पर लज्जित है? लेकिन उसने ये बातें मुझसे कह क्यों दीं? कदाचित् वह समझता है कि मैं उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। यही बात है, नहीं तो वह मेरे सामने अपना अपराध इतनी निर्भयता से क्यों स्वीकार करता? कृष्णचन्द्र ने गजाधर के मनोभावों को न समझा। वह क्षण-भर आग की तरफ ताकते रहे, फिर कठोर स्वर में बोले– गजाधर, तुमने मेरे कुल को डुबो दिया। तुमने मुझे कहीं मुंह दिखाने योग्य न रखा। तुमने मेरी लड़की की जान ले ली– उसका सत्यानाश कर दिया, तिस पर भी तुम मेरे सामने इस तरह बैठे हो, मानो कोई महात्मा हो। तुम्हें चुल्लू-भर पानी में डूब मरना चाहिए।
गजाधर जमीन की मिट्टी खुरच रहे थे। उन्होंने सिर न उठाया।
कृष्णचन्द्र फिर बोले– तुम दरिद्र थे। इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं। तुम अगर अपनी स्त्री का उचित रीति से पालन-पोषण नहीं कर सके, तो इसके लिए तुम्हें दोषी नहीं ठहराता। तुम उसके मनोभावों को नहीं जान सके, उसके सद्विचारों का मर्म नहीं समझ सके, इसके लिए भी मैं तुम्हें दोषी नहीं ठहराता। तुम्हारा अपराध यह है कि तुमने उसे घर से निकाल दिया। तुमने उसका सिर क्यों न काट लिया? अगर तुमको उसके पातिव्रत पर संदेह था, तो तुमने उसे मार क्यों नहीं डाला? और यदि इतना साहस नहीं था, तो स्वयं क्यों न प्राण त्याग दिया? विष क्यों न खा लिया? अगर तुमने उसके जीवन का अंत कर दिया होता, तो उसकी यह दुर्दशा न हुई होती, मेरे कुल में यह कलंक न लगता। तुम भी कहोगे कि मैं पुरुष हूं? तुम्हारी इस कायरता पर, निर्लज्जता पर धिक्कार है। जो पुरुष इतना नीच है कि अपनी स्त्री को दूसरों से प्रेम करते देखकर उसका रुधिर खौल नहीं उठता, वह पशुओं से भी गया-बीता है।
गजाधर को अब मालूम हुआ कि सुमन को घर से निकालने की बात कहकर वह ब्रह्मफांस में फंस गए। वह मन में पछताने लगे कि उदारता की धुन में मैं इतना असावधान क्यों हो गया? तिरस्कार की मात्रा भी उनकी आशा से अधिक हो गई। वह न समझे कि तिरस्कार यह रूप धारण करेगा और उससे मेरे हृदय पर इतनी चोट लगेगी। अनुतप्त हृदय वह तिस्कार चाहता है, जिसमें सहानुभूति और सहृदयता हो, वह नहीं जो अपमान सूचक और क्रूरतापूर्ण हो। पका फोड़ा नश्तर का घाव चाहता है, पत्थर का आघात नहीं। गजाधर अपने पश्चाताप पर पछताए। उनका मन अपना पूर्वपक्ष समर्थन करने के लिए अधीर होने लगा।
कृष्णचन्द्र ने गरजकर कहा– क्यों, तुमने उसे मार क्यों नहीं डाला?
गजाधर ने गंभीर स्वर में उत्तर दिया– मेरा हृदय इतना कठोर नहीं था?
कृष्णचन्द्र– तो घर से क्यों निकाला?
गजाधर– केवल इसलिए कि उस समय मुझे उससे गला छुड़ाने का और कोई उपाय न था।
कृष्णचन्द्र ने मुंह चढ़ाकर कहा– क्यों, जहर खा सकते थे?
गजाधर इस चोट से बिलबिलाकर बोले– व्यर्थ में जान देता?
कृष्णचन्द्र– व्यर्थ जान देना, व्यर्थ जीने से अच्छा है।
गजाधर– आप मेरे जीने को व्यर्थ नहीं कह सकते। आपसे पंडित उमानाथ ने न कहा होगा, पर मैंने इसी याचना-वृत्ति से उन्हें शान्ता के विवाह के लिए पंद्रह सौ रुपए दिए हैं और इस समय भी उन्हीं के पास यह एक हजार रुपए लेकर जा रहा था, जिससे वह कहीं उसका विवाह कर दें।
यह कहते-कहते गजाधर चुप हो गए। उन्हें अनुभव हुआ कि इस बात का उल्लेख करके मैंने अपने ओछेपन का परिचय दिया। उन्होंने संकोच से सिर झुका लिया।
कृष्णचन्द्र ने संदिग्ध स्वर से कहा– उन्होंने इस विषय में मुझसे कुछ नहीं कहा।
गजाधर– यह कोई ऐसी बात भी नहीं थी कि वह आपसे कहते। मैंने केवल प्रसंगवश कह दी। क्षमा कीजिएगा मेरा अभिप्राय केवल यह है कि आत्मघात करके मैं संसार का कोई उपकार न कर सकता था। इस कालिमा ने मुझे अपने जीवन को उज्ज्वल बनाने पर बाध्य किया है। सोई हुई आत्मा को जगाने के लिए हमारी भूलें एक प्रकार की दैविक यंत्रणाएं हैं, जो हमको सदा के लिए सतर्क कर देती हैं। शिक्षा, उपदेश, संसर्ग किसी से भी हमारे ऊपर सुप्रभाव नहीं पड़ता, जितना भूलों के कुपरिणाम को देखकर संभव है आप इसे मेरी कायरता समझें, पर वही कायरता मेरे लिए शांति और सदुद्योग की एक अविरल धारा बन गई है। एक प्राणी का सर्वनाश करके आज मैं सैकड़ों अभागिन कन्याओं का उद्घार करने योग्य हुआ हूं और मुझे यह देखकर असीम आनंद हो रहा है कि यही, सद्प्रेरणा सुमन पर भी अपना प्रभाव डाल रही है। मैंने अपनी कुटी में बैठे हुए उसे कई बार गंगा-स्नान करते देखा है और उसकी श्रद्धा तथा धर्मनिष्ठा को देखकर विस्मित हो गया हूं। उसके मुख पर शुद्धांतःकरण की विमल आभा दिखाई देती है। वह अगर पहले कुशल गृहिणी थी, तो अब परम विदुषी है और मुझे विश्वास है कि एक दिन वह स्त्री समाज का श्रृंगार बनेगी।
कृष्णचन्द्र ने पहले इन वाक्यों को इस प्रकार सुना, जैसे कोई चतुर ग्राहक व्यापारी की अनुरोधपूर्ण बातें सुनता है। वह कभी नहीं भूलता कि व्यापारी उससे अपने स्वार्थ की बातें कर रहा है। लेकिन धीरे-धीरे कृष्णचन्द्र पर इन वाक्यों का प्रभाव पड़ने लगा। उन्हें विदित हुआ कि मैंने उस मनुष्य को कटु वाक्य कहकर दुःख पहुंचाया, जो हृदय से अपनी भूल पर लज्जति है और जिसके एहसानों के बोझ के नीचे मैं दबा हुआ हूं। हा! मैं कैसा कृतघ्न हूं! यह स्मरण कठोर हो जाता है, उतनी ही जल्दी पसीज भी जाता है।
गजाधर ने उनके मुख की ओर करुण नेत्रों से देखकर कहा– इस समय यदि आप साधु के अतिथि बन जाएं तो कैसा हो? प्रातःकाल मैं आपके साथ चलूंगा। इस कंबल में आपको जाड़ा न लगेगा।
कृष्णचन्द्र ने नम्रता से कहा– कंबल की आवश्यकता नहीं है। ऐसे ही लेट रहूंगा।
गंजाधर– आप समझते हैं कि मेरा कंबल ओढ़ने में आपको दोष लगेगा, पर यह कंबल मेरा नहीं है। मैंने इसे अतिथि-सत्कार के लिए रख छोड़ा है।
कृष्णचन्द्र ने अधिक आपत्ति नहीं की। उन्हें सर्दी लग रही थी। कंबल ओढ़कर लेटे और तुरंत ही निद्रा में मग्न हो गए, पर वह शांतिदायिनी निद्रा नहीं थी, उनकी वेदनाओं का दिग्दर्शन मात्र थी। उन्होंने स्वप्न देखा कि मैं जेलखाने में मृत्युशैया पर पड़ा हुआ हूँ और जेल का दारोगा मेरी ओर घृणित भाव से देखकर कह रहा है कि तुम्हारी रिहाई अभी नहीं होगी। इतने में गंगाजली और उनके पिता दोनों चारपाई के पास खड़े हो गए। उनके मुंह विकृत थे और उन पर कालिमा लगी हुई थी। गंगाजली ने रोकर कहा, तुम्हारे कारण हमारी यह दुर्दशा हो रही है। पिता ने क्रोधयुक्त नेत्रों से देखते हुए कहा, क्या हमारी कालिमा ही तेरे जीवन का फल होगी, इसीलिए हमने तुमको जन्म दिया था? अब यह कालिमा कभी हमारे मुख से न छूटेगी। हम अनंतकाल तक यह यंत्रणा भोगते रहेंगे। तूने केवल चार दिन जीवित रहने के लिए हमें यह कष्ट-भोग दिया है, पर हम इसी दम तेरा प्राण हरण करेंगे। यह कहते हुए वह कुल्हाड़ा लिए हुए उन पर झपटे।
कृष्णचन्द्र की आंखें खुल गईं। उनकी छाती धड़क रही थी। सोते वक्त वह भूल गए थे कि मैं क्या करने घर से चला था। इस स्वप्न ने उसका स्मरण करा दिया। उन्होंने अपने को धिक्कारा। मैं कैसा कर्त्तव्यहीन हूं। उन्हें निश्चित हो गया कि यह स्वप्न नहीं, आकाशवाणी है।
गजाधर के कथन का असर धीरे-धीरे उनके हृदय से मिटने लगा। सुमन अब चाहे सती हो जाए, साध्वी हो जाए, इससे वह कालिमा तो न मिट जाएगी, जो उसने हमारे मुख में लगा दी है। यह महात्मा कहते हैं, पाप में सुधार की बड़ी शक्ति है। मुझे तो वह कहीं दिखाई नहीं देती। मैंने भी तो पाप किए हैं, पर कभी इस शक्ति का अनुभव नहीं किया। कुछ नहीं, यह सब इनके शब्दजाल हैं, इन्होंने अपनी कायरता को शब्दों के आडंबर में छिपाया है। यह मिथ्या है, पाप से पाप ही उत्पन्न होगा। अगर पाप से पुण्य होता, तो आज संसार में कोई पापी न रह जाता।
यह सोचते हुए वह उठ बैठे। गजाधर भी आग के पास पड़े हुए थे। कृष्णचन्द्र चुपके से उठे और गंगातट की ओर चले। उन्होंने निश्चय कर लिया कि अब इन वेदनाओं का अंत ही करके छोड़ूंगा।
चंद्रमा अस्त हो चुका था। कुहरा और भी सघन हो गया। अंधकार ने वृक्ष, पहाड़ और आकाश में कोई अंतर न छोड़ा था। कृष्णचन्द्र एक पगडंडी पर चल रहे थे, पर दृष्टि की अपेक्षा अनुमान से अधिक काम लेना पड़ता था। पत्थरों के टुकड़ों और झाड़ियों से बचने में वह ऐसे लीन हो रहे थे कि अपनी अवस्था का ध्यान न था।
कगार के किनारे पहुंचकर उन्हें कुछ प्रकाश दिखाई दिया। वह नीचे उतरे। गंगा कुहरे की मोटी चादर ओढ़े पड़ी कराह रही थी। आसपास के अंधकार और गंगा में केवल प्रवाह का अंतर था। यह प्रवाहित अंधकार था। ऐसी उदासी छाई हुई थी, जो मृत्यु के बाद घरों में छा जाती है।
कृष्णचन्द्र नदी के किनारे खड़े थे। उन्होंने विचार किया, हाय! अब मेरा अंत कितना निकट है। एक पल में यह प्राण न जाने कहां चले जाएंगे। न जाने क्या गति होगी? संसार से आज नाता टूटता है। परमात्मन्, अब तुम्हारी शरण आता हूं, मुझ पर दया करो, ईश्वर मुझे संभालो।
इसके बाद उन्होंने एक क्षण अपने हृदय में बल का संचार किया। उन्हें मालूम हुआ कि मैं निर्भय हूं। वह पानी में घुसे। पानी ठंडा था। कृष्णचन्द्र का सारा शरीर दहल उठा। वह घुसते हुए चले गए। गले तक पानी में पहुंचकर एक बार फिर विराट तिमिर को देखा। यह संसार-प्रेम की अंतिम घड़ी थी। यह मनोबल की, आत्माभिमान की अंतिम परीक्षा थी। अब तक उन्होंने जो कुछ किया था, वह केवल इसी परीक्षा की तैयारी थी। इच्छा और माया का अंतिम संग्राम था। माया ने अपनी संपूर्ण शक्ति से उन्हें अपनी ओर खींचा। सुमन विदुषी वेश में दृष्टिगोचर हुई, शान्ता शोक की मूर्ति बनी हुई सामने आई। अभी क्या बिगड़ा है? क्यों न साधु हो जाऊं? मैं ऐसा कौन बड़ा आदमी हूं कि संसार मेरे नाम और मर्यादा की चर्चा करेगा? ऐसी न जाने कितनी कन्याएं पाप के फंदे में फंसती हैं। संसार किसकी परवाह करता है? मैं मूर्ख हूं, जो यह सोचता हूं कि संसार मेरी हंसी उड़ाएगा। इच्छा-शक्ति ने कितना ही चाहा कि इस तर्क का प्रतिवाद करे, पर वह निष्फल हुई, एक डुबकी की कसर थी। जीवन और मृत्यु में केवल एक पग का अंतर था। पीछे का एक पग कितना सुलभ था, कितना सरल, आगे का एक पग कितना कठिन था, कितना भयकारक।
कृष्णचन्द्र ने पीछे लौटने के लिए कदम उठाया। माया ने अपनी विलक्षण शक्ति का चमत्कार दिखा दिया। वास्तव में वह संसार-प्रेम नहीं था, अदृश्य का भय था।
उस समय कृष्णचन्द्र को अनुभव हुआ कि अब मैं पीछे नहीं फिर सकता। वह धीरे-धीरे आप-ही-आप खिसकते जाते थे। उन्होंने जोर से चीत्कार किया। अपने शीत-शिथिल पैरों को पीछें हटाने की प्रबल चेष्टा की, लेकिन कर्म की गति कि वह आगे ही को खिसके।
अकस्मात उनके कानों में गजाधर के पुकारने की आवाज आई। कृष्णचन्द्र ने चिल्लाकर उत्तर दिया, पर मुंह से पूरी बात भी न निकलने पाई थी कि हवा से बुझकर अंधकार में लीन हो जाने वाले दीपक के सदृश लहरों में मग्न हो गए। शोक, लज्जा और चिंतातप्त हृदय का दाह शीतल जल में शांत हो गया। गजाधर ने केवल यह शब्द सुने ‘मैं यहां डूबा जाता हूं’ और फिर लहरों की पैशाचिक क्रीड़ाध्वनि के सिवा और कुछ न सुनाई दिया।
शोकाकुल गजाधर देर तक तट पर खड़े रहे। वही शब्द चारों ओर से उन्हें सुनाई देते थे। पास की पहाड़ियां और सामने की लहरें और चारों ओर छाया हुआ दुर्भेद्य अंधकार इन्हीं शब्दों से प्रतिध्वनित हो रहा था।
 

55
रचनाएँ
सेवासदन
5.0
प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। सेवासदन में नारी जीवन की समस्याओं के साथ-साथ समाज के धर्माचार्यों, मठाधीशों, धनपतियों, सुधारकों के आडंबर, दंभ, ढोंग, पाखंड, चरित्रहीनता, दहेज-प्रथा, बेमेल विवाह, पुलिस की घूसखोरी, वेश्यागमन, मनुष्य के दोहरे चरित्र, साम्प्रदायिक द्वेष आदि सामाजिक विकृतियों का विवरण मिलता है।सेवासदन उपन्यास की मुख्य समस्या क्या है? “सेवासदन” में प्रेमचन्द दिखाते है कि हमारी सामाजिक कुरीतियाँ स्त्रियों के जीवन को विवश करती है । इसकी मुख्य समस्या मध्य वर्गीय लोगों की आडंबर प्रियता से संबंधित है । प्रेमचन्द यह बताना चाहता है कि मनुष्य को जीने के लिए धन द्वारा प्राप्त सुख के समान मन द्वारा प्राप्त सुख भी चाहिए ।प्रेमचंद ने जहाँ एक ओर नारी की सामाजिक पराधीनता उसके फलसवरूप उत्पन्न समस्याओं को अपने इस उपन्यास में अभिव्यक्ति प्रदान की है, वहीं दूसरी ओर यह भी दिखलाया है कि किस प्रकार उनके नारी-पात्र उपन्यास के अंत तक आते-आते सामाजिक अन्याय से मुक्ति पाने का मार्ग स्वयं ही खोज देते हैं।
1

सेवासदन (भाग 1)

9 फरवरी 2022
1
1
1

1 पश्चाताप के कड़वे फल कभी-न-कभी सभी को चखने पड़ते हैं, लेकिन और लोग बुराईयों पर पछताते हैं, दारोगा कृष्णचन्द्र अपनी भलाइयों पर पछता रहे थे। उन्हें थानेदारी करते हुए पच्चीस वर्ष हो गए, लेकिन उन्हों

2

2

9 फरवरी 2022
0
0
0

दारोगाजी के हल्के में एक महन्त रामदास रहते थे। वह साधुओं की एक गद्दी के महंत थे। उनके यहां सारा कारोबार ‘श्री बांकेबिहारीजी’ के नाम पर होता था। ‘श्री बांकेबिहारीजी’ लेन-देन करते थे और बत्तीस रुपये प्र

3

3

9 फरवरी 2022
0
0
0

पण्डित कृष्णचन्द्र रिश्वत लेकर उसे छिपाने के साधन न जानते थे । इस विषय में अभी नोसिखुए थे । उन्हें मालूम न था कि हराम का माल अकेले मुश्किल से पचता है । मुख्तार ने अपने मन मे कहा, हमीं ने सब कुछ किया औ

4

4

9 फरवरी 2022
0
0
0

कृष्णचन्द्र अपने कस्बे में सर्वप्रिय थे । यह खबर फैलते ही सारी बस्ती में हलचल मच गई । कई भले आदमी उनकी जमानत करने आये लेकिन साहब ने जमानत न ली । इसके एक सप्ताह बाद कृष्णचन्द्र पर रिश्वत लेने का अभियो

5

5

9 फरवरी 2022
0
0
0

फागुन में सुमन का विवाह हो गया। गंगाजली दामाद को देखकर बहुत रोई। उसे ऐसा दुःख हुआ, मानो किसी ने सुमन को कुएं में डाल दिया। सुमन ससुराल आई तो यहां की अवस्था उससे भी बुरी पाई, जिसकी उसने कल्पना की थी।

6

7

9 फरवरी 2022
0
0
0

सुमन को ससुराल आए डेढ़ साल के लगभग हो चुका था, पर उसे मैके जाने का सौभाग्य न हुआ था। वहां से चिट्ठियां आती थीं। सुमन उत्तर में अपनी मां को समझाया करती, मेरी चिंता मत करना, मैं बहुत आनंद से हूं, पर अब

7

8

9 फरवरी 2022
0
0
0

गजाधरप्रसाद की दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो चोरों के बीच में अशर्फियों की थैली लिए बैठा हो। सुमन का वह मुख-कमल, जिस पर वह कभी भौंरे की भांति मंडराया करता था, अब उसकी आँखों में जलती हुई आग के समान था। वह

8

9

9 फरवरी 2022
0
0
0

दूसरे दिन से सुमन ने चिक के पास खड़ा होना छोड़ दिया। खोंचेवाले आते और पुकार कर चले जाते। छैले गजल गाते हुए निकल जाते। चिक की आड़ में अब उन्हें कोई न दिखाई देता था। भोली ने कई बार बुलाया, लेकिन सुमन ने

9

10

9 फरवरी 2022
0
0
0

दूसरे दिन सुमन नहाने न गई। सबेरे ही से अपनी एक रेशमी साड़ी की मरम्मत करने लगी। दोपहर को सुभद्रा की एक महरी उसे लेने आई। सुमन ने मन में सोचा था, गाड़ी आवेगी। उसका जी छोटा हो गया। वही हुआ जिसका उसे भ

10

11

9 फरवरी 2022
0
0
0

दरवाजे पर आकर सुमन सोचने लगी कि अब कहां जाऊं। गजाधर की निर्दयता से भी उसे दुःख न हुआ था, जितना इस समय हो रहा था। उसे अब मालूम हुआ कि मैंने अपने घर से निकलकर बड़ी भूल की। मैं सुभद्रा के बल पर कूद रही थ

11

सेवासदन (भाग-2)

9 फरवरी 2022
0
0
0

12 पद्मसिंह के एक बड़े भाई मदनसिंह थे। वह घर का कामकाज देखते थे। थोड़ी-सी जमींदारी थी, कुछ लेन-देन करते थे। उनके एक ही लड़का था, जिसका नाम सदनसिंह था। स्त्री का नाम भामा था। मां-बाप का इकलौता लड़का

12

13

9 फरवरी 2022
0
0
0

सुमन के चले जाने के बाद पद्मसिंह के हृदय में एक आत्मग्लानि उत्पन्न हुई– मैंने अच्छा नहीं किया। न मालूम वह कहां गई। अपने घर चली गई तो पूछना ही क्या, किन्तु वहां वह कदापि न गई होगी। मरता क्या न करता, कह

13

14

9 फरवरी 2022
0
0
0

दूसरे दिन पद्मसिंह सदन को साथ किसी लेकर स्कूल में दाखिल कराने चले। किंतु जहां गए, साफ जवाब मिला ‘स्थान नहीं है।’ शहर में बारह पाठशालाएं थीं। लेकिन सदन के लिए कहीं स्थान न था। शर्माजी ने विवश होकर निश

14

15

9 फरवरी 2022
0
0
0

प्राचीन ऋषियों ने इंद्रियों को दमन करने के दो साधन बताए हैं– एक राग, दूसरा वैराग्य। पहला साधन अत्यंत कठिन और दुस्साध्य है। लेकिन हमारे नागरिक समाज ने अपने मुख्य स्थानों पर मीनाबाजार सजाकर इसी कठिन मार

15

16

9 फरवरी 2022
0
0
0

महाशय विट्ठलदास इस समय ऐसे खुश थे मानों उन्हें कोई संपत्ति मिल गई हो। उन्हें विश्वास था कि पद्मसिंह इस जरा से कष्ट से मुंह न मोड़ेंगे, केवल उनके पास जाने की देर है। वह होली के कई दिन पहले से शर्माजी क

16

17

9 फरवरी 2022
0
0
0

संध्या का समय है। सदन अपने घोड़े पर सवार दालमंडी में दोनों तरफ छज्जों और खिड़कियों की ओर ताकता जा रहा है। जब से सुमन वहां आई है, सदन उसके छज्जे के सामने किसी-न-किसी बहाने से जरा देर के लिए अवश्य ठहर ज

17

18

9 फरवरी 2022
0
0
0

बाबू विट्ठलदास अधूरा काम न करते थे। पद्मसिंह की ओर से निराश होकर उन्हें यह चिंता होने लगी कि सुमनबाई के लिए पचास रुपए मासिक का चंदा कैसे करूं? उनकी स्थापित की हुई संस्थाएं चंदों ही से चल रही थीं, लेकि

18

19

9 फरवरी 2022
0
0
0

शाम हो गई। सुमन ने दिन-भर विट्ठलदास की राह देखी, लेकिन वह अब तक नहीं आए। सुमन के मन में जो नाना प्रकार की शंकाएं उठ रही थीं, वह पुष्ट हो गईं। विट्ठलदास अब नहीं आएंगे, अवश्य कोई विघ्न पड़ा। या तो वह कि

19

20

9 फरवरी 2022
0
0
0

सुभद्रा को संध्या के समय कंगन की याद आई। लपकी हुई स्नान-घर में गई। उसे खूब याद था कि उसने यहीं ताक पर रख दिया था, लेकिन उसका वहाँ पता न था। इस पर वह घबराई। अपने कमरे के प्रत्येक ताक और आलमारी को देखा,

20

21

9 फरवरी 2022
0
0
0

विट्ठलदास को संदेह हुआ कि सुमन तीस रुपए मासिक स्वीकार करना नहीं चाहती, इसलिए उसने कल उत्तर देने का बहाना करके मुझे टाला है। अतएव वे दूसरे दिन उसके पास नहीं गए, इसी चिंता में पड़े रहे कि शेष रुपयों का

21

22

9 फरवरी 2022
0
0
0

सुमन पार्क से लौटी तो उसे खेद होने लगा कि मैंने शर्माजी को वे ही दुखानेवाली बातें क्यों कहीं उन्होंने इतनी उदारता से मेरी सहायता की, जिसका मैंने यह बदला दिया? वास्तव में मैंने अपनी दुर्बलता का अपराध उ

22

23

9 फरवरी 2022
0
0
0

सदन प्रातःकाल घर गया, तो अपनी चाची के हाथों में कंगन देखा। लज्जा से उसकी आंखें जमीन में गड़ गईं। नाश्ता करके जल्दी से बाहर निकल आया और सोचने लगा, यह कंगन इन्हें कैसे मिल गया? क्या यह संभव है कि सुमन

23

24

9 फरवरी 2022
1
1
0

यह बात बिल्कुल तो असत्य नहीं है कि ईश्वर सबको किसी-न-किसी हीले से अन्न-वस्त्र देता है। पंडित उमानाथ बिना किसी हीले ही के संसार का सुख-भोग करते थे। उनकी आकाशी वृत्ति थी। उनके भैंस और गाएं न थीं, लेकिन

24

25

9 फरवरी 2022
0
0
0

सार्वजनिक संस्थाएं भी प्रतिभाशाली मनुष्य की मोहताज होती हैं। यद्यपि विट्ठलदास के अनुयायियों की कमी न थी, लेकिन उनमें प्रायः सामान्य अवस्था के लोग थे। ऊंची श्रेणी के लोग उनसे दूर भागते थे। पद्मसिंह के

25

26

9 फरवरी 2022
0
0
0

रात के नौ बजे थे। पद्मसिंह भाई के साथ बैठे हुए विवाह के संबंध में बातचीत कर रहे थे। कल बारात जाएगी। दरवाजे पर शहनाई बज रही थी और भीतर गाना हो रहा था। मदनसिंह– तुमने जो गाड़ियां भेजी हैं; वह कल शाम तक

26

27

9 फरवरी 2022
0
0
0

बरसात के दिन थे, छटा छाई हुई थी। पंडित उमानाथ चुनारगढ़ के निकट गंगा के तट पर खड़े नाव की बाट जोह रहे थे। वह कई गांवों का चक्कर लगाते हुए आ रहे थे और संध्या होने से पहले चुनार के पास एक गांव में जाना च

27

28

9 फरवरी 2022
0
0
0

पंडित उमानाथ सदनसिंह का फलदान चढ़ा आए हैं। उन्होंने जाह्नवी से गजानन्द की सहायता की चर्चा नहीं की थी। डरते थे कि कहीं यह इन रुपयों को अपनी लड़कियों के विवाह के लिए रख छोड़ने पर जिद्द न करने लगे। जाह्न

28

29

9 फरवरी 2022
0
0
0

एक रोज उमानाथ ने कृष्णचन्द्र के सहचरों को धमकाकर कहा– अब तुमलोगों को उनके साथ बैठकर चरस पीते देखा तो तुम्हारी कुशल नहीं। एक-एक की बुरी तरह खबर लूंगा। उमानाथ का रोब सारे गांव पर छाया हुआ था। वे सब-के-स

29

सेवासदन (भाग-3)

10 फरवरी 2022
0
0
0

30 शहर की म्युनिसिपैलिटी में कुल अठारह सभासद थे। उनमें आठ मुसलमान थे और दस हिन्दू। सुशिक्षित मेंबरों की संख्या अधिक थी, इसलिए शर्माजी को विश्वास था कि म्युनिसिपैलिटी में वेश्याओं को नगर से बाहर निकाल

30

31

10 फरवरी 2022
0
0
0

इस प्रस्ताव के विरोध में हिंदू मेंबरों को जब मुसलमानों के जलसे का हाल मालूम हुआ तो उनके कान खड़े हुए। उन्हें मुसलमानों से जो आशा थी, वह भंग हो गई। कुल दस हिंदू थे। सेठ बलभद्रदास चेयरमैन थे। डॉक्टर श्य

31

32

10 फरवरी 2022
0
0
0

जिस प्रकार कोई आलसी मनुष्य किसी के पुकारने की आवाज सुनकर जाग जाता है, किंतु इधर-उधर देखकर फिर निद्रा में मग्न हो जाता है, उसी प्रकार पंडित कृष्णचन्द्र क्रोध और ग्लानि का आवेश शांत होने पर अपने कर्त्तव

32

33

10 फरवरी 2022
0
0
0

सदन के विवाह का दिन आ गया। चुनार से बारात अमोला चली। उसकी तैयारियों का वर्णन व्यर्थ है। जैसी अन्य बारातें होती हैं, वैसी ही यह भी थी। वैभव और दरिद्रता का अत्यन्त करुणात्मक दृश्य था। पालकियों पर कारचोब

33

34

10 फरवरी 2022
0
0
0

विट्ठलदास ने सुमन को विधवाश्रम में गुप्त रीति से रखा था। प्रबंधकारिणी सभा के किसी सदस्य को इत्तिला न दी थी। आश्रम की विधवाओं से उसे विधवा बताया था। लेकिन अबुलवफा जैसे टोहियों से यह बात बहुत दिनों तक ग

34

35

10 फरवरी 2022
0
0
0

यद्यपि डॉक्टर साहब का बंगला निकट ही था, पर इन दोनों आदमियों ने एक किराए की गाड़ी की। डॉक्टर साहब के यहां पैदल जाना फैशन के विरुद्ध था। रास्ते में विट्ठलदास ने आज के सारे समाचार बढ़ा-चढ़ाकर बयान किए और

35

36

10 फरवरी 2022
0
0
0

सदन जब घर पर पहुंचा, तो उसके मन की दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो बरसों की कमाई लिए, मन में सहस्रों मंसूबे बांधता, हर्ष से उल्लसित घर आए और यहां संदूक खोलने पर उसे मालूम हो कि थैली खाली पड़ी है। विचारों

36

37

10 फरवरी 2022
0
0
0

सदन को व्याख्यानों की ऐसी चाट पड़ी कि जहां कहीं व्याख्यान की खबर पाता, वहां अवश्य जाता, दोनों पक्षों की बातें महीनों सुनने और उन पर विचार करने से उसमें राय स्थिर करने की योग्यता आने लगी। अब वह किसी यु

37

38

10 फरवरी 2022
0
0
0

जिस दिन से बारात लौट गई, उसी दिन से कृष्णचन्द्र फिर से बाहर नहीं निकले। मन मारे हुए अपने कमरे में बैठे रहते। उन्हें अब किसी को अपना मुंह दिखाते लज्जा आती थी। दुश्चरित्रा सुमन ने उन्हें संसार की दृष्टि

38

39

10 फरवरी 2022
0
0
0

प्रातःकाल यह शोक-समाचार अमोला में फैल गया। इने-गिने सज्जनों को छोड़कर कोई भी उमानाथ के द्वार पर संवेदना प्रकट करने न आया। स्वाभाविक मृत्यु हुई होती, तो संभवतः उनके शत्रु भी आकर चार आंसू बहा जाते, पर आ

39

40

10 फरवरी 2022
0
0
0

पद्मसिंह का पहला विवाह उस समय हुआ था, जब वह कॉलेज में पढ़ते थे, और एम. ए. पास हुए, तो वह एक पुत्र के पिता थे। पर बालिका वधू शिशु-पालन का मर्म न जानती थी। बालक जन्म के समय तो हृष्ट-पुष्ट था, पर पीछे धी

40

42

10 फरवरी 2022
0
0
0

शान्ता ने पत्र तो भेजा, पर उसको उत्तर आने की कोई आशा न थी। तीन दिन बीत गए, उसका नैराश्य दिनों-दिन बढ़ता जा रहा था। अगर कुछ अनुकूल उत्तर न आया, तो उमानाथ अवश्य ही उसका विवाह कर देंगे, यह सोचकर शान्ता क

41

43

10 फरवरी 2022
0
0
0

शान्ता को आश्रम में आए एक मास से ऊपर हो गया, लेकिन पद्मसिंह ने अभी तक अपने घर में किसी से इसकी चर्चा नहीं की। कभी सोचते, भैया को पत्र लिखूं, कभी सोचते, चलकर उनसे कहूं, कभी विट्ठलदास को भेजने का विचार

42

44

10 फरवरी 2022
0
0
0

पद्मसिंह की आत्मा किसी भांति इस तरमीम के स्वीकार करने में अपनी भूल स्वीकार न करती थी। उन्हें कदापि यह आशा न थी कि उनके मित्रगण एक गौण बात पर उनका इतना विरोध करेंगे। उन्हें प्रस्ताव के एक अंश के अस्वीक

43

45

10 फरवरी 2022
0
0
0

सदन जब सुमन को देखकर लौटा, तो उसकी दशा उस दरिद्र मनुष्य की-सी थी, जिसका वर्षों का धन चोरों ने हर लिया हो। वह सोचता था, सुमन मुझसे बोली क्यों नहीं, उसने मेरी ओर ताका क्यों नहीं? क्या वह मुझे इतना नीच

44

सेवासदन (भाग-4)

10 फरवरी 2022
0
0
0

46 सदन को ऐसी ग्लानि हो रही थी, मानों उसने कोई बड़ा पाप किया हो। वह बार-बार अपने शब्दों पर विचार करता और यही निश्चय करता कि मैं बड़ा निर्दय हूं। प्रेमाभिलाषा ने उसे उन्मत्त कर दिया था। वह सोचता, मुझ

45

47

10 फरवरी 2022
0
0
0

प्रभाकर राव का क्रोध बहुत कुछ तो सदन के लेखों से ही शांत हो गया था और जब पद्मसिंह ने सदन के आग्रह से सुमन का पूरा वृत्तांत उन्हें लिख भेजा, तो वह सावधान हो गए। म्युनिसपैलिटी में प्रस्ताव को पास हुए ल

46

48

10 फरवरी 2022
0
0
0

एक महीना बीत गया। सदन ने अपने इस नए धंधे की चर्चा घर में किसी से न की। वह नित्य सबेरे उठकर गंगा-स्नान के बहाने चला जाता। वहां से दस बजे घर आता। भोजन करके फिर चल देता और तब का गया-गया घड़ी रात गए, घर ल

47

49

10 फरवरी 2022
0
0
0

बाबू विट्ठलदास न्यायप्रिय सरल मनुष्य थे, जिधर न्याय खींच ले जाता, उधर चले जाते थे। इसमें लेश-मात्र भी संकोच न होता था। जब उन्होंने पद्मसिंह को न्यायपथ से हटते देखा, तो उनका साथ छोड़ दिया और कई महीने त

48

50

10 फरवरी 2022
0
0
0

सदनसिंह का विवाह संस्कार हो गया। झोंपड़ा खूब सजाया गया था। वही मंडप का काम दे रहा था, लेकिन कोई भीड़-भाड़ न थी। पद्मसिंह उस दिन घर चले गए और मदनसिंह से सब समाचार कहा। वह यह सुनते ही आग हो गए, बोले– म

49

51

10 फरवरी 2022
0
0
0

जैसे सुंदर भाव के समावेश से कविता में जान पड़ जाती है और सुंदर रंगों से चित्र में, उसी प्रकार दोनों बहनों के आने से झोंपड़ी में जान आ गई। अंधी आंखों में पुतलियां पड़ गई हैं। मुर्झाई हुई कली शान्ता अब

50

52

10 फरवरी 2022
0
0
0

पंडित पद्मसिंह के चार-पांच मास के सदुद्योग का यह फल हुआ कि बीस-पच्चीस वेश्याओं ने अपनी लड़कियों को अनाथालय में भेजना स्वीकार कर लिया। तीन वेश्याओं ने अपनी सारी संपत्ति अनाथालय के निमित्त अर्पण कर दी,

51

53

10 फरवरी 2022
0
0
0

पंडित मदनसिंह की कई महीने तक यह दशा थी कि जो कोई उनके पास आता, उसी से सदन की बुराई करते-कपूत है, भ्रष्ट है, शोहदा है, लुच्चा है, एक कानी कौड़ी तो दूंगा नहीं, भीख मांगता फिरेगा, तब आटे-दाल का भाव मालूम

52

54

10 फरवरी 2022
0
0
0

जिस प्रकार कोई मनुष्य लोभ के वश होकर आभूषण चुरा लेता है, पर विवेक होने पर उसे देखने में भी लज्जा आती है, उसी प्रकार सदन भी सुमन से बचता फिरता था। इतना ही नहीं, वह उसे नीची दृष्टि से देखता था और उसकी उ

53

55

10 फरवरी 2022
0
0
0

संध्या का समय है। आकाश पर लालिमा छाई हुई है और मंद वायु गंगा की लहरों पर क्रीड़ा कर रही है, उन्हें गुदगुदा रही है। वह अपने करुण नेत्रों से मुस्कराती है और कभी-कभी खिलखिलाकर हंस पड़ती है, तब उसके मोती

54

56

10 फरवरी 2022
0
0
0

एक साल बीत गया। पंडित मदनसिंह पहले तीर्थ यात्रा पर उधार खाए बैठे थे। जान पड़ता था, सदन के घर आते ही एक दिन भी न ठहरेंगे, सीधे बद्रीनाथ पहुंचकर दम लेंगे, पर जब से सदन आ गया है, उन्होंने भूलकर भी तीर्थ-

55

57

10 फरवरी 2022
0
0
0

कार्तिक का महीना था। पद्मसिंह सुभद्रा को लेकर गंगा-स्नान कराने ले गए थे। लौटती बार वह अलईपुर की ओर से आ रहे थे। सुभद्रा गाड़ी की खिड़की से बाहर झांकती चली आती थी और सोचती थी कि यहाँ इस सन्नाटे में लोग

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए