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10 फरवरी 2022

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विट्ठलदास ने सुमन को विधवाश्रम में गुप्त रीति से रखा था। प्रबंधकारिणी सभा के किसी सदस्य को इत्तिला न दी थी। आश्रम की विधवाओं से उसे विधवा बताया था। लेकिन अबुलवफा जैसे टोहियों से यह बात बहुत दिनों तक गुप्त न रही। उन्होंने हिरिया को ढूंढ निकाला और उससे सुमन का पता पूछ लिया। तब अपने अन्य रसिक मित्रों को भी इसकी सूचना दे दी। इसका परिणाम यह हुआ कि उन सज्जनों की आश्रम पर विशेष रीति से कृपादृष्टि होने लगी। कभी सेठ चिम्मनलाल आते, कभी सेठ बलभद्रदास, कभी पंडित दीनानाथ विराजमान हो जाते। इन महानुभावों को अब आश्रम की सफाई और सजावट, उसकी आर्थिक दशा, उसके प्रबंध आदि विषयों से अद्भुत सहानुभूति हो गई थी। रात-दिन आश्रम की शुभकामना में मग्न रहते थे।
विट्ठलदास बड़े संकट में पड़े हुए थे। कभी विचार करते कि इस पद से इस्तीफा दे दूं। क्या मैंने ही इस आश्रम का जिम्मा लिया है? कमेटी में और कितने ही मनुष्य हैं, जो इस काम को संभाल सकते हैं। वह जैसा उचित समझेंगे, इसका प्रबंध करेंगे, मुझे अपनी आंखों से तो यह अत्याचार न देखना पड़ेगा। कभी सोचते, क्यों न एक दिन इन दुराचारियों को फटकारूं? फिर जो कुछ होगा, देखा जाएगा। लेकिन जब शांत चित्त होकर देखते, तो उन्हें सब्र से काम लेने के सिवा और कोई उपाय न सूझता। हां, उन लोगों से बड़ी रुखाई से बातचीत करते, उनके प्रस्तावों की उपेक्षा किया करते और अपने भावों से यह प्रकट करना चाहते थे कि मुझे तुम लोगों का यहां आना असह्य है। किंतु गरज के बावले मनुष्य देखकर भी अनदेखी कर जाते हैं। दोनों सेठ विनय और शील की साक्षात् मूर्ति बन जाते। तिवारीजी ऐसे सरल बन जाते, मानों उन्हें क्रोध आ ही नहीं सकता। इस कूटनीति के आगे विट्ठलदास की अक्ल कुछ काम न करती!
एक दिन प्रातःकाल विट्ठलदास इन्हीं चिंताओं में बैठे हुए थे कि एक फिटन आश्रम के द्वार पर आकर रुकी। उसमें से कौन लोग उतरे? अबुलवफा और अब्दुललतीफ।
विट्ठलदास मन में तिलमिलाकर रह गए। अभी सेठों ही का रोना था कि एक और बला आ पड़ी। जी में तो आया कि दोनों को दुत्कार दूं, पर धैर्य से काम लिया।
अबुलवफा ने कहा– आदाब अर्ज है, बंदानवाज। आज कुछ तबीयत परेशान है क्या? वल्लाह आपका ईसार देखकर रूह को सुरूर हो जाता है खुशनसीब है कौम, जिसमें आप जैसे खादिम मौजूद हैं। एक हमारी खुदगरज, खुशनुमा कौम है, जिसे इन बातों का एहसास ही नहीं। जो लोग बड़े नेकनाम हैं, वह भी गरज से पाक नहीं, क्यों मुंशी अब्दुललतीफ साहब?
अब्दुललतीफ—जनाब, हमारी कौम की कुछ न कहिए! खुदगरज, खुदफरोश, खुदमतलब, कजफहम, कजरौ, कजर्बी जो कुछ कहिए, थोड़ा है। बड़ों-बड़ों को देखिए, रंगे हुए सियार हैं, रिया का जामा पहने हुए। आपको जात मसदरे बरकात है। ऐसा मालूम होता है कि खुदाताला ने मलायक में से इंतखाब करके आपको इस खुशनसीब कौम पर नाजिल किया है।
अबुलवफा– आपकी पाकनफसी दिलों में खामख्वाह असर डालती है। क्यों आपके यहां सोजनकारी और बेलबूटे के काम तो होते ही होंगे? मेरे एक दोस्त ने सोजनकारी की कई दर्जन चादरों की फरमाइश लिख भेजी है। हालांकि शहर में कई जगह यह काम होता है, लेकिन मैंने यह खयाल किया कि आश्रम को प्राइवेट काम करने वालों पर तरजीह होनी चाहिए। आपके यहां नमूने मौजूद हों, तो दिखाने की तकलीफ कीजिए।
विट्ठलदास– मेरे यहां ये सब काम नहीं होते।
अबुलवफा– मगर होने की जरूरत है। आप दरियाफ्त कीजिए, कुछ मस्तूरात जरूर यह काम जानती होंगी। हमें ऐसी कोई उजलत नहीं है, फिर हाजिर होंगे। एक, दो, चार, दस बार आने में हमको इंकार नहीं है। आप अपना सब कुछ निसार कर रहे हैं, तो क्या मुझसे इतना भी न होगा? मैं इन मुआमलों में कौमी तफरीक मुनासिब नहीं समझता।
विट्ठलदास– मैं इस मेहरबानी के लिए आपका मशकूर हूं। लेकिन कमेटी ने यह फैसला कर दिया है कि यहां इस किस्म का कोई काम न कराया जाए। इस वजह से मजबूर हूं।
यह कहकर विट्ठलदास उठ खड़े हुए। अब दोनों सज्जनों को लौट जाने के सिवा और कोई उपाय न सूझा। मन में विट्ठलदास को गालियां देते हुए फिटन में सवार हो गए।
लेकिन अभी फिटन की आवाज कान में आ रही थी कि सेठ चिम्मनलाल की मोटरकार आ पहुंची। सेठजी शान से उतरे। विट्ठलदास से हाथ मिलाया और बोले– क्यों बाबू साहब! नाटक के विषय में आपने क्या राय की? शकुंतला नाटक भर्थरी का सबसे उत्तम ग्रंथ है। इसे अंग्रेज बहुत पसंद करते हैं। जरूर खेलिए। कुछ पार्ट याद कराए हों, तो मैं भी सुनूं।
कभी-कभी कठिनता में हमको ऐसी चालें सूझ जाती हैं, जो सोचने से ध्यान में नहीं आतीं। विट्ठलदास ने सोचा था कि इन सेठजी से कैसे पिंड छुड़ाऊं, लेकिन कोई उपाय न सूझा। इस समय अकस्मात् उन्हें एक बात सूझ गई। बोले– जी नहीं, इस नाटक के खेलने की सलाह नहीं हुई। मैंने इस मुआमिले में बड़े साहब से राय ली थी। उन्होंने मना कर दिया। समझ में नहीं आता ये लोग पोलिटिक्स का क्या अर्थ लगाते हैं। आज बातों-ही-बातों में मैंने बड़े साहब से आश्रम के लिए कुछ वार्षिक सहायता की प्रार्थना की, तो क्या बोले कि मैं पोलिटिकल कार्यों में सहायता नहीं दे सकता। मैं उनकी बात सुनकर चकित हो गया। पूछा, आप आश्रम को किस विचार से पोलिटिकल संस्था समझते हैं। इसका केवल यह उत्तर दिया कि मैं इसका उत्तर नहीं देना चाहता।
चिम्मनलाल के मुख पर हवाइयां उड़ने लगीं। बोले– तो साहब ने आश्रम को भी पोलिटिकल समझ लिया है!
विट्ठलदास– जी हां, साफ कह दिया।
चिम्मनलाल– तो क्यों महाशय, जब उनका यह विचार है, तो यहां आने-जाने वालों की देखभाल भी अवश्य होती होगी?
विट्ठलदास– जी हां, और क्या? लेकिन इससे क्या होता है? जिन्हे जाति से प्रेम है, वे इन बातों से कब डरते हैं?
चिम्मनलाल– जी नहीं, मैं उन जाति-प्रेमियों में से नहीं। अगर मुझे मालूम हो जाए कि ये लोग रामलीला को पोलिटिकल समझते हैं, तो उसे भी बंद कर दूं। पोलिटिकल नाम से मेरा रोआं थरथराने लगता है। आप मेरे घर में देख आइए, भगवद्गीता की कापी भी नहीं है। मैं अपने आदमियों को कड़ी ताकीद कर दी है कि बाजार से चीजें पत्ते में लाया करें, मैं रद्दी समाचार-पत्रों की पुड़िया तक घर में नहीं आने देता। महाराणा प्रताप की एक पुरानी तस्वीर कमरे में थी, उसे मैंने उतारकर संदूक में बंद कर दिया है। अब मुझे आज्ञा दीजिए। यह कहकर वह तोंद संभालते हुए मोटर की ओर लपके। विट्ठलदास मन में खूब हंसे। अच्छी चाल सूझी। लेकिन इसका बिल्कुल विचार न किया था कि झूठ इतना बोलना पड़ा और इससे आत्मा का कितना ह्रास हुआ। यह सेवा धर्म का पुतला निज के व्यवहार में झूठ और चालबाजी से कोसों दूर भागता था, लेकिन जातीय कार्यों में अवसर पड़ने पर उनकी सहायता लेने में संकोच न करता था।
चिम्मनलाल के जाने के बाद विट्ठलदास ने चंदे का रजिस्टर उठाया और चंदा वसूल करने को उठे। लेकिन कमरे से बाहर भी न निकले थे कि सेठ बलभद्रदास को पैर-गाड़ी पर आते देखा। क्रोध से शरीर जल उठा। रजिस्टर पटक दिया और लड़ने पर उतारू हो गए।
बलभद्रदास ने आगे बढ़कर कहा– कहिए महाशय, कल मैंने जो पौधे भेजे थे, वह आपने लगवा दिए या नहीं? जरा मैं देखना चाहता हूं। कहिए तो अपना माली भेज दूं?
विट्ठलदास ने उदासीन भाव से कहा– जी नहीं। आपको माली भेजने की आवश्यकता नहीं, और न वह पौधे यहां लग सकते हैं।
बलभद्रदास– क्यों, लग नहीं सकते? मेरा माली आकर सब ठीक कर देगा। आज ही लगवा दीजिए, नहीं तो वे सब सूख जाएंगे।
विट्ठलदास– सूख जाएं चाहे रहें, पर वह यहां नहीं लग सकते।
बलभद्रदास– नहीं लगाने थे, तो पहले ही कह दिया होता। मैंने सहारनपुर से मंगवाए थे।
विट्ठलदास– बरामदे में पड़े हैं, उठवाकर ले जाइए।
सेठ बलभद्रदास अभिमानी स्वभाव के मनुष्य थे। यों वे शील और विनय के पुतले थे, लेकिन जरा किसी ने अकड़कर बात की, जरा भी निगाह बदली कि वे आग हो जाते थे। अत्यंत निर्भीक राजनीति-कुशल पुरुष थे। इन गुणों के कारण जनता उन पर जान देती थी। उसे उन पर पूरा विश्वास था। उसे निश्चय था कि न्याय और सत्य के विषय में ये कभी कदम पीछे न उठाएंगे, अपने स्वार्थ और सम्मान के लिए जनता का अहित न सोचेंगे। डॉक्टर श्यामाचरण पर जनता का यह विश्वास न था। जनता की दृष्टि में विद्या, बुद्धि और प्रतिभा का उतना मूल्य नहीं होता, जितना चरित्र-बल का।
विट्ठलदास की यह रूखी बातें सुनकर सेठ बलभद्रदास के तेवरों पर बल पड़ गए। तनकर बोले– आज आप इतने अनमने से क्यों हो रहे हैं?
‘मुझे मीठी बातें करने का ढंग नहीं आता।’
‘मीठी बातें न कीजिए, लेकिन लाठी न मारिए।’
‘मैं आपसे शिष्टाचार का पाठ नहीं पढ़ना चाहता।’
‘आप जानते हैं, मैं भी प्रबंधकारिणी सभा का मेंबर हूं।’
‘जी हां, जानता हूं।’
‘चाहता तो प्रधान होता।’
‘जानता हूँ।’
‘मेरी सहायता किसी से कम नहीं है।’
‘इन पुरानी बातों को याद दिलाने की क्या जरूरत?’
‘चाहूं तो आश्रम को मिटा दूं।’
‘असंभव।’
‘सभा के सब मेंबर मेरे इशारे पर नाच सकते हैं।’
‘संभव है।’
‘एक दिन में इसका कहीं पता न चले।’
‘असंभव।’
‘आप किस घमंड में भूले हुए हैं।’
‘ईश्वर के भरोसे पर।’
सेठजी आश्रम की ओर कुपित नेत्रों से ताकते हुए पैर-गाड़ी पर सवार हो गए। लेकिन विट्ठलदास पर उनकी धमकियों का कुछ असर न हुआ। उन्हें निश्चय था कि ये सभा मेंबरों से आश्रम के विषय में कुछ न कहेंगे। उनका अभिमान उन्हें इतना नीचे न गिरने देगा। संभव है, वह इस झेंप को मिटाने के लिए मेंबरों से आश्रम की प्रशंसा करें, लेकिन यह आग कभी-न-कभी भड़केगी अवश्य, इसमें संदेह नहीं था। अभिमान अपने अपमान को नहीं भूलता। इसकी शंका होने पर भी विट्ठलदास को वह क्षोभ नहीं था, जो किसी झगड़े के बाद मेघ के समान हृदयाकाश पर छा जाया करता है। इसके प्रतिकूल उन्हें अपने कर्त्तव्य को पूरा करने का संतोष था, और वह पछता रहे थे कि मैंने इसमें इतना विलंब क्यों किया? इस संतोष से वह ऐसी मौज में आए कि ऊंचे स्वर से गाने लगे–  
प्रभुजी मोहि काहे की लाज।
जन्म-जन्म यों ही भरमायो अभिमानी बेकाज!
प्रभुजी मोहि काहे की लाज।
इतने में उन्हें पद्मसिंह आते दिखाई दिए। उनके मुख से चिंता और नैराश्य झलक रहा था, मानो अभी रोकर आंसू पोंछे हैं। विट्ठलदास आगे बढ़कर उनसे मिले और पूछा– बीमार थे क्या? बिल्कुल पहचाने नहीं जाते।
पद्मसिंह– जी नहीं, बीमार तो नहीं हूं, हां परेशान बहुत रहा।
विट्ठलदास– विवाह कुशलतापूर्वक हो गया?
पद्मसिंह ने छत की ओर ताकते हुए कहा– विवाह का कुछ समाचार न पूछिए। विवाह क्या हुआ, एक अबला कन्या का जीवन नष्ट कर आए। वह इसी सुमनबाई की बहन निकली। भैया को ज्योंही मालूम हुआ, वे द्वार से बारात लौटा लाए।
विट्ठलदास ने लंबी सांस लेकर कहा– यह तो बड़ा अन्याय हुआ। आपने अपने भाई साहब को समझाया नहीं?
पद्मसिंह– अपने से जो कुछ बन पड़ा, सब करके हार गया।
विट्ठलदास– देखिए, अब बेचारी लड़की की क्या गति होती है। सुमन सुनेगी तो रोएगी।
पद्मसिंह– कहिए, यहां कि क्या खबरें हैं? सुमन के आने से विधवाओं में हलचल तो नहीं मची? वे उससे घृणा तो अवश्य ही करती होंगी?
विट्ठलदास– बात खुल जाए तो आश्रम खाली नजर आए।
पद्मसिंह– और सुमन कैसी रहती है?
विट्ठलदास– ऐसी अच्छी तरह, मानो वह सदा आश्रम में ही रही है। मालूम होता है, वह अपने सद्व्यवहार से अपनी कालिमा को धोना चाहती है? सब काम करने को तैयार, और प्रसन्नचित्त से। अन्य स्त्रियां सोती ही रहती हैं और वह उनके कमरे में झाड़ू दे जाती है। कई विधवाओं को सीना सिखाती है, कई उससे गाना सीखती हैं। सब प्रत्येक बात में उसी की राय लेती हैं। इस चारदीवारी के भीतर अब उसी का राज्य है। मुझे ऐसी आशा कदापि न थी। यहां उसने कुछ पढ़ना भी शुरू कर दिया है और भाई, मन का हाल तो ईश्वर जाने, देखने में तो अब उसकी बिल्कुल कायापलट-सी हो गयी है।
पद्मसिंह– नहीं साहब, वह स्वभाव की बुरी स्त्री नहीं है। मेरे यहां महीनों आती रही थी! मेरे घर में उसकी बड़ी प्रशंसा किया करती थीं (यह कहते-कहते झेंप गए)। कुछ ऐसे कुसंस्कार ही हो गए, जिन्होंने यह अभिनय कराए। सच पूछिए तो हमारे पापों का दंड उसे भोगना पड़ा। हां, कुछ उधर का समाचार भी मिला? सेठ बलभद्रदास ने और कोई चाल चली?
विट्ठलदास– हां साहब, वे चुप बैठने वाले आदमी नहीं हैं। आजकल खूब दौड़-धूप हो रही हैं। दो-तीन दिन हुए हिन्दू मेंबरों की एक सभा भी हुई थी। मैं तो जा न सका, पर विजय उन्हीं लोगों की रही। अब प्रधान को दो वोट मिलाकर उनके पास छह वोट हैं और हमारे पास कुल चार। हां, मुसलमानों के वोट मिलाकर बराबर हो जाएंगे।
पद्मसिंह– तो हमको कम-से-कम एक वोट और मिलना चाहिए। है इसकी कोई आशा?
विट्ठलदास– मुझे तो कोई आशा नहीं मालूम होती।
पद्मसिंह– अवकाश हो तो चलिए, जरा डॉक्टर साहब और लाला भगतराम के पास चलें।
 

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रचनाएँ
सेवासदन
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प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। सेवासदन में नारी जीवन की समस्याओं के साथ-साथ समाज के धर्माचार्यों, मठाधीशों, धनपतियों, सुधारकों के आडंबर, दंभ, ढोंग, पाखंड, चरित्रहीनता, दहेज-प्रथा, बेमेल विवाह, पुलिस की घूसखोरी, वेश्यागमन, मनुष्य के दोहरे चरित्र, साम्प्रदायिक द्वेष आदि सामाजिक विकृतियों का विवरण मिलता है।सेवासदन उपन्यास की मुख्य समस्या क्या है? “सेवासदन” में प्रेमचन्द दिखाते है कि हमारी सामाजिक कुरीतियाँ स्त्रियों के जीवन को विवश करती है । इसकी मुख्य समस्या मध्य वर्गीय लोगों की आडंबर प्रियता से संबंधित है । प्रेमचन्द यह बताना चाहता है कि मनुष्य को जीने के लिए धन द्वारा प्राप्त सुख के समान मन द्वारा प्राप्त सुख भी चाहिए ।प्रेमचंद ने जहाँ एक ओर नारी की सामाजिक पराधीनता उसके फलसवरूप उत्पन्न समस्याओं को अपने इस उपन्यास में अभिव्यक्ति प्रदान की है, वहीं दूसरी ओर यह भी दिखलाया है कि किस प्रकार उनके नारी-पात्र उपन्यास के अंत तक आते-आते सामाजिक अन्याय से मुक्ति पाने का मार्ग स्वयं ही खोज देते हैं।
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सेवासदन (भाग 1)

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1 पश्चाताप के कड़वे फल कभी-न-कभी सभी को चखने पड़ते हैं, लेकिन और लोग बुराईयों पर पछताते हैं, दारोगा कृष्णचन्द्र अपनी भलाइयों पर पछता रहे थे। उन्हें थानेदारी करते हुए पच्चीस वर्ष हो गए, लेकिन उन्हों

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दारोगाजी के हल्के में एक महन्त रामदास रहते थे। वह साधुओं की एक गद्दी के महंत थे। उनके यहां सारा कारोबार ‘श्री बांकेबिहारीजी’ के नाम पर होता था। ‘श्री बांकेबिहारीजी’ लेन-देन करते थे और बत्तीस रुपये प्र

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पण्डित कृष्णचन्द्र रिश्वत लेकर उसे छिपाने के साधन न जानते थे । इस विषय में अभी नोसिखुए थे । उन्हें मालूम न था कि हराम का माल अकेले मुश्किल से पचता है । मुख्तार ने अपने मन मे कहा, हमीं ने सब कुछ किया औ

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कृष्णचन्द्र अपने कस्बे में सर्वप्रिय थे । यह खबर फैलते ही सारी बस्ती में हलचल मच गई । कई भले आदमी उनकी जमानत करने आये लेकिन साहब ने जमानत न ली । इसके एक सप्ताह बाद कृष्णचन्द्र पर रिश्वत लेने का अभियो

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फागुन में सुमन का विवाह हो गया। गंगाजली दामाद को देखकर बहुत रोई। उसे ऐसा दुःख हुआ, मानो किसी ने सुमन को कुएं में डाल दिया। सुमन ससुराल आई तो यहां की अवस्था उससे भी बुरी पाई, जिसकी उसने कल्पना की थी।

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सुमन को ससुराल आए डेढ़ साल के लगभग हो चुका था, पर उसे मैके जाने का सौभाग्य न हुआ था। वहां से चिट्ठियां आती थीं। सुमन उत्तर में अपनी मां को समझाया करती, मेरी चिंता मत करना, मैं बहुत आनंद से हूं, पर अब

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गजाधरप्रसाद की दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो चोरों के बीच में अशर्फियों की थैली लिए बैठा हो। सुमन का वह मुख-कमल, जिस पर वह कभी भौंरे की भांति मंडराया करता था, अब उसकी आँखों में जलती हुई आग के समान था। वह

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दूसरे दिन से सुमन ने चिक के पास खड़ा होना छोड़ दिया। खोंचेवाले आते और पुकार कर चले जाते। छैले गजल गाते हुए निकल जाते। चिक की आड़ में अब उन्हें कोई न दिखाई देता था। भोली ने कई बार बुलाया, लेकिन सुमन ने

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दूसरे दिन सुमन नहाने न गई। सबेरे ही से अपनी एक रेशमी साड़ी की मरम्मत करने लगी। दोपहर को सुभद्रा की एक महरी उसे लेने आई। सुमन ने मन में सोचा था, गाड़ी आवेगी। उसका जी छोटा हो गया। वही हुआ जिसका उसे भ

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दरवाजे पर आकर सुमन सोचने लगी कि अब कहां जाऊं। गजाधर की निर्दयता से भी उसे दुःख न हुआ था, जितना इस समय हो रहा था। उसे अब मालूम हुआ कि मैंने अपने घर से निकलकर बड़ी भूल की। मैं सुभद्रा के बल पर कूद रही थ

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सेवासदन (भाग-2)

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12 पद्मसिंह के एक बड़े भाई मदनसिंह थे। वह घर का कामकाज देखते थे। थोड़ी-सी जमींदारी थी, कुछ लेन-देन करते थे। उनके एक ही लड़का था, जिसका नाम सदनसिंह था। स्त्री का नाम भामा था। मां-बाप का इकलौता लड़का

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सुमन के चले जाने के बाद पद्मसिंह के हृदय में एक आत्मग्लानि उत्पन्न हुई– मैंने अच्छा नहीं किया। न मालूम वह कहां गई। अपने घर चली गई तो पूछना ही क्या, किन्तु वहां वह कदापि न गई होगी। मरता क्या न करता, कह

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दूसरे दिन पद्मसिंह सदन को साथ किसी लेकर स्कूल में दाखिल कराने चले। किंतु जहां गए, साफ जवाब मिला ‘स्थान नहीं है।’ शहर में बारह पाठशालाएं थीं। लेकिन सदन के लिए कहीं स्थान न था। शर्माजी ने विवश होकर निश

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प्राचीन ऋषियों ने इंद्रियों को दमन करने के दो साधन बताए हैं– एक राग, दूसरा वैराग्य। पहला साधन अत्यंत कठिन और दुस्साध्य है। लेकिन हमारे नागरिक समाज ने अपने मुख्य स्थानों पर मीनाबाजार सजाकर इसी कठिन मार

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महाशय विट्ठलदास इस समय ऐसे खुश थे मानों उन्हें कोई संपत्ति मिल गई हो। उन्हें विश्वास था कि पद्मसिंह इस जरा से कष्ट से मुंह न मोड़ेंगे, केवल उनके पास जाने की देर है। वह होली के कई दिन पहले से शर्माजी क

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संध्या का समय है। सदन अपने घोड़े पर सवार दालमंडी में दोनों तरफ छज्जों और खिड़कियों की ओर ताकता जा रहा है। जब से सुमन वहां आई है, सदन उसके छज्जे के सामने किसी-न-किसी बहाने से जरा देर के लिए अवश्य ठहर ज

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बाबू विट्ठलदास अधूरा काम न करते थे। पद्मसिंह की ओर से निराश होकर उन्हें यह चिंता होने लगी कि सुमनबाई के लिए पचास रुपए मासिक का चंदा कैसे करूं? उनकी स्थापित की हुई संस्थाएं चंदों ही से चल रही थीं, लेकि

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शाम हो गई। सुमन ने दिन-भर विट्ठलदास की राह देखी, लेकिन वह अब तक नहीं आए। सुमन के मन में जो नाना प्रकार की शंकाएं उठ रही थीं, वह पुष्ट हो गईं। विट्ठलदास अब नहीं आएंगे, अवश्य कोई विघ्न पड़ा। या तो वह कि

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सुभद्रा को संध्या के समय कंगन की याद आई। लपकी हुई स्नान-घर में गई। उसे खूब याद था कि उसने यहीं ताक पर रख दिया था, लेकिन उसका वहाँ पता न था। इस पर वह घबराई। अपने कमरे के प्रत्येक ताक और आलमारी को देखा,

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विट्ठलदास को संदेह हुआ कि सुमन तीस रुपए मासिक स्वीकार करना नहीं चाहती, इसलिए उसने कल उत्तर देने का बहाना करके मुझे टाला है। अतएव वे दूसरे दिन उसके पास नहीं गए, इसी चिंता में पड़े रहे कि शेष रुपयों का

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सुमन पार्क से लौटी तो उसे खेद होने लगा कि मैंने शर्माजी को वे ही दुखानेवाली बातें क्यों कहीं उन्होंने इतनी उदारता से मेरी सहायता की, जिसका मैंने यह बदला दिया? वास्तव में मैंने अपनी दुर्बलता का अपराध उ

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सदन प्रातःकाल घर गया, तो अपनी चाची के हाथों में कंगन देखा। लज्जा से उसकी आंखें जमीन में गड़ गईं। नाश्ता करके जल्दी से बाहर निकल आया और सोचने लगा, यह कंगन इन्हें कैसे मिल गया? क्या यह संभव है कि सुमन

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यह बात बिल्कुल तो असत्य नहीं है कि ईश्वर सबको किसी-न-किसी हीले से अन्न-वस्त्र देता है। पंडित उमानाथ बिना किसी हीले ही के संसार का सुख-भोग करते थे। उनकी आकाशी वृत्ति थी। उनके भैंस और गाएं न थीं, लेकिन

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सार्वजनिक संस्थाएं भी प्रतिभाशाली मनुष्य की मोहताज होती हैं। यद्यपि विट्ठलदास के अनुयायियों की कमी न थी, लेकिन उनमें प्रायः सामान्य अवस्था के लोग थे। ऊंची श्रेणी के लोग उनसे दूर भागते थे। पद्मसिंह के

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रात के नौ बजे थे। पद्मसिंह भाई के साथ बैठे हुए विवाह के संबंध में बातचीत कर रहे थे। कल बारात जाएगी। दरवाजे पर शहनाई बज रही थी और भीतर गाना हो रहा था। मदनसिंह– तुमने जो गाड़ियां भेजी हैं; वह कल शाम तक

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बरसात के दिन थे, छटा छाई हुई थी। पंडित उमानाथ चुनारगढ़ के निकट गंगा के तट पर खड़े नाव की बाट जोह रहे थे। वह कई गांवों का चक्कर लगाते हुए आ रहे थे और संध्या होने से पहले चुनार के पास एक गांव में जाना च

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पंडित उमानाथ सदनसिंह का फलदान चढ़ा आए हैं। उन्होंने जाह्नवी से गजानन्द की सहायता की चर्चा नहीं की थी। डरते थे कि कहीं यह इन रुपयों को अपनी लड़कियों के विवाह के लिए रख छोड़ने पर जिद्द न करने लगे। जाह्न

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एक रोज उमानाथ ने कृष्णचन्द्र के सहचरों को धमकाकर कहा– अब तुमलोगों को उनके साथ बैठकर चरस पीते देखा तो तुम्हारी कुशल नहीं। एक-एक की बुरी तरह खबर लूंगा। उमानाथ का रोब सारे गांव पर छाया हुआ था। वे सब-के-स

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सेवासदन (भाग-3)

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30 शहर की म्युनिसिपैलिटी में कुल अठारह सभासद थे। उनमें आठ मुसलमान थे और दस हिन्दू। सुशिक्षित मेंबरों की संख्या अधिक थी, इसलिए शर्माजी को विश्वास था कि म्युनिसिपैलिटी में वेश्याओं को नगर से बाहर निकाल

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इस प्रस्ताव के विरोध में हिंदू मेंबरों को जब मुसलमानों के जलसे का हाल मालूम हुआ तो उनके कान खड़े हुए। उन्हें मुसलमानों से जो आशा थी, वह भंग हो गई। कुल दस हिंदू थे। सेठ बलभद्रदास चेयरमैन थे। डॉक्टर श्य

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जिस प्रकार कोई आलसी मनुष्य किसी के पुकारने की आवाज सुनकर जाग जाता है, किंतु इधर-उधर देखकर फिर निद्रा में मग्न हो जाता है, उसी प्रकार पंडित कृष्णचन्द्र क्रोध और ग्लानि का आवेश शांत होने पर अपने कर्त्तव

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सदन के विवाह का दिन आ गया। चुनार से बारात अमोला चली। उसकी तैयारियों का वर्णन व्यर्थ है। जैसी अन्य बारातें होती हैं, वैसी ही यह भी थी। वैभव और दरिद्रता का अत्यन्त करुणात्मक दृश्य था। पालकियों पर कारचोब

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विट्ठलदास ने सुमन को विधवाश्रम में गुप्त रीति से रखा था। प्रबंधकारिणी सभा के किसी सदस्य को इत्तिला न दी थी। आश्रम की विधवाओं से उसे विधवा बताया था। लेकिन अबुलवफा जैसे टोहियों से यह बात बहुत दिनों तक ग

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यद्यपि डॉक्टर साहब का बंगला निकट ही था, पर इन दोनों आदमियों ने एक किराए की गाड़ी की। डॉक्टर साहब के यहां पैदल जाना फैशन के विरुद्ध था। रास्ते में विट्ठलदास ने आज के सारे समाचार बढ़ा-चढ़ाकर बयान किए और

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सदन जब घर पर पहुंचा, तो उसके मन की दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो बरसों की कमाई लिए, मन में सहस्रों मंसूबे बांधता, हर्ष से उल्लसित घर आए और यहां संदूक खोलने पर उसे मालूम हो कि थैली खाली पड़ी है। विचारों

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सदन को व्याख्यानों की ऐसी चाट पड़ी कि जहां कहीं व्याख्यान की खबर पाता, वहां अवश्य जाता, दोनों पक्षों की बातें महीनों सुनने और उन पर विचार करने से उसमें राय स्थिर करने की योग्यता आने लगी। अब वह किसी यु

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जिस दिन से बारात लौट गई, उसी दिन से कृष्णचन्द्र फिर से बाहर नहीं निकले। मन मारे हुए अपने कमरे में बैठे रहते। उन्हें अब किसी को अपना मुंह दिखाते लज्जा आती थी। दुश्चरित्रा सुमन ने उन्हें संसार की दृष्टि

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प्रातःकाल यह शोक-समाचार अमोला में फैल गया। इने-गिने सज्जनों को छोड़कर कोई भी उमानाथ के द्वार पर संवेदना प्रकट करने न आया। स्वाभाविक मृत्यु हुई होती, तो संभवतः उनके शत्रु भी आकर चार आंसू बहा जाते, पर आ

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पद्मसिंह का पहला विवाह उस समय हुआ था, जब वह कॉलेज में पढ़ते थे, और एम. ए. पास हुए, तो वह एक पुत्र के पिता थे। पर बालिका वधू शिशु-पालन का मर्म न जानती थी। बालक जन्म के समय तो हृष्ट-पुष्ट था, पर पीछे धी

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शान्ता ने पत्र तो भेजा, पर उसको उत्तर आने की कोई आशा न थी। तीन दिन बीत गए, उसका नैराश्य दिनों-दिन बढ़ता जा रहा था। अगर कुछ अनुकूल उत्तर न आया, तो उमानाथ अवश्य ही उसका विवाह कर देंगे, यह सोचकर शान्ता क

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शान्ता को आश्रम में आए एक मास से ऊपर हो गया, लेकिन पद्मसिंह ने अभी तक अपने घर में किसी से इसकी चर्चा नहीं की। कभी सोचते, भैया को पत्र लिखूं, कभी सोचते, चलकर उनसे कहूं, कभी विट्ठलदास को भेजने का विचार

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पद्मसिंह की आत्मा किसी भांति इस तरमीम के स्वीकार करने में अपनी भूल स्वीकार न करती थी। उन्हें कदापि यह आशा न थी कि उनके मित्रगण एक गौण बात पर उनका इतना विरोध करेंगे। उन्हें प्रस्ताव के एक अंश के अस्वीक

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सदन जब सुमन को देखकर लौटा, तो उसकी दशा उस दरिद्र मनुष्य की-सी थी, जिसका वर्षों का धन चोरों ने हर लिया हो। वह सोचता था, सुमन मुझसे बोली क्यों नहीं, उसने मेरी ओर ताका क्यों नहीं? क्या वह मुझे इतना नीच

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सेवासदन (भाग-4)

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46 सदन को ऐसी ग्लानि हो रही थी, मानों उसने कोई बड़ा पाप किया हो। वह बार-बार अपने शब्दों पर विचार करता और यही निश्चय करता कि मैं बड़ा निर्दय हूं। प्रेमाभिलाषा ने उसे उन्मत्त कर दिया था। वह सोचता, मुझ

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प्रभाकर राव का क्रोध बहुत कुछ तो सदन के लेखों से ही शांत हो गया था और जब पद्मसिंह ने सदन के आग्रह से सुमन का पूरा वृत्तांत उन्हें लिख भेजा, तो वह सावधान हो गए। म्युनिसपैलिटी में प्रस्ताव को पास हुए ल

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एक महीना बीत गया। सदन ने अपने इस नए धंधे की चर्चा घर में किसी से न की। वह नित्य सबेरे उठकर गंगा-स्नान के बहाने चला जाता। वहां से दस बजे घर आता। भोजन करके फिर चल देता और तब का गया-गया घड़ी रात गए, घर ल

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बाबू विट्ठलदास न्यायप्रिय सरल मनुष्य थे, जिधर न्याय खींच ले जाता, उधर चले जाते थे। इसमें लेश-मात्र भी संकोच न होता था। जब उन्होंने पद्मसिंह को न्यायपथ से हटते देखा, तो उनका साथ छोड़ दिया और कई महीने त

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सदनसिंह का विवाह संस्कार हो गया। झोंपड़ा खूब सजाया गया था। वही मंडप का काम दे रहा था, लेकिन कोई भीड़-भाड़ न थी। पद्मसिंह उस दिन घर चले गए और मदनसिंह से सब समाचार कहा। वह यह सुनते ही आग हो गए, बोले– म

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जैसे सुंदर भाव के समावेश से कविता में जान पड़ जाती है और सुंदर रंगों से चित्र में, उसी प्रकार दोनों बहनों के आने से झोंपड़ी में जान आ गई। अंधी आंखों में पुतलियां पड़ गई हैं। मुर्झाई हुई कली शान्ता अब

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पंडित पद्मसिंह के चार-पांच मास के सदुद्योग का यह फल हुआ कि बीस-पच्चीस वेश्याओं ने अपनी लड़कियों को अनाथालय में भेजना स्वीकार कर लिया। तीन वेश्याओं ने अपनी सारी संपत्ति अनाथालय के निमित्त अर्पण कर दी,

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पंडित मदनसिंह की कई महीने तक यह दशा थी कि जो कोई उनके पास आता, उसी से सदन की बुराई करते-कपूत है, भ्रष्ट है, शोहदा है, लुच्चा है, एक कानी कौड़ी तो दूंगा नहीं, भीख मांगता फिरेगा, तब आटे-दाल का भाव मालूम

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जिस प्रकार कोई मनुष्य लोभ के वश होकर आभूषण चुरा लेता है, पर विवेक होने पर उसे देखने में भी लज्जा आती है, उसी प्रकार सदन भी सुमन से बचता फिरता था। इतना ही नहीं, वह उसे नीची दृष्टि से देखता था और उसकी उ

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संध्या का समय है। आकाश पर लालिमा छाई हुई है और मंद वायु गंगा की लहरों पर क्रीड़ा कर रही है, उन्हें गुदगुदा रही है। वह अपने करुण नेत्रों से मुस्कराती है और कभी-कभी खिलखिलाकर हंस पड़ती है, तब उसके मोती

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एक साल बीत गया। पंडित मदनसिंह पहले तीर्थ यात्रा पर उधार खाए बैठे थे। जान पड़ता था, सदन के घर आते ही एक दिन भी न ठहरेंगे, सीधे बद्रीनाथ पहुंचकर दम लेंगे, पर जब से सदन आ गया है, उन्होंने भूलकर भी तीर्थ-

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कार्तिक का महीना था। पद्मसिंह सुभद्रा को लेकर गंगा-स्नान कराने ले गए थे। लौटती बार वह अलईपुर की ओर से आ रहे थे। सुभद्रा गाड़ी की खिड़की से बाहर झांकती चली आती थी और सोचती थी कि यहाँ इस सन्नाटे में लोग

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