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पद्मसिंह के एक बड़े भाई मदनसिंह थे। वह घर का कामकाज देखते थे। थोड़ी-सी जमींदारी थी, कुछ लेन-देन करते थे। उनके एक ही लड़का था, जिसका नाम सदनसिंह था। स्त्री का नाम भामा था।
मां-बाप का इकलौता लड़का बड़ा भाग्यशाली होता है। उसे मीठे पदार्थ खूब खाने को मिलते हैं, किंतु कड़वी ताड़ना कभी नहीं मिलती। सदन बाल्यकाल में ढीठ, हठी और लड़ाकू था। वयस्क होने पर वह आलसी, क्रोधी और बड़ा उद्दंड हो गया। मां-बाप को यह सब मंजूर था। वह चाहे कितना ही बिगड़ जाए, पर आंख के सामने से न टले। उससे एक दिन का बिछोह भी न सह सकते थे। पद्मसिंह ने कितनी बार अनुरोध किया कि इसे मेरे साथ जाने दीजिए, मैं इसका नाम अंग्रेजी मदरसे में लिखा दूंगा, किंतु मां-बाप ने कभी स्वीकार नहीं किया। सदन ने अपने कस्बे ही के मदरसे में उर्दू और हिंदी पढ़ी थी। भामा के विचार में उसे इससे अधिक विद्या की जरूरत नहीं थी। घर में खाने को बहुत है, वन-वन पत्ती कौन तुड़वाए? बला से न पढ़ेगा, आंखों से देखते तो रहेंगे।
सदन अपने चाचा के साथ जाने के लिए बहुत उत्सुक रहता था। उनके साबुन, तौलिए, जूते, स्लीपर, घड़ी और कालर को देखकर उसका जी बहुत लहराता। घर में सब कुछ था; पर यह फैशन की सामग्रियां कहां? उसका जी चाहता, मैं भी चचा की तरह कपड़ों से सुसज्जित होकर टमटम पर हवा खाने निकलूं। वह अपने चचा का बड़ा सम्मान करता था। उनकी कोई बात न टालता। मां-बाप की बातों पर कान न धरता, प्रायः सम्मुख विवाद करता। लेकिन चचा के सामने वह शराफत का पुतला बन जाता था। उनके ठाट-बाट ने उसे वशीभूत कर लिया था। पद्मसिंह घर आते तो सदन के लिए अच्छे-अच्छे कपड़े और जूते लाते। सदन इन चीजों पर लहालोट हो जाता।
होली के दिन पद्मसिंह अवश्य घर आया करते थे। अबकी भी एक सप्ताह पहले उनका पत्र आया था कि हम आएंगे। सदन रेशमी अचकन और वारनिशदार जूते के स्वप्न देख रहा था। होली के एक दिन पहले मदनसिंह ने स्टेशन पर पालकी भेजी, प्रातःकाल भी, संध्या भी। दूसरे दिन भी दोनों जून सवारी गई, लेकिन वहां तो भोलीबाई के मुजरे की ठहर चुकी थी, घर कौन आता? यह पहली होली थी कि पद्मसिंह घर नहीं आए। भामा रोने लगी। सदन के नैराश्य की तो सीमा ही न थी, न कपड़े, न लत्ते, होली कैसे खेले! मदनसिंह भी मन मारे बैठे थे। एक उदासी-सी छाई हुई थी। गांव की रमणियां होली खेलने आईं। भामा को उदास देखकर तसल्ली देने लगीं, ‘बहन’ पराया कभी अपना नहीं होता, वहां दोनों जने शहर की बहार देखते होंगे, गांव में क्या करने आते?’ गाना-बजाना हुआ, पर भामा का मन न लगा। मदनसिंह होली के दिन खूब भांग पिया करते थे। आज भांग छुई तक नहीं। सदन सारे दिन नंगे बदन मुंह लटकाए बैठा था। संध्या को जाकर मां से बोला– मैं चचा के पास जाऊंगा।
भामा– वहां तेरा कौन बैठा हुआ है?
सदन– क्यों, चचा नहीं है?
भामा– अब वह चचा नहीं हैं, वहां कोई तुम्हारी बात भी न पूछेगा।
सदन– मैं तो जाऊंगा।
भामा– एक बार कह दिया, मुझे दिक मत करो, वहां जाने को मैं न कहूंगी।
ज्यों-ज्यों भामा मना करती थी, सदन जिद पकड़ता था। अंत में वह झुंझलाकर वहां से उठ गई। सदन भी बाहर चला आया। जिद सामने की चोट नहीं सह सकती, उस पर बगली वार करना चाहिए।
सदन ने मन में निश्चय किया कि चाचा के पास भाग चलना चाहिए। न जाऊं तो यह लोग कौन मुझे रेशमी अचकन बनवा देंगे। बहुत प्रसन्न होंगे तो एक नैनसुख का कुरता सिलवा देंगे। एक मोहनमाला बनवाई है, तो जानते होंगे, जग जीत लिया। एक जोशन बनवाया है, तो सारे गांव में दिखाते फिरते हैं। मानों अब मैं जोशन पहनकर बैठूंगा। मैं तो जाऊंगा, देखूं कौन रोकता है?
यह निश्चय करके वह अवसर ढूंढने लगा। रात को सब लोग सो गए, तो चुपके से उठकर घर से निकल खड़ा हुआ। स्टेशन वहां से तीन मील के लगभग था। चौथ का चांद डूब चुका था, अंधेरा छाया हुआ था। गांव के निकास पर बांस की एक कोठी थी। सदन वहां पहुंचा तो कुछ चूं-चूं की आवाज सुनाई दी। उसका कलेजा सन्न रह गया। लेकिन शीघ्र ही मालूम हो गया कि बांस आपस में रगड़ खा रहे हैं। जरा और आगे एक आम का पेड़ था। बहुत दिन हुए, इस पर से एक कुर्मी का लड़का गिरकर मर गया था। सदन यहां पहुंचा तो उसे शंका हुई, जैसे कोई खड़ा है। उसके रोंगटे खड़े हो गए, सिर में चक्कर-सा आने लगा। लेकिन मन को संभालकर जरा ध्यान से देखा तो कुछ न था। लपककर आगे बढ़ा। गांव से बाहर निकल गया।
गांव से दो मील पर पीपल का एक वृक्ष था। यह जनश्रुति थी कि वहां भूतों का अड्डा है। सबके-सब उसी वृक्ष पर रहते हैं। एक कमलीवाला भूत उनका सरदार है। वह मुसाफिरों के सामने काली कमली ओढ़े, खड़ाऊं पहने आता है और हाथ फैलाकर कुछ मांगता है। मुसाफिर ज्यों ही देने के लिए हाथ बढ़ाता है, वह अदृश्य हो जाता है। मालूम नहीं, इस क्रीड़ा से उसका क्या प्रयोजन था; रात को कोई मनुष्य उस रास्ते से अकेले न आता, और जो कोई साहस करके चला जाता, वह कोई-न-कोई अलौकिक बात अवश्य देखता। कोई कहता, गाना हो रहा था। कोई कहता, पंचायत बैठी हुई थी। सदन को अब यही एक शंका और थी। उसका हियाब बर्फ के समान पिघलता जाता था, जब एक फर्लांग शेष रह गया, तो उसके पग न उठे। जमीन पर बैठ गया सोचने लगा कि क्या करूं। चारों ओर देखा, कहीं कोई मनुष्य न दिखाई दिया। यदि कोई पशु ही नजर आता, तो उसे धैर्य हो जाता।
आध घंटे तक वह किसी आने-जाने वाले की राह देखता रहा, पर देहात का रास्ता रात को नहीं चलता। उसने सोचा, कब तक बैठा रहूंगा? एक बजे रेल आती है, देर हो जाएगी, तो सारा खेल बिगड़ जाएगा। अतएव वह हृदय में बल का संचार करके उठा और रामायण की चौपाइयां उच्च स्वर में गाता हुआ चला। भूत-प्रेत के विचार को किसी बहाने से दूर रखना चाहता था। किंतु ऐसे अवसरों पर गर्मी की मक्खियों की भांति विचार टालने से नहीं टालता। हटा दो, फिर आ पहुंचे। निदान वह सघन वृक्ष सामने दिखाई देने लगा। सदन ने उसकी ओर ध्यान से देखा। रात अधिक जा चुकी थी, तारों का प्रकाश भूमि पर पड़ रहा था। सदन को वहां कोई वस्तु न दिखाई दी, उसने और भी ऊंचे स्वर में गाना शुरू किया। इस समय एक-एक रोम सजग हो रहा था। कभी इधर ताकता, कभी उधर। नाना प्रकार के जीव दिखाई देते, किंतु ध्यान से देखते ही लुप्त हो जाते। अकस्मात् उसे मालूम हुआ कि दाहिनी ओर कोई बंदर बैठा हुआ है। कलेजा सन्न हो गया। किंतु क्षण-मात्र में बंदर मिट्टी का ढेर बन गया।
जिस समय सदन वृक्ष के नीचे पहुंचा, उसका गला थरथराने लगा, मुंह से आवाज न निकली। अब विचार को बहलाने की आवश्यकता भी न थी, मन और बुद्धि की सभी शक्तियों का संचय परमावश्यक था। अकस्मात् उसे कोई वस्तु दौड़ती नजर आई। यह उछल पड़ा, ध्यान से देखा तो कुत्ता था। किंतु वह सुन चुका था कि भूत कभी-कभी कुत्तों के रूप में भी आ जाया करते हैं। शंका और भी प्रचंड हुई, सावधान होकर खड़ा हो गया, जैसे कोई वीर पुरुष शत्रु के वार की प्रतीक्षा करता है। कुत्ता सिर झुकाए चुपचाप कतराकर निकल गया। सदन ने जोर से डांटा, धत्। कुत्ता दुम दबाकर भागा। सदन कई पग उसके पीछे दौड़े। भय की चरम सीमा ही साहस है। सदन को विश्वास हो गया, कुत्ता ही था; भूत होता तो अवश्य कोई-न-कोई लीला करता। भय कम हुआ, किंतु यह वहां से भागा नहीं। वह अपने भीरु हृदय को लज्जित करने के लिए कई मिनट तक पीपल के नीचे खड़ा रहा। इतना ही नहीं, उसने पीपल की परिक्रमा की और उसे दोनों हाथों से बलपूर्वक हिलाने की चेष्टा की। यह विचित्र साहस था। ऊपर, पत्थर, नीचे पानी। एक जरा-सी आवाज, एक जरा-सी पत्ती की खड़कन उसके जीवन का निपटारा कर सकती थी। इस परीक्षा से निकलकर सदन अभिमान से सिर उठाए आगे बढ़ा।