सदनसिंह का विवाह संस्कार हो गया। झोंपड़ा खूब सजाया गया था। वही मंडप का काम दे रहा था, लेकिन कोई भीड़-भाड़ न थी।
पद्मसिंह उस दिन घर चले गए और मदनसिंह से सब समाचार कहा। वह यह सुनते ही आग हो गए, बोले– मैं उस छोकरे का सिर काट लूंगा, वह अपने को समझता क्या है? भाभी ने कहा– मैं आज ही जाती हूं उसे समझाकर अपने साथ लिवा लाऊंगी! अभी नादान लड़का है। उस कुटनी सुमन की बातों में आ गया है। मेरा कहना वह कभी न टालेगा।
लेकिन मदनसिंह ने भामा को डांटा और धमकाकर कहा– अगर तुमने उधर जाने का नाम लिया, तो मैं अपना और तुम्हारा गला एक साथ घोंट दूंगा। वह आग में कूदता है, कूदने दो। ऐसा दूध पीता नादान बच्चा नहीं। यह सब उसकी जिद है। बच्चू को भीख मंगाकर न छोड़ूं तो कहना। सोचते होंगे, दादा मर जाएंगे तो आनंद करूंगा। मुंह धो रखें, यह कोई मौरूमी जायदाद नहीं है। यह मेरी अपनी कमाई है। सब-की-सब कृष्णापर्ण कर दूंगा। एक फूटी कौड़ी तो मिलेगी नहीं।
गांव में चारों ओर बतकहाव होने लगा। लाला बैजनाथ को निश्चय हो गया कि संसार से धर्म उठ गया। जब लोग ऐसे-ऐसे नीच कर्म करने लगे, तो धर्म कहां रहा? न हुई नवाबी, नहीं तो आज बच्चू की धज्जियां उड़ जातीं। अब देखें, कौन मुंह लेकर गांव में आते हैं?
पद्मसिंह रात को बहुत देर तक भाई के साथ बैठे रहे, लेकिन ज्योंही वह सदन का कुछ जिक्र छेड़ते, मदनसिंह उनकी ओर ऐसी आग्नेय दृष्टि से देखते कि उन्हें बोलने की हिम्मत न पड़ती। अंत में जब वह सोने चले, तो पद्मसिंह ने हताश होकर कहा– भैया, सदन आपसे अलग रहे, तब भी आपका लड़का ही कहलाएगा। वह जो कुछ नेकबद करेगा, उसकी बदनामी हम सब पर आएगी। जो लोग इस अवस्था को भली-भांति जानते हैं, वह चाहे हम लोगों को निर्दोष समझें, लेकिन जनता सदन में और हममें कोई भेद नहीं कर सकती, तो इससे क्या फायदा कि सांप भी न मरे और लाठी भी टूट जाए। एक ओर दो बुराइयां हैं– बदनामी भी होती है और लड़का भी हाथ से जाता है। दूसरी ओर एक ही बुराई है, बदनामी होगी, लेकिन लड़का अपने हाथ में रहेगा। इसलिए मुझे तो यही उचित जान पड़ता है कि हम लोग सदन को समझाएं और यदि वह किसी तरह न माने तो...
मदनसिंह ने बात काटकर कहा– तो उस चुड़ैल से उसका विवाह ठान दें? क्यों, यही न कहना चाहते हो? यह मुझसे न होगा। एक बार नहीं, हजार बार नहीं।
यह कहकर वह चुप हो गए। एक क्षण के बाद पद्मसिंह को लांछित कर बोले– आश्चर्य यह है कि यह सब तुम्हारे सामने हुआ और तुम्हें जरा भी खबर न हुई।
उसने नाव ली, झोंपड़ा बनाया, दोनों चुड़ैलों से सांठ-गांठ की और तुम आंखें बंद किए बैठे रहे। मैंने तो उसे तुम्हारे ही भरोसे भेजा था। यह क्या जानता था कि तुम कान में तेल डाले बैठे रहते हो। अगर तुमने जरा भी चतुराई से काम लिया होता, तो यह नौबत न आती। तुमने इन बातों की सूचना तक मुझे न दी, नहीं तो मैं स्वयं जाकर उसे किसी उपाय से बचा लाता। अब जब सारी गोटियां पिट गईं, सारा खेल बिगड़ गया, तो चले हो वहां से मुझसे सलाह लेने। मैं साफ-साफ कहता हूं कि तुम्हारी आनाकानी से मुझे तुम्हारे ऊपर भी संदेह होता है। तुमने जान-बूझकर उसे आग में गिरने दिया। मैंने तुम्हारे साथ बहुत बुराइयां की थीं, उनका तुमने बदला लिया। खैर, कल प्रातःकाल एक दान-पत्र लिख दो। तीन पाई जो मौरूमी जमीन है, उसे छोड़कर मैं अपनी सब जायदाद कृष्णार्पण करता हूं, यह न लिख सको तो वहां से लिखकर भेज देना। मैं दस्तखत कर दूंगा और उसकी रजिस्ट्री हो जाएगी।
यह कहकर मदनसिंह सोने चले गए। लेकिन पद्मसिंह के मर्म-स्थान पर ऐसा वार कर गए कि वह रात-भर तड़पते रहे। जिस अपराध से बचने के लिए उन्होंने अपने सिद्धांत की भी परवाह न की और अपने सहवर्गियों में बदनाम हुए, वह अपराध लग ही गया। इतना ही नहीं, भाई के हृदय में उनकी ओर से मैल पड़ गई। अब उन्हें अपनी भूल दिखाई दे रही थी। निःसंदेह अगर उन्होंने बुद्धिमानी से काम लिया होता, तो यह नौबत न आती। लेकिन इस वेदना में इस विचार से कुछ संतोष होता था कि जो कुछ हुआ सो हुआ, एक अबला का उद्धार तो हो गया।
प्रातःकाल जब वह घर से चलने लगे, तो भामा रोती हुई आई और बोली– भैया, इनका हठ तो देख रहे हो, लड़के की जान लेने पर उतारू हैं, लेकिन तुम जरा सोच समझकर काम करना। भूल-चूक तो बड़ों-बड़ों से हो जाती है, वह बेचारा तो अभी नादान लड़का है। तुम उसकी ओर से मन न मैला करना। उसे किसी की टेढ़ी निगाह भी सहन नहीं है। ऐसा न हो, कहीं देश-विदेश की राह ले, मैं तो कहीं की न रहूं। उसकी सुध लेते रहना। खाने-पीने की तकलीफ न होने पाए। यहां रहता था तो एक भैंस का दूध पी जाता था। उसे दाल में घी अच्छा नहीं लगता, लेकिन मैं उससे छिपाकर लौंदे-के-लौंदे दाल में डाल देती थी। अब इतना सेवा-जतन कौन करेगा? न जाने बेचारा कैसे होगा? यहां घर पर कोई खाने वाला नहीं, वहां वह इन्हीं चीजों के लिए तरसता होगा। क्यों भैया, क्या अपने हाथ से नाव चलाता है?
पद्मसिंह-नहीं, दो मल्लाह रख लिए हैं।
भामा– तब भी दिन-भर दौड़-धूप तो करनी ही पड़ती होगी, मजूर बिना देखे-भाले थोड़ी ही काम करते हैं। मेरा तो यहां कुछ बस नहीं है, उसे तुम्हें सौंपती हूं। उसे अनाथ समझकर खोज-खबर लेते रहना। मेरा रोआं-रोआं तुम्हें आशीर्वाद देगा। अब की कार्तिक-स्नान में मैं उसे जरूर देखने जाऊंगी। कह देना, तुम्हारी अम्मा तुम्हें बहुत याद करती थीं, बहुत रोती थीं, यह सुनकर उसे ढाढस हो जाएगा। उसका जी बड़ा कच्चा है। मुझे याद करके रोज रोता होगा। यह थोड़े-से रुपए हैं, लेते जाओ, उसके पास भिजवा देना।
पद्मसिंह– इसकी क्या जरूरत है? मैं तो वहां हूं ही, मेरे देखते उसे किसी बात की तकलीफ न होने पाएगी।
भामा– नहीं, भैया, लेते जाओ, क्या हुआ! इस हांड़ी में थोड़ा-सा घी है, यह भी भिजवा देना! बाजारू घी घर के घी को कहां पाता है, न वह सुगंध है, न वह स्वाद। उसे अमावट की चटनी बहुत अच्छी लगती है, मैं थोड़ी-सी अमावट भी रखे देती हूं। मीठे-मीठे आम चुनकर रस निकाला था। समझाकर कह देना, बेटा, कोई चिंता मत करो। जब तक तुम्हारी मां जीती है तुमको कोई कष्ट न होने पाएगा। मेरे तो वही एक अंधे की लकड़ी है। अच्छा है तो, बुरा है तो, अपना ही है। संसार की लाज से आंखों से चाहे दूर कर दूं। लेकिन मन से थोड़े ही दूर कर सकती हूं।