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सदन को ऐसी ग्लानि हो रही थी, मानों उसने कोई बड़ा पाप किया हो। वह बार-बार अपने शब्दों पर विचार करता और यही निश्चय करता कि मैं बड़ा निर्दय हूं। प्रेमाभिलाषा ने उसे उन्मत्त कर दिया था।
वह सोचता, मुझे संसार का इतना भय क्यों है? संसार मुझे क्या दे देता है? क्या केवल झूठी बदनामी के भय से मैं उस रत्न को त्याग दूं, जो मालूम नहीं मेरे पूर्व जन्म की कितनी ही तपस्याओं का फल है? अगर अपने धर्म का पालन करने के लिए मेरे बंधुगण मुझे छोड़ दें तो क्या हानि है? लोक-निंदा का भय इसलिए है कि वह हमें बुरे कामों से बचाती है। अगर वह कर्त्तव्य मार्ग में बाधक हो, तो उससे डरना कायरता है। यदि हम किसी निरपराध पर झूठा अभियोग लगाएं, तो संसार हमको बदनाम नहीं करता, वह इस अकर्म में हमारी सहायता करता है, हमको गवाह और वकील देता है। हम किसी का धन दबा बैठें, किसी की जायदाद हड़प लें, तो संसार हमको कोई दंड नहीं देता, देता भी है तो बहुत कम, लेकिन ऐसे कुकर्मों के लिए हमें बदनाम करता है, हमारे माथे पर सदा के लिए कलंक का टीका लगा देता है। नहीं, लोक-निंदा का भय मुझसे यह अधर्म नहीं करा सकता, मैं उसे मंझधार में न डूबने दूंगा। संसार जो चाहे कहे, मुझसे यह अन्याय न होगा।
मैं मानता हूं कि माता-पिता की आज्ञा का पालन करना मेरा धर्म है। उन्होंने मुझे जन्म दिया है, मुझे पाला है। बाप की गोद में खेला हूं, मां का स्तन पीकर पला हूं। मैं उनके इशारे पर विष का प्याला पी सकता हूं, तलवार की धार पर चल सकता हूं, आग में कूद सकता हूं, किंतु उनके दुराग्रह पर भी मैं उस रमणी का तिरस्कार नहीं कर सकता, जिसकी रक्षा करना मेरा धर्म है। मां-बाप मुझसे अवश्य विमुख हो जाएंगे। संभव है, मुझे त्याग दें, मुझे मारा हुआ समझ लें, लेकिन कुछ दिनों के दुख के बाद उन्हें धैर्य हो जाएगा। वह मुझे भूल जाएंगे। काल उनके घाव को भर देगा।
हाय! मैं कैसा कठोर, कैसा पाषाण-हृदय हूं! वह रमणी जो किसी रनिवास को शोभा बन सकती है, मेरे सम्मुख एक दीन प्रार्थी के समान खड़ी रहे और मैं जरा भी न पसीजूं? वह ऐसा अवसर था कि मैं उसके चरणों पर सिर झुका देता और कर जोड़कर कहता, देवि! मेरे अपराध क्षमा करो! गंगा से जल लाता और उसके पैरों पर चढ़ाता, जैसे कोई उपासक अपनी इष्ट देवी को चढ़ाता है। पर मैं पत्थर की मूर्ति के सदृश खड़ा अपनी कुल-मर्यादा का बेसुरा राग अलापता रहा। हा मंदबुद्धि! मेरी बातों से उसका कोमल हृदय कितना दुःखी हुआ होगा। यह उसके मान करने से ही प्रकट होता है। उसने मुझे शुष्क, प्रेमविहीन, घमंडी और धूर्त्त समझा होगा, मेरी ओर आंख उठाकर देखा तक नहीं। वास्तव में मैं इसी योग्य हूं।
वह पश्चात्तापात्मक विचार कई दिन तक सदन के मर्मस्थल में दौड़ते रहे। अंत में उसने निश्चय किया कि मुझे अपना झोंपड़ा अलग बनाना चाहिए, अपने पैरों पर खड़ा होना चाहिए। इसके बिना निर्वाह नहीं हो सकता। मां-बाप के घर का द्वार अब मेरे लिए बंद है, खटखटाने से भी न खुलेगा। चचा मुझे आश्रय देंगे, लेकिन उनके यहां रहकर घर में बैर का बीज बोना अच्छा नहीं; माता-पिता समझेंगे कि यह मेरे लड़के को बिगाड़ रहे हैं। बस, मेरे लिए इसके सिवाय कोई और उपाय नहीं कि अपने लिए कोई राह निकालूं।
वह विचार करता कि चलकर अपनी लगाई हुई आग को बुझा आऊं, लेकिन चलने के समय उसकी हिम्मत जवाब दे देती। मन में प्रश्न उठता कि किस बिरते पर? घर कहां है?
सदन नित्य इसी चिंता में डूबा रहता कि इस सूत्र को कैसे सुलझाऊं? उसने सारे शहर की खाक छान डाली, कभी दफ्तरों की ओर जाता, कभी बड़े-बड़े कारखानों का चक्कर लगाता और दो-चार घंटे घूम-घामकर लौट आता। उसका जीवन अब तक सुख भोग में बीता था, उसने नम्रता और विनय का पाठ न पढ़ा था, अभिमान उसके रोम-रोम में भरा हुआ था। रास्ते चलता तो अकड़ता हुआ, अपने सामने किसी को कुछ नहीं समझता था। उसे संसार का कुछ अनुभव न था। वह नहीं जानता था कि इस दरबार में बहुत सिर झुकाने की आवश्यकता है। यहां उसी की प्रार्थना स्वीकृत होती है, जो पत्थर के निर्दय चौखटों पर माथा रगड़ना जानता है, जो उद्योगी है, निपुण है, नम्र है, जिसने किसी योगी के सदृश अपने मन को जीत लिया है, जो अन्याय के सामने झुक जाता है, अपमान को दूध के समान पी जाता है और जिसने आत्मभिमान को पैरों तले कुचल डाला है। वह न जानता था कि वही सद्गुण, जो मनुष्य को देवतुल्य बना देते हैं, इस क्षेत्र में निरादर की दृष्टि से देखे जाते है। वह ईमानदार था, सत्यवक्ता था, सरल था, जो कहता मुंह पर, लगी-लिपटी रखना न जानता था, पर वह नहीं जानता था कि इन गुणों का आत्मिक महत्त्व चाहे जो कुछ हो, संसार की दृष्टि में विद्या की कमी उनसे नहीं पूरी होती। सदन को अब बहुत पछतावा होता था कि मैंने अपना समय व्यर्थ खोया। कोई ऐसा काम न सीखा, जिससे संसार में निर्वाह होता। सदन को इस प्रकार भटकते हुए एक मास से अधिक हो गया और कोई काम हाथ न लगा।
इस निराशा ने धीरे-धीरे उसके हृदय में असंतोष का भाव जाग्रत कर दिया। उसे अपने माता-पिता पर, अपने चाचा पर, संसार पर और अपने आप पर क्रोध आता। अभी थोड़े ही दिन पहले वह स्वयं फिटन पर सैर करने निकलता था, लेकिन अब किसी फिटन को आते देखकर उसका रक्त खौलने लगता था। वह किसी फैशनेबुल मनुष्य को पैदल चलते पाता, तो अदबदाकर उससे कंधा मिलाकर चलता और मन में सोचता कि यह जरा भी नाक-भौं सिकोड़े तो इसकी खबर लूं। बहुधा वह कोचवानों के चिल्लाने की परवाह न करता। सबको छेड़कर लड़ना चाहता था। ये लोग गाड़ियों पर सैर करते हैं, कोट-पतलून डाटकर बन-ठनकर हवा खाने जाते हैं और मेरा कहीं ठिकाना नहीं।
घर पर जमींदारी होने के कारण सदन के सामने जीविका का प्रश्न कभी न आया था। इसीलिए उसने शिक्षा की ओर विशेष ध्यान न दिया था, पर अकस्मात् जो यह प्रश्न उसके सामने आ गया, तो उसे मालूम होने लगा कि इस विषय में सर्वथा असमर्थ हूं। यद्यपि उसने अंग्रेजी न पढ़ी थी, पर इधर उसने हिन्दी भाषा का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। वह शिक्षित समाज को मातृभाषा में अश्रद्धा रखने के कारण देश और जाति को विरोधी समझता था। उसे अपने सच्चरित्र होने पर भी घमंड था। जब से उसके लेख ‘जगत’ में प्रकाशित हुए थे, वह अंग्रेजी पढ़े-लिखे आदमियों को अनादर की दृष्टि से देखने लगा था। यह सब-के-सब स्वार्थसेवी हैं, इन्होंने केवल दीनों का गला दबाने के लिए, केवल अपना पेट पालने के लिए अंग्रेजी पढ़ी है, सब-के-सब फैशन के गुलाम हैं, जिनकी शिक्षा ने उन्हें अंग्रेजों का मुंह चिढ़ाना सिखा दिया है, जिनमें दया नहीं, धर्म नहीं, निज भाषा से प्रेम नहीं, चरित्र नहीं, आत्मबल नहीं, वे भी कुछ आदमी हैं? ऐसे ही विचार उसके मन में आया करते थे। लेकिन अब जो जीविका की समस्या उसके सामने आई, तो उसे ज्ञात हुआ कि मैं इनके साथ अन्याय कर रहा था। ये दया के पात्र हैं। मैं भाषा का पंडित नहीं लेकिन बहुतों से अच्छी भाषा जानता हूं। मेरा चरित्र उच्च न सही, पर बहुतों से अच्छा है। मेरे विचार उच्च न हों, पर नीच नहीं, लेकिन मेरे लिए सब दरवाजे बंद हैं। मैं या तो कहीं चपरासी हो सकता हूं या बहुत होगा तो कांस्टेबिल हो जाऊंगा। बस यही मेरा सामर्थ्य है। यह हमारे साथ कितना बड़ा अन्याय है, हम कैसे चरित्रवान हों, कितने ही बुद्धिमान हों, कितने ही विचारशील हों, पर अंग्रेजी भाषा का ज्ञान न होने से उनका कुछ मूल्य नहीं। हमसे अधम और कौन होगा कि इस अन्याय को चुपचाप सहते हैं। नहीं, बल्कि उस पर गर्व करते हैं। नहीं, मुझे नौकरी करने का विचार मन से निकाल देना चाहिए।
सदन की दशा इस समय उस मनुष्य की-सी थी, जो रात को जंगल में भटकता हुआ अंधेरी रात पर झुंझलाता है।
इसी निराशा और चिंता की दशा में एक दिन वह टहलता हुआ नदी के किनारे उस स्थान पर जा पहुंचा, जहां बहुत-सी नावें लगीं हुई थीं। नदी में छोटी-सी नावें इधर-उधर इठलाती फिरती थी। किसी-किसी नौका में सुरीली तानें सुनाई देती थीं। कई किश्तियों पर से मल्लाह लोग बोरे उतार रहे थे। सदन एक नाव पर जा बैठा। संध्या समय की शांतिदायिनी छटा और गंगातट के मनोरम काव्यमय दृश्य ने उसे वशीभूत कर लिया। वह सोचने लगा, यह कैसा आनंदमय जीवन है, ईश्वर मुझे भी ऐसी ही एक झोंपड़ी दे देता, तो मैं उसी पर संतोष करता, यहीं नदी तट पर विचरता, लहरों पर चलता और आनंद के राग गाता। शान्ता झोंपड़े के द्वार पर खड़ी मेरी राह देखती। कभी-कभी हम दोनों नाव पर बैठकर गंगा की सैर करते। उसकी रसिक कल्पना ने उस सरल, सुखमय-जीवन का ऐसा सुंदर चित्र खींचा, उस आनंदमय स्वप्न के देखने में वह ऐसा मग्न हुआ कि उसका चित्त व्याकुल हो गया। वहां की प्रत्येक वस्तु उस समय सुख, शांति और आनंद के रंग में डूबी हुई थी। वह उठा और मल्लाह से बोला– क्यों जी चौधरी, यहां कोई नाव बिकाऊ भी है।
मल्लाह बैठा हुक्का पी रहा था। सदन को देखते ही उठ खड़ा हुआ और उसे कई नावें दिखाई। सदन ने एक किश्ती पसंद की। मोल-तोल होने लगा। कितने ही और मल्लाह एकत्र हो गए। अंत में तीन सौ रुपए में नाव पक्की हो गई। यह भी तय हो गया कि जिसकी नाव है, वही उसे चलाने के लिए नौकर होगा।
सदन घर की ओर चला तो ऐसा प्रसन्न था, मानों अब उसे जीवन में किसी वस्तु की अभिलाषा नहीं है, मानों उसने किसी बड़े भारी संग्राम में विजय पाई है। सारी रात उसकी आंखों में नींद नहीं आई। वही नाव जो पाल खोले क्षितिज की ओर से चली आती थी, उसके नेत्रों के सामने नाचती रही, वही दृश्य उसे दिखाई देते रहे। उसकी कल्पना एक तट पर एक सुंदर, हरी-भरी लताओं से सजा हुआ झोपड़ा बनाया और शान्ता की मनोहारिणी मूर्ति आकर उसमें बैठी। झोंपड़ा प्रकाशमान हो गया। यहां तक कि आनंद कल्पना ने धीरे-धीरे नदी के किनारे एक सुंदर भवन बनाया, उसमें एक वाटिका लगवाई और सदन उसकी कुंजों में शान्ता के साथ विहार करने लगा। एक ओर नदी की कलकल ध्वनि थी, दूसरी ओर पक्षियों का कलवर गान। हमें जिससे प्रेम होता है, उसे सदा एक ही अवस्था में देखते हैं। हम उसे जिस अवस्था में स्मरण करते हैं, उसी समय के भाव, उसी समय के वस्त्राभूषण हमारे हृदय पर अंकित हो जाते हैं। सदन शान्ता को उसी अवस्था में देखता था, जब वह एक सादी साड़ी पहने, सिर झुकाए गंगातट पर खड़ी थी। वह चित्र उसकी आंखों से न उतरता था।
सदन को इस समय ऐसा मालूम होता था कि इस व्यवस्था में लाभ-ही-लाभ है। हानि की संभावना ही उसके ध्यान से बाहर थी। सबसे विचित्र बात यह थी कि अब तक उसने यह न सोचा था कि रुपए कहां से आएंगे?
प्रातःकाल होते ही उसे चिंता हुई कि रुपयों का प्रबंध करूं? किससे मांगूं और कौन देगा? मांगू किस बहाने से? चचा से कहूं? नहीं, उनके पास आजकल न होंगे। महीनों से कचहरी नहीं जाते और दादा से मांगना तो पत्थर से तेल निकालना है। क्या करूं? यदि इस समय न गया, तो चौधरी अपने मन में क्या कहेगा? वह छत पर इधर उधर टहलने लगा। अभिलाषाओं का वह विशाल भवन, अभी थोड़ी देर पहले उसकी कल्पना ने जिसका निर्माण किया था, देखते-देखते गिरने लगा। युवाकाल की आशा पुआल की आग है, जिसके जलने और बुझने में देर नहीं लगती।
अकस्मात् सदन को एक उपाय सूझ गया। वह जोर से खिलखिलाकर हंसा, जैसे कोई अपने शत्रु को भूमि पर गिराकर बेहंसी की हंसी हंसता है। वाह! मैं भी कैसा मूर्ख हूं। मेरे संदूक में मोहनमाला रखी हुई है। तीन सौ रुपए से अधिक की होगी। क्यों न उसे बेच डालूं? जब कोई मांगेगा; देखा जाएगा। कौन मांगता है और किसी ने मांगी भी, तो साफ-साफ कह दूंगा कि बेचकर खा गया। जो कुछ करना होगा, कर लेगा और अगर उस समय तक हाथ में कुछ रुपए आ गए, तो निकालकर फेंक दूंगा। उसने आकर संदूक से माला निकाली और सोचने लगा कि इसे कैसे बेचूं। बाजार में कोई गहना बेचना अपनी इज्जत बेचने से कम अपमान की बात नहीं है। इसी चिंता मैं बैठा था कि जीतन कहार कमरे में झाडू देने आया। सदन को मलिन देखकर बोला– भैया, आज उदास हो, आंखें चढ़ी हुई हैं, रात को सोए नहीं क्या?
सदन ने कहा– आज नींद आई। सिर पर एक चिंता सवार है।
जीतन– ऐसी कौन-सी चिंता है? मैं भी सुनूं।
सदन– तुमसे कहूं तो तुम अभी सारे घर में दोहाई मचाते फिरोगे।
जीतन– भैया, तुम्हीं लोगों की गुलामी में उमिर बीत गई। ऐसा पेट हल्का होता, तो एक दिन न चलता। इससे निसाखातिर रहो।
जिस प्रकार एक निर्धन किंतु शीलवान मनुष्य के मुंह से बड़ी कठिनता, बड़ी विवशता और बहुत लज्जा के साथ ‘नहीं’ शब्द निकलता है, उसी प्रकार सदन के मुंह से निकला– मेरे पास एक मोहनमाला है, इसे कहीं बेच दो। मुझे रुपयों का काम है।
जीतन– तो यह कौन बड़ा काम है, इसके लिए क्यों चिंता करते हो? मुदा रुपए क्या करोगे? मालकिन से क्यों नहीं मांग लेते हो? वह कभी नाहीं नहीं करेंगी। हां, मालिक से कहो तो न मिलेगा। इस घर में मालिक कुछ नहीं हैं, जो हैं वह मालकिन हैं।
सदन– मैं घर में किसी से नहीं मांगना चाहता।
जीतन ने माला लेकर देखी, उसे हाथों से तौला और शाम तक उसे बेच लाने की बात कहकर चला गया। मगर बाजार न जाकर वह सीधे अपनी कोठरी में गया, दोनों किवाड़ बंद कर लिए और अपनी खाट के नीचे की भूमि खोदने लगा थोड़ी देर में मिट्टी की एक हांडी निकल आई। यही उसकी सारे जन्म की कमाई थी, सारे जीवन की किफायत, कंजूसी, काट-कपट, बेईमानी, दलाली, गोलमाल, इसी हांडी के अंदर इन रुपयों के रूप में संचित थी। कदाचित् इसी कारण रुपयों के मुंह पर कालिमा भी लग गई थी। लेकिन जन्म भर के पापों का कितना संक्षिप्त फल था। पाप कितने सस्ते बिकते हैं।
जीतन ने रुपए गिनकर बीस-बीस रुपए की ढेरियां लगाई। कुल सत्रह ढेरियां लगाई। कुल सत्रह ढेरियां हुई। तब उसने तराजू पर माला को रुपयों से तौला। यह पच्चीस रुपए भर से कुछ अधिक थी। सोने की दर बाजार में चढ़ी हुई थीं, पर उसने एक रुपए भर के पच्चीस रुपए ही लगाए। फिर रुपयों की पच्चीस-पच्चीस की ढेरियां बनाईं। तेरह ढेरियां हुई और पंद्रह रुपए बच रहे। उसके कुल रुपए माला के मूल्य से दो सौ पिचासी रुपए कम थे। उसने मन में कहा, अब यह चीज हाथ से नहीं जाने पाएगी। कह दूंगा, माला तेरह ही भर थी! पंद्रह और बच जाएंगे। चलो मालारानी, तुम इस दरबे में आराम से बैठो।
हांडी फिर धरती के नीचे चली गई। पापों का आकार और भी सूक्ष्म हो गया। जीतन इस समय उछला पड़ता था। उसने बात-की-बात में दो सौ पिचासी रुपए पर हाथ मारा था। ऐसा सुअवसर उसे कभी नहीं मिला था। उसने सोचा, आज अवश्य किसी भले आदमी का मुंह देखकर उठा था। बिगड़ी हुई आंखों के सदृश बिगड़े हुए ईमान में प्रकाश-ज्योति प्रवेश नहीं करती।
दस बजे जीतन ने तीन सौ पच्चीस रुपए लाकर सदन के हाथों में दिए। सदन को मानो पड़ा हुआ धन मिला।
रुपए देकर जीतन ने निःस्वार्थ भाव से मुंह फेरा। सदन ने पांच रुपए निकालकर उसकी ओर बढ़ाए और बोला– ये लो, तमाकू-पान।
जीतन ने ऐसा मुंह बनाया, जैसा कोई वैष्णव मदिरा देखकर मुंह बनाता है, और बोला– भैया, तुम्हारा दिया तो खाता ही हूं, यह कहां पचेगा?
सदन– नहीं-नहीं, मैं खुशी से देता हूं। ले लो, कोई हरज नहीं है।
जीतन– नहीं भैया, यह न होगा। ऐसा करता तो अब तक तो चार पैसे का आदमी हो गया होता। नारायण तुम्हें बनाए रखें।
सदन को विश्वास हो गया कि यह बड़ा सच्चा आदमी है। इसके साथ अच्छा सलूक करूंगा।
संध्या समय सदन की नाव गंगा की लहरों पर इस भांति चल रही थी, जैसे आकाश में मेघ चलते हैं। लेकिन उसके चेहरे पर आनंद-विकास की जगह भविष्य की शंका झलक रही थी, जैसे कोई विद्यार्थी परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद चिंता में ग्रस्त हो जाता है। उसे अनुभव होता है कि वह बांध, जो संसार रूपी नदी की बाढ़ से मुझे बचाए हुए था, टूट गया है और मैं अथाह सागर में खड़ा हूं। सदन सोच रहा था कि मैंने नाव तो नदीं में डाल दी, लेकिन यह पार भी लगेगी? उसे अब मालूम हो रहा था कि वह पानी गहरा है, हवा तेज है और जीवन-यात्रा इतनी सरल नहीं है, जितनी मैं समझता था। लहरें यदि मीठे स्वरों में गाती हैं, तो भयंकर ध्वनि से गरजती है, हवा अगर लहरों को थपकियां देती है, तो कभी-कभी उन्हें उछाल भी देती है।