पद्मसिंह की आत्मा किसी भांति इस तरमीम के स्वीकार करने में अपनी भूल स्वीकार न करती थी। उन्हें कदापि यह आशा न थी कि उनके मित्रगण एक गौण बात पर उनका इतना विरोध करेंगे। उन्हें प्रस्ताव के एक अंश के अस्वीकृत हो जाने का खेद न था कि इसका दोष उनके सिर मढ़ा जाता था, हालांकि उन्हें यह संपूर्णतः अपने सहकारियों की असहिष्णुता और अदूदर्शिता प्रतीत होती थी। इस तरमीम को वह गौण ही समझते थे। इसके दुरुपयोग की जो शंकाएं की गई थीं, उन पर पद्मसिंह को विश्वास न था। वह विश्वास इस प्रस्ताव की सारी जिम्मेदारी उन्हीं के सिर डाल देता था। उन्हें अब यह निश्चय होता जाता था कि वर्तमान सामाजिक दशा के होते हुए इस प्रस्ताव से जो आशाएं की गई थीं, उनके पूरे होने की संभावना नहीं है। वह कभी-कभी पछताते कि मैंने व्यर्थ ही यह झगड़ा अपने सिर लिया। उन्हें आश्चर्य होता था कि मैं कैसे इस कांटेदार झाड़ी में उलझा और यदि इस भावी सफलता का भार इस तरमीम से सिर जा पड़ता तो वह एक बड़ी भारी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते, पर यह उन्हें दुराशा-मात्र प्रतीत होती थी। अब सारी बदनामी उन्हीं पर आएगी, विरोधी दल उनकी हंसी उड़ाएगा, उनकी उद्दंडता पर टिप्पणियां करेगा और यह सारी निंदा उन्हें अकेले सहनी पड़ेगी। कोई उनका मित्र नहीं, कोई उन्हें तसल्ली देने वाला नहीं। विट्ठलदास से आशा थी कि वह उनके साथ न्याय करेंगे, उनके रूठे हुए मित्रों को मना लाएंगे, लेकिन विट्ठलदास ने उल्टे उन्हीं को अपराधी ठहराया। वह बोले– आपने इस तरमीम को स्वीकार करके सारा गुड़ गोबर कर दिया, बरसों की मेहनत पर पानी फेर दिया। केवल कुंवर अनिरुद्धसिंह वह मनुष्य थे, जो पद्मसिंह के व्यथित हृदय को ढाढस देते थे और उनसे सहानुभूति रखते थे।
पूरे महीने भर पद्मसिंह कचहरी न जा सके। बस अकेले बैठे हुए इसी घटना की आलोचना किया करते! उनके विचारों में एक विचित्र निष्पक्षता आ गई थी। मित्रों के वैमनस्य से उन्हें जो दुःख होता था, उस पर ध्यान देकर वह सोचते थे कि जब ऐसे सुशिक्षित, विचारशील पुरुष एक जरा-सी बात पर अपनी निश्चित सिद्धांतों के प्रतिकूल व्यवहार करते हैं, तो इस देश का कल्याण होने की कोई आशा नहीं। माना कि मैंने तरमीम को स्वीकार करने में भूल की, लेकिन मेरी भूल ने उन्हें क्यों मार्ग से विचलित कर दिया?
पद्मसिंह को इस मानसिक कष्ट की अवस्था में पहली बार अनुभव हुआ कि एक अबला स्त्री चित्त को सावधान करने की कितनी शक्ति रखती है। अगर संसार में कोई प्राणी था, जो संपूर्णतः उनकी अवस्था को समझता था, तो वह सुभद्रा थी। वह उस तरमीम को उससे कहीं अधिक आवश्यक समझती थी, जितना वह स्वयं समझते थे। वह उनके सहकारियों की उनसे कहीं अधिक तीव्र समालोचना करना जानती थी। उसकी बातों से पद्मसिंह को बड़ी शांति होती थी। यद्यपि वह समझते थे कि सुभद्रा में ऐसे गहन विषय के समझने और तौलने का सामर्थ्य नहीं और यह जो कुछ कहती है, वह केवल मेरी ही बातों की प्रतिध्वनि है, तथापि इस ज्ञान से उनके आनंद में कोई विघ्न न पड़ता था।
लेकिन महीना पूरा भी न हो पाया था कि प्रभाकर राव ने अपने पत्र में इस प्रस्ताव के संबंध में एक लेखमाला निकालनी आरंभ कर दी। उसमें पद्मसिंह पर ऐसी-ऐसी मार्मिक चोटें करने लगे कि उन्हें पढ़कर वह तिलमिला जाते थे। एक लेख में उन्होंने पद्मसिंह के पूर्व चरित्र और इस तरमीम में घनिष्ठ संबंध दिखाया। एक-दूसरे लेख में उनके आचरण पर आक्षेप करते हुए लिखा, यह वर्तमान काल के देशसेवक है, जो देश को भूल जाएं, पर अपने को कभी नहीं भूलते, जो देश-सेवा की आड़ में अपना स्वार्थ साधन करते हैं। जाति के नवयुवक कुएं में गिरते हों तो गिरें, काशी के हाजी की कृपा बनी रहनी चाहिए। पद्मसिंह को इस अनुदारता और मिथ्या द्वेष पर जितना क्रोध आता था, उतना ही आश्चर्य होता था। असज्जनता इस सीमा तक जा सकती है, यह अनुभव उन्हें आज ही हुआ। यह सभ्यता और शालीनता के ठेकेदार बनते हैं, लेकिन उनकी आत्मा ऐसी मलिन है! और किसी में इतना साहस नहीं कि इसका प्रतिवाद करे।
संध्या का समय था। यह लेख चारपाई पर पड़ा हुआ था। पद्मसिंह सामने मेज पर बैठे हुए लेख का उत्तर लिखने की चेष्टा कर रहे थे, पर कुछ लिखते न बनता था कि सुभद्रा ने आकर कहा– गर्मी में यहां क्यों बैठे हो? चलो, बाहर बैठो।
पद्मसिंह– प्रभाकर राव ने मुझे आज खूब गालियां दी हैं, उन्हीं का जवाब लिख रहा हूं।
सुभद्रा– यह तुम्हारे पीछे इस तरह क्यों पड़ा हुआ है?
यह कहकर सुभद्रा वह लेख पढ़ने लगी और पांच मिनट में उसने उसे आद्योपांत पढ़ डाला।
पद्मसिंह– कैसा लेख है?
सुभद्रा– यह लेख थोड़े ही है, यह तो खुली हुई गालियां है। मैं समझती थी कि गालियों की लड़ाई स्त्रियों में ही होती है, लेकिन देखती हूं, पुरुष तो हम लोगों से भी बढ़े हुए हैं। ये विद्वान भी होंगे?
पद्मसिंह– हां, विद्वान क्यों नहीं है, दुनिया-भर की किताबें चाट बैठे हैं।
सुभद्रा– और उस पर यह हाल!
पद्मसिंह– मैं इसका उत्तर लिख रहा हूं। ऐसी खबर लूंगा कि वह भी याद करें कि किसी से पाला पड़ा था।
सुभद्रा– मगर गालियों का क्या उत्तर होगा?
पद्मसिंह– गालियां।
सुभद्रा– नहीं, गालियों का उत्तर मौन है। गालियों का उत्तर गाली तो मूर्ख भी देते हैं, फिर उनमें और तुममें अंतर ही क्या है?
पद्मसिंह ने सुभद्रा को श्रद्धापूर्ण नेत्रों से देखा। उसकी बात उनके मन में बैठ गई। कभी-कभी हमें उन लोगों से शिक्षा मिलती है, जिन्हें हम अभिमानवश अज्ञानी समझते हैं।
पद्मसिंह– तो मौन धारण कर लूं?
सुभद्रा– मेरी तो यही सलाह है। उसे जो जी में आए, बकने दो। कभी-न-कभी वह अवश्य लज्जति होगा। बस, वही इन गालियों का दंड होगा।
पद्मसिंह– वह लज्जित कभी न होगा। ये लोग लज्जित होना जानते ही नहीं। अभी मैं उसके पास जाऊं, तो मेरा बड़ा आदर करेगा, हंस-हंसकर बोलेगा, लेकिन संध्या होते ही फिर उस पर गालियों का नशा चढ़ जाएगा।
सुभद्रा– तो उसका उद्यम क्या दूसरों पर आक्षेप करना है?
पद्मसिंह– नहीं, उद्यम तो यह नहीं है, लेकिन संपादक लोग अपने ग्राहक बढ़ाने के लिए इस प्रकार कोई-न-कोई फुलझड़ी छोड़ते रहते हैं। ऐसे आक्षेपपूर्ण लेखों से पत्रों की बिक्री बढ़ जाती है। जनता को ऐसे झगड़ों में आनंद प्राप्त होता है और संपादक लोग अपने महत्त्व को भूलकर जनता के इस विवाद-प्रेम से लाभ उठाने लगते हैं। गुरुपद को छोड़कर जनता के कलह-प्रेम का आवाहन करने लगते हैं। कोई-कोई संपादक तो यहां तक कहते हैं कि अपने ग्राहक को प्रसन्न रखना हमारा कर्त्तव्य है। हम उनका खाते हैं, तो उन्हीं का गाएंगे।
सुभद्रा– तब तो ये लोग केवल पैसे के गुलाम हैं। इन पर क्रोध करने की जगह दया करनी चाहिए।
पद्मसिंह मेज से उठ आए। उत्तर लिखने का विचार छोड़ दिया। वह सुभद्रा को ऐसी विचारशील कभी न समझते थे। उन्हें अनुभव हुआ कि यद्यपि मैंने बहुत विद्या पढ़ी है, पर इसके हृदय की उदारता तक मैं नहीं पहुंचा। यह अशिक्षित होकर भी मुझसे उच्च विचार रखती है, उन्हें आज ज्ञान हुआ कि स्त्री संतानहीन होकर भी पुरुष के लिए, शांति, आनंद का एक अविरल स्रोत है। सुभद्रा के प्रति उनके हृदय में एक नया प्रेम जाग्रत हो गया। एक लहर उठी, जिसने बरसों के जमे हुए मालिन्य को काटकर बहा दिया। उन्होंने विमल, विशुद्ध भाव से उसे देखा। सुभद्रा इसका आशय समझ गई और उसका हृदय आनंद से विह्वल हो गद्गद हो गया।