जिस प्रकार कोई आलसी मनुष्य किसी के पुकारने की आवाज सुनकर जाग जाता है, किंतु इधर-उधर देखकर फिर निद्रा में मग्न हो जाता है, उसी प्रकार पंडित कृष्णचन्द्र क्रोध और ग्लानि का आवेश शांत होने पर अपने कर्त्तव्य को भूल गए। उन्होंने सोचा, मेरे यहां रहने से उमानाथ पर कौन– सा बोझ पड़ रहा है। आधा सेर आटा ही तो खाता हूं या और कुछ। लेकिन उसी दिन से उन्होंने नीच आदमियों के साथ बैठकर चरस पीना छोड़ दिया। इतनी सी बात के लिए चारों ओर मारे-मारे फिरना उन्हें अनुपयुक्त मालूम हुआ। अब वह प्रायः बरामदे ही में बैठे रहते और सामने से आने-जाने वाली रमणियों को घूरते। वह प्रत्येक विषय में उमानाथ की हां-में-हां मिलाते। भोजन करते समय सामने जितना आ जाता खा लेते, इच्छा रहने पर भी कभी कुछ न मांगते। वे उमानाथ से कितनी ही बातें ठकुरसुहाती के लिए करते। उनकी आत्मा निर्बल हो गई थी।
उमानाथ शान्ता के विवाह के संबंध में जब उनसे कुछ कहते, तो वह बड़े सरल भाव से उत्तर देते– भाई, तुम चाहो जो करो, इसके तुम्हीं मालिक हो। वह अपने मन को समझाते, जब रुपए इनके लग रहे हैं, तो सब काम इन्हीं के इच्छानुसार होने चाहिए।
लेकिन उमानाथ अपने बहनोई की कठोर बातें न भूले। छाले पर मक्खन लगाने से एक क्षण के लिए कष्ट कम हो जाता है, किंतु फिर ताप की वेदना होने लगती है। कृष्णचन्द्र की आत्मग्लानि से भरी हुई बातें उमानाथ को शीघ्र भूल गईं और उनके कृतघ्न शब्द कानों में गूंजने लगे। जब वह सोने गए तो जाह्नवी ने पूछा– आज लालाजी (कृष्णचन्द्र) तुमसे क्यों बिगड़ रहे थे?
उमानाथ ने अन्याय-पीड़ित नेत्रों से कहा– मेरा यश गा रहे थे। कह रहे थे, तुमने मुझे लूट लिया, मेरी स्त्री को मार डाला, मेरी एक लड़की को कुएं में डाल दिया, दूसरी को दुख दे रहे हो।
‘तो तुम्हारे मुंह में जीभ न थी? कहा होता, क्या मैं किसी को नेवता देने गया था? कहीं तो ठिकाना न था, दरवाजे-दरवाजे ठोकरें खाती फिरती थीं। बकरा जी से गया, खाने वाले को स्वाद ही न मिला। यहां लाज ढोते-ढोते मर मिटे, उसका यह फल।
इतने दिन थानेदारी की, लेकिन गंगाजली ने कभी भूलकर भी एक डिबिया सेंदूर न भेजा। मेरे सामने कहा होता, तो ऐसी-ऐसी सुनाती कि दांत खट्टे हो जाते, दो-दो पहाड़-सी लड़कियां गले पर सवार कर दीं, उस पर बोलने को मरते हैं। इनके पीछे फकीर हो गए, उसका यश यह है? अब से अपना पौरा लेकर क्यों नहीं कहीं जाते? काहे को पैर में मेंहदी लगाए बैठे हैं।’
‘अब तो जाने को कहते हैं। सुमन का पता भी पूछा था।’
‘तो क्या अब बेटी के सिर पड़ेंगे? वाह रे बेहया!’
‘नहीं, ऐसा क्या करेंगे। शायद दो-एक दिन वहां ठहरें।’
‘कहां की बात, इनसे अब कुछ न होगा। इनकी आंखों का पानी मर गया, जाके उसी के सिर पड़ेंगे, मगर देख लेना, वहां एक दिन भी निबाह न होगा।’
अब तक उमानाथ ने सुमन के आत्मपतन की बात जाह्नवी से छिपाई थी। वह जानते थे कि स्त्रियों के पेट में बात नहीं पचती। यह किसी-न-किसी से अवश्य ही कह देंगी और बात फैल जाएगी। जब जाह्नवी के स्नेह व्यवहार से वह प्रसन्न होते, तो उन्हें उसने सुमन की कथा कहने की बड़ी तीव्र आकांक्षा होती। हृदयसागर में तरंगें उठने लगतीं, लेकिन परिणाम को सोचकर रुक जाते थे। आज कृष्णचन्द्र की कृतघ्नता और जाह्नवी की स्नेहपूर्ण बातों ने उमानाथ को निःशंक कर दिया, पेट में बात न रुक सकी। जैसे किसी नाली में रुकी हुई वस्तु भीतर से पानी का बहाव पाकर बाहर निकल पड़े। उन्होंने जाह्नवी को सारी कथा बयान कर दी। जब रात को उनकी नींद खुली तो उन्हें अपनी भूल दिखाई दी, पर तीर कमान से निकल चुका था। जाह्नवी ने अपने पति को वचन दिया तो था कि यह बात किसी से न कहूंगी, पर अपने हृदय पर एक बोझ-सा रखा मालूम होता था। उसका किसी काम में मन न लगता था। वह उमानाथ पर झुंझलाती थी कि कहां से उन्होंने मुझसे यह बात कही। उसे सुमन से घृणा न थी, क्रोध न था, केवल एक कौतूहलजनक बात कहने की, मानव-हृदय की मीमांसा करने की सामग्री मिलती थी। स्त्री-शिक्षा के विरोध में कैसा अच्छा प्रमाण हाथ में आ गया। जाह्नवी इस आनंद से अपने को बहुत दिनों तक वंचित न रख सकी। यह असंभव था। यह उन दो-एक साध्वी स्त्रियों के साथ विश्वासघात था, जो अपने घर का रत्ती-रत्ती समाचार उससे कह दिया करती थीं। इसके अतिरिक्त यह जानने की उत्सुकता भी कुछ कम न थी कि अन्य स्त्रियां इस विषय की कैसी अलोचना करती हैं। जाह्नवी कई दिनों तक अपने मन को रोकती रही। एक दिन कुबेर पंडित की पत्नी सुभागी ने आकर जाह्नवी से कहा– जीजी, आज एकादशी है, गंगा नहाने चलोगी।
सुभागी का जाह्नवी से बहुत मेल था। जाह्नवी बोली– चलती तो, पर यहां तो द्वार पर यमदूत बैठा है, उसके मारे कहीं हिलने पाती हूं?
सुभागी– बहन, इनकी बातें तुमसे क्या कहूं, लाज आती है। मेरे घर वाले सुन लें, तो सिर काटने पर उतारू हो जाएं। कल मेरी बड़ी लड़की को सुना-सुनाकर न जाने कौन कवित्त पढ़ रहे थे। आज सबेरे मैंने दोनों को कुएं पर हंसते देखा। बहन, तुमसे कौन पर्दा है? कोई बात हो जाएगी तो सारी बिरादरी की नाक कटेगी? यह बूढ़े हुए, इन्हें ऐसा चाहिए? मेरी लड़की सुमन से दो-एक साल बड़ी होगी और क्या? भला साली होती, तो एक बात थी। वह तो उनकी भी बेटी ही होती है। इनको इतना भी विचार नहीं है। कहीं पंडित सुन लें, तो खून-खराबी हो जाए। तुमसे कहती हूं, किसी तरह आड़ में बुलाकर उन्हें समझा दो।
अब जाह्नवी से न रहा गया। उसने सुमन का सारा चरित्र खूब नमक-मिर्च लगाकर सुभागी से बयान किया। जब कोई हमसे अपना भेद खोल देता, तो हम उससे अपना भेद गुप्त नहीं रख सकते।
दूसरे ही दिन कुबेर पंडित ने अपनी लड़की को ससुराल भेज दिया और मन में निश्चय किया कि इस अपमान का बदला अवश्य लूंगा।