रात के नौ बजे थे। पद्मसिंह भाई के साथ बैठे हुए विवाह के संबंध में बातचीत कर रहे थे। कल बारात जाएगी। दरवाजे पर शहनाई बज रही थी और भीतर गाना हो रहा था।
मदनसिंह– तुमने जो गाड़ियां भेजी हैं; वह कल शाम तक अमोला पहुंच जाएंगी?
पद्यसिंह– जी नहीं, दोपहरी तक पहुंच जानी चाहिए। अमोला विंध्याचल के निकट है। आज मैंने दोपहर से पहले ही उन्हें रवाना कर दिया।
मदनसिंह– तो यहां से क्या-क्या ले चलने की आवश्यकता होगी?
पद्मसिंह– थोड़ा-सा खाने-पीने का सामान ले चलिए। और सब कुछ मैंने ठीक कर दिया है।
मदनसिंह– नाच कितने पर ठीक हुआ? दो ही गिरोह हैं न?
पद्मसिंह डर रहे थे कि अब नाच की बात आया ही चाहती है। यह प्रश्न सुनकर लज्जा से उनका सिर झुक गया। कुछ दबकर बोले– नाच को मैंने नहीं ठीक किया।
मदनसिंह चौंक पड़े, जैसे किसी ने चुटकी काट ली हो, बोले– धन्य हो महाराज। तुमने तो डोंगा ही डुबा दिया। फिर तुमने जनवासे का क्या सामान किया है? क्यों, फुरसत ही नहीं मिली या खर्च से हिचक गए? मैंने तो इसीलिए चार दिन पहले ही तुम्हें लिख दिया था। जो मनुष्य ब्राह्मण को नेवता देता है, वह उसे दक्षिणा देने की भी सामर्थ्य रखता है। अगर तुमको खर्च का डर था तो मुझे साफ-साफ लिखते, मैं यहां से भेज देता। अभी नारायण की दया से किसी का मोहताज नहीं हूं। अब भला बताओ तो क्या प्रबंध हो सकता है? मुंह में कालिख लगी कि नहीं? एक भलेमानस के दरवाजे पर जा रहे हो, वह अपने मन में क्या कहेगा? दूर-दूर से उसके संबंधी आए होंगे, दूर-दूर के गांवों के लोग बारात में आएंगे, वह अपने मन में क्या कहेंगे? राम-राम!
मुंशी बैजनाथ गांव के आठ आने के हिस्सेदार थे। मदनसिंह की ओर मार्मिक दृष्टि से देखकर बोले-मन में नहीं जनाब, खोल-खोलकर कहेंगे, गालियां देंगे। कहेंगे कि नाम बड़े दर्शन थोड़े, और सारे संसार में निंदा होने लगेगी। नाच के बिना जनवासा ही क्या? कम-से-कम मैंने तो कभी नहीं देखा। शायद भैया को ख्याल ही नहीं रहा, या मुमकिन है, लगन की तेजी से इंतजाम न हो सका हो?
पद्मसिंह ने डरते हुए कहा– यह बात नहीं है...
मदनसिंह– तो फिर क्या है? तुमने अपने मन में यही सोचा होगा कि सारा बोझ मेरे ही सिर पर पड़ेगा, पर मैं तुमसे सत्य कहता हूं, मैंने इस विचार से तुम्हें नहीं लिखा था। मैं दूसरों के माथे फुलौड़ियां खाने को नहीं दौड़ता।
पद्मसिंह अपने भाई की यही कर्णकटु बातें न सह सके। आंखें भर आईं।
बोले– भैया, ईश्वर के लिए आप मेरे संबंध में ऐसा विचार न करें। यदि मेरे प्राण भी आपके काम में आ सकें, तो मुझे आपत्ति न होगी। मुझे यह हार्दिक अभिलाषा रहती है कि आपकी कोई सेवा कर सकूं। यह अपराध मुझसे केवल इस कारण हुआ कि आजकल शहर में लोग नाच की प्रथा बुरी समझने लगे हैं। शिक्षित समाज में इस प्रथा का विरोध किया जा रहा है और मैं भी उसी में सम्मिलित हो गया हूं। अपने सिद्धांत को तोड़ने का मुझे साहस न हुआ।
मदनसिंह– अच्छा, यह बात है। भला किसी तरह लोगों की आंखें तो खुलीं। मैं भी इस प्रथा को निंद्य समझता हूं, लेकिन नक्कू नहीं बनना चाहता। जब सब लोग छोड़ देंगे तो मैं छोड़ दूंगा। मुझको ऐसी क्या पड़ी है कि सबके आगे-आगे चलूं। मेरे एक ही लड़का है, उसके विवाह में मन के सब हौसले पूरे करना चाहता हूं। विवाह के बाद मैं भी तुम्हारा मत स्वीकार कर लूंगा। इस समय मुझे अपने पुराने ढंग पर चलने दो, और यदि बहुत कष्ट न हो, तो सबेरे गाड़ी पर चले जाओ और बीड़ा देकर उधर से ही अमोला चले जाना। तुमसे इसलिए कहता हूं कि तुम्हें वहां लोग जानते हैं। दूसरे जाएंगे तो लुट जाएंगे।
पद्मसिंह ने सिर झुका लिया और सोचने लगे। उन्हें चुप देखकर मदनसिंह ने तेवर बदलकर कहा– चुप क्यों हों, क्या जाना नहीं चाहते?
पद्मसिंह ने अत्यंत दीनभाव से कहा– भैया, आप क्षमा करें तो...
मदनसिंह– नहीं-नहीं, मैं तुम्हें मजबूर नहीं करता, नहीं जाना चाहते, तो मत जाओ। मुंशी बैजनाथ, आपको कष्ट तो होगा, पर मेरी खातिर आप ही जाइए।
बैजनाथ– मुझे कोई उज्र नहीं है।
मदनसिंह– उधर से ही अमोला चले जाइएगा। आपका अनुग्रह होगा।
बैजनाथ– आप इत्मीनान रखें, मैं चला जाऊंगा।
कुछ देर तीनों आदमी चुप बैठे रहे। मदनसिंह अपने भाई को कृतघ्न समझ रहे थे। बैजनाथ को चिंता हो रही थी कि मदनसिंह का पक्ष ग्रहण करने में पद्मसिंह बुरा तो न मान जाएंगे। और पद्मसिंह अपने बड़े भाई की अप्रसन्नता के भय से दबे हुए थे। सिर उठाने का साहस नहीं होता था। एक ओर भाई की अप्रसन्नता थी, दूसरी ओर सिद्धांत और न्याय का बलिदान। एक ओर अंधेरी घाटी थी, दूसरी ओर सीधी चट्टान, निकलने का कोई मार्ग न था। अंत में उन्होंने डरते-डरते कहा– भाई साहब, आपने मेरी भूलें कितनी बार क्षमा की हैं। मेरी एक ढिठाई और क्षमा कीजिए। आप जब नाच के रिवाज को दूषित समझते हैं, तो उस पर इतना जोर क्यों देतें हैं?
मदनसिंह झुंझलाकर बोले– तुम तो ऐसी बातें करते हो, मानो देश में ही पैदा नहीं हुए, जैसे किसी अन्य देश से आए हो! एक यही क्या, कितनी कुप्रथाएं हैं, जिन्हें दूषित समझते हुए भी उनका पालन करना पड़ता है। गाली गाना कौन– सी अच्छी बात है? दहेज लेना कौन-सी अच्छी बात है? पर लोक-नीति पर न चलें, तो लोग उंगलियां उठाते हैं। नाच न ले जाऊं तो लोग यही कहेंगे कि कंजूसी के मारे नहीं लाए। मर्यादा में बट्टा लगेगा। मेरे सिद्धांत को कौन देखता है?
पद्यसिंह बोले– अच्छा, अगर इसी रुपए को किसी दूसरी उचित रीति से खर्च कर दीजिए, तब तो किसी को कंजूसी की शिकायत न रहेगी? आप दो डेरे ले जाना चाहते हैं। आजकल लग्न तेज हैं, तीन सौ से कम खर्च न पड़ेगा। आप तीन सौ की जगह पांच सौ रुपए के कंबल लेकर अमोला के दीन-दरिद्रों में बांट दीजिए तो कैसा हो? कम-से-कम दो सौ मनुष्य आपको आर्शीवाद देंगे और जब तक कंबल का एक-एक धागा भी रहेगा, आपका यश गाते रहेंगे। यदि यह स्वीकार न हो तो अमोला में दो सौ रुपए की लागत से एक पक्का कुआं बनवा दीजिए। इसी से चिरकाल तक आपकी कीर्ति बनी रहेगी। रुपयों का प्रबंध मैं कर दूंगा।
मदनसिंह ने बदनामी का जो सहारा लिया था, वह इन प्रस्तावों के सामने न ठहर सका। वह कोई उत्तर सोच ही रहे थे कि इतने में बैजनाथ– यद्यपि उन्हें पद्मसिंह के बिगड़ जाने का भय था, तथापि इस बात में अपनी बुद्धि की प्रकांडता दिखाने की इच्छा उस भय से अधिक बलवती थी, इसलिए बोले– भैया, हर काम के लिए एक अवसर होता है दान के अवसर पर दान देना चाहिए, नाच के अवसर पर नाच। बेजोड़े बात कभी भली नहीं लगती। और फिर शहर के जानकार आदमी हों तो एक बात भी है। देहात के उजड्ड जमींदारों के सामने आप कंबल बांटने लगेंगे, तो वह आपका मुंह देखेंगे और हंसेंगे।
मदनसिंह निरुत्तर-से हो गए थे। मुंशी बैजनाथ के इस कथन से खिल उठे। उनकी ओर कृतज्ञता से देखकर बोले– हां, और क्या होगा? बंसत में मल्हार गानेवाले को कौन अच्छा कहेगा? कुसमय की कोई बात अच्छी नहीं होती। इसी से तो मैं कहता हूं कि आप सवेरे चले जाइए और दोनों डेरे ठीक कर आइए।
पद्मसिंह ने सोचा, ये लोग तो अपने मन की करेंगे ही, पर देखूं किन युक्तियों से अपना पक्ष सिद्ध करते हैं। भैया को मुंशी वैद्यनाथ पर अधिक विश्वास है, इस बात का भी उन्हें बहुत दुःख हुआ। अतएव वह निःसंकोच होकर बोले– तो यह कैसे मान लिया जाए कि विवाह आनंदोत्सव ही का समय हैं? मैं तो समझता हूं दान और उपकार के लिए इससे उत्तम और कोई अवसर न होगा। विवाह एक धार्मिक व्रत है, एक आत्मिक प्रतिज्ञा है। जब हम गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करते हैं, जब हमारे पैरों में धर्म की बेड़ी पड़ती है, जब हम सांसारिक कर्त्तव्य के सामने अपने सिर को झुका देते हैं, जब जीवन का भार और उसकी चिंताए हमारे सिर पर पड़ती हैं, तो ऐसे पवित्र संस्कार पर हमको गांभीर्य से काम लेना चाहिए। यह कितनी निर्दयता है कि जिस समय हमारा आत्मीय युवक ऐसा कठिन व्रत धारण कर रहा हो, उस समय हम आनंदोत्सव मनाने बैठें। वह इस गुरुतर भार से दबा जाता हो और हम नाच-रंग में मस्त हों। अगर दुर्भाग्य से आजकल यही उल्टी प्रथा चल प़डी है, तो क्या यह आवश्यक है कि हम भी उसी लकीर पर चलें? शिक्षा का कम-से-कम इतना प्रभाव तो होना चाहिए कि धार्मिक विषयों में हम मूर्खों की प्रसन्नता को प्रधान न समझें।
मदनसिंह फिर चिंता-सागर में डूबे। पद्मसिंह का कथन उन्हें सर्वथा सत्य प्रतीत होता था; पर रिवाज के सामने न्याय, सत्य और सिंद्धात सभी को सिर झुकाना पड़ता है। उन्हें संशय था कि बैजनाथ अब कुछ उत्तर न दे सकेंगे। लेकिन मुंशीजी अभी हार नहीं मानना चाहते थे। वह बोले– भैया तुम वकील हो, तुमसे बहस करने की लियाकत हममें कहां है? लेकिन जो बात सनातन से होती चली आई है, चाहे वह उचित हो या अनुचित, उसके मिटाने से बदनामी अवश्य होती है। आखिर हमारे पूर्वज निरे जाहिल-जपट तो थे, नहीं, उन्होंने कुछ समझकर ही तो इस रस्म का प्रचार किया होगा।
मदनसिंह को यह युक्ति न सूझी थी। बहुत प्रसन्न हुए। बैजनाथ की ओर सम्मानपूर्ण भाव से देखकर बोले– अवश्य। उन्होंने जो प्रथाएं चलाई हैं, उन सबमें कोई-न-कोई बात छिपी रहती है, चाहे वह आजकल हमारी समझ में न आए। आजकल के नए विचार वाले लोग उन प्रथाओं के मिटाने में ही अपना गौरव समझते हैं। अपने सामने उन्हें कुछ समझते ही नहीं। वह यह नहीं देखते कि हमारे पास जो विद्या, ज्ञान, विचार और आचरण है, वह सब उन्हीं पूर्वजों की कमाई है। कोई कहता है, यज्ञोपवीत से क्या लाभ? कोई शिखा की जड़ काटने पर तुला हुआ है, कोई इसी धुन में है कि शूद्र और चांडाल सब क्षत्रिय हो जाएं, कोई विधवाओं के विवाह का राग आलापता फिरता है। और तो और कुछ ऐसे महाशय भी है, जो जाति और वर्ण को भी मिटा देना चाहते हैं। तो भाई, यह सब बातें हमारे मान की नहीं हैं। जो उन्हें मानता हो माने, हमको तो अपनी वही पुरानी चाल पसंद है। अगर जिंदा रहा, तो देखूंगा कि यूरोप का पौधा यहां कैसे-कैसे फल लाता है।
हमारे पूर्वजों ने खेती को सबसे उत्तम कहा है, लेकिन आजकल यूरोप की देखादेखी लोग मिल और मशीनों के पीछे पड़े हुए हैं। मगर देख लेना, ऐसा कोई समय आएगा कि यूरोप वाले स्वयं चेतेंगे और मिलों को खोद-खोदकर खेत बनाएंगे। स्वाधीन कृषक के सामने मिल के मजदूरों की क्या हस्ती? वह भी कोई देश है, जहां बाहर से खाने की वस्तुएं न आएं, तो लोग भूखों मरें। जिन देशों में जीवन ऐसे उल्टे नियमों पर चलाया जाता है, वह हमारे लिए आदर्श नहीं बन सकते। शिल्प और कला-कौशल का यह महल उसी समय तक है, जब तक संसार में निर्बल, असमर्थ जातियां वर्तमान हैं। उनके गले सस्ता माल मढ़कर यूरोप वाले चैन करते हैं। पर ज्योंही ये जातियां चौंकेंगी, यूरोप की प्रभुता नष्ट हो जाएगी। हम यह नहीं कहते कि यूरोपवालों से कुछ मत सीखो। नहीं, वह आज संसार के स्वामी हैं और उनमें बहुत से दिव्य गुण हैं। उनके गुणों को ले लो, दुर्गुणों को छो़ड़ दो। हमारे अपने रीति-रिवाज हमारी अवस्था के अनुकूल हैं। उनमें काट-छांट करने की जरूरत नहीं।
मदनसिंह ने ये बातें कुछ गर्व से कीं, मानों कोई विद्वान पुरुष अपने निज के अनुभव प्रकट कर रहा है, पर यथार्थ में ये सुनी-सुनाई बातें थीं, जिनका मर्म वह खुद भी न समझते थे। पद्मसिंह ने इन बातों की बड़ी धीरता के साथ सुना, पर उनका कुछ उत्तर न दिया। उत्तर देने से बात बढ़ जाने का भय था। कोई वाद जब विवाद का रूप धारण कर लेता है, तो वह अपने लक्ष्य से दूर हो जाता है। बाद में नम्रता और विनय प्रबल युक्तियों से भी अधिक प्रभाव डालती है। अतएव वह बोले– तो मैं ही चला जाऊंगा, मुंशी बैजनाथ को क्यों कष्ट दीजिएगा। वह चले जाएंगे तो यहां बहुत-सा काम पड़ा रह जाएगा। आइए मुंशीजी, हम दोनों आदमी बाहर चलें, मुझे आपसे अभी कुछ बातें करनी हैं।
मदनसिंह– तो यहीं क्यों नहीं करते? कहो तो मैं ही हट जाऊँ?
पद्यसिंह– जी नहीं, कोई ऐसी बात नहीं है, पर ये बातें मैं मुंशीजी से अपनी शंका समाधान करने के लिए कर रहा हूं। हां, भाई साहब, बतलाइए अमोला के दर्शकों की संख्या क्या होगी? कोई एक हजार। अच्छा, आपके विचार में कितने इनमें दरिद्र किसान होंगे कितने जमींदार?
बैजनाथ– ज्यादा किसान ही होंगे, लेकिन जमींदार भी दो-तीन सौ से कम न होंगे।
पद्मसिंह– अच्छा, आप यह मानते हैं कि दीन किसान नाच देखकर उतने प्रसन्न न होंगे, जितने धोती या कंबल पाकर?
बैजनाथ भी सशस्त्र थे। बोले– नहीं, मैं यह नहीं मानता। अधिकतर ऐसे किसान होते हैं, जो दान लेना कभी स्वीकार नहीं करेंगे। वह जलसा देखने आएंगे और जलसा अच्छा न होगा, तो निराश होकर लौट जाएंगे।
पद्मसिंह चकराए। सुकराती प्रश्नों का जो क्रम उन्होंने मन में बांध रखा था, वह बिगड़ गया। समझ गए कि मुंशीजी सावधान हैं। अब कोई दूसरा दांव निकालना चाहिए।
बोले– आप यह मानते हैं कि बाजार में वही वस्तु दिखाई देती है जिसके ग्राहक होते हैं और ग्राहकों के न्यूनाधिक होने पर वस्तु का न्यूनाधिक होना निर्भर है।
बैजनाथ– जी हां, इसमें कोई संदेह नहीं।
पद्मसिंह– इस विचार से किसी वस्तु के ग्राहक ही मानो उसके बाजार में आने के कारण होते हैं। यदि कोई मांस न खाए, तो बकरे की गर्दन पर छुरी क्यों चलें?
बैजनाथ समझ रहे थे कि यह मुझे किसी दूसरे पेंच में ला रहे हैं, लेकिन उन्होंने अभी तक उसका मर्म न समझा था। डरते हुए बोले– हां, बात तो यही है।
पद्मसिंह– जब आप यह मानते हैं तो आपको यह भी मानना पड़ेगा कि जो लोग वेश्याओं को बुलाते हैं, उन्हें धन देकर उनके लिए सुख-विलास की सामग्री जुटाने और उन्हें ठाट-बाट से जीवन व्यतीत करने के योग्य बनाते हैं, वे उस कसाई से कम पाप के भागी नहीं हैं, जो बकरे की गर्दन पर छुरी चलाता है। यदि मैं वकीलों को ठाट के साथ टमटम दौड़ाते हुए न देखता, तो क्या आज मैं वकील होता?
बैजनाथ ने हंसकर कहा– भैया, तुम घुमा-फिराकर अपनी बात मनवा लेते हो? लेकिन बात जो कहते हो, वह सच्ची है।
पद्मसिंह– ऐसी अवस्था में क्या समझना कठिन है कि सैकड़ों स्त्रियां, जो हर रोज बाजार में झरोखों में बैठी दिखाई देती है, जिन्होंने अपनी लज्जा और सतीत्व को भ्रष्ट कर दिया है, उनके जीवन का सर्वनाश करने वाले हमीं लोग हैं। वह हजारों परिवार जो आए दिन इस कुवासना की भंवर में पड़कर लुप्त हो जाते हैं, ईश्वर के दरबार में हमारा ही दामन पकड़ेंगे। जिस प्रथा से इतनी बुराइयां उत्पन्न हों, उसका त्याग करना क्या अनुचित है?
मदनसिंह बहुत ध्यान से ये बातें सुन रहे थे। उन्होंने इतनी उच्च शिक्षा नहीं पाई थी जिससे मनुष्य विचार-स्वातंत्र्य की धुन में सामाजिक बंधनों और नैतिक सिद्धांतों का शत्रु हो जाता है। नहीं, वह साधारण बुद्धि के मनुष्य थे। कायल होकर बतबढ़ाव करते रहना उनकी सामर्थ्य से बाहर था। मुस्कराकर मुंशी बैजनाथ से बोले– कहिए मुंशीजी, अब क्या कहते हैं? है कोई निकलने का उपाय?
बैजनाथ ने हंसकर कहा– मुझे को कोई रास्ता नहीं सूझता।
मदनसिंह– कुछ दिनों वकालत पढ़ ली होती तो यह भी करता। यहां अब कोई जवाब ही नहीं सूझता। क्यों भैया पद्मसिंह, मान लो तुम मेरी जगह होते, तो इस समय क्या जवाब देते।
पद्मसिंह– (हंसकर) जवाब तो कुछ-न-कुछ जरूर ही देता, चाहे तुक मिलती या न मिलती।
मदनसिंह– इतना तो मैं भी कहूंगा कि ऐसे जलसों से मन अवश्य चंचल हो जाता है। जवानी में जब मैं किसी जलसे से लौटता तो महीनों तक उसी वेश्या के रंग-रूप, हाव-भाव की चर्चा किया करता।
बैजनाथ– भैया, पद्मसिंह के ही मन की होने दीजिए। लेकिन कंबल अवश्य बंटवाइए।
मदनसिंह– एक कुआं बनवा दिया जाए, तो सदा के लिए नाम हो जाएगा। इधर भांवर पड़ी, उधर मैंने कुएं की नींव डाली।