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10 फरवरी 2022

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सदन जब सुमन को देखकर लौटा, तो उसकी दशा उस दरिद्र मनुष्य की-सी थी, जिसका वर्षों का धन चोरों ने हर लिया हो।
वह सोचता था, सुमन मुझसे बोली क्यों नहीं, उसने मेरी ओर ताका क्यों नहीं? क्या वह मुझे इतना नीच समझती है? नहीं, वह अपने पूर्व चरित्र पर लज्जित है और मुझे भूल जाना चाहती है। संभव है, उसे मेरे विवाह का समाचार मिल गया हो और मुझे अन्यायी, निर्दयी समझ रही हो। उसे एक बार फिर सुमन से मिलने की प्रबल उत्कंठा हुई। दूसरे दिन वह विधवा-आश्रम के घाट की ओर चला, लेकिन आधे रास्ते से लौट आया। उसे शंका हुई कि कहीं शान्ता की बात चल पड़ी, तो मैं क्या जवाब दूंगा। इसके साथ ही स्वामी गजानन्द का उपदेश भी याद आ गया।
सदन अब कभी-कभी शान्ता के प्रति अपने कर्त्तव्य पर विचार किया करता। महीनों तक सामाजिक अवस्था पर व्याख्या सुनने का उस पर कुछ प्रभाव न पड़ता– यह असंभव था। वह मन में स्वीकार करने लगा था कि हम लोगों ने शान्ता के साथ अन्याय किया है, मगर अभी तक उस कर्त्तव्यात्मक शक्ति का उदय न हुआ था, जो अपमान करती है और आत्मा की आज्ञा के सामने किसी की परवाह नहीं करती।
वह इन दिनों बहुत अध्ययनशील हो गया था। दालमंडी और चौक की सैर से वंचित होकर अब उसकी सजीवता इस नए मार्ग पर चल पड़ी। आर्यसमाज के उत्सव में उसने व्याख्यान सुने थे, जिनमें चरित्र-गठन के महत्त्व का वर्णन किया गया था। उनके सुनने से उसका यह भ्रम दूर हो गया था कि मुझे जो कुछ होना था, हो चुका। वहां उसे बताया गया था कि बहुत विद्वान होने से ही मनुष्य आत्मिक गौरव नहीं प्राप्त कर सकता। इसके लिए सच्चरित्र होना परमावश्यक है। चरित्र के सामने विद्या का मूल्य बहुत कम है। वह उसी दिन से चरित्र-गठन और मनोबल संबंधी पुस्तकें पढ़ने लगा और दिनों-दिन उसकी यह रुचि बढ़ती जाती थी। उसे अब अनुभव होने लगा था कि मैं विद्याहीन होकर भी संसार क्षेत्र में कुछ काम कर सकता हूं। उन मंत्रों में इंद्रियों को रोकने तथा मन को स्थिर करने के जो साधन बताए गए थे, उन्हें वह कभी भूलता न था।
वह म्युनिसिपल बोर्ड के उस जलसे में मौजूद था, जब वेश्या संबंधी प्रस्ताव उपस्थित थे। उस तरमीम के स्वीकृत हो जाने से वह बहुत उदासीन हो गया था और अपने चाचा की भूल को स्वीकार करता था, लेकिन जब प्रभाकर राव ने पद्मसिंह पर आक्षेप करना शुरू किया, तो वह अपने चचा के पक्ष का समर्थन करने के लिए उत्सुक होने लगा। उसने दो-तीन लेख लिखे और प्रभाकर राव के पास डाक-द्वारा भेजे। कई दिन तक उसके प्रकाशित होने की आशा करता रहा। उसे निश्चय था कि उन लेखों के छपते ही हलचल मच जाएगी, संसार में कोई बड़ा परिवर्तन हो जाएगा। ज्योंही डाकिया पत्र लाता, वह उसे खोलकर अपने लेखों को खोजने लगता, लेकिन उनकी जगह केवल द्वेष और द्रोह से भरे हुए लेख दिखाई देते। उन्हें पढ़कर उसका धैर्य हाथ से जाता रहा। उसने निश्चय किया कि अब चाहे जो कुछ हो, संपादक महाशय की खबर लेनी चाहिए। अगर वह सज्जन होता, तो मेरे लेखों को छापता। उसकी भाषा अशुद्ध सही, पर वह तर्कहीन तो न थे। उन्हें छिपा रखने से साबित हो गया कि वह सत्यासत्य का निर्णय नहीं करना चाहता, केवल जनता को प्रसन्न करने के लिए नित्य गालियां बकता जाता है। उसने अपने विचारों को किसी पर प्रकट नहीं किया। संध्या समय एक मोटा-सा सोटा लिए हुए ‘जगत’ कार्यालय में पहुंचा। कार्यालय बंद हो चुका था, पर प्रभाकर राव अपने संपादकीय कुटीर में बैठे हुए कुछ लिख रहे थे। सदन बेधड़क भीतर जाकर उनके सामने खड़ा हो गया। प्रभाकर राव ने चौंककर सिर उठाया, तो एक लंबे-चौड़े युवक को डंडा लिए हुए उद्दंड भाव से देखा। रुष्ट होकर बोले– आप कौन हैं?
सदन– मेरा मकान यहीं है। मैं आपसे केवल यह पूछना चाहता हूं कि आप इतने दिनों से पंडित पद्मसिंह को गालियां क्यों दे रहे हैं?
प्रभाकर– अच्छा, आपने ही दो-तीन लेख मेरे पास भेजे थे?
सदन– जी हां, मैंने ही भेजे थे।
प्रभाकर– उनके लिए धन्यवाद देता हूं। आइए, बैठ जाइए। मैं तो आपसे स्वयं मिलना चाहता था, पर आपका पता न मालूम था। आपके लेख बहुत उत्तम और सप्रमाण हैं और मैं उन्हें कभी का निकाल देता, पर गुमनाम लेखों का छापना नियम विरुद्ध हैं, इसी से मजबूर था। शुभ नाम?
सदन ने अपना नाम बताया। उसका क्रोध कुछ शांत हो चला था।
प्रभाकर– आप तो शर्माजी के परम भक्त मालूम होते हैं?
सदन– मैं उनका भतीजा हूं।
प्रभाकर– ओह, तब तो आप अपने ही हैं। कहिए, शर्माजी अच्छे तो हैं? वे तो दिखाई नहीं दिए।
सदन– अभी तक तो अच्छे हैं, पर आपके लेखों का यही तार रहा तो ईश्वर ही जाने, उनकी क्या गति होगी। आप उनके मित्र होकर इतना द्वेष कैसे करने लगे?
प्रभाकर– द्वेष? राम-राम! आप क्या कहते हैं? मुझे उनसे लेशमात्र भी द्वेष नहीं है। आप हम संपादकों के कर्त्तव्य को नहीं जानते। हम पब्लिक के सामने अपना हृदय खोलकर रखना अपना धर्म समझते हैं। अपने मनोभावों को गुप्त रखना हमारे नीति-शास्त्र में पाप है। हम न किसी के मित्र हैं, न किसी के शत्रु। हम अपने जन्म के मित्रों को एक क्षण में त्याग देते हैं और जन्म के शत्रुओं से एक क्षण में गले मिल जाते हैं। हम सार्वजनिक विषय में किसी को क्षमा नहीं करते, इसलिए कि हमारे क्षमा करने से उनका प्रभाव और भी हानिकारक हो जाता है।
पद्मसिंह मेरे परम मित्र हैं और मैं उनका हृदय से आदर करता हूं। मुझे उन पर आक्षेप करते हुए हार्दिक वेदना होती है। परसों तक मेरा उनसे केवल सिद्धांत का विरोध था, लेकिन परसों ही मुझे ऐसे प्रमाण मिले हैं, जिनमें विदित होता है कि उस तरमीम के स्वीकार करने में उनका कुछ और ही उद्देश्य था। आपसे कहने में कोई हानि नहीं है कि उन्होंने कई महीने हुए सुमनबाई नाम की वेश्या को गुप्त रीति से विधवा आश्रम में प्रविष्ट करा दिया और लगभग एक मास से उसकी छोटी बहन को भी आश्रम में ही ठहरा रखा है। मैं अब भी चाहता हूं कि मुझे गलत खबर मिली हो, लेकिन मैं शीघ्र ही किसी और नीयत से नहीं, तो उसका प्रतिवाद कराने के लिए ही इस खबर को प्रकाशित कर दूंगा!
सदन– यह खबर आपको कहां मिली?
प्रभाकर– इसे मैं नहीं बता सकता, लेकिन आप शर्माजी से कह दीजिएगा कि यदि उन पर यह मिथ्या दोषारोपण हो तो मुझे सूचित कर दें। मुझे यह मालूम हुआ है कि इस प्रस्ताव के बोर्ड में आने से पहले शर्माजी हाशिम के यहां नित्य जाते थे। ऐसी अवस्था में आप स्वयं देख सकते हैं कि मैं उनकी नीयत को कहां तक निस्पृह समझ सकता था?
सदन का क्रोध शांत हो गया। प्रभाकर राव की बातों ने उसे वशीभूत कर लिया।
वह मन में उनका आदर करने लगा और कुछ इधर-उधर की बातें करके घर लौट आया। उसे अब सबसे बड़ी चिंता यह थी कि शान्ता सचमुच आश्रम में लाई गई है।
रात्रि को भोजन करते समय उसने बहुत चाहा कि शर्माजी से इस विषय में कुछ बातचीत करे, पर साहस न हुआ। सुमन को तो विधवा-आश्रम में जाते उसने देखा ही था, लेकिन अब उसे कई बातों का स्मरण करके, जिनका तात्पर्य अब तक उसकी समझ में न आया था, शान्ता के लाए जाने का संदेह भी होने लगा।
वह रात-भर विकल रहा। शान्ता आश्रम में क्यों आई है? चचा ने उसे क्यों यहां बुलाया है? क्या उमानाथ ने उसे अपने घर में नहीं रखना चाहा? इसी प्रकार के प्रश्न उसके मन में उठते रहे। प्रातःकाल वह विधवा आश्रम वाले घाट की ओर चला कि अगर सुमन से भेंट हो जाए, तो उससे सारी बातें पूछूं। उसे बैठे थोड़ी ही देर हुई थी कि सुमन आती हुई दिखाई दी। उसके पीछे एक और सुंदरी चली आती थी। उसका मुखचंद्र घूंघट से छिपा हुआ था।
सदन को देखते ही सुमन ठिठक गई। वह इधर कई दिनों से सदन से मिलना चाहती थी। यद्यपि पहले मन में निश्चय कर लिया था कि सदन से कभी न बोलूंगी, पर शान्ता के उद्धार का उसे इसके सिवा कोई अन्य उपाय न सूझता था। उसने लजाते हुए सदन से कहा– सदनसिंह, आज बड़े भाग्य से तुम्हारे दर्शन हुए। तुमने तो इधर आना ही छोड़ दिया। कुशल से तो हो?
सदन झेंपता हुआ बोला– हां, सब कुशल है।
सुमन– दुबले बहुत मालूम होते हो, बीमार थे क्या?
सदन– नहीं, बहुत अच्छी तरह हूं। मुझे मौत कहां?
हम बहुधा अपनी झेंप मिटाने और दूसरों की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए कृत्रिम भावों की आड़ लिया करते हैं।
सुमन– चुप रहो, कैसा अपशकुन मुंह से निकालते हो। मैं मरने की मनाती, तो एक बात थी, जिसके कारण यह सब हो रहा है। इस रामलीला की कैकेयी मैं ही हूं। आप भी डूबी और दूसरों को भी अपने साथ ले डूबी। खड़े कब तक रहोगे, बैठ जाओ। मुझे आज तुमसे बहुत-सी बातें करनी हैं। मुझे क्षमा करना, अब तुम्हें भैया कहूंगी। अब मेरा तुमसे भाई-बहन का नाता है। मैं तुम्हारी बड़ी साली हूं अगर कोई कड़ी बात मुंह से निकल जाए, तो बुरा मत मानना। मेरा हाल तो तुम्हें मालूम ही होगा। तुम्हारे चाचा ने मेरा उद्धार किया और अब मैं विधवा आश्रम में पड़ी अपने दिनों को रोती हूं और सदा रोऊंगी। इधर एक महीने से मेरी अभागिन बहन भी यहां आ गई हैं, उमानाथ के घर उसका निर्वाह न हो सका। शर्माजी को परमात्मा चिरंजीवी करे, वह स्वयं अमोला गए और इसे ले आए। लेकिन यहां लाकर उन्होंने भी इसकी सुधि न ली। मैं तुमसे पूछती हूं, भला यह कहां की नीति है कि एक भाई चोरी करे और दूसरा पकड़ा जाए? अब तुमसे कोई बात छिपी नहीं है, अपने खोटे नसीब से, दिनों के फेर से, पूर्वजन्म के पापों से मुझ अभागिन ने धर्म का मार्ग छोड़ दिया। उसका दंड मुझे मिलना चाहिए था और वह मिला। लेकिन इस बेचारी ने क्या अपराध किया था जिसके लिए तुम लोगों ने इसे त्याग दिया? इसका उत्तर तुम्हें देना पड़ेगा! देखो, अपने बड़ों की आड़ मत लेना, यह कायर मनुष्य की चाल है। सच्चे हृदय से बताओ, यह अन्याय था या नहीं? और तुमने कैसे ऐसा घोर अन्याय होने दिया? क्या तुम्हें एक अबला बालिका का जीवन नष्ट करते हुए तनिक भी दया न आई?
यदि शान्ता यहां न होती, तो कदाचित् सदन अपने मन के भावों को प्रकट करने का साहस कर जाता। वह इस अन्याय को स्वीकार कर लेता। लेकिन शान्ता के सामने वह एकाएक अपनी हार मानने के लिए तैयार न हो सका। इसके साथ ही अपनी कुल मर्यादा की शरण लेते हुए भी उसे संकोच होता था। वह ऐसा कोई वाक्य मुंह से न निकालना चाहता था, जिससे शान्ता को दुःख हो, न कोई ऐसी बात कह सकता था, जो झूठी आशा उत्पन्न करे। उसकी उड़ती हुई दृष्टि ने, जो शान्ता पर पड़ी थी, उसे बड़े संकट में डाल दिया था। उसकी दशा उस बालक की-सी थी, जो किसी मेहमान की लाई हुई मिठाई को ललचाई हुई आंखों से देखता है, लेकिन माता के भय से निकालकर खा नहीं सकता। बोला– बाईजी, आपने पहले ही मेरा मुंह बंद कर दिया है, इसलिए मैं कैसे कहूं कि जो कुछ किया, मेरे बड़ों ने किया। मैं उनके सिर दोष रखकर अपना गला नहीं छुड़ाना चाहता। उस समय लोक-लज्जा से मैं भी डरता था। आप भी मानेंगी कि संसार में रहकर संसार की चाल चलनी पड़ती है। मैं इस अन्याय को स्वीकार करता हूं, लेकिन यह अन्याय हमने नहीं किया, उस समाज ने किया है, जिसमें हम लोग रहते हैं।
सुमन– भैया, तुम पढ़े-लिखे मनुष्य हो। मैं तुमसे बातों में नहीं जीत सकती, जो तुम्हें उचित जान पड़े, वह करो। अन्याय ही है, चाहे कोई एक आदमी करे या सारी जाति करे। दूसरों के भय से किसी पर अन्याय नहीं करना चाहिए। शान्ता यहां खड़ी है, इसलिए मैं उसके भेद नहीं खोलना चाहती, लेकिन इतना अवश्य कहूंगी कि तुम्हें दूसरी जगह धन, सम्मान, रूप, गुण, सब मिल जाए, पर यह प्रेम न मिलेगा। अगर तुम्हारे जैसा उसका हृदय भी होता, तो यह आज अपनी नई ससुराल में आनंद से बैठी होती, लेकिन केवल तुम्हारे प्रेम ने उसे यहां खींचा।
सदन ने देखा कि शान्ता की आंखों से जल बहकर उसके पैरों पर गिर रहा है! उसका सरल प्रेम-तृषित हृदय शोक से भर गया। अत्यंत करुण स्वर से बोला– मेरी समझ में नहीं आता कि क्या करूं? ईश्वर साक्षी है कि दुःख से मेरा कलेजा फटा जाता है।
सुमन– तुम पुरुष हो, परमात्मा ने तुम्हें सब शक्ति दी है।
सदन– मुझसे जो कुछ कहिए, करने को तैयार हूं।
सुमन– वचन देते हो?
सदन– मेरे चित्त की जो दशा हो रही है, वह ईश्वर ही जानते होंगे, मुंह से क्या कहूं?
सुमन– मरदों की बातों पर विश्वास नहीं आता।
यह कहकर सुमन मुस्काराई। सदन ने लज्जित होकर कहा– अगर अपने वश की बात होती, तो अपना हृदय निकालकर आपको दिखाता। यह कहकर उसने दबी हुई आंखों से शान्ता की ओर ताका।
सुमन– अच्छा, तो आप इसी गंगा नदी के किनारे शान्ता का हाथ पकड़कर कहिए कि तुम मेरी स्त्री हो और मैं तुम्हारा पुरुष हूं, मैं तुम्हारा पालन करूंगा।
सदन के आत्मिक बल ने जवाब दिया। वह बगलें झांकने लगा, मानो अपना मुंह छिपाने के लिए कोई स्थान खोज रहा है। उसे ऐसा जान पड़ा कि गंगा मुझे छिपाने के लिए बढ़ी चली आती है। उसने डूबने मनुष्य की भांति आकाश की ओर देखा और लज्जा से आंखें नीची किए रुक-रुककर बोला– सुमन, मुझे इसके लिए सोचने का अवसर दो। सुमन ने नम्रता से कहा– हां, सोचकर निश्चय कर लो, मैं तुम्हें धर्मसंकट में नहीं डालना चाहती। यह कहकर वह शान्ता से बोली– देख, तेरा पति तेरे सामने खड़ा है। मुझसे जो कुछ कहते बना उससे कहा, पर वह नहीं पसीजता। वह अब सदा के लिए तेरे हाथ से जाता है। अगर तेरा प्रेम सत्य है और उसमें कुछ बल है, तो उसे रोक ले, उससे प्रेम-वरदान ले ले।
यह कहकर सुमन गंगा की ओर चली गई। शान्ता भी धीरे-धीरे उसी के पीछे चली गई। उसका प्रेम मान के नीचे दब गया। जिसके नाम पर वह यावज्जीवन दुख झेलने का निश्चय कर चुकी थी, जिसके चरणों पर कल्पना में अपने को अर्पण कर चुकी थीं, उसी से वह इस समय तन बैठी। उसने उसकी अवस्था को न देखा, उसकी कठिनाइयों का विचार न किया, उसकी पराधीनता पर ध्यान न दिया। इस समय वह यदि सदन के सामने हाथ जोड़कर खड़ी हो जाती, तो उसका अभीष्ट सिद्ध हो जाता पर उसने विनय के स्थान पर मान करना उचित समझा।
सदन एक क्षण वहां खड़ा रहा और बाद में पछताता हुआ घर को चला। 

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रचनाएँ
सेवासदन
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प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। सेवासदन में नारी जीवन की समस्याओं के साथ-साथ समाज के धर्माचार्यों, मठाधीशों, धनपतियों, सुधारकों के आडंबर, दंभ, ढोंग, पाखंड, चरित्रहीनता, दहेज-प्रथा, बेमेल विवाह, पुलिस की घूसखोरी, वेश्यागमन, मनुष्य के दोहरे चरित्र, साम्प्रदायिक द्वेष आदि सामाजिक विकृतियों का विवरण मिलता है।सेवासदन उपन्यास की मुख्य समस्या क्या है? “सेवासदन” में प्रेमचन्द दिखाते है कि हमारी सामाजिक कुरीतियाँ स्त्रियों के जीवन को विवश करती है । इसकी मुख्य समस्या मध्य वर्गीय लोगों की आडंबर प्रियता से संबंधित है । प्रेमचन्द यह बताना चाहता है कि मनुष्य को जीने के लिए धन द्वारा प्राप्त सुख के समान मन द्वारा प्राप्त सुख भी चाहिए ।प्रेमचंद ने जहाँ एक ओर नारी की सामाजिक पराधीनता उसके फलसवरूप उत्पन्न समस्याओं को अपने इस उपन्यास में अभिव्यक्ति प्रदान की है, वहीं दूसरी ओर यह भी दिखलाया है कि किस प्रकार उनके नारी-पात्र उपन्यास के अंत तक आते-आते सामाजिक अन्याय से मुक्ति पाने का मार्ग स्वयं ही खोज देते हैं।
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सेवासदन (भाग 1)

9 फरवरी 2022
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1 पश्चाताप के कड़वे फल कभी-न-कभी सभी को चखने पड़ते हैं, लेकिन और लोग बुराईयों पर पछताते हैं, दारोगा कृष्णचन्द्र अपनी भलाइयों पर पछता रहे थे। उन्हें थानेदारी करते हुए पच्चीस वर्ष हो गए, लेकिन उन्हों

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दारोगाजी के हल्के में एक महन्त रामदास रहते थे। वह साधुओं की एक गद्दी के महंत थे। उनके यहां सारा कारोबार ‘श्री बांकेबिहारीजी’ के नाम पर होता था। ‘श्री बांकेबिहारीजी’ लेन-देन करते थे और बत्तीस रुपये प्र

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पण्डित कृष्णचन्द्र रिश्वत लेकर उसे छिपाने के साधन न जानते थे । इस विषय में अभी नोसिखुए थे । उन्हें मालूम न था कि हराम का माल अकेले मुश्किल से पचता है । मुख्तार ने अपने मन मे कहा, हमीं ने सब कुछ किया औ

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कृष्णचन्द्र अपने कस्बे में सर्वप्रिय थे । यह खबर फैलते ही सारी बस्ती में हलचल मच गई । कई भले आदमी उनकी जमानत करने आये लेकिन साहब ने जमानत न ली । इसके एक सप्ताह बाद कृष्णचन्द्र पर रिश्वत लेने का अभियो

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फागुन में सुमन का विवाह हो गया। गंगाजली दामाद को देखकर बहुत रोई। उसे ऐसा दुःख हुआ, मानो किसी ने सुमन को कुएं में डाल दिया। सुमन ससुराल आई तो यहां की अवस्था उससे भी बुरी पाई, जिसकी उसने कल्पना की थी।

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सुमन को ससुराल आए डेढ़ साल के लगभग हो चुका था, पर उसे मैके जाने का सौभाग्य न हुआ था। वहां से चिट्ठियां आती थीं। सुमन उत्तर में अपनी मां को समझाया करती, मेरी चिंता मत करना, मैं बहुत आनंद से हूं, पर अब

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गजाधरप्रसाद की दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो चोरों के बीच में अशर्फियों की थैली लिए बैठा हो। सुमन का वह मुख-कमल, जिस पर वह कभी भौंरे की भांति मंडराया करता था, अब उसकी आँखों में जलती हुई आग के समान था। वह

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दूसरे दिन से सुमन ने चिक के पास खड़ा होना छोड़ दिया। खोंचेवाले आते और पुकार कर चले जाते। छैले गजल गाते हुए निकल जाते। चिक की आड़ में अब उन्हें कोई न दिखाई देता था। भोली ने कई बार बुलाया, लेकिन सुमन ने

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दूसरे दिन सुमन नहाने न गई। सबेरे ही से अपनी एक रेशमी साड़ी की मरम्मत करने लगी। दोपहर को सुभद्रा की एक महरी उसे लेने आई। सुमन ने मन में सोचा था, गाड़ी आवेगी। उसका जी छोटा हो गया। वही हुआ जिसका उसे भ

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दरवाजे पर आकर सुमन सोचने लगी कि अब कहां जाऊं। गजाधर की निर्दयता से भी उसे दुःख न हुआ था, जितना इस समय हो रहा था। उसे अब मालूम हुआ कि मैंने अपने घर से निकलकर बड़ी भूल की। मैं सुभद्रा के बल पर कूद रही थ

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सेवासदन (भाग-2)

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12 पद्मसिंह के एक बड़े भाई मदनसिंह थे। वह घर का कामकाज देखते थे। थोड़ी-सी जमींदारी थी, कुछ लेन-देन करते थे। उनके एक ही लड़का था, जिसका नाम सदनसिंह था। स्त्री का नाम भामा था। मां-बाप का इकलौता लड़का

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सुमन के चले जाने के बाद पद्मसिंह के हृदय में एक आत्मग्लानि उत्पन्न हुई– मैंने अच्छा नहीं किया। न मालूम वह कहां गई। अपने घर चली गई तो पूछना ही क्या, किन्तु वहां वह कदापि न गई होगी। मरता क्या न करता, कह

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दूसरे दिन पद्मसिंह सदन को साथ किसी लेकर स्कूल में दाखिल कराने चले। किंतु जहां गए, साफ जवाब मिला ‘स्थान नहीं है।’ शहर में बारह पाठशालाएं थीं। लेकिन सदन के लिए कहीं स्थान न था। शर्माजी ने विवश होकर निश

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प्राचीन ऋषियों ने इंद्रियों को दमन करने के दो साधन बताए हैं– एक राग, दूसरा वैराग्य। पहला साधन अत्यंत कठिन और दुस्साध्य है। लेकिन हमारे नागरिक समाज ने अपने मुख्य स्थानों पर मीनाबाजार सजाकर इसी कठिन मार

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महाशय विट्ठलदास इस समय ऐसे खुश थे मानों उन्हें कोई संपत्ति मिल गई हो। उन्हें विश्वास था कि पद्मसिंह इस जरा से कष्ट से मुंह न मोड़ेंगे, केवल उनके पास जाने की देर है। वह होली के कई दिन पहले से शर्माजी क

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संध्या का समय है। सदन अपने घोड़े पर सवार दालमंडी में दोनों तरफ छज्जों और खिड़कियों की ओर ताकता जा रहा है। जब से सुमन वहां आई है, सदन उसके छज्जे के सामने किसी-न-किसी बहाने से जरा देर के लिए अवश्य ठहर ज

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बाबू विट्ठलदास अधूरा काम न करते थे। पद्मसिंह की ओर से निराश होकर उन्हें यह चिंता होने लगी कि सुमनबाई के लिए पचास रुपए मासिक का चंदा कैसे करूं? उनकी स्थापित की हुई संस्थाएं चंदों ही से चल रही थीं, लेकि

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शाम हो गई। सुमन ने दिन-भर विट्ठलदास की राह देखी, लेकिन वह अब तक नहीं आए। सुमन के मन में जो नाना प्रकार की शंकाएं उठ रही थीं, वह पुष्ट हो गईं। विट्ठलदास अब नहीं आएंगे, अवश्य कोई विघ्न पड़ा। या तो वह कि

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सुभद्रा को संध्या के समय कंगन की याद आई। लपकी हुई स्नान-घर में गई। उसे खूब याद था कि उसने यहीं ताक पर रख दिया था, लेकिन उसका वहाँ पता न था। इस पर वह घबराई। अपने कमरे के प्रत्येक ताक और आलमारी को देखा,

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विट्ठलदास को संदेह हुआ कि सुमन तीस रुपए मासिक स्वीकार करना नहीं चाहती, इसलिए उसने कल उत्तर देने का बहाना करके मुझे टाला है। अतएव वे दूसरे दिन उसके पास नहीं गए, इसी चिंता में पड़े रहे कि शेष रुपयों का

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सुमन पार्क से लौटी तो उसे खेद होने लगा कि मैंने शर्माजी को वे ही दुखानेवाली बातें क्यों कहीं उन्होंने इतनी उदारता से मेरी सहायता की, जिसका मैंने यह बदला दिया? वास्तव में मैंने अपनी दुर्बलता का अपराध उ

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सदन प्रातःकाल घर गया, तो अपनी चाची के हाथों में कंगन देखा। लज्जा से उसकी आंखें जमीन में गड़ गईं। नाश्ता करके जल्दी से बाहर निकल आया और सोचने लगा, यह कंगन इन्हें कैसे मिल गया? क्या यह संभव है कि सुमन

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यह बात बिल्कुल तो असत्य नहीं है कि ईश्वर सबको किसी-न-किसी हीले से अन्न-वस्त्र देता है। पंडित उमानाथ बिना किसी हीले ही के संसार का सुख-भोग करते थे। उनकी आकाशी वृत्ति थी। उनके भैंस और गाएं न थीं, लेकिन

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सार्वजनिक संस्थाएं भी प्रतिभाशाली मनुष्य की मोहताज होती हैं। यद्यपि विट्ठलदास के अनुयायियों की कमी न थी, लेकिन उनमें प्रायः सामान्य अवस्था के लोग थे। ऊंची श्रेणी के लोग उनसे दूर भागते थे। पद्मसिंह के

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रात के नौ बजे थे। पद्मसिंह भाई के साथ बैठे हुए विवाह के संबंध में बातचीत कर रहे थे। कल बारात जाएगी। दरवाजे पर शहनाई बज रही थी और भीतर गाना हो रहा था। मदनसिंह– तुमने जो गाड़ियां भेजी हैं; वह कल शाम तक

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बरसात के दिन थे, छटा छाई हुई थी। पंडित उमानाथ चुनारगढ़ के निकट गंगा के तट पर खड़े नाव की बाट जोह रहे थे। वह कई गांवों का चक्कर लगाते हुए आ रहे थे और संध्या होने से पहले चुनार के पास एक गांव में जाना च

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पंडित उमानाथ सदनसिंह का फलदान चढ़ा आए हैं। उन्होंने जाह्नवी से गजानन्द की सहायता की चर्चा नहीं की थी। डरते थे कि कहीं यह इन रुपयों को अपनी लड़कियों के विवाह के लिए रख छोड़ने पर जिद्द न करने लगे। जाह्न

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एक रोज उमानाथ ने कृष्णचन्द्र के सहचरों को धमकाकर कहा– अब तुमलोगों को उनके साथ बैठकर चरस पीते देखा तो तुम्हारी कुशल नहीं। एक-एक की बुरी तरह खबर लूंगा। उमानाथ का रोब सारे गांव पर छाया हुआ था। वे सब-के-स

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सेवासदन (भाग-3)

10 फरवरी 2022
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30 शहर की म्युनिसिपैलिटी में कुल अठारह सभासद थे। उनमें आठ मुसलमान थे और दस हिन्दू। सुशिक्षित मेंबरों की संख्या अधिक थी, इसलिए शर्माजी को विश्वास था कि म्युनिसिपैलिटी में वेश्याओं को नगर से बाहर निकाल

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इस प्रस्ताव के विरोध में हिंदू मेंबरों को जब मुसलमानों के जलसे का हाल मालूम हुआ तो उनके कान खड़े हुए। उन्हें मुसलमानों से जो आशा थी, वह भंग हो गई। कुल दस हिंदू थे। सेठ बलभद्रदास चेयरमैन थे। डॉक्टर श्य

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जिस प्रकार कोई आलसी मनुष्य किसी के पुकारने की आवाज सुनकर जाग जाता है, किंतु इधर-उधर देखकर फिर निद्रा में मग्न हो जाता है, उसी प्रकार पंडित कृष्णचन्द्र क्रोध और ग्लानि का आवेश शांत होने पर अपने कर्त्तव

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सदन के विवाह का दिन आ गया। चुनार से बारात अमोला चली। उसकी तैयारियों का वर्णन व्यर्थ है। जैसी अन्य बारातें होती हैं, वैसी ही यह भी थी। वैभव और दरिद्रता का अत्यन्त करुणात्मक दृश्य था। पालकियों पर कारचोब

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विट्ठलदास ने सुमन को विधवाश्रम में गुप्त रीति से रखा था। प्रबंधकारिणी सभा के किसी सदस्य को इत्तिला न दी थी। आश्रम की विधवाओं से उसे विधवा बताया था। लेकिन अबुलवफा जैसे टोहियों से यह बात बहुत दिनों तक ग

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यद्यपि डॉक्टर साहब का बंगला निकट ही था, पर इन दोनों आदमियों ने एक किराए की गाड़ी की। डॉक्टर साहब के यहां पैदल जाना फैशन के विरुद्ध था। रास्ते में विट्ठलदास ने आज के सारे समाचार बढ़ा-चढ़ाकर बयान किए और

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सदन जब घर पर पहुंचा, तो उसके मन की दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो बरसों की कमाई लिए, मन में सहस्रों मंसूबे बांधता, हर्ष से उल्लसित घर आए और यहां संदूक खोलने पर उसे मालूम हो कि थैली खाली पड़ी है। विचारों

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सदन को व्याख्यानों की ऐसी चाट पड़ी कि जहां कहीं व्याख्यान की खबर पाता, वहां अवश्य जाता, दोनों पक्षों की बातें महीनों सुनने और उन पर विचार करने से उसमें राय स्थिर करने की योग्यता आने लगी। अब वह किसी यु

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जिस दिन से बारात लौट गई, उसी दिन से कृष्णचन्द्र फिर से बाहर नहीं निकले। मन मारे हुए अपने कमरे में बैठे रहते। उन्हें अब किसी को अपना मुंह दिखाते लज्जा आती थी। दुश्चरित्रा सुमन ने उन्हें संसार की दृष्टि

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प्रातःकाल यह शोक-समाचार अमोला में फैल गया। इने-गिने सज्जनों को छोड़कर कोई भी उमानाथ के द्वार पर संवेदना प्रकट करने न आया। स्वाभाविक मृत्यु हुई होती, तो संभवतः उनके शत्रु भी आकर चार आंसू बहा जाते, पर आ

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पद्मसिंह का पहला विवाह उस समय हुआ था, जब वह कॉलेज में पढ़ते थे, और एम. ए. पास हुए, तो वह एक पुत्र के पिता थे। पर बालिका वधू शिशु-पालन का मर्म न जानती थी। बालक जन्म के समय तो हृष्ट-पुष्ट था, पर पीछे धी

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शान्ता ने पत्र तो भेजा, पर उसको उत्तर आने की कोई आशा न थी। तीन दिन बीत गए, उसका नैराश्य दिनों-दिन बढ़ता जा रहा था। अगर कुछ अनुकूल उत्तर न आया, तो उमानाथ अवश्य ही उसका विवाह कर देंगे, यह सोचकर शान्ता क

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शान्ता को आश्रम में आए एक मास से ऊपर हो गया, लेकिन पद्मसिंह ने अभी तक अपने घर में किसी से इसकी चर्चा नहीं की। कभी सोचते, भैया को पत्र लिखूं, कभी सोचते, चलकर उनसे कहूं, कभी विट्ठलदास को भेजने का विचार

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पद्मसिंह की आत्मा किसी भांति इस तरमीम के स्वीकार करने में अपनी भूल स्वीकार न करती थी। उन्हें कदापि यह आशा न थी कि उनके मित्रगण एक गौण बात पर उनका इतना विरोध करेंगे। उन्हें प्रस्ताव के एक अंश के अस्वीक

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सदन जब सुमन को देखकर लौटा, तो उसकी दशा उस दरिद्र मनुष्य की-सी थी, जिसका वर्षों का धन चोरों ने हर लिया हो। वह सोचता था, सुमन मुझसे बोली क्यों नहीं, उसने मेरी ओर ताका क्यों नहीं? क्या वह मुझे इतना नीच

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सेवासदन (भाग-4)

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46 सदन को ऐसी ग्लानि हो रही थी, मानों उसने कोई बड़ा पाप किया हो। वह बार-बार अपने शब्दों पर विचार करता और यही निश्चय करता कि मैं बड़ा निर्दय हूं। प्रेमाभिलाषा ने उसे उन्मत्त कर दिया था। वह सोचता, मुझ

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प्रभाकर राव का क्रोध बहुत कुछ तो सदन के लेखों से ही शांत हो गया था और जब पद्मसिंह ने सदन के आग्रह से सुमन का पूरा वृत्तांत उन्हें लिख भेजा, तो वह सावधान हो गए। म्युनिसपैलिटी में प्रस्ताव को पास हुए ल

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एक महीना बीत गया। सदन ने अपने इस नए धंधे की चर्चा घर में किसी से न की। वह नित्य सबेरे उठकर गंगा-स्नान के बहाने चला जाता। वहां से दस बजे घर आता। भोजन करके फिर चल देता और तब का गया-गया घड़ी रात गए, घर ल

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बाबू विट्ठलदास न्यायप्रिय सरल मनुष्य थे, जिधर न्याय खींच ले जाता, उधर चले जाते थे। इसमें लेश-मात्र भी संकोच न होता था। जब उन्होंने पद्मसिंह को न्यायपथ से हटते देखा, तो उनका साथ छोड़ दिया और कई महीने त

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सदनसिंह का विवाह संस्कार हो गया। झोंपड़ा खूब सजाया गया था। वही मंडप का काम दे रहा था, लेकिन कोई भीड़-भाड़ न थी। पद्मसिंह उस दिन घर चले गए और मदनसिंह से सब समाचार कहा। वह यह सुनते ही आग हो गए, बोले– म

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जैसे सुंदर भाव के समावेश से कविता में जान पड़ जाती है और सुंदर रंगों से चित्र में, उसी प्रकार दोनों बहनों के आने से झोंपड़ी में जान आ गई। अंधी आंखों में पुतलियां पड़ गई हैं। मुर्झाई हुई कली शान्ता अब

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पंडित पद्मसिंह के चार-पांच मास के सदुद्योग का यह फल हुआ कि बीस-पच्चीस वेश्याओं ने अपनी लड़कियों को अनाथालय में भेजना स्वीकार कर लिया। तीन वेश्याओं ने अपनी सारी संपत्ति अनाथालय के निमित्त अर्पण कर दी,

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पंडित मदनसिंह की कई महीने तक यह दशा थी कि जो कोई उनके पास आता, उसी से सदन की बुराई करते-कपूत है, भ्रष्ट है, शोहदा है, लुच्चा है, एक कानी कौड़ी तो दूंगा नहीं, भीख मांगता फिरेगा, तब आटे-दाल का भाव मालूम

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जिस प्रकार कोई मनुष्य लोभ के वश होकर आभूषण चुरा लेता है, पर विवेक होने पर उसे देखने में भी लज्जा आती है, उसी प्रकार सदन भी सुमन से बचता फिरता था। इतना ही नहीं, वह उसे नीची दृष्टि से देखता था और उसकी उ

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संध्या का समय है। आकाश पर लालिमा छाई हुई है और मंद वायु गंगा की लहरों पर क्रीड़ा कर रही है, उन्हें गुदगुदा रही है। वह अपने करुण नेत्रों से मुस्कराती है और कभी-कभी खिलखिलाकर हंस पड़ती है, तब उसके मोती

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एक साल बीत गया। पंडित मदनसिंह पहले तीर्थ यात्रा पर उधार खाए बैठे थे। जान पड़ता था, सदन के घर आते ही एक दिन भी न ठहरेंगे, सीधे बद्रीनाथ पहुंचकर दम लेंगे, पर जब से सदन आ गया है, उन्होंने भूलकर भी तीर्थ-

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कार्तिक का महीना था। पद्मसिंह सुभद्रा को लेकर गंगा-स्नान कराने ले गए थे। लौटती बार वह अलईपुर की ओर से आ रहे थे। सुभद्रा गाड़ी की खिड़की से बाहर झांकती चली आती थी और सोचती थी कि यहाँ इस सन्नाटे में लोग

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