shabd-logo

22

9 फरवरी 2022

28 बार देखा गया 28

सुमन पार्क से लौटी तो उसे खेद होने लगा कि मैंने शर्माजी को वे ही दुखानेवाली बातें क्यों कहीं उन्होंने इतनी उदारता से मेरी सहायता की, जिसका मैंने यह बदला दिया? वास्तव में मैंने अपनी दुर्बलता का अपराध उनके सिर मढ़ा। संसार में घर-घर नाच-गाना हुआ करता है, छोटे-बड़े, दीन-दुःखी सब देखते हैं और आनंद उठाते हैं। यदि मैं अपनी कुचेष्टाओं के कारण आग में कूद पड़ी, तो उसमें शर्माजी का या किसी और का क्या दोष? बाबू विट्ठलदास शहर के आदमियों के पास दौड़े, क्या वह उन सेठों के पास न गए होंगे जो यहां आते हैं? लेकिन किसी ने उनकी मदद न की, क्यों? इसलिए न की कि वे नहीं चाहते हैं कि मैं यहां से मुक्त हो जाऊं। मेरे चले जाने से उनकी काम-तृष्णा में विघ्न पड़ेगा। वे दयाहीन व्याघ्र के समान मेरे हृदय को घायल करके मेरे तड़पने का आनंद उठाना चाहते हैं। केवल एक ही पुरुष है, जिसने मुझे इस अंधकार से निकालने के लिए हाथ बढ़ाया, उसी का मैंने इतना अपमान किया।
मुझे मन में कितना कृतघ्न समझेंगे। वे मुझे देखते ही कैसे भागे, चाहिए तो यह था कि मैं लज्जा से वहीं गड़ जाती, केवल मैंने इस पापभय के लिए इतनी निर्लज्जता से उनका तिरस्कार किया! जो लोग अपने कलुषित भावों से मेरे जीवन को नष्ट कर रहे हैं, उनका मैं इतना आदर करती हूं! लेकिन जब व्याध पक्षी को अपने जाल में फंसते नहीं देखता, तो उसे उस पर कितना क्रोध आता है! बालक जब कोई अशुद्ध वस्तु छू लेता है, तो वह अन्य बालकों को दौड़-दौड़कर छूना चाहता है, जिससे वह भी अपवित्र हो जाएं। क्या मैं भी हृदय शून्य व्याध हूं या अबोध बालक?
किसी ग्रंथकार से पूछिए कि वह एक निष्पक्ष समालोचक के कटुवाक्यों के सामने विचारहीन प्रशंसा का क्या मूल्य समझता है। सुमन को शर्माजी की यह घृणा अन्य प्रेमियों की रसिकता से अधिक प्रिय मालूम होती थी।
रात-भर वह इन्हीं विचारों में डूबी रही। मन में निश्चय कर लिया कि प्रातःकाल विट्ठलदास के पास चलूंगी और उनसे कहूंगी कि मुझे आश्रय दीजिए। मैं आपसे कोई सहायता नहीं चाहती, केवल एक सुरक्षित स्थान चाहती हूं। चक्की पीसूंगी, कपड़े सीऊंगी और किसी तरह अपना निर्वाह कर लूंगी।
सबेरा हुआ। वह उठी और विट्ठलदास के घर चलने की तैयारी करने लगी कि इतने में वह स्वयं आ पहुंचे। सुमन को ऐसा आनंद हुआ, जैसे किसी भक्त को आराध्यदेव के दर्शन से होता है। बोली– आइए महाशय। मैं कल दिन-भर आपकी राह देखती रही।
विट्ठलदास– कल कई कारणों से नहीं आ सका।
सुमन– तो आपने मेरे रहने का कोई प्रबंध किया?
विट्ठलदास– मुझसे तो कुछ नहीं हो सका, लेकिन पद्मसिंह ने लाज रख ली। उन्होंने तुम्हारा प्रण पूरा कर दिया। वह अभी मेरे पास आए थे और वचन दे गए हैं कि तुम्हें पचास रुपए मासिक आजन्म देते रहेंगे।
सुमन के विस्मयपूर्ण नेत्र सजल हो गए। शर्माजी की इस महती उदारता ने उसके अंतःकरण को भक्ति, श्रद्धा और विमल प्रेम से प्लावित कर दिया। उसे अपने कटु वाक्यों पर अत्यंत क्षोभ हुआ। बोली– शर्माजी दया और धर्म के सागर हैं। इस जीवन में उनसे उऋण नहीं हो सकती। ईश्वर उन्हें सदैव सुखी रखे। लेकिन मैंने उस समय जो कुछ कहा था, वह केवल परीक्षा के लिए था। मैं देखना चाहती थी कि सचमुच मुझे उबारना चाहते हैं या केवल धर्म का शिष्टाचार कर रहे हैं। अब मुझे विदित हो गया कि आप दोनों सज्जन देवरूप हैं। आप लोगों को वृथा कष्ट नहीं देना चाहती। मैं सहानुभूति की भूखी थी, वह मुझे मिल गई। अब मैं अपने जीवन का भार आप लोगों पर नहीं डालूंगी। आप केवल मेरे रहने का कोई प्रबंध कर दें, जहां मैं विघ्न-बाधा से बची रह सकूं।
विट्ठलदास चकित हो गए। जातीय गौरव से आंखें चमक उठीं। उन्होंने सोचा, हमारे देश की पतित स्त्रियों के विचार भी ऐसे उच्च होते हैं। बोले– सुमन, तुम्हारे मुंह से ऐसे पवित्र शब्द सुनकर मुझे इस समय जो आनंद हो रहा है, उसका वर्णन नहीं कर सकता। लेकिन रुपयों के बिना तुम्हारा निर्वाह कैसे होगा?
सुमन– मैं परिश्रम करूंगी। देश में लाखों दुखियाएं हैं, उनका ईश्वर के सिवा और कौन सहायक है? अपनी निर्लज्जता का कर आपसे न लूंगी।
विट्ठलदास– वे कष्ट तुमसे सहे जाएंगे?
सुमन– पहले नहीं सहे जाते थे, लेकिन अब सब कुछ सह लूंगी। यहां आकर मुझे मालूम हो गया कि निर्लज्जता सब कष्टों से दुस्सह है। और कष्टों से शरीर को दुःख होता है, इस कष्ट से आत्मा का संहार हो जाता है। मैं ईश्वर को धन्यवाद देती हूं कि उसने आप लोगों को मेरी रक्षा के लिए भेज दिया।
विट्ठलदास– सुमन, तुम वास्तव में विदुषी हो।
सुमन– तो मैं यहां से कब चलूं?
विट्ठलदास– आज ही। अभी मैंने आश्रम की कमेटी में तुम्हारे रहने का प्रस्ताव नहीं किया है, लेकिन कोई हरज नहीं है, तुम वहां चलो, ठहरो। अगर कमेटी ने कुछ आपत्ति की तो देखा जाएगा हां, इतना याद रखना कि अपने विषय में किसी से कुछ मत कहना, नहीं तो विधवाओं में हलचल मच जाएगी।
सुमन– आप जैसा उचित समझें करें, मैं तैयार हूं।
विट्ठलदास– संध्या समय चलना होगा।
विट्ठलदास के जाने के थोड़ी ही देर बाद दो वेश्याएं सुमन से मिलने आईं। सुमन ने कह दिया, मेरे सिर में दर्द है। सुमन अपने ही हाथ से भोजन बनाती थी। पतित होकर भी वह खान-पान में विचार करती थी। आज उसने व्रत करने का निश्चय किया था। मुक्ति के दिन कैदियों को भी भोजन अच्छा नहीं लगता।
दोपहर दो धाड़ियों का गोल आ पहुंचा। सुमन ने उन्हें भी बहाना करके टाला। उसे अब उनकी सूरत से घृणा होती थी। सेठ बलभद्रदास के यहां से नागपुरी संतरे की एक टोकरी आई, उसे सुमन ने तुरंत लौटा दिया। चिम्मनलाल ने चार बजे अपनी फिटन सुमन के सैर करने को भेजी। उसने उसको भी लौटा दिया।
जिस प्रकार अंधकार के बाद अरुण का उदय होते ही पक्षी कलरव करने लगते हैं और बछड़े किलोलों में मग्न हो जाते हैं, उसी प्रकार सुमन के मन में भी क्रीड़ा करने की प्रबल इच्छा हुई। उसने सिगरेट की एक डिबिया मंगवाई और वार्निश की एक बोतल मंगवाकर ताक पर रख दी और एक कुर्सी का एक पाया तोड़कर कुर्सी छज्जे पर दीवार के सहारे रख दी। पांच बजते-बजते मुंशी अबुलवफा का आगमन हुआ। यह हजरत सिगरेट बहुत पीते थे। सुमन ने आज असाधारण रीति से उनकी आवभगत की और इधर-उधर की बातें करने के बाद बोली– आइए, आज आपको वह सिगरेट पिलाऊं कि आप भी याद करें।
अबुलवफा– नेकी और पूछ-पूछ!
सुमन– देखिए, एक अंग्रेजी दुकान से खास आपकी खातिर मंगवाया है। यह लीजिए।
अबुलवफा– तब तो मैं भी अपना शुमार खुशनसीबों में करूंगा। वाह रे मैं, वाह रे मेरे साजे जिगर की तासीर।
अबुलवफा ने सिगरेट मुंह में दबाया। सुमन ने दियासलाई की डिबिया निकाल कर एक सलाई रंगड़ी। अबुलवफा ने सिगरेट को जलाने के लिए मुंह आगे बढ़ाया, लेकिन न मालूम कैसे आग सिगरेट में न लगकर उनकी दाढ़ी में लग गई। जैसे पुआल जलता है, उसी तरह एक क्षण में दाढ़ी आधी से ज्यादा जल गई, उन्होंने सिगरेट फेंककर दोनों हाथों से दाढ़ी मलना शुरू किया। आग बुझ गई, मगर दाढ़ी का सर्वनाश हो चुका था। आईने में लपककर मुंह देखा। दाढ़ी का भस्मावशेष उबाली हुई सुथनी के रेशे की तरह मालुम हुआ। सुमन ने लज्जित होकर कहा– मेरे हाथों में आग लगे। कहां-से-कहां मैंने दियासलाई जलाई।
उसने बहुत रोका, पर हंसी ओठ पर आ गई। अबुलवफा ऐसे खिसियाए हुए थे, मानों अब वह अनाथ हो गए। सुमन की हंसी अखर गई। उस भोंड़ी सूरत पर खेद और खिसियाहट का अपूर्व दृश्य था। बोले– यह कब की कसर निकाली?
सुमन– मुंशीजी, मैं सच कहती हूं, ये दोनों आंखें फूट जाएं अगर मैंने जान-बूझकर आग लगाई हो। आपसे बैर भी होता, तो दाढ़ी बेचारी ने मेरा क्या बिगाड़ा था?
अबुलवफा– माशूकों की शोखी और शरारत अच्छी मालूम होती है, लेकिन इतनी नहीं कि मुंह जला दें। अगर तुमने आग से कहीं दाग दिया होता, तो इससे अच्छा था। अब यह भुन्नास की-सी सूरत लेकर मैं किसे मुंह दिखाऊंगा? वल्लाह! आज तुमने मटियामेट कर दिया।
सुमन– क्या करूं, खुद पछता रही हूं। अगर मेरे दाढी होती तो आपको दे देती। क्यों, नकली दाढ़ियां भी तो मिलती हैं?
अबुलवफा– सुमन, जख्म पर नमक न छिड़को। अगर दूसरे ने यह हरकत की होती, तो आज उसका खून पी जाता।
सुमन– अरे, तो थोड़े-से बाल ही जल गए न और कुछ। महीने-दो-महीने में फिर निकल आएंगे। जरा-सी बात के लिए आप इतनी हाय-हाय मचा रहे हैं।
अबुलवफा– सुमन, जलाओ मत, नहीं तो मेरी जबान से भी कुछ निकल जाएगा। मैं इस वक्त आपे में नहीं हूं।
सुमन– नारायण, नारायण, जरा-सी दाढ़ी पर इतने जामे के बाहर हो गए! मान लीजिए, मैंने जानकर ही दाढ़ी जला दी तो? आप मेरी आत्मा को, मेरे धर्म को, मेरे हृदय को रोज जलाते हैं, क्या उनका मूल्य आपकी दाढ़ी से कम है? मियां, आशिक बनना मुंह का नेवाला नहीं है। जाइए, अपने घर की राह लीजिए, अब कभी यहाँ न आइएगा। मुझे ऐसे छिछोरे आदमियों की जरूरत नहीं है।
अबुलवफा ने क्रोध से सुमन की ओर देखा, तब जेब से रुमाल निकाला और जली हुई दाढ़ी को उसकी आड़ में छिपाकर चुपके से चले गए। यह वही मनुष्य है, जिसे खुले बाजार एक वेश्या के साथ आमोद-प्रमोद में लज्जा नहीं आती थी।
अब सदन के आने का समय हुआ। सुमन आज उससे मिलने के लिए बहुत उत्कंठित थी। आज यह अंतिम मिलाप होगा। आज यह प्रेमाभिनय समाप्त हो जाएगा। वह मोहिनी-मूर्ति फिर देखने को न मिलेगी। उनके दर्शनों को नेत्र तरस-तरस रहेंगे। वह सरल प्रेम से भरी हुई मधुर बातें सुनने में न आएंगी। जीवन फिर प्रेमविहीन और नीरस हो जाएगा। कलुषित सही, पर यह प्रेम सच्चा था। भगवान मुझे यह वियोग सहने की शक्ति दीजिए। नहीं, इस समय सदन न आए तो अच्छा है, उससे न मिलने में ही कल्याण है। कौन जाने उसके सामने मेरा संकल्प स्थिर रह सकेगा या नहीं। पर वह आ जाता तो एक बार दिल खोलकर उससे बातें कर लेतीं, उसे इस कपट सागर में डूबने से बचाने की चेष्टा करती।
इतने में सुमन ने विट्ठलदास को एक किराए की गाड़ी में से उतरते देखा। उसका हृदय वेग से धड़कने लगा।
एक क्षण में विट्ठलदास ऊपर आ गए और बोले– अरे, अभी तुमने कुछ तैयारी नहीं की।
सुमन– मैं तैयार हूं।
विट्ठलदास– अभी बिस्तरे तक नहीं बंधे?
सुमन– यहां की कोई वस्तु साथ न ले जाऊंगी, यह वास्तव में मेरा पुनर्जन्म हो रहा है।
विट्ठलदास– इस सामान का क्या होगा?
सुमन– आप इसे बेचकर किसी शुभ कार्य में लगा दीजिएगा।
विट्ठलदास– अच्छी बात है, मैं यहां ताला डाल दूंगा। तो अब उठो, गाड़ी मौजूद है।
सुमन– दस बजे से पहले नहीं चल सकती। आज मुझे अपने प्रेमियों से विदा होना है। कुछ उनकी सुननी है, कुछ अपनी कहनी है। आप तब तक छत पर जाकर बैठिए, मुझे तैयार ही समझिए।
विट्ठलदास को बुरा मालूम हुआ, पर धैर्य से काम लिया। ऊपर जाकर खुली हुई छत पर टहलने लगे।
सात बज गए, लेकिन सदन न आया। आठ बजे तक सुमन उसकी राह देखती रही, अंत में वह निराश हो गई। जब से वह यहां आने लगा, आज ही उसने नागा किया। सुमन को ऐसा मालूम होता था, मानो वह किसी निर्जन स्थान में खो गई है। हृदय में एक अत्यंत तीव्र किंतु सरल, वेदनापूर्ण किंतु मनोहारी आकाक्षां का उद्वेग हो रहा था। मन पूछता था, उनके न आने का क्या कारण है? किसी अनिष्ट की आशंका ने उसे बेचैन कर दिया।
आठ बजे सेठ चिम्मनलाल आए। सुमन उनकी गाड़ी देखते ही छज्जे पर जा बैठी। सेठजी बहुत कठिनाई से ऊपर आए और हांफते हुए बोले– कहां हो देवी, आज बग्घी क्यों लौटा दी? क्या मुझसे कोई खता हो गई?
सुमन– यहीं छज्जे पर चले आइए, भीतर कुछ गर्मी मालूम होती है। आज सिर में दर्द था, सैर करने को जी नहीं चाहता था।
चिम्मनलाल– हिरिया को मेरे यहां क्यों नहीं भेज दिया, हकीम साहब से कोई नुस्खा तैयार करा देता। उनके पास तेलों के अच्छे-अच्छे नुस्खे हैं।
यह कहते हुए सेठजी कुर्सी पर बैठे, लेकिन तीन टांग की कुर्सी उलट गई, सेठजी का सिर नीचे हुआ और पैर ऊपर, और वह एक कपड़े की गांठ के समान औंधे मुंह लेट गए। केवल एक बार मुंह से ‘अरे’ निकला और फिर वह कुछ न बोले। जड़ ने चैतन्य को परास्त कर दिया।
सुमन डरी कि चोट ज्यादा आ गई। लालटेन लाकर देखा, तो हंसी न रुक सकी।
सेठजी ऐसे असाध्य पड़े थे, मानों पहाड़ से गिर पड़े हैं। पड़े-पड़े बोले– हाय राम, कमर टूट गई। जरा मेरे साईस को बुलवा दो, घर जाऊंगा।
सुमन– चोट बहुत आ गई क्या? आपने भी तो कुर्सी खींच ली, दीवार से टिककर बैठते तो कभी न गिरते। अच्छा, क्षमा कीजिएगा, मुझी से भूल हुई कि आपको सचेत न कर दिया। लेकिन आप जरा भी न संभले, बस गिर ही पड़े।
चिम्मनलाल– मेरी तो कमर टूट गई, और तुम्हें मसखरी सूझ रही है।
सुमन– तो अब इसमें मेरा क्या वश है? अगर आप हल्के होते, तो उठाकर बैठा देती। जरा खुद ही जोर लगाइए, अभी उठ बैठिएगा।
चिम्मनलाल– अब मेरा घर पहुंचना मुश्किल है। हाय! किस बुरी साइत से चले थे, जीने पर से उतरने में पूरी सांसत हो जाएगी। बाईजी, तुमने यह कब का बैर निकाला?
सुमन– सेठजी, मैं बहुत लज्जित हूं।
चिम्मनलाल– अजी रहने भी दो, झूठ-मूठ की बातें बनाती हो। तुमने मुझे जानकर गिराया।
सुमन– क्या आपसे मुझे कोई बैर था? और आपसे बैर हो भी, तो आपकी बेचारी कमर ने मेरा क्या बिगाड़ा था?
चिम्मनलाल– अब यहां आनेवाले पर लानत है।
सुमन– सेठजी, आप इतनी जल्दी नाराज हो गए। मान लीजिए, मैंने जानबूझकर ही आपको गिरा दिया, तो क्या हुआ?
इतने में विट्ठलदास ऊपर से उतर आए। उन्हें देखते ही सेठजी चौंक पड़े। घड़ों पानी पड़ गया।
विट्ठलदास ने हंसी को रोककर पूछा– कहिए सेठजी, आप यहां कैसे आ फंसे? मुझे आपको यहां देखकर बड़ा आश्चर्य होता है।
चिम्मनलाल– इस घड़ी न पूछिए। फिर यहां आऊं तो मुझ पर लानत है। मुझे किसी तरह यहां से नीचे पहुंचाइए।
विट्ठलदास ने एक हाथ थामा, साईस ने आकर कमर पकड़ी। इस तरह लोगों ने उन्हें किसी तरह जीने से उतारा और लाकर गाड़ी में लिटा दिया।
ऊपर आकर विट्ठलदास ने कहा– गाड़ीवाला अभी तक खड़ा है, दस बज गए। अब विलंब न करो।
सुमन ने कहा– अभी एक काम और करना है। पंडित दीनानाथ आते होंगे। बस, उनसे निपट लूं। आप थोड़ा-सा कष्ट और कीजिए।
विट्ठलदास ऊपर जाकर बैठे ही थे कि पंडित दीनानाथ आ पहुंचे। बनारसी साफा सिर पर था, बदन पर रेशमी अचकन शोभायमान थी। काले किनारे की महीन धोती और काली वार्निश के पंप जूते उनके शरीर पर खूब जंचते थे।
सुमन ने कहा– आइए महाराज! चरण छूती हूं।
दीनानाथ– आशीर्वाद, जवानी बढ़े, आंख के अंधे गांठ के पूरे फंसे, सदा बढ़ती रहो।
सुमन– कल आप कैसे नहीं आए, समाजियों को लिए रात तक आपकी राह देखती रही।
दीनानाथ– कुछ न पूछो, कल एक रमझल्ले में फंस गया था। डॉक्टर श्यामाचरण और प्रभाकर राव स्वराज्य की सभा में घसीट ले गए। वहां बकझक-झकझक होती रही। मुझसे सबने व्याख्यान देने को कहा। मैंने कहा, मुझे कोई उल्लू समझा है क्या? पीछा छुड़ाकर भागा। इसी में देरी हो गई।
सुमन– कई दिन हुए, मैंने आपसे कहा था कि किवाड़ों में वार्निश लगवा दीजिए। आपने कहा, वार्निश कहीं मिलती ही नहीं। यह देखिए, आज मैंने एक बोतल वार्निश मंगा रखी है। कल जरूर लगवा दीजिए।
पंडित दीनानाथ मसनद लगाए बैठे थे। उनके सिर पर ही वह ताक था, जिस पर वार्निश रखी हुई थी। सुमन ने बोतल उठाई, लेकिन मालूम नहीं, कैसे बोतल की पेंदी अलग हो गई और पंडितजी वार्निश से नहा उठे। ऐसा मालूम होता था, मानो शीरे की नांद में फिसल पड़े हों। वह चौंककर खड़े हुए और साफा उतारकर रुमाल से पोंछने लगे।
सुमन ने कहा– मालूम नहीं, बोतल टूटी थी क्या– सारी वार्निश खराब हो गई।
दीनानाथ– तुम्हें अपनी वार्निश की पड़ी है, यहां सारे कपड़े तर हो गए। अब घर तक पहुंचना मुश्किल है।
सुमन– रात को कौन देखता है, चुपके से निकल जाइएगा।
दीनानाथ– अजी, रहने भी दो, सारे कपड़े सत्यानाश कर दिए, अब उपाय बता रही हो। अब यह धुल भी नहीं सकते।
सुमन– तो क्या मैंने जान-बुझकर गिरा दिया।
दीनानाथ– तुम्हारे मन का हाल कौन जाने?
सुमन– अच्छा जाइए, जानकर ही गिरा दिया।
दीनानाथ– अरे, तो मैं कुछ कहता हूं, जी चाहे और गिरा दो।
सुमन– बहुत होगा अपने कपड़ों की कीमत ले लीजिएगा।
दीनानाथ– खफा क्यों होती हो, सरकार? मैं तो कह रहा हूं, गिरा दिया, अच्छा किया।
सुमन– इस तरह कह रहे हैं, मानों मेरे साथ बड़ी रियायत कर रहे हैं।
दीनानाथ– सुमन, क्यों लज्जित करती हो?
सुमन– जरा-सा कपड़े खराब हो गए, उस पर ऐसे जामे से बाहर हो गए, यही आपकी मुहब्बत है, जिसकी कथा सुनते-सुनते मेरे कान पक गए। आज उसकी कलई खुल गई। जादू सिर पर चढ़के बोला। आपने अच्छे समय पर मुझे सचेत कर दिया। अब कृपा करके घर जाइए। यहां फिर न आइएगा। मुझे आप जैसे मियां मिट्ठुओं की जरूरत नहीं।
विट्ठलदास ऊपर बैठे हुए कौतुक देख रहे थे। समझ लिया कि अब अभिनय समाप्त हो गया। नीचे उतर आए। दीनानाथ ने चौंककर उन्हें देखा और छड़ी उठाकर शीघ्रतापूर्वक नीचे चले आए।
थोड़ी देर बाद सुमन ऊपर से उतरी। वह केवल एक उजली साड़ी पहने थी, हाथों में चूड़ियां तक न थीं। उसका मुख उदास था, लेकिन इसलिए नहीं कि यह भोग-विलास अब उससे छूट रहा है, वरन् इसलिए कि वह अग्निकुंड में गिरी क्यों थी। इस उदासीनता में मलिनता न थी, वरन् एक प्रकार का संयम था। यह किसी मदिरा-सेवी मुख पर छानेवाली उदासी नहीं थी, बल्कि उसमें त्याग और विचार आभासित हो रहा था।
विट्ठलदास ने मकान में ताला डाल दिया और गाड़ी के कोच-बक्स पर जा बैठे। गाड़ी चली।
बाजारों की दुकानें बंद थीं, लेकिन रास्ता चल रहा था। सुमन ने खिड़की से झांककर देखा। उसे आगे लालटेनों की एक सुंदर माला दिखाई दी। लेकिन ज्यों-ज्यों गाड़ी बढ़ती जाती थी, त्यों-त्यों वह प्रकाशमाला भी आगे बढ़ती जाती थी। थोड़ी दूर पर लालटेनें मिलती थीं, पर वह ज्योतिर्माला अभिलाषाओं के सदृश दूर भागती जाती थी।
गाड़ी वेग से जा रही थी। सुमन का भावी जीवन-यान भी विचार-सागर में वेग के साथ हिलता, डगमगाता, तारों के ज्योतिर्जाल में उलझता चला जाता था।
 

55
रचनाएँ
सेवासदन
5.0
प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। सेवासदन में नारी जीवन की समस्याओं के साथ-साथ समाज के धर्माचार्यों, मठाधीशों, धनपतियों, सुधारकों के आडंबर, दंभ, ढोंग, पाखंड, चरित्रहीनता, दहेज-प्रथा, बेमेल विवाह, पुलिस की घूसखोरी, वेश्यागमन, मनुष्य के दोहरे चरित्र, साम्प्रदायिक द्वेष आदि सामाजिक विकृतियों का विवरण मिलता है।सेवासदन उपन्यास की मुख्य समस्या क्या है? “सेवासदन” में प्रेमचन्द दिखाते है कि हमारी सामाजिक कुरीतियाँ स्त्रियों के जीवन को विवश करती है । इसकी मुख्य समस्या मध्य वर्गीय लोगों की आडंबर प्रियता से संबंधित है । प्रेमचन्द यह बताना चाहता है कि मनुष्य को जीने के लिए धन द्वारा प्राप्त सुख के समान मन द्वारा प्राप्त सुख भी चाहिए ।प्रेमचंद ने जहाँ एक ओर नारी की सामाजिक पराधीनता उसके फलसवरूप उत्पन्न समस्याओं को अपने इस उपन्यास में अभिव्यक्ति प्रदान की है, वहीं दूसरी ओर यह भी दिखलाया है कि किस प्रकार उनके नारी-पात्र उपन्यास के अंत तक आते-आते सामाजिक अन्याय से मुक्ति पाने का मार्ग स्वयं ही खोज देते हैं।
1

सेवासदन (भाग 1)

9 फरवरी 2022
1
1
1

1 पश्चाताप के कड़वे फल कभी-न-कभी सभी को चखने पड़ते हैं, लेकिन और लोग बुराईयों पर पछताते हैं, दारोगा कृष्णचन्द्र अपनी भलाइयों पर पछता रहे थे। उन्हें थानेदारी करते हुए पच्चीस वर्ष हो गए, लेकिन उन्हों

2

2

9 फरवरी 2022
0
0
0

दारोगाजी के हल्के में एक महन्त रामदास रहते थे। वह साधुओं की एक गद्दी के महंत थे। उनके यहां सारा कारोबार ‘श्री बांकेबिहारीजी’ के नाम पर होता था। ‘श्री बांकेबिहारीजी’ लेन-देन करते थे और बत्तीस रुपये प्र

3

3

9 फरवरी 2022
0
0
0

पण्डित कृष्णचन्द्र रिश्वत लेकर उसे छिपाने के साधन न जानते थे । इस विषय में अभी नोसिखुए थे । उन्हें मालूम न था कि हराम का माल अकेले मुश्किल से पचता है । मुख्तार ने अपने मन मे कहा, हमीं ने सब कुछ किया औ

4

4

9 फरवरी 2022
0
0
0

कृष्णचन्द्र अपने कस्बे में सर्वप्रिय थे । यह खबर फैलते ही सारी बस्ती में हलचल मच गई । कई भले आदमी उनकी जमानत करने आये लेकिन साहब ने जमानत न ली । इसके एक सप्ताह बाद कृष्णचन्द्र पर रिश्वत लेने का अभियो

5

5

9 फरवरी 2022
0
0
0

फागुन में सुमन का विवाह हो गया। गंगाजली दामाद को देखकर बहुत रोई। उसे ऐसा दुःख हुआ, मानो किसी ने सुमन को कुएं में डाल दिया। सुमन ससुराल आई तो यहां की अवस्था उससे भी बुरी पाई, जिसकी उसने कल्पना की थी।

6

7

9 फरवरी 2022
0
0
0

सुमन को ससुराल आए डेढ़ साल के लगभग हो चुका था, पर उसे मैके जाने का सौभाग्य न हुआ था। वहां से चिट्ठियां आती थीं। सुमन उत्तर में अपनी मां को समझाया करती, मेरी चिंता मत करना, मैं बहुत आनंद से हूं, पर अब

7

8

9 फरवरी 2022
0
0
0

गजाधरप्रसाद की दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो चोरों के बीच में अशर्फियों की थैली लिए बैठा हो। सुमन का वह मुख-कमल, जिस पर वह कभी भौंरे की भांति मंडराया करता था, अब उसकी आँखों में जलती हुई आग के समान था। वह

8

9

9 फरवरी 2022
0
0
0

दूसरे दिन से सुमन ने चिक के पास खड़ा होना छोड़ दिया। खोंचेवाले आते और पुकार कर चले जाते। छैले गजल गाते हुए निकल जाते। चिक की आड़ में अब उन्हें कोई न दिखाई देता था। भोली ने कई बार बुलाया, लेकिन सुमन ने

9

10

9 फरवरी 2022
0
0
0

दूसरे दिन सुमन नहाने न गई। सबेरे ही से अपनी एक रेशमी साड़ी की मरम्मत करने लगी। दोपहर को सुभद्रा की एक महरी उसे लेने आई। सुमन ने मन में सोचा था, गाड़ी आवेगी। उसका जी छोटा हो गया। वही हुआ जिसका उसे भ

10

11

9 फरवरी 2022
0
0
0

दरवाजे पर आकर सुमन सोचने लगी कि अब कहां जाऊं। गजाधर की निर्दयता से भी उसे दुःख न हुआ था, जितना इस समय हो रहा था। उसे अब मालूम हुआ कि मैंने अपने घर से निकलकर बड़ी भूल की। मैं सुभद्रा के बल पर कूद रही थ

11

सेवासदन (भाग-2)

9 फरवरी 2022
0
0
0

12 पद्मसिंह के एक बड़े भाई मदनसिंह थे। वह घर का कामकाज देखते थे। थोड़ी-सी जमींदारी थी, कुछ लेन-देन करते थे। उनके एक ही लड़का था, जिसका नाम सदनसिंह था। स्त्री का नाम भामा था। मां-बाप का इकलौता लड़का

12

13

9 फरवरी 2022
0
0
0

सुमन के चले जाने के बाद पद्मसिंह के हृदय में एक आत्मग्लानि उत्पन्न हुई– मैंने अच्छा नहीं किया। न मालूम वह कहां गई। अपने घर चली गई तो पूछना ही क्या, किन्तु वहां वह कदापि न गई होगी। मरता क्या न करता, कह

13

14

9 फरवरी 2022
0
0
0

दूसरे दिन पद्मसिंह सदन को साथ किसी लेकर स्कूल में दाखिल कराने चले। किंतु जहां गए, साफ जवाब मिला ‘स्थान नहीं है।’ शहर में बारह पाठशालाएं थीं। लेकिन सदन के लिए कहीं स्थान न था। शर्माजी ने विवश होकर निश

14

15

9 फरवरी 2022
0
0
0

प्राचीन ऋषियों ने इंद्रियों को दमन करने के दो साधन बताए हैं– एक राग, दूसरा वैराग्य। पहला साधन अत्यंत कठिन और दुस्साध्य है। लेकिन हमारे नागरिक समाज ने अपने मुख्य स्थानों पर मीनाबाजार सजाकर इसी कठिन मार

15

16

9 फरवरी 2022
0
0
0

महाशय विट्ठलदास इस समय ऐसे खुश थे मानों उन्हें कोई संपत्ति मिल गई हो। उन्हें विश्वास था कि पद्मसिंह इस जरा से कष्ट से मुंह न मोड़ेंगे, केवल उनके पास जाने की देर है। वह होली के कई दिन पहले से शर्माजी क

16

17

9 फरवरी 2022
0
0
0

संध्या का समय है। सदन अपने घोड़े पर सवार दालमंडी में दोनों तरफ छज्जों और खिड़कियों की ओर ताकता जा रहा है। जब से सुमन वहां आई है, सदन उसके छज्जे के सामने किसी-न-किसी बहाने से जरा देर के लिए अवश्य ठहर ज

17

18

9 फरवरी 2022
0
0
0

बाबू विट्ठलदास अधूरा काम न करते थे। पद्मसिंह की ओर से निराश होकर उन्हें यह चिंता होने लगी कि सुमनबाई के लिए पचास रुपए मासिक का चंदा कैसे करूं? उनकी स्थापित की हुई संस्थाएं चंदों ही से चल रही थीं, लेकि

18

19

9 फरवरी 2022
0
0
0

शाम हो गई। सुमन ने दिन-भर विट्ठलदास की राह देखी, लेकिन वह अब तक नहीं आए। सुमन के मन में जो नाना प्रकार की शंकाएं उठ रही थीं, वह पुष्ट हो गईं। विट्ठलदास अब नहीं आएंगे, अवश्य कोई विघ्न पड़ा। या तो वह कि

19

20

9 फरवरी 2022
0
0
0

सुभद्रा को संध्या के समय कंगन की याद आई। लपकी हुई स्नान-घर में गई। उसे खूब याद था कि उसने यहीं ताक पर रख दिया था, लेकिन उसका वहाँ पता न था। इस पर वह घबराई। अपने कमरे के प्रत्येक ताक और आलमारी को देखा,

20

21

9 फरवरी 2022
0
0
0

विट्ठलदास को संदेह हुआ कि सुमन तीस रुपए मासिक स्वीकार करना नहीं चाहती, इसलिए उसने कल उत्तर देने का बहाना करके मुझे टाला है। अतएव वे दूसरे दिन उसके पास नहीं गए, इसी चिंता में पड़े रहे कि शेष रुपयों का

21

22

9 फरवरी 2022
0
0
0

सुमन पार्क से लौटी तो उसे खेद होने लगा कि मैंने शर्माजी को वे ही दुखानेवाली बातें क्यों कहीं उन्होंने इतनी उदारता से मेरी सहायता की, जिसका मैंने यह बदला दिया? वास्तव में मैंने अपनी दुर्बलता का अपराध उ

22

23

9 फरवरी 2022
0
0
0

सदन प्रातःकाल घर गया, तो अपनी चाची के हाथों में कंगन देखा। लज्जा से उसकी आंखें जमीन में गड़ गईं। नाश्ता करके जल्दी से बाहर निकल आया और सोचने लगा, यह कंगन इन्हें कैसे मिल गया? क्या यह संभव है कि सुमन

23

24

9 फरवरी 2022
1
1
0

यह बात बिल्कुल तो असत्य नहीं है कि ईश्वर सबको किसी-न-किसी हीले से अन्न-वस्त्र देता है। पंडित उमानाथ बिना किसी हीले ही के संसार का सुख-भोग करते थे। उनकी आकाशी वृत्ति थी। उनके भैंस और गाएं न थीं, लेकिन

24

25

9 फरवरी 2022
0
0
0

सार्वजनिक संस्थाएं भी प्रतिभाशाली मनुष्य की मोहताज होती हैं। यद्यपि विट्ठलदास के अनुयायियों की कमी न थी, लेकिन उनमें प्रायः सामान्य अवस्था के लोग थे। ऊंची श्रेणी के लोग उनसे दूर भागते थे। पद्मसिंह के

25

26

9 फरवरी 2022
0
0
0

रात के नौ बजे थे। पद्मसिंह भाई के साथ बैठे हुए विवाह के संबंध में बातचीत कर रहे थे। कल बारात जाएगी। दरवाजे पर शहनाई बज रही थी और भीतर गाना हो रहा था। मदनसिंह– तुमने जो गाड़ियां भेजी हैं; वह कल शाम तक

26

27

9 फरवरी 2022
0
0
0

बरसात के दिन थे, छटा छाई हुई थी। पंडित उमानाथ चुनारगढ़ के निकट गंगा के तट पर खड़े नाव की बाट जोह रहे थे। वह कई गांवों का चक्कर लगाते हुए आ रहे थे और संध्या होने से पहले चुनार के पास एक गांव में जाना च

27

28

9 फरवरी 2022
0
0
0

पंडित उमानाथ सदनसिंह का फलदान चढ़ा आए हैं। उन्होंने जाह्नवी से गजानन्द की सहायता की चर्चा नहीं की थी। डरते थे कि कहीं यह इन रुपयों को अपनी लड़कियों के विवाह के लिए रख छोड़ने पर जिद्द न करने लगे। जाह्न

28

29

9 फरवरी 2022
0
0
0

एक रोज उमानाथ ने कृष्णचन्द्र के सहचरों को धमकाकर कहा– अब तुमलोगों को उनके साथ बैठकर चरस पीते देखा तो तुम्हारी कुशल नहीं। एक-एक की बुरी तरह खबर लूंगा। उमानाथ का रोब सारे गांव पर छाया हुआ था। वे सब-के-स

29

सेवासदन (भाग-3)

10 फरवरी 2022
0
0
0

30 शहर की म्युनिसिपैलिटी में कुल अठारह सभासद थे। उनमें आठ मुसलमान थे और दस हिन्दू। सुशिक्षित मेंबरों की संख्या अधिक थी, इसलिए शर्माजी को विश्वास था कि म्युनिसिपैलिटी में वेश्याओं को नगर से बाहर निकाल

30

31

10 फरवरी 2022
0
0
0

इस प्रस्ताव के विरोध में हिंदू मेंबरों को जब मुसलमानों के जलसे का हाल मालूम हुआ तो उनके कान खड़े हुए। उन्हें मुसलमानों से जो आशा थी, वह भंग हो गई। कुल दस हिंदू थे। सेठ बलभद्रदास चेयरमैन थे। डॉक्टर श्य

31

32

10 फरवरी 2022
0
0
0

जिस प्रकार कोई आलसी मनुष्य किसी के पुकारने की आवाज सुनकर जाग जाता है, किंतु इधर-उधर देखकर फिर निद्रा में मग्न हो जाता है, उसी प्रकार पंडित कृष्णचन्द्र क्रोध और ग्लानि का आवेश शांत होने पर अपने कर्त्तव

32

33

10 फरवरी 2022
0
0
0

सदन के विवाह का दिन आ गया। चुनार से बारात अमोला चली। उसकी तैयारियों का वर्णन व्यर्थ है। जैसी अन्य बारातें होती हैं, वैसी ही यह भी थी। वैभव और दरिद्रता का अत्यन्त करुणात्मक दृश्य था। पालकियों पर कारचोब

33

34

10 फरवरी 2022
0
0
0

विट्ठलदास ने सुमन को विधवाश्रम में गुप्त रीति से रखा था। प्रबंधकारिणी सभा के किसी सदस्य को इत्तिला न दी थी। आश्रम की विधवाओं से उसे विधवा बताया था। लेकिन अबुलवफा जैसे टोहियों से यह बात बहुत दिनों तक ग

34

35

10 फरवरी 2022
0
0
0

यद्यपि डॉक्टर साहब का बंगला निकट ही था, पर इन दोनों आदमियों ने एक किराए की गाड़ी की। डॉक्टर साहब के यहां पैदल जाना फैशन के विरुद्ध था। रास्ते में विट्ठलदास ने आज के सारे समाचार बढ़ा-चढ़ाकर बयान किए और

35

36

10 फरवरी 2022
0
0
0

सदन जब घर पर पहुंचा, तो उसके मन की दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो बरसों की कमाई लिए, मन में सहस्रों मंसूबे बांधता, हर्ष से उल्लसित घर आए और यहां संदूक खोलने पर उसे मालूम हो कि थैली खाली पड़ी है। विचारों

36

37

10 फरवरी 2022
0
0
0

सदन को व्याख्यानों की ऐसी चाट पड़ी कि जहां कहीं व्याख्यान की खबर पाता, वहां अवश्य जाता, दोनों पक्षों की बातें महीनों सुनने और उन पर विचार करने से उसमें राय स्थिर करने की योग्यता आने लगी। अब वह किसी यु

37

38

10 फरवरी 2022
0
0
0

जिस दिन से बारात लौट गई, उसी दिन से कृष्णचन्द्र फिर से बाहर नहीं निकले। मन मारे हुए अपने कमरे में बैठे रहते। उन्हें अब किसी को अपना मुंह दिखाते लज्जा आती थी। दुश्चरित्रा सुमन ने उन्हें संसार की दृष्टि

38

39

10 फरवरी 2022
0
0
0

प्रातःकाल यह शोक-समाचार अमोला में फैल गया। इने-गिने सज्जनों को छोड़कर कोई भी उमानाथ के द्वार पर संवेदना प्रकट करने न आया। स्वाभाविक मृत्यु हुई होती, तो संभवतः उनके शत्रु भी आकर चार आंसू बहा जाते, पर आ

39

40

10 फरवरी 2022
0
0
0

पद्मसिंह का पहला विवाह उस समय हुआ था, जब वह कॉलेज में पढ़ते थे, और एम. ए. पास हुए, तो वह एक पुत्र के पिता थे। पर बालिका वधू शिशु-पालन का मर्म न जानती थी। बालक जन्म के समय तो हृष्ट-पुष्ट था, पर पीछे धी

40

42

10 फरवरी 2022
0
0
0

शान्ता ने पत्र तो भेजा, पर उसको उत्तर आने की कोई आशा न थी। तीन दिन बीत गए, उसका नैराश्य दिनों-दिन बढ़ता जा रहा था। अगर कुछ अनुकूल उत्तर न आया, तो उमानाथ अवश्य ही उसका विवाह कर देंगे, यह सोचकर शान्ता क

41

43

10 फरवरी 2022
0
0
0

शान्ता को आश्रम में आए एक मास से ऊपर हो गया, लेकिन पद्मसिंह ने अभी तक अपने घर में किसी से इसकी चर्चा नहीं की। कभी सोचते, भैया को पत्र लिखूं, कभी सोचते, चलकर उनसे कहूं, कभी विट्ठलदास को भेजने का विचार

42

44

10 फरवरी 2022
0
0
0

पद्मसिंह की आत्मा किसी भांति इस तरमीम के स्वीकार करने में अपनी भूल स्वीकार न करती थी। उन्हें कदापि यह आशा न थी कि उनके मित्रगण एक गौण बात पर उनका इतना विरोध करेंगे। उन्हें प्रस्ताव के एक अंश के अस्वीक

43

45

10 फरवरी 2022
0
0
0

सदन जब सुमन को देखकर लौटा, तो उसकी दशा उस दरिद्र मनुष्य की-सी थी, जिसका वर्षों का धन चोरों ने हर लिया हो। वह सोचता था, सुमन मुझसे बोली क्यों नहीं, उसने मेरी ओर ताका क्यों नहीं? क्या वह मुझे इतना नीच

44

सेवासदन (भाग-4)

10 फरवरी 2022
0
0
0

46 सदन को ऐसी ग्लानि हो रही थी, मानों उसने कोई बड़ा पाप किया हो। वह बार-बार अपने शब्दों पर विचार करता और यही निश्चय करता कि मैं बड़ा निर्दय हूं। प्रेमाभिलाषा ने उसे उन्मत्त कर दिया था। वह सोचता, मुझ

45

47

10 फरवरी 2022
0
0
0

प्रभाकर राव का क्रोध बहुत कुछ तो सदन के लेखों से ही शांत हो गया था और जब पद्मसिंह ने सदन के आग्रह से सुमन का पूरा वृत्तांत उन्हें लिख भेजा, तो वह सावधान हो गए। म्युनिसपैलिटी में प्रस्ताव को पास हुए ल

46

48

10 फरवरी 2022
0
0
0

एक महीना बीत गया। सदन ने अपने इस नए धंधे की चर्चा घर में किसी से न की। वह नित्य सबेरे उठकर गंगा-स्नान के बहाने चला जाता। वहां से दस बजे घर आता। भोजन करके फिर चल देता और तब का गया-गया घड़ी रात गए, घर ल

47

49

10 फरवरी 2022
0
0
0

बाबू विट्ठलदास न्यायप्रिय सरल मनुष्य थे, जिधर न्याय खींच ले जाता, उधर चले जाते थे। इसमें लेश-मात्र भी संकोच न होता था। जब उन्होंने पद्मसिंह को न्यायपथ से हटते देखा, तो उनका साथ छोड़ दिया और कई महीने त

48

50

10 फरवरी 2022
0
0
0

सदनसिंह का विवाह संस्कार हो गया। झोंपड़ा खूब सजाया गया था। वही मंडप का काम दे रहा था, लेकिन कोई भीड़-भाड़ न थी। पद्मसिंह उस दिन घर चले गए और मदनसिंह से सब समाचार कहा। वह यह सुनते ही आग हो गए, बोले– म

49

51

10 फरवरी 2022
0
0
0

जैसे सुंदर भाव के समावेश से कविता में जान पड़ जाती है और सुंदर रंगों से चित्र में, उसी प्रकार दोनों बहनों के आने से झोंपड़ी में जान आ गई। अंधी आंखों में पुतलियां पड़ गई हैं। मुर्झाई हुई कली शान्ता अब

50

52

10 फरवरी 2022
0
0
0

पंडित पद्मसिंह के चार-पांच मास के सदुद्योग का यह फल हुआ कि बीस-पच्चीस वेश्याओं ने अपनी लड़कियों को अनाथालय में भेजना स्वीकार कर लिया। तीन वेश्याओं ने अपनी सारी संपत्ति अनाथालय के निमित्त अर्पण कर दी,

51

53

10 फरवरी 2022
0
0
0

पंडित मदनसिंह की कई महीने तक यह दशा थी कि जो कोई उनके पास आता, उसी से सदन की बुराई करते-कपूत है, भ्रष्ट है, शोहदा है, लुच्चा है, एक कानी कौड़ी तो दूंगा नहीं, भीख मांगता फिरेगा, तब आटे-दाल का भाव मालूम

52

54

10 फरवरी 2022
0
0
0

जिस प्रकार कोई मनुष्य लोभ के वश होकर आभूषण चुरा लेता है, पर विवेक होने पर उसे देखने में भी लज्जा आती है, उसी प्रकार सदन भी सुमन से बचता फिरता था। इतना ही नहीं, वह उसे नीची दृष्टि से देखता था और उसकी उ

53

55

10 फरवरी 2022
0
0
0

संध्या का समय है। आकाश पर लालिमा छाई हुई है और मंद वायु गंगा की लहरों पर क्रीड़ा कर रही है, उन्हें गुदगुदा रही है। वह अपने करुण नेत्रों से मुस्कराती है और कभी-कभी खिलखिलाकर हंस पड़ती है, तब उसके मोती

54

56

10 फरवरी 2022
0
0
0

एक साल बीत गया। पंडित मदनसिंह पहले तीर्थ यात्रा पर उधार खाए बैठे थे। जान पड़ता था, सदन के घर आते ही एक दिन भी न ठहरेंगे, सीधे बद्रीनाथ पहुंचकर दम लेंगे, पर जब से सदन आ गया है, उन्होंने भूलकर भी तीर्थ-

55

57

10 फरवरी 2022
0
0
0

कार्तिक का महीना था। पद्मसिंह सुभद्रा को लेकर गंगा-स्नान कराने ले गए थे। लौटती बार वह अलईपुर की ओर से आ रहे थे। सुभद्रा गाड़ी की खिड़की से बाहर झांकती चली आती थी और सोचती थी कि यहाँ इस सन्नाटे में लोग

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए