सदन के विवाह का दिन आ गया। चुनार से बारात अमोला चली। उसकी तैयारियों का वर्णन व्यर्थ है। जैसी अन्य बारातें होती हैं, वैसी ही यह भी थी। वैभव और दरिद्रता का अत्यन्त करुणात्मक दृश्य था। पालकियों पर कारचोबी के परदे पड़े हुए थे, लेकिन कहारों की वर्दियां फटी हुईं और बेड़ौल थीं। गंगाजमुनी सोटे और बल्लम फटेहाल मजदूरों के हाथों में बिल्कुल शोभा नहीं देते थे।
अमोला यहां से कोई दस कोस था। रास्ते में एक नदी पड़ती थी। बारात नावों पर उतरी। मल्लाहों से खेवे के लिए घंटों सिरमगजन हुआ, तब कहीं जाकर उन्होंने नावें खोलीं। मदनसिंह ने बिगड़कर कहा– न हुए तुमलोग हमारे गांव में, नहीं तो इतना बेगार लेता कि याद करते। लेकिन पद्मसिंह मल्लाहों की इस ढिठाई पर मन में प्रसन्न थे। उन्हें इसमें मल्लाहों का सच्चा प्रेम दिखाई देता था।
संध्या समय बारात अमोला पहुंची। पद्मसिंह के मोहर्रिर ने वहां पहले से ही शामियाना खड़ा कर रखा था। छोलदारियां भी लगी हुई थीं। शामियाना झाड़, फानूस और हांडियों में सुसज्जित था। कारचोबी, मसनद, गावतकिए और इत्रदान आदि अपने-अपने स्थान पर रखे हुए थे। धूम थी कि नाच के कई डेरे आए हैं।
द्वार-पूजा हुई, उमानाथ कंधे पर एक अंगोछा डाले हुए बारात का स्वागत करते थे। गांव की स्त्रिया दालान में खड़ी मंगलाचरण गाती थीं। बाराती लोग यह देखने की चेष्टा कर रहे थे कि इनमें से कौन सबसे सुंदर है। स्त्रियां भी मुस्कुरा-मुस्कराकर उन पर नयनों की कटार चला रही थीं। जाह्नवी उदास थी, वह मन में सोच रही थी कि यह घर मेरी चन्द्रा को मिलता तो अच्छा होता। सुभागी यह जानने के लिए उत्सुक थी कि समधी कौन हैं। कृष्णचन्द्र सदन के चरणों की पूजा कर रहे थे और मन में शंका कर रहे थे कि यह कौन-सा उल्टा रिवाज है। मदनसिंह ध्यान से देख रहे थे कि थाल में कितने रुपए हैं।
बारात जनवासे को चली। रसद का सामान बंटने लगा। चारों ओर कोलाहल होने लगा। कोई कहता था, मुझे घी कम मिला, कोई गोहार लगाता था कि मुझे उपले नहीं दिए गए। लाला बैजनाथ शराब के लिए जिद कर रहे थे।
सामान बंट चुका, तो लोगों ने उपले जलाए और हांडियां चढ़ाई। धुएं से गैस का प्रकाश पीला पड़ गया।
सदन मसनद लगाकर बैठा। महफिल सज गई। काशी के संगीत-समाज ने श्याम-कल्याण धुन छेड़ी।
सहस्रों मनुष्य शामियाने के चारों ओर खड़े थे। कुछ लोग मिर्जई पहने, पगड़ी बांधे फर्श पर बैठे थे। लोग एक-दूसरे से पूछते थे कि डेरे कहां हैं? कोई इस छोलदारी में झांकता था, कोई उस छोलदारी में और कौतूहल से कहता था, कैसी बारात है कि एक डेरा भी नहीं, कहां के कंगले हैं। यह बड़ा-सा शामियाना काहे को खड़ा कर रखा है। मदनसिंह ये बातें सुन-सुनकर मन में पद्मसिंह के ऊपर कुड़बड़ा रहे थे और पद्मसिंह लज्जा और भय के मारे उनके सामने न आ सकते थे।
इतने में लोगों ने शामियाने पर पत्थर फेंकना शुरू किया। लाला बैजनाथ उठकर छोलदारी में भागे। कुछ लोग उपद्रवकारियों को गाली देने लगे। एक हलचल-सी मच गई। कोई इधर भागता, कोई उधर, कोई गाली बकता था, कोई मार-पीट करने पर उतारू था। अकस्मात् एक दीर्घकाय पुरुष सिर मुड़ाए, भस्म रमाए, हाथ में एक त्रिशूल लिए आकर महफिल में खड़ा हो गया। उसके लाल नेत्र दीपक के समान जल रहे थे और मुख-मंडल में प्रतिभा की ज्योति स्फुटित हो रही थी। महफिल में सन्नाटा छा गया। सब लोग आंखें फाड़-फाड़कर महात्मा की ओर ताकने लगे। यह साधु कौन है? कहां से आ गया?
साधु ने त्रिशूल ऊंचा किया और तिरस्कारपूर्ण स्वर से बोला– हा शोक! यहां कोई नाच नहीं, कोई वेश्या नहीं, सब बाबा लोग उदास बैठे हैं। श्याम-कल्याण की धुन कैसी है, पर कोई नहीं सुनता, किसी के कान नहीं, सब लोग वेश्या का नाच देखना चाहते हैं। या तो उन्हें नाच दिखाओ या अपने सर तुड़वाओ। चलो, मैं नाच दिखाऊं, देवताओं का नाच देखना चाहते हो? देखो, सामने वृक्ष की पत्तियों पर निर्मल चन्द्र की किरणें कैसी नाच रही हैं। देखो, तालाब में कमल के फूल पर पानी की बूंदें कैसी नाच रही हैं। जंगल में जाकर देखो, मोर पर फैलाए कैसा नाच रहा है! क्यों, यह देवताओं का नाच पसंद नहीं है? अच्छा चलो, पिशाचों का नाच दिखाऊं! तुम्हारा पड़ोसी दरिद्र किसान जमींदार के जूते खाकर कैसा नाच रहा है! तुम्हारे भाइयों के अनाथ बालक क्षुधा से बावले होकर कैसे नाच रहे हैं! अपने घर में देखो, विधवा भावज की आंखों में शोक और वेदना के आंसू कैसे नाच रहे हैं! क्या यह नाच देखना पसंद नहीं? तो अपने मन को देखो, कपट और छल कैसा नाच रहा है! सारा संसार नृत्यशाला है। उसमें लोग अपना-अपना नाच नाच रहे हैं। क्या यह देखने के लिए तुम्हारी आंखें नहीं हैं? आओ, मैं तुम्हें शंकर का तांडव नृत्य दिखाऊं। किंतु तुम वह नृत्य देखने योग्य नहीं हो। तुम्हारी काम-तृष्णा को इस नाच का क्या आनंद मिलेगा! हा! अज्ञान की मूर्तियो! हा! विषयभोग के सेवको! तुम्हें नाच का नाम लेते लज्जा नहीं आती! अपना कल्याण चाहते हो तो इस रीति को मिटाओ। कुवासना को तजो, वेश्या-प्रेम का त्याग करो।
सब लोग मूर्तिवत बैठे महात्मा की उन्मत्त वाणी सुन रहे थे कि इतने में वह अदृश्य हो गए और सामने वाले आम के वृक्षों की आड़ से उनके मधुर गान की ध्वनि सुनाई देने लगी। धीरे-धीरे वह भी अंधकार में विलीन हो गई, जैसे रात्रि में चिंता रूपी नाव निद्रासागर में विलीन हो जाती है। जैसे जुआरियों का जत्था पुलिस के अधिकारी को देखकर सन्नाटे में आ जाता है, कोई रुपये-पैसे समेटने लगता है, कोई कौड़ियों को छिपा लेता है, उसी प्रकार साधु के आकस्मिक आगमन, उनके तेजस्वी स्वरूप और अलौकिक उपदेशों ने लोगों को एक अव्यक्त अनिष्ठ भय से शंकित कर दिया। उपद्रवी दुर्जनों ने चुपके से घर की राह ली और जो लोग महफिल में बैठे अधीर हो रहे थे और मन में पछता रहे थे कि व्यर्थ यहां आए, वह ध्यानपूर्वक गाना सुनने लगे। कुछ सरल हृदय मनुष्य महात्मा के पीछे दौड़े, पर उनका कहीं पता न मिला।
पंडित मदनसिंह अपनी छोलदारी में बैठे हुए गहने-कपड़े सहेज रहे थे कि मुंशी बैजनाथ दौड़े हुए आए और बोले– भैया! अनर्थ हो गया। आपने यहां नाहक ब्याह किया।
मदनसिंह ने चकित होकर पूछा– क्यों, क्या हुआ, क्या कुछ गड़बड़ है?
‘हां, अभी इसी गांव का एक आदमी मुझसे मिला था, उसने इन लोगों की ऐसी कलई खोली कि मेरे होश उड़ गए।’
‘क्या ये लोग नीच कुल के हैं?’
‘नीच कुल के तो नहीं हैं, लेकिन मामला कुछ गड़बड़ है। कन्या का पिता हाल में जेलखाने से छूटकर आया है और कन्या की एक बहन वेश्या हो गई है। दालमंडी में जो सुमनबाई है, वह इसी कन्या की सगी बहन है।’
मदनसिंह को मालूम हुआ कि वह किसी पेड़ पर से फिसल पड़े। आंखें फाड़कर बोले– वह आदमी इन लोगों का कोई बैरी तो नहीं? विघ्न डालने के लिए लोग बहुधा झूठमूठ कलंक लगा दिया करते हैं।
पद्मसिंह– हां, ऐसी ही बात मालूम होती है।
बैजनाथ– जी नहीं, वह तो कहता था, मैं उनलोगों के मुंह पर कह दूं।
मदनसिंह– तो क्या लड़की उमानाथ की नहीं है?
बैजनाथ– जी नहीं, उनकी भांजी है। वह जो एक बार थानेदार पर मुकदमा चला था, वही थानेदार उमानाथ के बहनोई है, कई महीनों से छूटकर आए हैं।
मदनसिंह ने माथा पकड़कर कहा– ईश्वर! तुमने कहां लाकर फंसाया?
पद्मसिंह– उमानाथ को बुलाना चाहिए।
इतने में पंडित उमानाथ स्वयं एक नाई के साथ आते हुई दिखाई दिए। वधू के लिए गहने-कपड़े की जरूरत थी। ज्योंही वह छोलदारी के द्वार पर आकर खड़े हुए कि मदनसिंह जोर से झपटे और उनके दोनों हाथ पकड़कर झकझोरते हुए बोले– क्योंकि तिलकधारी महाराज, तुम्हें संसार में और कोई न मिलता था कि तुमने अपने मुख की कालिख मेरे मुंह लगाई?
बिल्ली के पंजे में फंसे हुए चूहे की तरह दीन भाव से उमानाथ ने उत्तर दिया– महाराज, मुझसे कौन-सा अपराध हुआ है?
मदनसिंह– तुमने वह कर्म किया है कि अगर तुम्हारा गला काट लूं, तो भी पाप न लगे। जिस कन्या की बहन पतिता हो जाए, उसके लिए तुम्हें मेरा ही घर ताकना था।
उमानाथ ने दबी हुई आवाज से कहा– महाराज, शत्रु-मित्र सब किसी के होते हैं। अगर किसी ने कुछ कलंक की बात कही हो तो आपको उस पर विश्वास न करना चाहिए। उस आदमी को बुलाइए। जो कुछ कहना हो, मेरे मुंह पर कहे।
पद्मसिंह– हां, ऐसा होना बहुत संभव है। उस आदमी को बुलाना चाहिए।
मदनसिंह ने भाई की ओर कड़ी निगाह से देखकर कहा– तुम क्यों बोलते हो जी। (उमानाथ से) संभव है, तुम्हारे शत्रु ही ने कहा हो, लेकिन बात सच्ची है या नहीं?
‘कौन बात?’
‘यही कि सुमन कन्या की सगी बहन है।’
उमानाथ का चेहरा पीला पड़ गया। लज्जा से सिर झुक गया। नेत्र ज्योतिहीन हो गए। बोले– महाराज...और उनके मुख से कुछ न निकला।
मदनसिंह ने गरजकर कहा– स्पष्ट क्यों नहीं बोलते? यह बात सच है या झूठ?
उमानाथ ने फिर उत्तर देना चाहा, किंतु ‘महाराज’ के सिवा और कुछ न कह सके।
मदनसिंह को अब कोई संदेह न रहा। क्रोध की अग्नि प्रचंड हो गई। आंखों से ज्वाला निकलने लगी। शरीर कांपने लगा। उमानाथ की ओर आग्नेय दृष्टि से ताककर बोले– अब अपना कल्याण चाहते हो, तो मेरे सामने से हट जाओ। धूर्त्त, दगाबाज, पाखंडी कहीं का! तिलक लगाकर पंडित बना फिरता है, चांड़ाल! अब तेरे द्वार पर पानी न पिऊंगा। अपनी लड़की को जंतर बनाकर गले में पहन– यह कहकर मदनसिंह उठे और उसे छोलदारी में चले गए जहां सदन पड़ा सो रहा था और जोर से चिल्लाकर कहारों को पुकारा।
उनके जाने पर उमानाथ पद्मसिंह से बोले– महाराज, किसी प्रकार पंडितजी को मनाइए। मुझे कहीं मुंह दिखाने को जगह न रहेगी। सुमन का हाल तो आपने सुना ही होगा। उस अभागिन ने मेरे मुंह में कालिख लगा दी। ईश्वर की यही इच्छा थी, पर अब गड़े हुए मुरदे को उखाड़ने से क्या लाभ होगा? आप ही न्याय कीजिए, मैं इस बात को छिपाने के सिवा और क्या करता? इस कन्या का विवाह तो करना ही था। वह बात छिपाए बिना कैसे बनता? आपसे सत्य कहता हूं कि मुझे यह समाचार संबंध ठीक हो जाने के बाद मिला।
पद्मसिंह ने चिंतित स्वर से कहा– भाई साहब के कान में बात न पड़ी होती, तो यह सब कुछ न होता। देखिए, मैं उनके पास जाता हूं, पर उनका राजी होना कठिन मालूम होता है।
मदनसिंह कहारों से चिल्लाकर कह रहे थे कि जल्द यहां से चलने की तैयारी करो। सदन भी अपने कपड़े समेट रहा था। उसके पिता ने सब हाल उससे कह दिया था।
इतने में पद्मसिंह ने आकर आग्रहपूर्वक कहा– भैया, इतनी जल्दी न कीजिए। जरा सोच-समझकर काम कीजिए। धोखा तो हो ही गया, पर यों लौट चलने में तो और भी जग-हंसाई है।
सदन ने चाचा की ओर अवहेलना की दृष्टि से देखा और मदनसिंह ने आश्चर्य से।
पद्मसिंह-दो-चार आदमियों से पूछ देखिए, क्या राय है?
मदनसिंह– क्या कहते हो, क्या जान-बूझकर जीती मक्खी निगल जाऊं?
पद्मसिंह– इसमें कम-से-कम जगहंसाई तो न होगी।
मदनसिंह– तुम अभी लड़के हो, ये बातें न जानो? जाओ, लौटने का सामान तैयार करो। इस वक्त जग-हंसाई अच्छी है। कुल में सदा के लिए कलंक तो न लगेगा।
पद्मसिंह– लेकिन यह तो विचार कीजिए कि कन्या की क्या गति होगी। उसने क्या अपराध किया है?
मदनसिंह ने झिड़ककर कहा– तुम हो निरे मूर्ख। चलकर डेरे लदाओ। कल को कोई बात पड़ जाएगी, तो तुम्हीं गालियां दोगे कि रुपए पर फिसल पड़े। संसार के व्यवहार में वकालत से काम नहीं चलता।
पद्मसिंह ने कातर नेत्रों से देखते हुए कहा– मुझे आपकी आज्ञा से इंकार नहीं है, लेकिन शोक है कि इस कन्या का जीवन नष्ट हो जाएगा।
मदनसिंह– तुम खामख्वाह क्रोध दिलाते हो। लड़की का मैंने ठेका लिया है? जो कुछ उसके भाग्य में बदा होगा, वह होगा। मुझे इससे क्या प्रयोजन?
पद्मसिंह ने नैराश्यपूर्ण भाव से कहा– सुमन का आना-जाना बिल्कुल बंद है। इन लोगों ने उसे त्याग दिया है।
मदनसिंह– मैंने तुम्हें कह दिया कि मुझे गुस्सा न दिलाओ। तुम्हें ऐसी बात मुझसे कहते हुए लज्जा नहीं आती? बड़े सुधारक की दुम बने हो। एक हरजाई की बहन से अपने बेटे का ब्याह कर लूं! छिः छिः तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो गई।
पद्मसिंह ने लज्जित होकर सिर झुका लिया। उनका मन कह रहा था कि भैया इस समय जो कुछ कह रहे हैं, वही ऐसी अवस्था में मैं भी करता। लेकिन भयंकर परिणाम का विचार करके उन्होंने एक बार फिर बोलने का साहस किया। जैसे कोई परीक्षार्थी गजट में अपना नाम न पाकर निराश होते हुए भी शोधपत्र की ओर लपकता है, उसी प्रकार अपने को धोखा देकर पद्मसिंह भाई साहब से दबते हुए बोला– सुमनबाई भी अब विधवाश्रम में चली गई है।
पद्मसिंह सिर नीचा किए बातें कर रहे थे। भाई से आंखें मिलाने का हौसला न होता था। यह वाक्य मुंह से निकला ही था कि अकस्मात् मदनसिंह ने एक जोर से धक्का दिया कि वह लड़खड़ाकर गिर पड़े। चौंककर सिर उठाया, मदनसिंह खड़े क्रोध से कांप रहे थे! तिरस्कार के वे कठोर शब्द जो उनके मुंह से निकलने वाले थे, पद्मसिंह को भूमि पर गिरते देखकर पश्चात्ताप से दब गए थे। मदनसिंह की इस समय वही दशा थी, जब क्रोध में मनुष्य अपना ही मांस काटने लगता है।
यह आज जीवन में पहला अवसर था कि पद्मसिंह ने भाई के हाथों धक्का खाया। सारी बाल्यावस्था बीत गई, बड़े-बड़े उपद्रव किए, पर भाई ने कभी हाथ न उठाया। वह बच्चों के सदृश्य रोने लगे, सिसकते थे, हिचकियां लेते थे, पर हृदय में लेशमात्र भी क्रोध न था। केवल यह दुख था कि जिसने सर्वदा प्यार किया, कभी कड़ी बात नहीं कही, उसे आज मेरे दुराग्रह से ऐसा दुख पहुंचा। यह हृदय में जलती हुई अग्नि की ज्वाला है, यह लज्जा, अपमान और आत्मग्लानि का प्रत्यक्ष स्वरूप है, यह हृदय में उमड़े हुए शोक-सागर का उद्वेग है। सदन ने लपककर पद्मसिंह को उठाया और अपने पिता की ओर क्रोध से देखकर कहा– आप तो जैसे बावले हो गए हैं!
इतने में कई आदमी आ गए और पूछने लगे– महाराज, क्या बात हुई है? बारात को लौटाने का हुकुम क्यों देते हैं? ऐसे कुछ करो कि दोनों ओर की मर्यादा बनी रहे, अब उनकी और आपकी इज्जत एक है। लेन-देन में कुछ कोर-कसर हो, तुम्हीं दब जाओ, नारायण ने तुम्हें क्या नहीं दिया है। इनके धन से थोड़े ही धनी हो जाओगे? मदनसिंह ने कुछ उत्तर नहीं दिया।
महफिल में खलबली पड़ गई। एक दूसरे से पूछता था, यह क्या बात है? छोलदारी के द्वार पर आदमियों की भीड़ बढ़ती ही जाती थी। \
महफिल में कन्या की ओर भी कितने ही आदमी थे। वह उमानाथ से पूछने लगे– भैया, ये लोग क्यों बारात लौटाने पर उतारू हो रहे हैं? जब उमानाथ ने कोई संतोषजनक उत्तर न दिया, तो वे सब-के-सब आकर मदनसिंह से विनती करने लगे– महाराज, हमसे ऐसा क्या अपराध हुआ है? और जो दंड चाहे दीजिए, पर बारात न लौटाइए, नहीं तो गांव बदनाम हो जाएगा। मदनसिंह ने उनसे केवल इतना कहा– इसका कारण उमानाथ से पूछो, वही बतलाएंगे।
पंडित कृष्णचन्द्र ने जब से सदन को देखा था, आनंद से फूले न समाते थे। विवाह का मुहूर्त निकट था। वह वर आने की राह देख रहे थे कि इतने में कई आदमियों ने आकर उन्हें खबर दी। उन्होंने पूछा– क्यों लौट जाते हैं? क्या उमानाथ से कोई झगड़ा हो गया है?
लोगों ने कहा– हमें यह नहीं मालूम, उमानाथ तो वहीं खड़े मना रहे हैं।
कृष्णचन्द्र झल्लाए हुए बारात की ओर चले। बारात का लौटना क्या लड़कों का खेल है? यह कोई गुड्डे-गुड्डी का ब्याह है क्या? अगर विवाह नहीं करना था, तो यहां बारात क्यों लाए? देखता हूं, कौन बारात को फेर ले जाता है? खून की नदी बहा दूंगा। कृष्णचन्द्र अपने साथियों से ऐसी ही बातें करते, कदम बढ़ाते हुए जनवासे में पहुंचे और ललकारकर बोले– कहां हैं पंडित मदनसिंह? महाराज, जरा बाहर आइए।
मदनसिंह यह ललकार सुनकर बाहर निकल आए और दृढ़ता के साथ बोले–
कहिए, क्या कहना है?
कृष्णचन्द्र– आप बारात क्यों लौटाए लिए जाते हैं?
मदनसिंह– अपना मन! हमें विवाह नहीं करना है।
कृष्णचन्द्र– आपको विवाह करना होगा। यहां आकर आप ऐसे नहीं लौट सकते।
मदनसिंह– आपको जो करना हो, कीजिए। हम विवाह नहीं करेंगे।
कृष्णचन्द्र– कोई कारण?
मदनसिंह– कारण क्या आप नहीं जानते?
कृष्णचन्द्र– जानता तो आपसे क्यों पूछता?
मदनसिंह– तो पंडित उमानाथ से पूछिए।
कृष्णचन्द्र– मैं आपसे पूछता हूं?
मदनसिंह– बात दबी रहने दीजिए। मैं आपको लज्जित नहीं करना चाहता।
कृष्णचन्द्र– अच्छा समझा, मैं जेलखाने हो आया हूं। यह उसका दंड है। धन्य है आपका न्याय।
मदनसिंह– इस बात पर बारात नहीं लौट सकती थी।
कृष्णचन्द्र– तो उमानाथ से विवाह का कर देने में कुछ कसर हुई होगी?
मदनसिंह– हम इतने नीच नहीं हैं।
कृष्णचन्द्र– फिर ऐसी कौन-सी बात है?
मदनसिंह– हम कहते हैं, हमसे न पूछिए।
कृष्णचन्द्र– आपको बतलाना पड़ेगा। दरवाजे पर बारात लाकर उसे लौटा ले जाना क्या आपने लड़कों का खेल समझा है? यहां खून की नदी बह जाएगी। आप इस भरोसे में न रहिएगा।
मदनसिंह– इसकी हमको चिंता नहीं है। हम यहां मर जाएंगे, लेकिन आपकी लड़की से विवाह न करेंगे। आपके यहां अपनी मर्यादा खोने नहीं आए हैं?
कृष्णचन्द्र– तो क्या हम आपसे नीच हैं?
मदनसिंह– हां, आप हमसे नीच हैं।
कृष्णचन्द्र– इसका कोई प्रमाण?
मदनसिंह– हां, है।
कृष्णचन्द्र– तो उसके बताने में आपको क्यों संकोच होता है?
मदनसिंह– अच्छा, तो सुनिए, मुझे दोष न दीजिएगा। आपकी लड़की सुमन जो इस कन्या की सगी बहन है, पतिता हो गई है। आपका जी चाहे, तो उसे दालमंडी में देख आइए।
कृष्णचन्द्र ने अविश्वास की चेष्टा करके कहा– यह बिलकुल झूठ है। पर क्षणमात्र में उन्हें याद आ गया कि जब उन्होंने उमानाथ से सुमन का पता पूछा था, तो उन्होंने टाल दिया था; कितने ही ऐसे कटाक्षों का अर्थ समझ में आ गया, जो जाह्नवी बात-बात में उन पर करती रहती थी। विश्वास हो गया और उनका सिर लज्जा से झुक गया। वह अचेत होकर भूमि पर गिर पड़े। दोनों तरफ के सैकड़ों आदमी वहां खड़े थे, लेकिन सब-के-सब सन्नाटे में आ गए। इस विषय में किसी का मुंह खोलने का साहस नहीं हुआ।
आधी रात होते-होते डेरे-खेमे सब उखड़ गए। उस बगीचे में अंधकार छा गया। गीदड़ों की सभा होने लगी और उल्लू बोलने लगे।