विट्ठलदास को संदेह हुआ कि सुमन तीस रुपए मासिक स्वीकार करना नहीं चाहती, इसलिए उसने कल उत्तर देने का बहाना करके मुझे टाला है। अतएव वे दूसरे दिन उसके पास नहीं गए, इसी चिंता में पड़े रहे कि शेष रुपयों का कैसे प्रबंध हो? कभी सोचते, दूसरे शहर में डेपूटेशन ले जाऊं, कभी कोई नाटक खेलने का विचार करते। अगर उनका वश चलता, तो इस शहर के सारे बड़े-बड़े धनाढ्य पुरुषों को जहाज में भरकर काले-पानी भेज देते। शहर में एक कुंवर अनिरुद्धसिंह सज्जन, उदार पुरुष रहा करते थे। लेकिन विट्ठलदास उनके द्वार तक जाकर केवल इसलिए लौट आए कि उन्हें वहां तबले की गमक सुनाई दी। उन्होंने सोचा, जो मनुष्य राग-रंग में इतना लिप्त है, वह इस काम में मेरी क्या सहायता करेगा? इस समय उनकी सहायता करना उनकी दृष्टि में सबसे बड़ा पुण्य और उनकी उपेक्षा करना सबसे बड़ा पाप था। वह इसी संकल्प-विकल्प में पड़े हुए थे कि सुमन के पास चलूं या न चलूं। इतने में पंडित पद्यसिंह आते हुए दिखाई दिए, आंखें चढ़ी हुईं, लाल और बदन मलिन था। ज्ञात होता था कि सारी रात जागे हैं। चिंता और ग्लानि की मूर्ति बने हुए थे। तीन महीने से विट्ठलदास उनके पास नहीं गए थे, उनकी ओर से हृदय फट गया था। लेकिन शर्माजी की यह दशा देखते ही पिघल गए और प्रेम से हाथ मिलाकर बोले– भाई साहब, उदास दिखाई देते हो, कुशल तो है?
शर्माजी– जी हां, सब कुशल ही है। इधर महीनों से आपसे भेंट नहीं हुई, मिलने को जी चाहता था। सुमन के विषय में क्या निश्चय किया?
विट्ठलदास– उसी चिंता में तो दिन-रात पड़ा रहता हूं। इतना बड़ा शहर है, पर तीस रुपए मासिक का प्रबंध नहीं हो सकता। मुझे ऐसा अनुमान होता है कि मुझे मांगना नहीं आता। कदाचित् मुझमें किसी के हृदय को आकर्षित करने की सामर्थ्य नहीं है। मैं दूसरों को दोष देता हूं, पर वास्तव में दोष मेरा ही है। अभी तक केवल दस रुपए का प्रबंध हो सका है। जितने रईस हैं, सबके सब पाषाण हृदय। अजी, रईसों की बात तो न्यारी रही, मि. प्रभाकर राव ने भी कोरा जवाब दिया। उनके लेखों को पढ़ो, तो मालूम होता है कि देशानुराग और दया के सागर हैं। होली के जलसे के बाद महीनों तक आप पर विष की वर्षा करते रहे, लेकिन कल जो उनकी सेवा में गया तो बोले, क्या जाति का सबसे बड़ा ऋणी मैं ही हूं? मेरे पास लेखनी है, उससे जाति की सेवा करता हूं। जिसके पास धन हो, वह धन से करे। उनकी बातें सुनकर चकित रह गया। नया मकान बनवा रहे हैं, कोयले की कंपनी में हिस्से खरीदे हैं, लेकिन इस जातीय काम से साफ निकल गए। अजी, और लोग जरा सकुचाते तो हैं उन्होंने तो उल्टे मुझी को आड़े हाथों लिया।
शर्माजी– आपको निश्चय है कि सुमनबाई पचास रुपए पर विधवाश्रम में चली आएंगी?
विट्ठलदास– हां, मुझे निश्चय है। यह दूसरी बात है कि आश्रम कमेटी उसे लेना पसंद न करे। तब कोई और प्रबंध करूंगा।
शर्माजी– अच्छा, तो लीजिए, आपकी चिंताओं का अंत किए देता हूं, मैं पचास रुपए मासिक देने पर तैयार हूं और ईश्वर ने चाहा तो आजन्म देता रहूंगा।
विट्ठलदास ने विस्मय से शर्माजी की तरफ देखा और कृतज्ञतापूर्वक उनके गले लिपटकर बोले– भाई साहब, तुम धन्य हो। इस समय तुमने वह काम किया है कि जी चाहता है, तुम्हारे पैरों पर गिरकर रोऊं। तुमने हिंदू जाति की लाज रख ली और सारे लखपतियों के मुंह पर कालिख लगा दी। लेकिन इतना बोझ कैसे संभालोगे?
शर्माजी– सब हो जाएगा, ईश्वर कोई-न-कोई राह अवश्य निकालेंगे ही।
विट्ठलदास– आजकल आमदनी अच्छी हो रही है क्या?
शर्माजी– आमदनी पत्थर हो रही है, घोड़ागाड़ी बेच दूंगा, तीस रुपए बचत यों हो जाएगी, बिजली का खर्च तोड़ दूंगा, दस रुपए यों निकल आएंगे, दस रुपए और इधर-उधर से खींच-खांचकर निकाल लूंगा।
विट्ठलदास– तुम्हारे ऊपर अकेले इतना बोझ डालते हुए मुझे कष्ट हो रहा है, पर क्या करूं, शहर के बड़े आदमियों से हारा हुआ हूं। गाड़ी बेच दोगे तो कचहरी कैसे जाओगे? रोज किराए की गाड़ी करनी पड़ेगी?
शर्माजी– जी नहीं, किराए की गाड़ी की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। मेरे भतीजे ने एक सब्जा घोड़ा ले रखा है, उसी पर बैठकर चला जाया करूंगा।
विटठलदास– अरे वही तो नहीं है, जो कभी-कभी शाम को चौक में घूमने निकला करता है?
शर्माजी– संभव है, वही हो।
विट्ठलदास– सूरत आपसे बहुत मिलती है, धारीदार सर्ज का कोट पहनता है, खूब हृष्ट-पुष्ट है, गोरा रंग, बड़ी-बड़ी आंखें, कसरती जवान है।
शर्माजी– जी हां, हुलिया तो आप ठीक बताते हैं। वही है।
विट्ठलदास– आप उसे बाजार में घूमने से रोकते क्यों नहीं?
शर्माजी– मुझे क्या मालूम, कहां घूमने जाता है। संभव है, कभी-कभी बाजार की तरफ चला जाता हो; लेकिन लड़का सच्चरित्र है, इसलिए मैंने कभी चिंता नहीं की।
विट्ठलदास– यह आपसे बड़ी भूल हुई। पहले वह चाहे जितना सच्चरित्र हो, लेकिन आजकल उसके रंग अच्छे नहीं हैं। मैंने उसे एक बार नहीं, कई बार वहां देखा है, जहां न देखना चाहिए था। सुमनबाई के प्रेमजाल में पड़ा हुआ मालूम होता है।
शर्माजी के होश उड़ गए। बोले– यह तो आपने बुरी खबर सुनाई। वह मेरे कुल का दीपक है। अगर वह कुपथ पर चला, तो मेरी जान ही पर बन जाएगी। मैं शरम के मारे भाई साहब को मुंह न दिखा सकूंगा।
यह कहते-कहते शर्माजी की आंखें सजल हो गईं। फिर बोले– महाशय उसे किसी तरह समझाइए। भाई साहब के कानों में इस बात की भनक भी गई, तो वह मेरा मुंह न देखेंगे।
विट्ठलदास– नहीं, उसे सीधे मार्ग पर लाने के लिए उद्योग किया जाएगा। मुझे आज तक मालूम ही न था कि वह आपका भतीजा है। मैं आज ही इस काम पर उतारू हो जाऊंगा और सुमन कल तक वहां से चली आई, तो वह आप ही संभल जाएगा।
शर्माजी– सुमन के चले आने से थोड़े ही बाजार खाली हो जाएगा। किसी दूसरी के पंजे में फंस जाएगा। क्या करूं, उसे घर भेज दूं?
विट्ठलदास– वहां अब वह रह चुका, पहले तो जाएगा ही नहीं, और गया भी तो दूसरे ही दिन भागेगा। यौवनकाल की दुर्वासनाएं बड़ी प्रबल होती हैं। कुछ नहीं, यह सब इसी कुप्रथा की करामात है, जिसने नगर के सार्वजनिक स्थानों को अपना कार्यक्षेत्र बना रखा है। यह कितना बड़ा अत्याचार है कि ऐसे मनोविकार पैदा करने वाले दृश्यों को गुप्त रखने के बदले हम उनकी दुकान सजाते हैं और अपने भोले-भाले सरल बालकों की कुप्रवृत्तियों को जगाते हैं। मालूम नहीं, यह कुप्रथा कैसे चली? मैं तो समझता हूं कि विषयी मुसलमान बादशाहों के समय इसका जन्म हुआ होगा। जहां ग्रंथालय, धर्मसभाएं और सुधारक संस्थाओं के स्थान होने चाहिए, वहां हम रूप का बाजार सजाते हैं। यह कुवासनाओं को नेवता देना नहीं तो क्या है? हम जान-बूझकर युवकों को गड्ढे में ढकेलते हैं। शोक!
शर्माजी– आपने इस विषय में कुछ आंदोलन तो किया था?
विट्ठलदास– हां, किया तो था, लेकिन जिस प्रकार आप एक बार मौखिक सहानुभूति प्रकट करके मौन साध गए, उसी प्रकार, अन्य सहायकों ने भी आनाकानी की, तो भाई, अकेला चना तो भाड़ नहीं फोड़ सकता? मेरे पास न धन है, न ऐश्वर्य है, न उच्च उपाधियां हैं, मेरी कौन सुनता है? लोग समझते हैं, बक्की है, नगर में इतने सुयोग्य, विद्वान् पुरुष चैन से सुख-भोग कर रहे हैं, कोई भूलकर भी मेरी नहीं सुनता।
शर्माजी शिथिल प्रकृति के मनुष्य थे। उन्हें कर्तव्य-क्षेत्र में लाने के लिए किसी प्रबल उत्तेजना की आवश्यकता थी। मित्रों की वाह-वाह जो प्रायः मनुष्य की सुप्तावस्था को भंग किया करती है, उनके लिए काफी न थी। वह सोते नहीं थे, जागते थे। केवल आलस्य के कारण पड़े हुए थे। इसलिए उन्हें जगाने के लिए चिल्लाकर पुकारने की इतनी जरूरत नहीं थी, जितनी किसी विशेष बात की। यह कितनी अनोखी लेकिन यथार्थ बात है कि सोए हुए मनुष्य को जगाने की अपेक्षा जागते हुए मनुष्य को जगाना कठिन है। सोता हुआ आदमी अपना नाम सुनते ही चौंककर उठ बैठता है, जागता हुआ मनुष्य सोचता है कि यह किसकी आवाज है? उसे मुझसे क्या काम है? इससे मेरा काम तो न निकल सकेगा? जब इन प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर उसे मिलता है, तो वह उठता है, नहीं तो पड़ा रहता है। पद्यसिंह इन्हीं जागते हुए आलसियों में से थे। कई बार जातीय पुकार की ध्वनि उनके कानों में आई थी, किंतु वे सुनकर भी न उठे। इस समय जो पुकार उनके कानों में पहुंच रही थी, उसने उन्हें बलात् उठा दिया। अपने भतीजे को, जिसे वह पुत्र से भी बढ़कर प्यार करते थे, कुमार्ग से बचाने के लिए, अपने भाई की अप्रसन्नता का निवारण करने के लिए, वे सब कुछ कर सकते थे। जिस कुव्यवस्था का ऐसा भयंकर परिणाम हुआ उसके मूलोच्छेदन पर कटिबद्ध होने के लिए अन्य प्रमाणों की जरूरत न थी। बाल-विधवा-विवाह के घोर शत्रुओं को भी जब-तब उसका समर्थन करते देखा गया है। प्रत्यक्ष उदाहरण से प्रबल और कोई प्रमाण नहीं होता। शर्माजी बोले– यदि मैं आपके किसी काम न आ सकूं, तो आपकी सहायता करने को तैयार हूं।
विट्ठलदास उल्लसित होकर बोले– भाई साहब, अगर तुम मेरा हाथ बंटाओं तो मैं धरती और आकाश एक कर दूंगा लेकिन क्षमा करना, तुम्हारे संकल्प दृढ़ नहीं होते। अभी यों कहते हो, कल ही उदासीन हो जाओगे। ऐसे कामों में धैर्य की बड़ी जरूरत है।
शर्माजी लज्जित होकर बोले– ईश्वर चाहेगा तो अबकी आपको इसकी शिकायत न रहेगी।
विट्ठलदास– तब तो हमारा सफल होना निश्चित है।
शर्माजी– यह तो ईश्वर के हाथ है। मुझे न तो बोलना आता है, न लिखना आता है, बस आप जिस राह पर लगा देंगे, उसी पर आंख बंद किए चला जाऊंगा।
विट्ठलदास– अजी, सब आ जाएगा, केवल उत्साह चाहिए। दृढ़ संकल्प हवा में किले बना देता है। आपकी वक्तृताओं में तो वह प्रभाव होगा कि लोग सुनकर दंग हो जाएंगे। हां, इतना स्मरण रखिएगा कि हिम्मत नहीं हारनी चाहिए।
शर्माजी– आप मुझे संभाले रहिएगा।
विट्ठलदास– अच्छा तो अब मेरे उद्देश्य भी सुन लीजिए। मेरा पहला उद्देश्य है कि वेश्याओं को सार्वजनिक स्थान से हटाना और दूसरा, वेश्याओं के नाचने-गाने की रस्म को मिटाना। आप मुझसे सहमत हैं या नहीं?
शर्माजी– क्या अब भी कोई संदेह है?
विट्ठलदास– नाच के विषय में आपके ये विचार तो नहीं हैं?
शर्माजी– अब क्या एक घर जलाकर भी वही खेल खेलता रहूंगा। उन दिनों मुझे न जाने क्या हो गया था। मुझे अब यह निश्चय हो गया है कि मेरे उसी जलसे ने सुमनबाई को घर से निकाला! लेकिन यहां मुझे एक शंका होती है। आखिर हमलोगों ने भी तो शहरों ही में इतना जीवन व्यतीत किया है, हमलोग इन दुर्वासनाओं में क्यों नहीं पड़े? नाच भी तो शहर में आए दिन हुआ ही करते हैं, लेकिन उनका ऐसा भीषण परिणाम होते बहुत कम देखा गया है। इससे यही सिद्ध होता है कि इस विषय में मनुष्य का स्वभाव ही प्रधान है। आप इस आंदोलन से स्वभाव तो नहीं बदल सकते।
विट्ठलदास– हमारा यह उद्देश्य ही नहीं, हम तो केवल उन दशाओं का संशोधन करना चाहते हैं, जो दुर्बल स्वभाव के अनुकूल हैं और कुछ नहीं चाहते। कुछ मनुष्य जन्म ही से स्थूल होते हैं, उनके लिए खाने-पीने की किसी विशेष वस्तु की जरूरत नहीं। कुछ मनुष्य ऐसे होते हैं, जो घी-दूध आदि का इच्छापूर्वक सेवन करने से स्थूल हो जाते हैं और कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो सदैव दुबले रहते हैं, वह चाहे घी-दूध के मटके ही में रख दिए जाएं तो भी मोटे नहीं हो सकते। हमारा प्रयोजन केवल दूसरी श्रेणी के मनुष्यों से है। हम और आप जैसे मनुष्य क्या दुर्व्यसन में पड़ेंगे, जिन्हें पेट के धंधों से कभी छुट्टी ही नहीं मिली, जिन्हें कभी यह विश्वास ही नहीं हुआ कि प्रेम की मंडी में उनकी आवभगत होगी। वहां तो वह फंसते हैं, जो धनी हैं, रूपवान हैं, उदार हैं, रसिक हैं। स्त्रियों को अगर ईश्वर सुदंरता दे, तो धन से वंचित न रखे। धनहीन, सुंदर, चतुर स्त्री पर दुर्व्यसन का मंत्र शीघ्र ही चल जाता है।