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9 फरवरी 2022

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दूसरे दिन से सुमन ने चिक के पास खड़ा होना छोड़ दिया। खोंचेवाले आते और पुकार कर चले जाते। छैले गजल गाते हुए निकल जाते। चिक की आड़ में अब उन्हें कोई न दिखाई देता था। भोली ने कई बार बुलाया, लेकिन सुमन ने बहाना कर दिया कि मेरा जी अच्छा नहीं है। दो-तीन बार वह स्वयं आई, पर सुमन उससे खुलकर न मिली।
सुमन को यहां आए अब दो साल हो गए थे। उसकी रेशमी साड़ियां फट चली थीं। रेशमी जाकटें तार-तार हो गई थीं। सुमन अब अपनी मंडली की रानी न थी। उसकी बातें उतने आदर से न सुनी जाती थीं। उसका प्रभुत्व मिटा जाता था। उत्तम वस्त्र-विहीन होकर वह अपने उच्चासन से गिर गई थी। इसलिए वह पड़ोसिनों के घर भी न जाती। पड़ोसिनों का आना-जाना भी कम हो गया था। सारे दिन अपनी कोठरी में पड़ी रहती। कभी कुछ पढ़ती, कभी सोती।
बंद कोठरी में पड़े-पड़े उसका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। सिर में पीड़ा हुआ करती। कभी बुखार आ जाता, कभी दिल में धड़कन होने लगती। मंदाग्नि के लक्षण दिखाई देने लगे। साधारण कामों से भी जी घबराता। शरीर क्षीण हो गया और कमल-सा बदन मुरझा गया।
गजाधर को चिंता होने लगी। कभी-कभी वह सुमन पर झुंझलाता और कहता– जब देखो तब पड़ी रहती हो। जब तुम्हारे रहने से मुझे इतना भी सुख नहीं कि ठीक समय पर भोजन मिल जाए तो तुम्हारा रहना न रहना दोनों बराबर हैं।
पर शीघ्र ही उसे सुमन पर दया आ जाती। अपनी स्वार्थपरता पर लज्जित होता। उसे धीरे-धीरे ज्ञान होने लगा कि सुमन के सारे रोग अपवित्र वायु के कारण हैं। कहां तो उसे चिक के पास खड़े होने से मना किया करता था, मेलों में जाने और गंगास्नान करने से रोकता था, कहां अब स्वयं चिक उठा देता और सुमन को गंगास्नान करने के लिए ताकीद करता। उसके आग्रह से सुमन कई दिन लगातार स्नान करने गई और उसे अनुभव हुआ कि उसका जी कुछ हल्का हो रहा है। फिर तो वह नियमित रूप से नहाने लगी। मुरझाया हुआ पौधा पानी पाकर फिर लहलहाने लगा।
माघ का महीना था। एक दिन सुमन की कई पड़ोसिनें भी उसके साथ नहाने चलीं। मार्ग में बेनी-बाग पड़ता था। उसमें नाना प्रकार के जीव-जन्तु पले हुए थे। पक्षियों के लिए लोहे के पतले तारों से एक विशाल गुंबद बनाया गया था। लौटती बार सबकी सलाह हुई कि बाग की सैर करनी चाहिए। सुमन तत्काल ही लौट आया करती थी, पर आज सहेलियों के आग्रह से उसे भी बाग में जाना पड़ा। सुमन बहुत देर वहां के अद्भुत जीवधारियों को देखती रही। अंत में वह थककर एक बेंच पर बैठ गई। सहसा कानों में आवाज आई– अरे यह कौन औरत बेंच पर बैठी है? उठ वहां से। क्या सरकार ने तेरे ही लिए बेंच रख दी है?
सुमन ने पीछे फिरकर कातर नेत्रों से देखा। बाग का रक्षक खड़ा डांट बता रहा था।
सुमन लज्जित होकर बेंच पर से उठ गई और इस अपमान को भुलाने के लिए चिड़ियों को देखने लगी। मन में पछता रही थी कि कहां मैं इस बेंच पर बैठी। इतने में एक किराए की गाड़ी आकर चिड़ियाघर के सामने रुकी। बाग के रक्षक ने दौड़कर गाड़ी के पट खोले। दो महिलाएं उतर पड़ीं। उनमें से एक वही सुमन की पड़ोसिन भोली थी। सुमन एक पेड़ की आड़ में छुप गई और वह दोनों स्त्रियां बाग की सैर करने लगीं। उन्होंने बंदरों को चने खिलाए, चिड़ियों को दाने चुगाए, कछुए की पीठ पर खड़ी हुईं, फिर सरोवर में मछलियों को देखने चली गईं। रक्षक उनके पीछे-पीछे सेवकों की भांति चल रहा था। वे सरोवर के किनारे मछलियों की क्रीड़ा देख रही थीं, तब तक रक्षक ने दौड़कर दो गुलदस्ते बनाए और उन महिलाओं को भेंट किए। थोड़ी देर बाद वह दोनों आकर उसी बेंच पर बैठ गईं, जिस पर से सुमन उठा दी गई थी। रक्षक एक किनारे अदब से खड़ा था।
यह दशा देखकर सुमन की आंखों से क्रोध के मारे चिनगारियां निकलने लगीं। उसके एक-एक रोम से पसीना निकल आया। देह तृण के समान कांपने लगी। हृदय में अग्नि की एक प्रचंड ज्वाला दहक उठी। वह आंचल में मुंह छिपाकर रोने लगी। ज्योंही दोनों वेश्याएं वहां से चली गईं, सुमन सिंहनी की भांति लपककर रक्षक के सम्मुख आ खड़ी हुई और क्रोध से कांपती हुई बोली– क्यों जी, तुमने तो बेंच पर से उठा दिया, जैसे तुम्हारे बाप ही की है, पर उन दोनों रांडों से कुछ न बोले?
रक्षक ने अपमानसूचक भाव से कहा– वह और तुम बारबर।
आग पर घी जो काम करता है, वह इस वाक्य ने सुमन के हृदय पर किया। ओठ चबाकर बोली– चुप रह मूर्ख! टके के लिए वेश्याओं की जूतियां उठाता है, उस पर लज्जा नहीं आती। ले देख तेरे सामने बेंच पर बैठती हूं। देखूं, तू मुझे कैसे उठाता है।
रक्षक पहले तो कुछ डरा, किंतु सुमन के बैंच पर बैठते ही वह उसकी ओर लपका कि उसका हाथ पकड़कर उठा दे। सुमन सिंहनी की भांति आग्नेय नेत्रों से ताकती हुई उठ खड़ी हुई। उसकी एंडियां उछल पड़ती थीं। सिसकियों के आवेग को बलपूर्वक रोकने के कारण मुंह से शब्द न निकलते थे। उसकी सहेलियां, जो इस समय चारों ओर से घूमघाम कर चिड़ियाघर के पास आ गईं थीं, दूर से खड़ी यह तमाशा देख रही थीं। किसी की बोलने की हिम्मत न पड़ती थी।
इतने में फिर एक गाड़ी सामने से आ पहुंची। रक्षक अभी सुमन से हाथापाई कर ही रहा था कि गाड़ी में से एक भलेमानस उतरकर चौकीदार के पास झपटे हुए आए और उसे जोर से धक्का देकर बोले– क्यों बे, इनका हाथ क्यों पकड़ता? दूर हट।
चौकीदार हकलाकर पीछे हट गया। चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं। बोला– सरकार क्या यह आपके घर की हैं?
भद्र पुरुष ने क्रोध में कहा– हमारे घर की हो या न हों, तू इनसे हाथापाई क्यों कर रहा था? अभी रिपोर्ट कर दूं तो नौकरी से हाथ धो बैठेगा।
चौकीदार हाथ-पैर जोड़ने लगा। इतने में गाड़ी में बैठी हुई महिला ने सुमन को इशारे से बुलाया और पूछा– यह तुमसे क्या कह रहा था?
सुमन– कुछ नहीं। मैं इस बेंच पर बैठी थी, वह मुझे उठाना चाहता था। अभी दो वेश्याएं इसी बेंच पर बैठी थीं। क्या मैं ऐसी गई बीती हूं कि वह मुझे वेश्याओं से भी नीच समझे?
रमणी ने उसे समझाया कि यह छोटे आदमी, जिससे चार पैसे पाते है, उसी की गुलामी करते हैं। इनके मुंह लगना अच्छा नहीं।
दोनों स्त्रियों में परिचय हुआ। रमणी का नाम सुभद्रा था। वह भी सुमन के मुहल्ले में, पर उसके मकान से जरा दूर रहती थी। उसके पति वकील थे। स्त्री-पुरुष गंगास्नान करके घर जा रहे थे। यहां पहुंचकर उसके पति ने देखा कि चौकीदार एक भले घर की स्त्री से झगड़ा कर रहा है, तो गाड़ी से उतर पड़े।
सुभद्रा सुमन के रंग-रूप, बातचीत पर ऐसी मोहित हुई कि उसे अपनी गाड़ी में बैठा लिया। वकील साहब कोचबक्स पर जा बैठे। गाड़ी चली। सुमन को ऐसा मालूम हो रहा था कि वह विमान पर बैठी स्वर्ग को जा रही है। सुभद्रा यद्यपि बहुत रूपवती न थी और उसके वस्त्राभूषण भी साधारण ही थे, पर उसका स्वभाव ऐसा नम्र, व्यवहार ऐसा सरल तथा विनयपूर्ण था कि सुमन का हृदय पुलकित हो गया। रास्ते में उसने उसकी सहेलियों को जाते देख, खिड़की खोलकर उनकी ओर गर्व से देखा, मानो कह रही थी, तुम्हें भी कभी यह सौभाग्य प्राप्त हो सकता है? इस पर गर्व के साथ ही उसे यह भय भी था कि कहीं मेरा मकान देखकर सुभद्रा मेरा तिरस्कार न करने लगे। जरूर यही होगा। यह क्या जानती है कि मैं ऐसे फटेहालों रहती हूं। यह कैसी भाग्यवान स्त्री है! कैसा देवरूप पुरुष है। यह न आ जाते, तो वह निर्दयी चौकीदार न जाने मेरी क्या दुर्गति करता। कितनी सज्जनता है कि मुझे भीतर बिठा दिया और आप कोचवान के साथ जा बैठे। वह इन्हीं विचारों में मग्न थी कि उसका घर आ गया। उसने सकुचाते हुए सुभद्रा से कहा– गाड़ी रुकवा दीजिए, मेरा घर आ गया।
सुभद्रा ने गाड़ी रुकवा दी। सुमन ने एक बार भोलीबाई के मकान की ओर ताका। वह अपने छज्जे पर टहल रही थी। दोनों की आंखें मिलीं, भोली ने मानो कहा, अच्छे ये ठाट हैं! सुमन ने जैसे उत्तर दिया, अच्छी तरह देख लो, यह कौन लोग हैं। तुम मर भी जाओ, तो इस देवी के साथ बैठना नसीब न हो।
सुमन उठ खड़ी हुई और सुभद्रा की ओर सजल नेत्रों से देखती हुई बोली– इतना प्रेम लगाकर बिसार मत देना। मेरा मन लगा रहेगा।
सुभद्रा ने कहा– नहीं बहन, अभी तो तुमसे कुछ बातें भी न करने पाई। मैं तुम्हें कल बुलाऊंगी।
सुमन उतर पड़ी। गाड़ी चली गई। सुमन अपने घर में गई, तो उसे मालूम हुआ, मानो कोई आनंदमय स्वप्न देखकर जागी है।
गजाधर ने पूछा– यह गाड़ी किसकी थी?
सुमन– यहीं के कोई वकील हैं। बेनीबाग में उनकी स्त्री से भेंट हो गई। जिद करके गाड़ी पर बिठा लिया। मानती ही न थीं।
गजाधर– तो क्या तुम वकील के साथ बैठी थी?
सुमन– कैसी बातें करते हो? वह बेचारे तो कोचवान के साथ बैठे थे।
गजाधर– तभी इतनी देर हुई।
सुमन– दोनों सज्जनता के अवतार हैं।
गजाधर– अच्छा, चल के चूल्हा जलाओं, बहुत बखान हो चुका।
सुमन तुम वकील साहब को जानते तो होगे?
गजाधर– इस मुहल्ले में तो यही एक पद्मसिंह वकील हैं? वही रहे होंगे?
सुमन– गोरे-गोरे लंबे आदमी हैं। ऐनक लगाते हैं।
गजाधर– हां, हां, वही हैं। यह क्या पूरब की ओर रहते हैं।
सुमन– कोई बड़े वकील हैं?
गजाधर– मैं उनके जमाखर्च थोड़े ही लिखता हूं। आते-जाते कभी-कभी देख लेता हूं। आदमी अच्छे हैं।
सुमन ताड़ गई कि वकील साहब की चर्चा गजाधर को अच्छी नहीं मालूम होती। उसने कपड़े बदले और भोजन बनाने लगी। 

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रचनाएँ
सेवासदन
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प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। सेवासदन में नारी जीवन की समस्याओं के साथ-साथ समाज के धर्माचार्यों, मठाधीशों, धनपतियों, सुधारकों के आडंबर, दंभ, ढोंग, पाखंड, चरित्रहीनता, दहेज-प्रथा, बेमेल विवाह, पुलिस की घूसखोरी, वेश्यागमन, मनुष्य के दोहरे चरित्र, साम्प्रदायिक द्वेष आदि सामाजिक विकृतियों का विवरण मिलता है।सेवासदन उपन्यास की मुख्य समस्या क्या है? “सेवासदन” में प्रेमचन्द दिखाते है कि हमारी सामाजिक कुरीतियाँ स्त्रियों के जीवन को विवश करती है । इसकी मुख्य समस्या मध्य वर्गीय लोगों की आडंबर प्रियता से संबंधित है । प्रेमचन्द यह बताना चाहता है कि मनुष्य को जीने के लिए धन द्वारा प्राप्त सुख के समान मन द्वारा प्राप्त सुख भी चाहिए ।प्रेमचंद ने जहाँ एक ओर नारी की सामाजिक पराधीनता उसके फलसवरूप उत्पन्न समस्याओं को अपने इस उपन्यास में अभिव्यक्ति प्रदान की है, वहीं दूसरी ओर यह भी दिखलाया है कि किस प्रकार उनके नारी-पात्र उपन्यास के अंत तक आते-आते सामाजिक अन्याय से मुक्ति पाने का मार्ग स्वयं ही खोज देते हैं।
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सेवासदन (भाग 1)

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1 पश्चाताप के कड़वे फल कभी-न-कभी सभी को चखने पड़ते हैं, लेकिन और लोग बुराईयों पर पछताते हैं, दारोगा कृष्णचन्द्र अपनी भलाइयों पर पछता रहे थे। उन्हें थानेदारी करते हुए पच्चीस वर्ष हो गए, लेकिन उन्हों

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दारोगाजी के हल्के में एक महन्त रामदास रहते थे। वह साधुओं की एक गद्दी के महंत थे। उनके यहां सारा कारोबार ‘श्री बांकेबिहारीजी’ के नाम पर होता था। ‘श्री बांकेबिहारीजी’ लेन-देन करते थे और बत्तीस रुपये प्र

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पण्डित कृष्णचन्द्र रिश्वत लेकर उसे छिपाने के साधन न जानते थे । इस विषय में अभी नोसिखुए थे । उन्हें मालूम न था कि हराम का माल अकेले मुश्किल से पचता है । मुख्तार ने अपने मन मे कहा, हमीं ने सब कुछ किया औ

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कृष्णचन्द्र अपने कस्बे में सर्वप्रिय थे । यह खबर फैलते ही सारी बस्ती में हलचल मच गई । कई भले आदमी उनकी जमानत करने आये लेकिन साहब ने जमानत न ली । इसके एक सप्ताह बाद कृष्णचन्द्र पर रिश्वत लेने का अभियो

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फागुन में सुमन का विवाह हो गया। गंगाजली दामाद को देखकर बहुत रोई। उसे ऐसा दुःख हुआ, मानो किसी ने सुमन को कुएं में डाल दिया। सुमन ससुराल आई तो यहां की अवस्था उससे भी बुरी पाई, जिसकी उसने कल्पना की थी।

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सुमन को ससुराल आए डेढ़ साल के लगभग हो चुका था, पर उसे मैके जाने का सौभाग्य न हुआ था। वहां से चिट्ठियां आती थीं। सुमन उत्तर में अपनी मां को समझाया करती, मेरी चिंता मत करना, मैं बहुत आनंद से हूं, पर अब

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गजाधरप्रसाद की दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो चोरों के बीच में अशर्फियों की थैली लिए बैठा हो। सुमन का वह मुख-कमल, जिस पर वह कभी भौंरे की भांति मंडराया करता था, अब उसकी आँखों में जलती हुई आग के समान था। वह

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दूसरे दिन से सुमन ने चिक के पास खड़ा होना छोड़ दिया। खोंचेवाले आते और पुकार कर चले जाते। छैले गजल गाते हुए निकल जाते। चिक की आड़ में अब उन्हें कोई न दिखाई देता था। भोली ने कई बार बुलाया, लेकिन सुमन ने

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दूसरे दिन सुमन नहाने न गई। सबेरे ही से अपनी एक रेशमी साड़ी की मरम्मत करने लगी। दोपहर को सुभद्रा की एक महरी उसे लेने आई। सुमन ने मन में सोचा था, गाड़ी आवेगी। उसका जी छोटा हो गया। वही हुआ जिसका उसे भ

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दरवाजे पर आकर सुमन सोचने लगी कि अब कहां जाऊं। गजाधर की निर्दयता से भी उसे दुःख न हुआ था, जितना इस समय हो रहा था। उसे अब मालूम हुआ कि मैंने अपने घर से निकलकर बड़ी भूल की। मैं सुभद्रा के बल पर कूद रही थ

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सेवासदन (भाग-2)

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12 पद्मसिंह के एक बड़े भाई मदनसिंह थे। वह घर का कामकाज देखते थे। थोड़ी-सी जमींदारी थी, कुछ लेन-देन करते थे। उनके एक ही लड़का था, जिसका नाम सदनसिंह था। स्त्री का नाम भामा था। मां-बाप का इकलौता लड़का

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सुमन के चले जाने के बाद पद्मसिंह के हृदय में एक आत्मग्लानि उत्पन्न हुई– मैंने अच्छा नहीं किया। न मालूम वह कहां गई। अपने घर चली गई तो पूछना ही क्या, किन्तु वहां वह कदापि न गई होगी। मरता क्या न करता, कह

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दूसरे दिन पद्मसिंह सदन को साथ किसी लेकर स्कूल में दाखिल कराने चले। किंतु जहां गए, साफ जवाब मिला ‘स्थान नहीं है।’ शहर में बारह पाठशालाएं थीं। लेकिन सदन के लिए कहीं स्थान न था। शर्माजी ने विवश होकर निश

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प्राचीन ऋषियों ने इंद्रियों को दमन करने के दो साधन बताए हैं– एक राग, दूसरा वैराग्य। पहला साधन अत्यंत कठिन और दुस्साध्य है। लेकिन हमारे नागरिक समाज ने अपने मुख्य स्थानों पर मीनाबाजार सजाकर इसी कठिन मार

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महाशय विट्ठलदास इस समय ऐसे खुश थे मानों उन्हें कोई संपत्ति मिल गई हो। उन्हें विश्वास था कि पद्मसिंह इस जरा से कष्ट से मुंह न मोड़ेंगे, केवल उनके पास जाने की देर है। वह होली के कई दिन पहले से शर्माजी क

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संध्या का समय है। सदन अपने घोड़े पर सवार दालमंडी में दोनों तरफ छज्जों और खिड़कियों की ओर ताकता जा रहा है। जब से सुमन वहां आई है, सदन उसके छज्जे के सामने किसी-न-किसी बहाने से जरा देर के लिए अवश्य ठहर ज

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बाबू विट्ठलदास अधूरा काम न करते थे। पद्मसिंह की ओर से निराश होकर उन्हें यह चिंता होने लगी कि सुमनबाई के लिए पचास रुपए मासिक का चंदा कैसे करूं? उनकी स्थापित की हुई संस्थाएं चंदों ही से चल रही थीं, लेकि

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शाम हो गई। सुमन ने दिन-भर विट्ठलदास की राह देखी, लेकिन वह अब तक नहीं आए। सुमन के मन में जो नाना प्रकार की शंकाएं उठ रही थीं, वह पुष्ट हो गईं। विट्ठलदास अब नहीं आएंगे, अवश्य कोई विघ्न पड़ा। या तो वह कि

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सुभद्रा को संध्या के समय कंगन की याद आई। लपकी हुई स्नान-घर में गई। उसे खूब याद था कि उसने यहीं ताक पर रख दिया था, लेकिन उसका वहाँ पता न था। इस पर वह घबराई। अपने कमरे के प्रत्येक ताक और आलमारी को देखा,

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विट्ठलदास को संदेह हुआ कि सुमन तीस रुपए मासिक स्वीकार करना नहीं चाहती, इसलिए उसने कल उत्तर देने का बहाना करके मुझे टाला है। अतएव वे दूसरे दिन उसके पास नहीं गए, इसी चिंता में पड़े रहे कि शेष रुपयों का

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सुमन पार्क से लौटी तो उसे खेद होने लगा कि मैंने शर्माजी को वे ही दुखानेवाली बातें क्यों कहीं उन्होंने इतनी उदारता से मेरी सहायता की, जिसका मैंने यह बदला दिया? वास्तव में मैंने अपनी दुर्बलता का अपराध उ

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सदन प्रातःकाल घर गया, तो अपनी चाची के हाथों में कंगन देखा। लज्जा से उसकी आंखें जमीन में गड़ गईं। नाश्ता करके जल्दी से बाहर निकल आया और सोचने लगा, यह कंगन इन्हें कैसे मिल गया? क्या यह संभव है कि सुमन

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यह बात बिल्कुल तो असत्य नहीं है कि ईश्वर सबको किसी-न-किसी हीले से अन्न-वस्त्र देता है। पंडित उमानाथ बिना किसी हीले ही के संसार का सुख-भोग करते थे। उनकी आकाशी वृत्ति थी। उनके भैंस और गाएं न थीं, लेकिन

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सार्वजनिक संस्थाएं भी प्रतिभाशाली मनुष्य की मोहताज होती हैं। यद्यपि विट्ठलदास के अनुयायियों की कमी न थी, लेकिन उनमें प्रायः सामान्य अवस्था के लोग थे। ऊंची श्रेणी के लोग उनसे दूर भागते थे। पद्मसिंह के

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रात के नौ बजे थे। पद्मसिंह भाई के साथ बैठे हुए विवाह के संबंध में बातचीत कर रहे थे। कल बारात जाएगी। दरवाजे पर शहनाई बज रही थी और भीतर गाना हो रहा था। मदनसिंह– तुमने जो गाड़ियां भेजी हैं; वह कल शाम तक

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बरसात के दिन थे, छटा छाई हुई थी। पंडित उमानाथ चुनारगढ़ के निकट गंगा के तट पर खड़े नाव की बाट जोह रहे थे। वह कई गांवों का चक्कर लगाते हुए आ रहे थे और संध्या होने से पहले चुनार के पास एक गांव में जाना च

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पंडित उमानाथ सदनसिंह का फलदान चढ़ा आए हैं। उन्होंने जाह्नवी से गजानन्द की सहायता की चर्चा नहीं की थी। डरते थे कि कहीं यह इन रुपयों को अपनी लड़कियों के विवाह के लिए रख छोड़ने पर जिद्द न करने लगे। जाह्न

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एक रोज उमानाथ ने कृष्णचन्द्र के सहचरों को धमकाकर कहा– अब तुमलोगों को उनके साथ बैठकर चरस पीते देखा तो तुम्हारी कुशल नहीं। एक-एक की बुरी तरह खबर लूंगा। उमानाथ का रोब सारे गांव पर छाया हुआ था। वे सब-के-स

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सेवासदन (भाग-3)

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30 शहर की म्युनिसिपैलिटी में कुल अठारह सभासद थे। उनमें आठ मुसलमान थे और दस हिन्दू। सुशिक्षित मेंबरों की संख्या अधिक थी, इसलिए शर्माजी को विश्वास था कि म्युनिसिपैलिटी में वेश्याओं को नगर से बाहर निकाल

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इस प्रस्ताव के विरोध में हिंदू मेंबरों को जब मुसलमानों के जलसे का हाल मालूम हुआ तो उनके कान खड़े हुए। उन्हें मुसलमानों से जो आशा थी, वह भंग हो गई। कुल दस हिंदू थे। सेठ बलभद्रदास चेयरमैन थे। डॉक्टर श्य

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जिस प्रकार कोई आलसी मनुष्य किसी के पुकारने की आवाज सुनकर जाग जाता है, किंतु इधर-उधर देखकर फिर निद्रा में मग्न हो जाता है, उसी प्रकार पंडित कृष्णचन्द्र क्रोध और ग्लानि का आवेश शांत होने पर अपने कर्त्तव

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सदन के विवाह का दिन आ गया। चुनार से बारात अमोला चली। उसकी तैयारियों का वर्णन व्यर्थ है। जैसी अन्य बारातें होती हैं, वैसी ही यह भी थी। वैभव और दरिद्रता का अत्यन्त करुणात्मक दृश्य था। पालकियों पर कारचोब

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विट्ठलदास ने सुमन को विधवाश्रम में गुप्त रीति से रखा था। प्रबंधकारिणी सभा के किसी सदस्य को इत्तिला न दी थी। आश्रम की विधवाओं से उसे विधवा बताया था। लेकिन अबुलवफा जैसे टोहियों से यह बात बहुत दिनों तक ग

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यद्यपि डॉक्टर साहब का बंगला निकट ही था, पर इन दोनों आदमियों ने एक किराए की गाड़ी की। डॉक्टर साहब के यहां पैदल जाना फैशन के विरुद्ध था। रास्ते में विट्ठलदास ने आज के सारे समाचार बढ़ा-चढ़ाकर बयान किए और

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सदन जब घर पर पहुंचा, तो उसके मन की दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो बरसों की कमाई लिए, मन में सहस्रों मंसूबे बांधता, हर्ष से उल्लसित घर आए और यहां संदूक खोलने पर उसे मालूम हो कि थैली खाली पड़ी है। विचारों

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सदन को व्याख्यानों की ऐसी चाट पड़ी कि जहां कहीं व्याख्यान की खबर पाता, वहां अवश्य जाता, दोनों पक्षों की बातें महीनों सुनने और उन पर विचार करने से उसमें राय स्थिर करने की योग्यता आने लगी। अब वह किसी यु

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जिस दिन से बारात लौट गई, उसी दिन से कृष्णचन्द्र फिर से बाहर नहीं निकले। मन मारे हुए अपने कमरे में बैठे रहते। उन्हें अब किसी को अपना मुंह दिखाते लज्जा आती थी। दुश्चरित्रा सुमन ने उन्हें संसार की दृष्टि

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प्रातःकाल यह शोक-समाचार अमोला में फैल गया। इने-गिने सज्जनों को छोड़कर कोई भी उमानाथ के द्वार पर संवेदना प्रकट करने न आया। स्वाभाविक मृत्यु हुई होती, तो संभवतः उनके शत्रु भी आकर चार आंसू बहा जाते, पर आ

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पद्मसिंह का पहला विवाह उस समय हुआ था, जब वह कॉलेज में पढ़ते थे, और एम. ए. पास हुए, तो वह एक पुत्र के पिता थे। पर बालिका वधू शिशु-पालन का मर्म न जानती थी। बालक जन्म के समय तो हृष्ट-पुष्ट था, पर पीछे धी

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शान्ता ने पत्र तो भेजा, पर उसको उत्तर आने की कोई आशा न थी। तीन दिन बीत गए, उसका नैराश्य दिनों-दिन बढ़ता जा रहा था। अगर कुछ अनुकूल उत्तर न आया, तो उमानाथ अवश्य ही उसका विवाह कर देंगे, यह सोचकर शान्ता क

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शान्ता को आश्रम में आए एक मास से ऊपर हो गया, लेकिन पद्मसिंह ने अभी तक अपने घर में किसी से इसकी चर्चा नहीं की। कभी सोचते, भैया को पत्र लिखूं, कभी सोचते, चलकर उनसे कहूं, कभी विट्ठलदास को भेजने का विचार

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पद्मसिंह की आत्मा किसी भांति इस तरमीम के स्वीकार करने में अपनी भूल स्वीकार न करती थी। उन्हें कदापि यह आशा न थी कि उनके मित्रगण एक गौण बात पर उनका इतना विरोध करेंगे। उन्हें प्रस्ताव के एक अंश के अस्वीक

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सदन जब सुमन को देखकर लौटा, तो उसकी दशा उस दरिद्र मनुष्य की-सी थी, जिसका वर्षों का धन चोरों ने हर लिया हो। वह सोचता था, सुमन मुझसे बोली क्यों नहीं, उसने मेरी ओर ताका क्यों नहीं? क्या वह मुझे इतना नीच

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सेवासदन (भाग-4)

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46 सदन को ऐसी ग्लानि हो रही थी, मानों उसने कोई बड़ा पाप किया हो। वह बार-बार अपने शब्दों पर विचार करता और यही निश्चय करता कि मैं बड़ा निर्दय हूं। प्रेमाभिलाषा ने उसे उन्मत्त कर दिया था। वह सोचता, मुझ

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प्रभाकर राव का क्रोध बहुत कुछ तो सदन के लेखों से ही शांत हो गया था और जब पद्मसिंह ने सदन के आग्रह से सुमन का पूरा वृत्तांत उन्हें लिख भेजा, तो वह सावधान हो गए। म्युनिसपैलिटी में प्रस्ताव को पास हुए ल

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एक महीना बीत गया। सदन ने अपने इस नए धंधे की चर्चा घर में किसी से न की। वह नित्य सबेरे उठकर गंगा-स्नान के बहाने चला जाता। वहां से दस बजे घर आता। भोजन करके फिर चल देता और तब का गया-गया घड़ी रात गए, घर ल

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बाबू विट्ठलदास न्यायप्रिय सरल मनुष्य थे, जिधर न्याय खींच ले जाता, उधर चले जाते थे। इसमें लेश-मात्र भी संकोच न होता था। जब उन्होंने पद्मसिंह को न्यायपथ से हटते देखा, तो उनका साथ छोड़ दिया और कई महीने त

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सदनसिंह का विवाह संस्कार हो गया। झोंपड़ा खूब सजाया गया था। वही मंडप का काम दे रहा था, लेकिन कोई भीड़-भाड़ न थी। पद्मसिंह उस दिन घर चले गए और मदनसिंह से सब समाचार कहा। वह यह सुनते ही आग हो गए, बोले– म

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जैसे सुंदर भाव के समावेश से कविता में जान पड़ जाती है और सुंदर रंगों से चित्र में, उसी प्रकार दोनों बहनों के आने से झोंपड़ी में जान आ गई। अंधी आंखों में पुतलियां पड़ गई हैं। मुर्झाई हुई कली शान्ता अब

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पंडित पद्मसिंह के चार-पांच मास के सदुद्योग का यह फल हुआ कि बीस-पच्चीस वेश्याओं ने अपनी लड़कियों को अनाथालय में भेजना स्वीकार कर लिया। तीन वेश्याओं ने अपनी सारी संपत्ति अनाथालय के निमित्त अर्पण कर दी,

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पंडित मदनसिंह की कई महीने तक यह दशा थी कि जो कोई उनके पास आता, उसी से सदन की बुराई करते-कपूत है, भ्रष्ट है, शोहदा है, लुच्चा है, एक कानी कौड़ी तो दूंगा नहीं, भीख मांगता फिरेगा, तब आटे-दाल का भाव मालूम

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जिस प्रकार कोई मनुष्य लोभ के वश होकर आभूषण चुरा लेता है, पर विवेक होने पर उसे देखने में भी लज्जा आती है, उसी प्रकार सदन भी सुमन से बचता फिरता था। इतना ही नहीं, वह उसे नीची दृष्टि से देखता था और उसकी उ

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संध्या का समय है। आकाश पर लालिमा छाई हुई है और मंद वायु गंगा की लहरों पर क्रीड़ा कर रही है, उन्हें गुदगुदा रही है। वह अपने करुण नेत्रों से मुस्कराती है और कभी-कभी खिलखिलाकर हंस पड़ती है, तब उसके मोती

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एक साल बीत गया। पंडित मदनसिंह पहले तीर्थ यात्रा पर उधार खाए बैठे थे। जान पड़ता था, सदन के घर आते ही एक दिन भी न ठहरेंगे, सीधे बद्रीनाथ पहुंचकर दम लेंगे, पर जब से सदन आ गया है, उन्होंने भूलकर भी तीर्थ-

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कार्तिक का महीना था। पद्मसिंह सुभद्रा को लेकर गंगा-स्नान कराने ले गए थे। लौटती बार वह अलईपुर की ओर से आ रहे थे। सुभद्रा गाड़ी की खिड़की से बाहर झांकती चली आती थी और सोचती थी कि यहाँ इस सन्नाटे में लोग

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