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सेवासदन (भाग-3)

10 फरवरी 2022

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शहर की म्युनिसिपैलिटी में कुल अठारह सभासद थे। उनमें आठ मुसलमान थे और दस हिन्दू। सुशिक्षित मेंबरों की संख्या अधिक थी, इसलिए शर्माजी को विश्वास था कि म्युनिसिपैलिटी में वेश्याओं को नगर से बाहर निकाल देने का प्रस्ताव स्वीकृत हो जाएगा। वे सब सभासदों से मिल चुके थे और इस विषय में उनकी शंकाओं का समाधान कर चुके थे, लेकिन मेंबरों में कुछ ऐसे सज्जन भी थे, जिनकी ओर से घोर विरोध होने का भय था। ये लोग बड़े व्यापारी, धनवान और प्रभावशाली मनुष्य थे। इसलिए शर्माजी को यह भय भी था कि कहीं शेष मेंबर उनके दबाव में न आ जाएं। हिन्दुओं में विरोधी दल के नेता सेठ बलभद्रदास थे और मुसलमानों में हाजी हाशिम। जब तक विट्ठलदास इस आंदोलन के कर्त्ता-धर्त्ता थे, तब तक इन लोगों ने उसकी ओर कुछ ध्यान न दिया था, लेकिन जब से पद्मसिंह और म्युनिसिपैलिटी के अन्य कई मेंबर इस आंदोलन में सम्मिलित हो गए थे, तब से सेठजी और हाजी साहब के पेट में चूहे दौड़ रहे थे। उन्हें मालूम हो गया था कि शीघ्र ही यह मंतव्य सभा में उपस्थित होगा, इसलिए दोनों महाशय अपने पक्ष को स्थिर करने में तत्पर हो रहे थे। पहले हाजी साहब ने मुसलमान मेंबरों को एकत्र किया। हाजी साहब का जनता पर बड़ा प्रभाव था और वह शहर के सदस्य मुसलमानों के नेता समझे जाते थे। शेष सात मेंबरों में मौलाना तेगअली एक इमामबाड़े के वली थे। मुंशी अबुलवफा इत्र और तेल के कारखाने के मालिक थे। बड़े-बड़े शहरों में उनकी दुकानें थीं। मुंशी अब्दुललतीफ एक बड़े जमींदार थे, लेकिन बहुधा शहर में रहते थे। कविता से प्रेम था और स्वयं अच्छे कवि थे। शाकिरबेग और शरीफहसन वकील थे। उनके सामाजिक सिद्धांत बहुत उन्नत थे। शैयद शफकतअली पेंशनर डिप्टी कलेक्टर थे और खां साहब शोहरतखां प्रसिद्ध हकीम थे। ये दोनों महाशय सभा-समाजों से प्रायः पृथक् ही रहते थे, किंतु उनमें उदारता और विचारशीलता की कमी न थी। दोनों धार्मिक प्रवृत्ति के मनुष्य थे। समाज में उनका बड़ा सम्मान था।
हाजी हाशिम बोले– बिरादराने वतन की यह नई चाल आप लोगों ने देखी? वल्लाह इनको सूझती खूब है, बगली घूंसे मारना कोई इनसे सीख ले। मैं तो इनकी रेशादवानियों से इतना बदजन हो गया हूं कि अगर इनकी नेकनीयती पर ईमान लाने में नजात भी होती हो, तो न लाऊं।
अबुलवफा ने फरमाया– मगर अब खुदा के फजल से हमको भी अपने नफे नुकसान का एहसास होने लगा। यह हमारी तादाद को घटाने की सरीह कोशिश है। तवायफें नब्बे फीसदी मुसलमान हैं, जो रोजे रखती हैं, इजादारी करती हैं, मौलूद और उर्स करती हैं। हमको उनके जाती फेलों से कोई बहस नहीं है। नेक व बद की सजा व जजा देना खुदा का काम है। हमको तो सिर्फ उनकी तादाद से गरज है।
तेगअली– मगर उनकी तादाद क्या इतनी ज्यादा है कि उससे हमारे मजमुई वोट पर कोई असर पड़ सकता है?
अबुलवफा– कुछ-न-कुछ तो जरूर पड़ेगा, ख्वाह वह कम हो या ज्यादा। बिरादराने वतन को दोखिए, वह डोमड़ों तक को मिलाने की कोशिश करते हैं, उनके साए से परहेज करते हैं, उन्हें जानवरों से भी ज्यादा जलील समझते हैं, मगर महज अपने पोलिटिकल मफाद के लिए उन्हें अपने कौमी जिस्म का एक अजो बनाए हुए हैं। डोमड़ों का शुमार जरायम पेशा अकवाम में है। आलिहाजा, पासी, भर वगैरह भी इसी जेल में आते हैं। सरका, कत्ल, राहजनी, यह उनके पेशे हैं। मगर जब उन्हें हिन्दू जमाअत से अलहदा करने की कोशिश की जाती है, तो बिरादराने वतन कैसे चिरागपा होते हैं। वेद और शासतर की सनदें नकल करते फिरते हैं। हमको इस मुआमिले में उन्हीं से सबक लेना चाहिए।
सैयद शफकतअली ने विचारपूर्ण भाव से कहा– इस जरायमपेशा अकवाम के लिए गवर्नमेंट ने शहरों में खित्ते अलेहदा कर दिए। उन पर पुलिस की निगरानी रहती है। मैं खुद अपने दौराने मुलाजिमत में उनकी नकल और हरकत की रिपोर्ट लिखा करता था। मगर मेरे ख्याल में किसी जिम्मेदार हिंदू ने गवर्नमेंट के इस तर्जे-अमल की मुखालिफत नहीं की। हालांकि मेरी निगाह में सरका, कत्ल वगैरह इतने मकरूह फेल नहीं हैं, जितनी असमतफरोशी। डोमनी भी जब असमतफरोशी करती है, तो वह अपनी बिरादरी से खारिज कर दी जाती है। अगर किसी डोम या भर के पास काफी दौलत हो, तो इस हुस्न के खुले हुए बाजार में मनमाना सौदा खरीद सकता है। खुदा वह दिन न लाए कि हम अपने पोलिटिकल मफाद के लिए इस हद तक जलील होने पर मजबूर हों। अगर इन तवायफों की दीनदारी के तुफैल में सारे इस्लाम को खुदा जन्नत अता करे, तो मैं दोजख में जाना पसंद करूंगा। अगर उनकी तादाद की बिना पर हमको इस मुल्क की बादशाही भी मिलती हो, तो मैं कबूल न करूं। मेरी राय तो यह है कि इन्हें मरकज शहर ही से नहीं, हदूद शहर से खारिज कर देना चाहिए।
हकीम शोहरत खां बोले– जनाब, मेरा बस चले तो मैं इन्हें हिंदुस्तान से निकाल दूं, इनसे एक जजीरा अलग आबाद करूं। मुझे इस बाजार के खरीदारी से अक्सर साबिका रहता है। अगर मेरी मजहबी अकायद में फर्क न आए, तो मैं यह कहूंगा कि तवायफें हैजे और ताऊन का औतार हैं। हैजा दो घंटे में काम तमाम कर देता है, प्लेग दो दिन में, लेकिन यह जहन्नुमी हस्तियां रुला-रुलाकर और घुला-घुलाकर जान मारती हैं। मुंशी अबुलवफा साहब उन्हें जन्नती हूर समझते हों, लेकिन वे ये काली नागिनें हैं, जिनकी आखों में जहर है। वे ये चश्में हैं, जहां से जरायम के सोते निकलते हैं। कितनी ही नेक बीबियां उनकी बदौलत खून के आंसू रो रही हैं। कितने ही शरीफजादे उनकी बदौलत खस्ता व ख्वार हो रहे हैं। यह हमारी बदकिस्मती है कि बेशतर तवायफें अपने को मुसलमान कहती हैं।
शरीफ हसन बोले– इसमें तो कोई बुराई नहीं कि वह अपने को मुसलमान कहती हैं। बुराई यह है कि उन्हें राहे-रास्ते पर लाने की कोई कोशिश नहीं करता। हिंदुओं की देखा-देखी इस्लाम ने भी उन्हें अपने दायरे से खारिज कर दिया है। जो औरत एक बार किसी वजह से गुमराह हो गई, उसकी तरफ से इस्लाम हमेशा के लिए अपनी आंखें बंद कर लेता है। बेशक हमारी मौलाना साहब सब्ज इमामा बांधे, आंखों में सुरमा लगाए, गेसू संवारे, उनकी मजहबी तस्कीन के लिए जा पहुंचते हैं, उनके दस्तरख्वान से मीठे लुकमें खाते हैं, खुशबूदार खमीरे की कश लगाते हैं और उनके खसदान से मुअत्तर बीड़े उड़ाते हैं। बस, इस्लाम की मजहबी कूबते इस्लाम यहीं तक खत्म हो जाती है। अपने बुरे फैलों पर नादिम होना इंसानी खासा है। ये गुमराह औरतें पेशतर नहीं, तो शराब का नशा उतरने के बाद जरूर अपनी हालत पर अफसोस करती हैं, लेकिन उस वक्त उनका पछताना बेसूद होता है। उनके गुजरानी की इसके सिवा और कोई सूरत नहीं रहती कि वे अपनी लड़कियों को दूसरे को दामे-मुहब्बत में फंसाएं और इस तरह यह सिलसिला हमेशा जारी रहता है। अगर उन लड़कियों की जायज तौर पर शादी हो सके और उसके साथ ही उनकी परवरिश की सूरत भी निकल आए तो मेरे ख्याल से ज्यादा नहीं तो पचहत्तर फीसदी तवायफें इसे खुशी से कबूल कर लें। हम चाहे खुद गुनहगार हों, पर अपनी औलाद को हम नेक और रास्तबाज देखने की तमन्ना रखते हैं। तवायफों को शहर से खारिज कर देने से उनकी इस्लाह नहीं हो सकती। इस ख्याल को सामने रखकर तो मैं इस इखराज की तहरीक पर एतराज करने की जुरअत कर सकता हूं। पर पोलिटिकिल मफाद की बिना पर मैं उसकी मुखालिफत नहीं कर सकता। मैं किसी फैल को कौमी ख्याल से पसंदीदा नहीं समझता जो इखलाकी तौर पर पसंदीदा न हो।
तेगअली– बंदानवाज, संभलकर बातें कीजिए। ऐसा न हो कि आप पर कुफ्र का फतवा सादिर हो जाए। आजकल। पोलिटिकल मफाद का जोर है, हक और इंसाफ का नाम न लीजिए। अगर आप मुदर्रिस हैं, तो हिंदू लड़कों को फेल कीजिए। तहसीलदार हैं, तो हिंदुओं पर टैक्स लगाइए, मजिस्ट्रेट हैं, तो हिंदुओं को सजाएं दीजिए। सबइंस्पेक्टर पुलिस हैं तो हिंदुओं पर झूठे मुकदमे दायर कीजिए, तहकीकात करने जाइए, तो हिंदुओं के बयान गलत लिखिए। अगर आप चोर हैं, तो किसी हिंदू के घर में डाका डालिए, अगर आपको हुस्न या इश्क का खब्त है, तो किसी हिंदू नाजनीन को उड़ाइए, तब आप कौम के खादिम, कौम के मुहकिन, कौमी किश्ती के नाखुदा– सब कुछ हैं।
हाजी हाशिम बुड़बुड़ाए, मुंशी अबुलवफा के तेवरों पर बल पड़ गए। तेगअली की तलवार ने उन्हें घायल कर दिया। अबुलवफा कुछ कहना ही चाहते थे कि शाकिर बेग बोल उठे– भाई साहब, यह तान-तंज का मौका नहीं। हम अपने घर में बैठे हुए एक अमल के बारे में दोस्ताना मशविरा कर रहे हैं। जबाने तेज मसलहत के हक में जहरे कातिल है। मैं शाहिदान तन्नाज को निजाम तमद्दुन में बिल्कुल बेकार या मायए शर नहीं समझता। आप जब कोई मकान तामीर करते हैं, तो उसमें बदरौर बनना जरूरी खयाल करते हैं। अगर बदरौर न हो तो चंद दिनों में दीवारों की बुनियादें हिल जाएं। इस फिरके को सोसाइटी का बदरौर समझना चाहिए और जिस तरह बदरौर मकान के नुमाया हिस्से में नहीं होती, बल्कि निगाह से पोशीदा एक गोशे में बनाई जाती है, उसी तरह इस फिरके को शहर के पुरफिजा मुकामात से हटाकर किसी गोशे में आबाद करना चाहिए।
मुंशी अबुलवफा पहले के वाक्य सुनकर खुश हो गए थे, पर नाली की उपमा पर उनका मुंह लटक गया। हाजी हाशिम ने नैराश्य से अब्दुललतीफ की ओर देखा जो अब तक चुपचाप बैठे हुए थे और बोले– जनाब, कुछ आप भी फर्माते हैं? दोस्ती के बहाव में आप भी तो नहीं बह गए?
अब्दुललतीफ बोले– जनाब, बंदा को न इत्तहाद से दोस्ती, न मुखालफत से दुश्मनी। अपना मुशरिब तो सुलहेकुल है। मैं अभी यही तय नहीं कर सका कि आलमो बेदारी में हूं या ख्वाब में। बड़े-बड़े आलिमों को एक बे-सिर-पैर की बात की ताईद में जमीं और आसमान के कुलाबे मिलाते देखता हूं। क्योंकर बावर करूं कि बेदार हूं? साबुन, चमड़े और मिट्टी के तेल की दुकानों से आपको कोई शिकायत नहीं। कपड़े, बरतन आदवियात की दुकानें चौंक में हैं, आप उनको मुतलक बेमौका नहीं समझते! क्या आपकी निगाहों में हुस्न की इतनी भी वकअत नहीं? और क्या यह जरूरी है कि इसे किसी तंग तारीक कूचे में बंद कर दिया जाए! क्या वह बाग, बाग कहलाने का मुस्तहक है, जहां सरों की कतारें एक गोशे में हों, बेले और गुलाब के तख्ते दूसरे गोशे में और रविशों के दोनों तरफ नीम और कटहल के दरख्त हों, वस्त में पीपल का ठूंठ और किनारे बबूल की कलमें हों? चील और कौए दोनों तरफ तख्तों पर बैठे अपना राग अलापते हों, और बुलबुलें किसी गोश-ए-तारीक में दर्द के तराने गाती हों? मैं इस तहरीक की सख्त मुखालिफत करता हूं। मैं उसे इस काबिल भी नहीं समझता कि उस पर मतानत के साथ बहस की जाए।
हाजी हाशिम मुस्कुराए, अबुलवफा की आंखें खुशी से चमकने लगीं। अन्य महाशयों ने दार्शनिक मुस्कान के साथ यह हास्यपूर्ण वक्तृता सुनी, पर तेगअली इतने सहनशील न थे। तीव्र भाव से बोले– क्यों गरीब-परवर, अब की बोर्ड में यह तजवीज क्यों न पेश की जाए कि म्युनिसिपैलिटी ऐन चौक में खास एहतमाम के साथ मीनाबाजार आरास्ता करे और जो हजरत इस बाजार की सैर को तशरीफ ले जाएं, उन्हें गवर्नमेंट की जानिब से खुश नूदी मिजाज का परवाना अदा किया जाए? मेरे खयाल से इस तजवीज की ताईद करने वाले बहुत निकल आएंगे और इस तजवीज के मुहर्रिर का नाम हमेशा के लिए जिंदा हो जाएगा। उसकी वफात के बाद उसके मजार पर उर्स होंगे और वह अपने गोश-ए-लहद में पड़ा हुआ हुस्न की बहार लूटेगा और दलपजीर नगमे सुनेगा।
मुंशी अब्दुललतीफ का मुंह लाल हो गया। हाजी हाशिम ने देखा कि बात बढ़ी जाती है, तो बोले– मैं अब तक सुना करता था कि उसूल भी कोई चीज है, मगर आज मालूम हुआ कि वह महज एक वहम है। अभी बहुत दिन नहीं हुए कि आप ही लोग इस्लामी बजाएफ का डेपुटेशन लेकर गए थे, मुसलमान कैदियों के मजहबी तस्कीन की तजवीजें कर रहे थे और अगर मेरा हाफिजा गलती नहीं करता, तो आप ही लोग उन मौकों पर पेश नजर आते थे। मगर आज एकाएक इंकलाब नजर आता है। खैर, आपका तलब्वुन आपको मुबारक रहे। बंदा इतना सहलयकीन नहीं है। मैंने जिंदगी का यह उसूल बना लिया है कि बिरादराने वतन की हर एक तजवीज की मुखालिफत करूंगा, क्योंकि मुझे उससे किसी बेहबूदी की तबक्को नहीं है।
अबुलवफा ने कहा– आलिहाजा, मुझे रात को आफताब का यकीन हो सकता है, पर हिंदुओं की नेकनीयत पर यकीन नहीं हो सकता।
सैयद शफकत अली बोले– हाजी साहब, आपने हम लोगों को जमाना-साज और बेउसूल समझने में मतानत से काम नहीं लिया। हमारा उसूल जो तब था वह अब भी है और हमेशा रहेगा और वह है इस्लामी बकार को कायम करना और हर एक जायज तरीके से बिरादराने मिल्लत की बेहबूदी की कोशिश करना। अगर हमारे फायदे में बिरादराने वतन का नुकसान हो, तो हमको इसकी परवाह नहीं। मगर जिस तजवीज से उनके साथ हमको भी फायदा पहुंचता है और उनसे किसी तरह कम नहीं, उसकी मुखालिफत करना हमारे इमकान से बाहर है। हम मुखालिफत के लिए मुखालिफत नहीं कर सकते।
रात अधिक जा चुकी थी। सभा समाप्त हो गई। इस वार्तालाप का कोई विशेष फल न निकला। लोग मन में जो पक्ष स्थिर करके घर से आए थे, उसी पक्ष पर डटे रहे। हाजी हाशिम को अपनी विजय का जो पूर्ण विश्वास था, उसमें संदेह पड़ गया। 

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रचनाएँ
सेवासदन
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प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। सेवासदन में नारी जीवन की समस्याओं के साथ-साथ समाज के धर्माचार्यों, मठाधीशों, धनपतियों, सुधारकों के आडंबर, दंभ, ढोंग, पाखंड, चरित्रहीनता, दहेज-प्रथा, बेमेल विवाह, पुलिस की घूसखोरी, वेश्यागमन, मनुष्य के दोहरे चरित्र, साम्प्रदायिक द्वेष आदि सामाजिक विकृतियों का विवरण मिलता है।सेवासदन उपन्यास की मुख्य समस्या क्या है? “सेवासदन” में प्रेमचन्द दिखाते है कि हमारी सामाजिक कुरीतियाँ स्त्रियों के जीवन को विवश करती है । इसकी मुख्य समस्या मध्य वर्गीय लोगों की आडंबर प्रियता से संबंधित है । प्रेमचन्द यह बताना चाहता है कि मनुष्य को जीने के लिए धन द्वारा प्राप्त सुख के समान मन द्वारा प्राप्त सुख भी चाहिए ।प्रेमचंद ने जहाँ एक ओर नारी की सामाजिक पराधीनता उसके फलसवरूप उत्पन्न समस्याओं को अपने इस उपन्यास में अभिव्यक्ति प्रदान की है, वहीं दूसरी ओर यह भी दिखलाया है कि किस प्रकार उनके नारी-पात्र उपन्यास के अंत तक आते-आते सामाजिक अन्याय से मुक्ति पाने का मार्ग स्वयं ही खोज देते हैं।
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सेवासदन (भाग 1)

9 फरवरी 2022
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1 पश्चाताप के कड़वे फल कभी-न-कभी सभी को चखने पड़ते हैं, लेकिन और लोग बुराईयों पर पछताते हैं, दारोगा कृष्णचन्द्र अपनी भलाइयों पर पछता रहे थे। उन्हें थानेदारी करते हुए पच्चीस वर्ष हो गए, लेकिन उन्हों

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दारोगाजी के हल्के में एक महन्त रामदास रहते थे। वह साधुओं की एक गद्दी के महंत थे। उनके यहां सारा कारोबार ‘श्री बांकेबिहारीजी’ के नाम पर होता था। ‘श्री बांकेबिहारीजी’ लेन-देन करते थे और बत्तीस रुपये प्र

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पण्डित कृष्णचन्द्र रिश्वत लेकर उसे छिपाने के साधन न जानते थे । इस विषय में अभी नोसिखुए थे । उन्हें मालूम न था कि हराम का माल अकेले मुश्किल से पचता है । मुख्तार ने अपने मन मे कहा, हमीं ने सब कुछ किया औ

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कृष्णचन्द्र अपने कस्बे में सर्वप्रिय थे । यह खबर फैलते ही सारी बस्ती में हलचल मच गई । कई भले आदमी उनकी जमानत करने आये लेकिन साहब ने जमानत न ली । इसके एक सप्ताह बाद कृष्णचन्द्र पर रिश्वत लेने का अभियो

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फागुन में सुमन का विवाह हो गया। गंगाजली दामाद को देखकर बहुत रोई। उसे ऐसा दुःख हुआ, मानो किसी ने सुमन को कुएं में डाल दिया। सुमन ससुराल आई तो यहां की अवस्था उससे भी बुरी पाई, जिसकी उसने कल्पना की थी।

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सुमन को ससुराल आए डेढ़ साल के लगभग हो चुका था, पर उसे मैके जाने का सौभाग्य न हुआ था। वहां से चिट्ठियां आती थीं। सुमन उत्तर में अपनी मां को समझाया करती, मेरी चिंता मत करना, मैं बहुत आनंद से हूं, पर अब

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गजाधरप्रसाद की दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो चोरों के बीच में अशर्फियों की थैली लिए बैठा हो। सुमन का वह मुख-कमल, जिस पर वह कभी भौंरे की भांति मंडराया करता था, अब उसकी आँखों में जलती हुई आग के समान था। वह

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दूसरे दिन से सुमन ने चिक के पास खड़ा होना छोड़ दिया। खोंचेवाले आते और पुकार कर चले जाते। छैले गजल गाते हुए निकल जाते। चिक की आड़ में अब उन्हें कोई न दिखाई देता था। भोली ने कई बार बुलाया, लेकिन सुमन ने

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दूसरे दिन सुमन नहाने न गई। सबेरे ही से अपनी एक रेशमी साड़ी की मरम्मत करने लगी। दोपहर को सुभद्रा की एक महरी उसे लेने आई। सुमन ने मन में सोचा था, गाड़ी आवेगी। उसका जी छोटा हो गया। वही हुआ जिसका उसे भ

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दरवाजे पर आकर सुमन सोचने लगी कि अब कहां जाऊं। गजाधर की निर्दयता से भी उसे दुःख न हुआ था, जितना इस समय हो रहा था। उसे अब मालूम हुआ कि मैंने अपने घर से निकलकर बड़ी भूल की। मैं सुभद्रा के बल पर कूद रही थ

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सेवासदन (भाग-2)

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सुमन के चले जाने के बाद पद्मसिंह के हृदय में एक आत्मग्लानि उत्पन्न हुई– मैंने अच्छा नहीं किया। न मालूम वह कहां गई। अपने घर चली गई तो पूछना ही क्या, किन्तु वहां वह कदापि न गई होगी। मरता क्या न करता, कह

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दूसरे दिन पद्मसिंह सदन को साथ किसी लेकर स्कूल में दाखिल कराने चले। किंतु जहां गए, साफ जवाब मिला ‘स्थान नहीं है।’ शहर में बारह पाठशालाएं थीं। लेकिन सदन के लिए कहीं स्थान न था। शर्माजी ने विवश होकर निश

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प्राचीन ऋषियों ने इंद्रियों को दमन करने के दो साधन बताए हैं– एक राग, दूसरा वैराग्य। पहला साधन अत्यंत कठिन और दुस्साध्य है। लेकिन हमारे नागरिक समाज ने अपने मुख्य स्थानों पर मीनाबाजार सजाकर इसी कठिन मार

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महाशय विट्ठलदास इस समय ऐसे खुश थे मानों उन्हें कोई संपत्ति मिल गई हो। उन्हें विश्वास था कि पद्मसिंह इस जरा से कष्ट से मुंह न मोड़ेंगे, केवल उनके पास जाने की देर है। वह होली के कई दिन पहले से शर्माजी क

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संध्या का समय है। सदन अपने घोड़े पर सवार दालमंडी में दोनों तरफ छज्जों और खिड़कियों की ओर ताकता जा रहा है। जब से सुमन वहां आई है, सदन उसके छज्जे के सामने किसी-न-किसी बहाने से जरा देर के लिए अवश्य ठहर ज

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बाबू विट्ठलदास अधूरा काम न करते थे। पद्मसिंह की ओर से निराश होकर उन्हें यह चिंता होने लगी कि सुमनबाई के लिए पचास रुपए मासिक का चंदा कैसे करूं? उनकी स्थापित की हुई संस्थाएं चंदों ही से चल रही थीं, लेकि

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शाम हो गई। सुमन ने दिन-भर विट्ठलदास की राह देखी, लेकिन वह अब तक नहीं आए। सुमन के मन में जो नाना प्रकार की शंकाएं उठ रही थीं, वह पुष्ट हो गईं। विट्ठलदास अब नहीं आएंगे, अवश्य कोई विघ्न पड़ा। या तो वह कि

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सुभद्रा को संध्या के समय कंगन की याद आई। लपकी हुई स्नान-घर में गई। उसे खूब याद था कि उसने यहीं ताक पर रख दिया था, लेकिन उसका वहाँ पता न था। इस पर वह घबराई। अपने कमरे के प्रत्येक ताक और आलमारी को देखा,

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विट्ठलदास को संदेह हुआ कि सुमन तीस रुपए मासिक स्वीकार करना नहीं चाहती, इसलिए उसने कल उत्तर देने का बहाना करके मुझे टाला है। अतएव वे दूसरे दिन उसके पास नहीं गए, इसी चिंता में पड़े रहे कि शेष रुपयों का

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सुमन पार्क से लौटी तो उसे खेद होने लगा कि मैंने शर्माजी को वे ही दुखानेवाली बातें क्यों कहीं उन्होंने इतनी उदारता से मेरी सहायता की, जिसका मैंने यह बदला दिया? वास्तव में मैंने अपनी दुर्बलता का अपराध उ

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सदन प्रातःकाल घर गया, तो अपनी चाची के हाथों में कंगन देखा। लज्जा से उसकी आंखें जमीन में गड़ गईं। नाश्ता करके जल्दी से बाहर निकल आया और सोचने लगा, यह कंगन इन्हें कैसे मिल गया? क्या यह संभव है कि सुमन

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यह बात बिल्कुल तो असत्य नहीं है कि ईश्वर सबको किसी-न-किसी हीले से अन्न-वस्त्र देता है। पंडित उमानाथ बिना किसी हीले ही के संसार का सुख-भोग करते थे। उनकी आकाशी वृत्ति थी। उनके भैंस और गाएं न थीं, लेकिन

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सार्वजनिक संस्थाएं भी प्रतिभाशाली मनुष्य की मोहताज होती हैं। यद्यपि विट्ठलदास के अनुयायियों की कमी न थी, लेकिन उनमें प्रायः सामान्य अवस्था के लोग थे। ऊंची श्रेणी के लोग उनसे दूर भागते थे। पद्मसिंह के

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रात के नौ बजे थे। पद्मसिंह भाई के साथ बैठे हुए विवाह के संबंध में बातचीत कर रहे थे। कल बारात जाएगी। दरवाजे पर शहनाई बज रही थी और भीतर गाना हो रहा था। मदनसिंह– तुमने जो गाड़ियां भेजी हैं; वह कल शाम तक

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बरसात के दिन थे, छटा छाई हुई थी। पंडित उमानाथ चुनारगढ़ के निकट गंगा के तट पर खड़े नाव की बाट जोह रहे थे। वह कई गांवों का चक्कर लगाते हुए आ रहे थे और संध्या होने से पहले चुनार के पास एक गांव में जाना च

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पंडित उमानाथ सदनसिंह का फलदान चढ़ा आए हैं। उन्होंने जाह्नवी से गजानन्द की सहायता की चर्चा नहीं की थी। डरते थे कि कहीं यह इन रुपयों को अपनी लड़कियों के विवाह के लिए रख छोड़ने पर जिद्द न करने लगे। जाह्न

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एक रोज उमानाथ ने कृष्णचन्द्र के सहचरों को धमकाकर कहा– अब तुमलोगों को उनके साथ बैठकर चरस पीते देखा तो तुम्हारी कुशल नहीं। एक-एक की बुरी तरह खबर लूंगा। उमानाथ का रोब सारे गांव पर छाया हुआ था। वे सब-के-स

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सेवासदन (भाग-3)

10 फरवरी 2022
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30 शहर की म्युनिसिपैलिटी में कुल अठारह सभासद थे। उनमें आठ मुसलमान थे और दस हिन्दू। सुशिक्षित मेंबरों की संख्या अधिक थी, इसलिए शर्माजी को विश्वास था कि म्युनिसिपैलिटी में वेश्याओं को नगर से बाहर निकाल

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इस प्रस्ताव के विरोध में हिंदू मेंबरों को जब मुसलमानों के जलसे का हाल मालूम हुआ तो उनके कान खड़े हुए। उन्हें मुसलमानों से जो आशा थी, वह भंग हो गई। कुल दस हिंदू थे। सेठ बलभद्रदास चेयरमैन थे। डॉक्टर श्य

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जिस प्रकार कोई आलसी मनुष्य किसी के पुकारने की आवाज सुनकर जाग जाता है, किंतु इधर-उधर देखकर फिर निद्रा में मग्न हो जाता है, उसी प्रकार पंडित कृष्णचन्द्र क्रोध और ग्लानि का आवेश शांत होने पर अपने कर्त्तव

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सदन के विवाह का दिन आ गया। चुनार से बारात अमोला चली। उसकी तैयारियों का वर्णन व्यर्थ है। जैसी अन्य बारातें होती हैं, वैसी ही यह भी थी। वैभव और दरिद्रता का अत्यन्त करुणात्मक दृश्य था। पालकियों पर कारचोब

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विट्ठलदास ने सुमन को विधवाश्रम में गुप्त रीति से रखा था। प्रबंधकारिणी सभा के किसी सदस्य को इत्तिला न दी थी। आश्रम की विधवाओं से उसे विधवा बताया था। लेकिन अबुलवफा जैसे टोहियों से यह बात बहुत दिनों तक ग

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यद्यपि डॉक्टर साहब का बंगला निकट ही था, पर इन दोनों आदमियों ने एक किराए की गाड़ी की। डॉक्टर साहब के यहां पैदल जाना फैशन के विरुद्ध था। रास्ते में विट्ठलदास ने आज के सारे समाचार बढ़ा-चढ़ाकर बयान किए और

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सदन जब घर पर पहुंचा, तो उसके मन की दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो बरसों की कमाई लिए, मन में सहस्रों मंसूबे बांधता, हर्ष से उल्लसित घर आए और यहां संदूक खोलने पर उसे मालूम हो कि थैली खाली पड़ी है। विचारों

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सदन को व्याख्यानों की ऐसी चाट पड़ी कि जहां कहीं व्याख्यान की खबर पाता, वहां अवश्य जाता, दोनों पक्षों की बातें महीनों सुनने और उन पर विचार करने से उसमें राय स्थिर करने की योग्यता आने लगी। अब वह किसी यु

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जिस दिन से बारात लौट गई, उसी दिन से कृष्णचन्द्र फिर से बाहर नहीं निकले। मन मारे हुए अपने कमरे में बैठे रहते। उन्हें अब किसी को अपना मुंह दिखाते लज्जा आती थी। दुश्चरित्रा सुमन ने उन्हें संसार की दृष्टि

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प्रातःकाल यह शोक-समाचार अमोला में फैल गया। इने-गिने सज्जनों को छोड़कर कोई भी उमानाथ के द्वार पर संवेदना प्रकट करने न आया। स्वाभाविक मृत्यु हुई होती, तो संभवतः उनके शत्रु भी आकर चार आंसू बहा जाते, पर आ

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पद्मसिंह का पहला विवाह उस समय हुआ था, जब वह कॉलेज में पढ़ते थे, और एम. ए. पास हुए, तो वह एक पुत्र के पिता थे। पर बालिका वधू शिशु-पालन का मर्म न जानती थी। बालक जन्म के समय तो हृष्ट-पुष्ट था, पर पीछे धी

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शान्ता ने पत्र तो भेजा, पर उसको उत्तर आने की कोई आशा न थी। तीन दिन बीत गए, उसका नैराश्य दिनों-दिन बढ़ता जा रहा था। अगर कुछ अनुकूल उत्तर न आया, तो उमानाथ अवश्य ही उसका विवाह कर देंगे, यह सोचकर शान्ता क

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शान्ता को आश्रम में आए एक मास से ऊपर हो गया, लेकिन पद्मसिंह ने अभी तक अपने घर में किसी से इसकी चर्चा नहीं की। कभी सोचते, भैया को पत्र लिखूं, कभी सोचते, चलकर उनसे कहूं, कभी विट्ठलदास को भेजने का विचार

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पद्मसिंह की आत्मा किसी भांति इस तरमीम के स्वीकार करने में अपनी भूल स्वीकार न करती थी। उन्हें कदापि यह आशा न थी कि उनके मित्रगण एक गौण बात पर उनका इतना विरोध करेंगे। उन्हें प्रस्ताव के एक अंश के अस्वीक

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सदन जब सुमन को देखकर लौटा, तो उसकी दशा उस दरिद्र मनुष्य की-सी थी, जिसका वर्षों का धन चोरों ने हर लिया हो। वह सोचता था, सुमन मुझसे बोली क्यों नहीं, उसने मेरी ओर ताका क्यों नहीं? क्या वह मुझे इतना नीच

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सेवासदन (भाग-4)

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46 सदन को ऐसी ग्लानि हो रही थी, मानों उसने कोई बड़ा पाप किया हो। वह बार-बार अपने शब्दों पर विचार करता और यही निश्चय करता कि मैं बड़ा निर्दय हूं। प्रेमाभिलाषा ने उसे उन्मत्त कर दिया था। वह सोचता, मुझ

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प्रभाकर राव का क्रोध बहुत कुछ तो सदन के लेखों से ही शांत हो गया था और जब पद्मसिंह ने सदन के आग्रह से सुमन का पूरा वृत्तांत उन्हें लिख भेजा, तो वह सावधान हो गए। म्युनिसपैलिटी में प्रस्ताव को पास हुए ल

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एक महीना बीत गया। सदन ने अपने इस नए धंधे की चर्चा घर में किसी से न की। वह नित्य सबेरे उठकर गंगा-स्नान के बहाने चला जाता। वहां से दस बजे घर आता। भोजन करके फिर चल देता और तब का गया-गया घड़ी रात गए, घर ल

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बाबू विट्ठलदास न्यायप्रिय सरल मनुष्य थे, जिधर न्याय खींच ले जाता, उधर चले जाते थे। इसमें लेश-मात्र भी संकोच न होता था। जब उन्होंने पद्मसिंह को न्यायपथ से हटते देखा, तो उनका साथ छोड़ दिया और कई महीने त

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सदनसिंह का विवाह संस्कार हो गया। झोंपड़ा खूब सजाया गया था। वही मंडप का काम दे रहा था, लेकिन कोई भीड़-भाड़ न थी। पद्मसिंह उस दिन घर चले गए और मदनसिंह से सब समाचार कहा। वह यह सुनते ही आग हो गए, बोले– म

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जैसे सुंदर भाव के समावेश से कविता में जान पड़ जाती है और सुंदर रंगों से चित्र में, उसी प्रकार दोनों बहनों के आने से झोंपड़ी में जान आ गई। अंधी आंखों में पुतलियां पड़ गई हैं। मुर्झाई हुई कली शान्ता अब

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पंडित पद्मसिंह के चार-पांच मास के सदुद्योग का यह फल हुआ कि बीस-पच्चीस वेश्याओं ने अपनी लड़कियों को अनाथालय में भेजना स्वीकार कर लिया। तीन वेश्याओं ने अपनी सारी संपत्ति अनाथालय के निमित्त अर्पण कर दी,

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पंडित मदनसिंह की कई महीने तक यह दशा थी कि जो कोई उनके पास आता, उसी से सदन की बुराई करते-कपूत है, भ्रष्ट है, शोहदा है, लुच्चा है, एक कानी कौड़ी तो दूंगा नहीं, भीख मांगता फिरेगा, तब आटे-दाल का भाव मालूम

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जिस प्रकार कोई मनुष्य लोभ के वश होकर आभूषण चुरा लेता है, पर विवेक होने पर उसे देखने में भी लज्जा आती है, उसी प्रकार सदन भी सुमन से बचता फिरता था। इतना ही नहीं, वह उसे नीची दृष्टि से देखता था और उसकी उ

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संध्या का समय है। आकाश पर लालिमा छाई हुई है और मंद वायु गंगा की लहरों पर क्रीड़ा कर रही है, उन्हें गुदगुदा रही है। वह अपने करुण नेत्रों से मुस्कराती है और कभी-कभी खिलखिलाकर हंस पड़ती है, तब उसके मोती

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एक साल बीत गया। पंडित मदनसिंह पहले तीर्थ यात्रा पर उधार खाए बैठे थे। जान पड़ता था, सदन के घर आते ही एक दिन भी न ठहरेंगे, सीधे बद्रीनाथ पहुंचकर दम लेंगे, पर जब से सदन आ गया है, उन्होंने भूलकर भी तीर्थ-

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कार्तिक का महीना था। पद्मसिंह सुभद्रा को लेकर गंगा-स्नान कराने ले गए थे। लौटती बार वह अलईपुर की ओर से आ रहे थे। सुभद्रा गाड़ी की खिड़की से बाहर झांकती चली आती थी और सोचती थी कि यहाँ इस सन्नाटे में लोग

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