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10 फरवरी 2022

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जिस प्रकार कोई मनुष्य लोभ के वश होकर आभूषण चुरा लेता है, पर विवेक होने पर उसे देखने में भी लज्जा आती है, उसी प्रकार सदन भी सुमन से बचता फिरता था। इतना ही नहीं, वह उसे नीची दृष्टि से देखता था और उसकी उपेक्षा करता था। दिन-भर काम करने के बाद संध्या को उसे अपना यह व्यवसाय बहुत अखरता, विशेषकर चूने के काम में उसे बड़ा परिश्रम करना पड़ता था। वह सोचता, इसी सुमन के कारण मैं यों घर से निकाला गया हूं। इसी ने मुझे यह बनवास दे रखा है। कैसे आराम से घर पर रहता था। न कोई चिंता थी, न कोई झंझट, चैन से खाता था और मौज करता था। इसी ने मेरे लिए सिर पर यह मुसीबत ढा दी। प्रेम की पहली उमंग में उसने उसका बनाया हुआ भोजन खा लिया था, पर अब उसे बड़ा पछतावा होता था। वह चाहता था कि किसी प्रकार इससे गला छूट जाए। यह वही सदन है, जो सुमन पर जान देता था, उसकी मुस्कान पर, मधुर बातों पर, कृपाकटाक्ष पर अपना जीवन तक न्योछावर करने को तैयार था। पर सुमन आज उसकी दृष्टि में इतनी गिर गई है। वह स्वयं अनुभव करके भी भूल जाता था कि मानव-प्रकृति कितनी चंचल है!
सदन ने इधर वर्षों से लिखना-पढ़ना छोड़ दिया था और जब से चूने की कल ली, तो वह दैनिक पत्र भी पढ़ने का अवकाश न पाता था। अब वह समझता था पढ़ना उन लोगों का काम है जिन्हें कोई काम नहीं है, जो सारे दिन-पड़े-पड़े मक्खियां मारा करते हैं। लेकिन उसे बालों को संवारने, हारमोनियम बजाने के लिए न मालूम कैसे अवकाश मिल जाता था।
कभी-कभी पिछली बातों का स्मरण करके वह मन में कहता, मैं उस समय कैसा मूर्ख था, इसी सुमन के पीछे लट्टू हो रहा था? वह अब अपने चरित्र पर घमंड करता था। नदी के तट पर वह नित्य स्त्रियों को देखा करता था, पर कभी उसके मन में कुभाव न पैदा होते थे। सदन इसे अपना चरित्रबल समझता था।
लेकिन जब गर्भिणी शान्ता के प्रसूति का समय निकट आया और वह बहुधा अपने कमरे में बंद, मलिन, शिथिल पड़ी रहने लगी, तो सदन को मालूम हुआ कि मैं बहुत धोखे में था। जिसे मैं चरित्रबल समझता था, वह वास्तव में मेरी तृष्णाओं के संतुष्ट होने का फलमात्र था। अब वह काम पर से लौटता, तो शान्ता मधुर मुस्कान के साथ उसका स्वागत न करती, वह अपनी चारपाई पर पड़ी रहती। कभी उसके सिर में दर्द होता, कभी शरीर में, कभी ताप चढ़ जाता, कभी मतली होने लगती, उसका मुखचंद्र कांतिहीन हो गया था, मालूम होता था शरीर में रक्त ही नहीं है। सदन को उसकी यह दशा देखकर दुख होता, यह घंटों उसके पास बैठकर उसका दिल बहलाता रहता, लेकिन उसके चेहरे से मालूम होता था कि उसे वहां बैठना अखर रहा है। वह किसी-न-किसी बहाने से जल्दी ही उठ जाता। उसकी विलास-तृष्णा ने मन को फिर चंचल करना शुरू किया, कुवासनाएं उठने लगीं। वह युवती मल्लाहिनों से हंसी करता, गंगातट पर जाता, तो नहाने वाली स्त्रियों को कुदृष्टि से देखता। यहां तक कि एक दिन इस वासना से विह्वल होकर वह दालमंडी की ओर चला। वह कई महीनों से इधर नहीं आया था। आठ बज गए थे। काम-भोग की प्रबल इच्छा उसे बढ़ाए लिए जाती थी। उसका ज्ञान और विवेक इस समय इस आवेग के नीचे दब गया था। वह कभी दो पग आगे चलता, कभी चुपचाप खड़ा होकर कुछ सोचता और पीछे फिरता, लेकिन दो-चार कदम चलकर वह फिर लौट पड़ता। इस समय उसकी दशा उस रोगी-सी हो रही थी, जो मीठे पदार्थ को सामने देखकर उस पर टूट पड़ता है और पथ्यापथ्य का विचार नहीं करता।
लेकिन जब वह दालमंडी में पहुंचा, तो गली में वह चहल-पहल न देखी, जो पहले दिखाई देती थी, पान वालों की दुकानें दो-चार थीं, लेकिन नानबाइयों और हलवाइयों की दुकानें बंद थीं। कोठों पर वेश्याएं झांकती हुई दिखाई न दीं, न सारंगी और तबले की ध्वनि सुनाई दी। अब उसे याद आया कि वेश्याएं यहां से चली गईं। उसका मन खिन्न हो गया। लेकिन एक क्षण में उसे एक विचित्र आनंद का अनुभव हुआ। उसने अपनी कामप्रवृत्ति पर विजय पा ली, मानो वह किसी कठोर सिपाही के हाथ से छूट गया। सिपाही उसे नीचे लिए जाता था, उसके पंजे से अपने को छुड़ा लेने का उसमें सामर्थ्य न था, पर थाने में पहुंचकर सिपाही ने देखा कि थाना बंद है, न थानेदार है, न कोई कांस्टेबिल, न चौकीदार। सदन को अब अपने मन की दुर्बलता पर लज्जा आई। उसे अपने मनोबल पर जो घमंड था, वह चूर-चूर हो गया।
वह लौटना चाहता था, पर जी में आया कि आया हूं, तो अच्छी तरह से सैर क्यों न कर लूं? आगे बढ़ा तो वह मकान दिखाई दिया, जिसमें सुमन रहती थी। वहां गाने की मधुर ध्वनि उसके कान में आई। उसने आश्चर्य से ऊपर देखा, तो एक बड़ा साइनबोर्ड दिखाई दिया। उस पर लिखा था ‘संगीत-पाठशाला’। सदन ऊपर चढ़ गया। इसी कमरे में वह महीनों सुमन के पास बैठा था। उसके मन में कितनी ही पुरानी स्मृतियां आने लगीं। वह एक बेंच पर बैठ गया और गाना सुनने लगा। बीस-पच्चीस मनुष्य बैठे हुए गाने-बजाने का अभ्यास कर रहे थे। कोई सितार बजाता था, कोई सारंगी, कोई तबला और एक वृद्ध पुरुष उन सबको बारी-बारी से सिखा रहा था। वह गान विद्या में निपुण मालूम होता था। सदन का गाना सुनने में ऐसा मन लगा कि वह पंद्रह मिनट तक वहां बैठा रहा। उसके मन में बड़ी उत्कंठा हुई कि मैं भी गाना सीखने आया करता, पर एक तो उसका मकान यहां से बहुत दूर था, दूसरे स्त्रियों को अकेली छोड़कर रात को आना कठिन था। वह उठना ही चाहता था कि इतने में उसी गायनाचार्य ने सितार पर यह गाना शुरू किया–

दयामयि भारत को अपनाओ।
तव वियोग से व्याकुल है मा, सत्वर धैर्य धराओ।
प्रिय लालन कहकर पुचकारो, हंसकर गले लगाओ।।
दयामयि भारत को अपनाओ।
सोये आर्य जाति के गौरव, जननि! फेर जगाओ।
दुखड़ा पराधीनता रूपी बेड़ी काट बहाओ।।
दयामयि भारत को अपनाओ।।

इस पद ने सदन के हृदय में उच्च भावों का स्रोत-सा खोल दिया। देशोपकार, जाति-सेवा तथा राष्ट्रीय गौरव की पवित्र भावनाएं उसके हृदय में गूंजने लगीं। यह बाह्य ध्वनि उसके अंतर में भी एक विशाल ध्वनि पैदा कर रही थी, जगज्जननी की दयामयी मूर्ति उसके हृदय-नेत्रों के सम्मुख खड़ी हो गई। एक दरिद्र, दुखी, दीन, क्षीण बालक दीन भाव से देवी की ओर ताक रहा था, और अपने दोनों हाथ उठाए, सजल आंखों से देखता हुआ कह रहा था, ‘दयामयि भारत को अपनाओ।’ उसने कल्पनाओं में अपने को दीन कृषकों की सेवा करते हुए देखा। वह जमींदारों के कारिंदों से विनय कर रहा था कि इन दीन जनों पर दया करो। कृषकगण उसके पैरों पर गिर पड़ते थे, उनकी स्त्रियां उसे आशीर्वाद दे रही थीं। स्वयं इस कल्पित बारात का दूल्हा बना हुआ सदन यहां से जाति-सेवा का संकल्प करके उठा और नीचे उतर आया। वह अपने विचारों में ऐसा लीन हो रहा था कि किसी से कुछ न बोला। थोड़ी ही दूर चला था कि उसे सुंदरबाई के भवन के सामने कुछ मनुष्य दिखाई दिए। उसने एक आदमी से पूछा, यह कैसा जमघट है? मालूम हुआ कि आज कुंवर अनिरुद्धसिंह यहां एक ‘कृषि सहायक सभा’ खोलने वाले हैं? सभा का उद्देश्य होगा, किसानों को जमींदारों के अत्याचारों से बचाना। सदन के मन में अभी-अभी कृषकों के प्रति जो सहानुभूति प्रकट हुई थी, वह मंद पड़ गई। वह जमींदार था और कृषकों पर दया करना चाहता था, पर उसे मंजूर न था कि कोई उसे दबाए और किसानों को भड़काकर जमींदारों के विरुद्ध खड़ा कर दे। उसने मन में कहा, ये लोग जमींदारों के सत्वों को मिटाना चाहते हैं। द्वेष-भाव से ही प्रेरित होकर इन लोगों ने यह संस्था खोलने का विचार किया है, तो हमलोगों को भी सतर्क हो जाना चाहिए, हमको अपनी रक्षा करनी चाहिए। मानव प्रकृति को दबाव से कितनी घृणा है? सदन ने यहां ठहरना व्यर्थ समझा, नौ बज गए थे। वह घर लौटा। 

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रचनाएँ
सेवासदन
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प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। सेवासदन में नारी जीवन की समस्याओं के साथ-साथ समाज के धर्माचार्यों, मठाधीशों, धनपतियों, सुधारकों के आडंबर, दंभ, ढोंग, पाखंड, चरित्रहीनता, दहेज-प्रथा, बेमेल विवाह, पुलिस की घूसखोरी, वेश्यागमन, मनुष्य के दोहरे चरित्र, साम्प्रदायिक द्वेष आदि सामाजिक विकृतियों का विवरण मिलता है।सेवासदन उपन्यास की मुख्य समस्या क्या है? “सेवासदन” में प्रेमचन्द दिखाते है कि हमारी सामाजिक कुरीतियाँ स्त्रियों के जीवन को विवश करती है । इसकी मुख्य समस्या मध्य वर्गीय लोगों की आडंबर प्रियता से संबंधित है । प्रेमचन्द यह बताना चाहता है कि मनुष्य को जीने के लिए धन द्वारा प्राप्त सुख के समान मन द्वारा प्राप्त सुख भी चाहिए ।प्रेमचंद ने जहाँ एक ओर नारी की सामाजिक पराधीनता उसके फलसवरूप उत्पन्न समस्याओं को अपने इस उपन्यास में अभिव्यक्ति प्रदान की है, वहीं दूसरी ओर यह भी दिखलाया है कि किस प्रकार उनके नारी-पात्र उपन्यास के अंत तक आते-आते सामाजिक अन्याय से मुक्ति पाने का मार्ग स्वयं ही खोज देते हैं।
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सेवासदन (भाग 1)

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1 पश्चाताप के कड़वे फल कभी-न-कभी सभी को चखने पड़ते हैं, लेकिन और लोग बुराईयों पर पछताते हैं, दारोगा कृष्णचन्द्र अपनी भलाइयों पर पछता रहे थे। उन्हें थानेदारी करते हुए पच्चीस वर्ष हो गए, लेकिन उन्हों

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दारोगाजी के हल्के में एक महन्त रामदास रहते थे। वह साधुओं की एक गद्दी के महंत थे। उनके यहां सारा कारोबार ‘श्री बांकेबिहारीजी’ के नाम पर होता था। ‘श्री बांकेबिहारीजी’ लेन-देन करते थे और बत्तीस रुपये प्र

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पण्डित कृष्णचन्द्र रिश्वत लेकर उसे छिपाने के साधन न जानते थे । इस विषय में अभी नोसिखुए थे । उन्हें मालूम न था कि हराम का माल अकेले मुश्किल से पचता है । मुख्तार ने अपने मन मे कहा, हमीं ने सब कुछ किया औ

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कृष्णचन्द्र अपने कस्बे में सर्वप्रिय थे । यह खबर फैलते ही सारी बस्ती में हलचल मच गई । कई भले आदमी उनकी जमानत करने आये लेकिन साहब ने जमानत न ली । इसके एक सप्ताह बाद कृष्णचन्द्र पर रिश्वत लेने का अभियो

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फागुन में सुमन का विवाह हो गया। गंगाजली दामाद को देखकर बहुत रोई। उसे ऐसा दुःख हुआ, मानो किसी ने सुमन को कुएं में डाल दिया। सुमन ससुराल आई तो यहां की अवस्था उससे भी बुरी पाई, जिसकी उसने कल्पना की थी।

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सुमन को ससुराल आए डेढ़ साल के लगभग हो चुका था, पर उसे मैके जाने का सौभाग्य न हुआ था। वहां से चिट्ठियां आती थीं। सुमन उत्तर में अपनी मां को समझाया करती, मेरी चिंता मत करना, मैं बहुत आनंद से हूं, पर अब

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गजाधरप्रसाद की दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो चोरों के बीच में अशर्फियों की थैली लिए बैठा हो। सुमन का वह मुख-कमल, जिस पर वह कभी भौंरे की भांति मंडराया करता था, अब उसकी आँखों में जलती हुई आग के समान था। वह

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दूसरे दिन से सुमन ने चिक के पास खड़ा होना छोड़ दिया। खोंचेवाले आते और पुकार कर चले जाते। छैले गजल गाते हुए निकल जाते। चिक की आड़ में अब उन्हें कोई न दिखाई देता था। भोली ने कई बार बुलाया, लेकिन सुमन ने

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दूसरे दिन सुमन नहाने न गई। सबेरे ही से अपनी एक रेशमी साड़ी की मरम्मत करने लगी। दोपहर को सुभद्रा की एक महरी उसे लेने आई। सुमन ने मन में सोचा था, गाड़ी आवेगी। उसका जी छोटा हो गया। वही हुआ जिसका उसे भ

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दरवाजे पर आकर सुमन सोचने लगी कि अब कहां जाऊं। गजाधर की निर्दयता से भी उसे दुःख न हुआ था, जितना इस समय हो रहा था। उसे अब मालूम हुआ कि मैंने अपने घर से निकलकर बड़ी भूल की। मैं सुभद्रा के बल पर कूद रही थ

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सेवासदन (भाग-2)

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12 पद्मसिंह के एक बड़े भाई मदनसिंह थे। वह घर का कामकाज देखते थे। थोड़ी-सी जमींदारी थी, कुछ लेन-देन करते थे। उनके एक ही लड़का था, जिसका नाम सदनसिंह था। स्त्री का नाम भामा था। मां-बाप का इकलौता लड़का

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सुमन के चले जाने के बाद पद्मसिंह के हृदय में एक आत्मग्लानि उत्पन्न हुई– मैंने अच्छा नहीं किया। न मालूम वह कहां गई। अपने घर चली गई तो पूछना ही क्या, किन्तु वहां वह कदापि न गई होगी। मरता क्या न करता, कह

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दूसरे दिन पद्मसिंह सदन को साथ किसी लेकर स्कूल में दाखिल कराने चले। किंतु जहां गए, साफ जवाब मिला ‘स्थान नहीं है।’ शहर में बारह पाठशालाएं थीं। लेकिन सदन के लिए कहीं स्थान न था। शर्माजी ने विवश होकर निश

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प्राचीन ऋषियों ने इंद्रियों को दमन करने के दो साधन बताए हैं– एक राग, दूसरा वैराग्य। पहला साधन अत्यंत कठिन और दुस्साध्य है। लेकिन हमारे नागरिक समाज ने अपने मुख्य स्थानों पर मीनाबाजार सजाकर इसी कठिन मार

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महाशय विट्ठलदास इस समय ऐसे खुश थे मानों उन्हें कोई संपत्ति मिल गई हो। उन्हें विश्वास था कि पद्मसिंह इस जरा से कष्ट से मुंह न मोड़ेंगे, केवल उनके पास जाने की देर है। वह होली के कई दिन पहले से शर्माजी क

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संध्या का समय है। सदन अपने घोड़े पर सवार दालमंडी में दोनों तरफ छज्जों और खिड़कियों की ओर ताकता जा रहा है। जब से सुमन वहां आई है, सदन उसके छज्जे के सामने किसी-न-किसी बहाने से जरा देर के लिए अवश्य ठहर ज

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बाबू विट्ठलदास अधूरा काम न करते थे। पद्मसिंह की ओर से निराश होकर उन्हें यह चिंता होने लगी कि सुमनबाई के लिए पचास रुपए मासिक का चंदा कैसे करूं? उनकी स्थापित की हुई संस्थाएं चंदों ही से चल रही थीं, लेकि

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शाम हो गई। सुमन ने दिन-भर विट्ठलदास की राह देखी, लेकिन वह अब तक नहीं आए। सुमन के मन में जो नाना प्रकार की शंकाएं उठ रही थीं, वह पुष्ट हो गईं। विट्ठलदास अब नहीं आएंगे, अवश्य कोई विघ्न पड़ा। या तो वह कि

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सुभद्रा को संध्या के समय कंगन की याद आई। लपकी हुई स्नान-घर में गई। उसे खूब याद था कि उसने यहीं ताक पर रख दिया था, लेकिन उसका वहाँ पता न था। इस पर वह घबराई। अपने कमरे के प्रत्येक ताक और आलमारी को देखा,

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विट्ठलदास को संदेह हुआ कि सुमन तीस रुपए मासिक स्वीकार करना नहीं चाहती, इसलिए उसने कल उत्तर देने का बहाना करके मुझे टाला है। अतएव वे दूसरे दिन उसके पास नहीं गए, इसी चिंता में पड़े रहे कि शेष रुपयों का

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सुमन पार्क से लौटी तो उसे खेद होने लगा कि मैंने शर्माजी को वे ही दुखानेवाली बातें क्यों कहीं उन्होंने इतनी उदारता से मेरी सहायता की, जिसका मैंने यह बदला दिया? वास्तव में मैंने अपनी दुर्बलता का अपराध उ

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सदन प्रातःकाल घर गया, तो अपनी चाची के हाथों में कंगन देखा। लज्जा से उसकी आंखें जमीन में गड़ गईं। नाश्ता करके जल्दी से बाहर निकल आया और सोचने लगा, यह कंगन इन्हें कैसे मिल गया? क्या यह संभव है कि सुमन

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यह बात बिल्कुल तो असत्य नहीं है कि ईश्वर सबको किसी-न-किसी हीले से अन्न-वस्त्र देता है। पंडित उमानाथ बिना किसी हीले ही के संसार का सुख-भोग करते थे। उनकी आकाशी वृत्ति थी। उनके भैंस और गाएं न थीं, लेकिन

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सार्वजनिक संस्थाएं भी प्रतिभाशाली मनुष्य की मोहताज होती हैं। यद्यपि विट्ठलदास के अनुयायियों की कमी न थी, लेकिन उनमें प्रायः सामान्य अवस्था के लोग थे। ऊंची श्रेणी के लोग उनसे दूर भागते थे। पद्मसिंह के

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रात के नौ बजे थे। पद्मसिंह भाई के साथ बैठे हुए विवाह के संबंध में बातचीत कर रहे थे। कल बारात जाएगी। दरवाजे पर शहनाई बज रही थी और भीतर गाना हो रहा था। मदनसिंह– तुमने जो गाड़ियां भेजी हैं; वह कल शाम तक

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बरसात के दिन थे, छटा छाई हुई थी। पंडित उमानाथ चुनारगढ़ के निकट गंगा के तट पर खड़े नाव की बाट जोह रहे थे। वह कई गांवों का चक्कर लगाते हुए आ रहे थे और संध्या होने से पहले चुनार के पास एक गांव में जाना च

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पंडित उमानाथ सदनसिंह का फलदान चढ़ा आए हैं। उन्होंने जाह्नवी से गजानन्द की सहायता की चर्चा नहीं की थी। डरते थे कि कहीं यह इन रुपयों को अपनी लड़कियों के विवाह के लिए रख छोड़ने पर जिद्द न करने लगे। जाह्न

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एक रोज उमानाथ ने कृष्णचन्द्र के सहचरों को धमकाकर कहा– अब तुमलोगों को उनके साथ बैठकर चरस पीते देखा तो तुम्हारी कुशल नहीं। एक-एक की बुरी तरह खबर लूंगा। उमानाथ का रोब सारे गांव पर छाया हुआ था। वे सब-के-स

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सेवासदन (भाग-3)

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30 शहर की म्युनिसिपैलिटी में कुल अठारह सभासद थे। उनमें आठ मुसलमान थे और दस हिन्दू। सुशिक्षित मेंबरों की संख्या अधिक थी, इसलिए शर्माजी को विश्वास था कि म्युनिसिपैलिटी में वेश्याओं को नगर से बाहर निकाल

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इस प्रस्ताव के विरोध में हिंदू मेंबरों को जब मुसलमानों के जलसे का हाल मालूम हुआ तो उनके कान खड़े हुए। उन्हें मुसलमानों से जो आशा थी, वह भंग हो गई। कुल दस हिंदू थे। सेठ बलभद्रदास चेयरमैन थे। डॉक्टर श्य

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जिस प्रकार कोई आलसी मनुष्य किसी के पुकारने की आवाज सुनकर जाग जाता है, किंतु इधर-उधर देखकर फिर निद्रा में मग्न हो जाता है, उसी प्रकार पंडित कृष्णचन्द्र क्रोध और ग्लानि का आवेश शांत होने पर अपने कर्त्तव

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सदन के विवाह का दिन आ गया। चुनार से बारात अमोला चली। उसकी तैयारियों का वर्णन व्यर्थ है। जैसी अन्य बारातें होती हैं, वैसी ही यह भी थी। वैभव और दरिद्रता का अत्यन्त करुणात्मक दृश्य था। पालकियों पर कारचोब

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विट्ठलदास ने सुमन को विधवाश्रम में गुप्त रीति से रखा था। प्रबंधकारिणी सभा के किसी सदस्य को इत्तिला न दी थी। आश्रम की विधवाओं से उसे विधवा बताया था। लेकिन अबुलवफा जैसे टोहियों से यह बात बहुत दिनों तक ग

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यद्यपि डॉक्टर साहब का बंगला निकट ही था, पर इन दोनों आदमियों ने एक किराए की गाड़ी की। डॉक्टर साहब के यहां पैदल जाना फैशन के विरुद्ध था। रास्ते में विट्ठलदास ने आज के सारे समाचार बढ़ा-चढ़ाकर बयान किए और

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सदन जब घर पर पहुंचा, तो उसके मन की दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो बरसों की कमाई लिए, मन में सहस्रों मंसूबे बांधता, हर्ष से उल्लसित घर आए और यहां संदूक खोलने पर उसे मालूम हो कि थैली खाली पड़ी है। विचारों

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सदन को व्याख्यानों की ऐसी चाट पड़ी कि जहां कहीं व्याख्यान की खबर पाता, वहां अवश्य जाता, दोनों पक्षों की बातें महीनों सुनने और उन पर विचार करने से उसमें राय स्थिर करने की योग्यता आने लगी। अब वह किसी यु

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जिस दिन से बारात लौट गई, उसी दिन से कृष्णचन्द्र फिर से बाहर नहीं निकले। मन मारे हुए अपने कमरे में बैठे रहते। उन्हें अब किसी को अपना मुंह दिखाते लज्जा आती थी। दुश्चरित्रा सुमन ने उन्हें संसार की दृष्टि

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प्रातःकाल यह शोक-समाचार अमोला में फैल गया। इने-गिने सज्जनों को छोड़कर कोई भी उमानाथ के द्वार पर संवेदना प्रकट करने न आया। स्वाभाविक मृत्यु हुई होती, तो संभवतः उनके शत्रु भी आकर चार आंसू बहा जाते, पर आ

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पद्मसिंह का पहला विवाह उस समय हुआ था, जब वह कॉलेज में पढ़ते थे, और एम. ए. पास हुए, तो वह एक पुत्र के पिता थे। पर बालिका वधू शिशु-पालन का मर्म न जानती थी। बालक जन्म के समय तो हृष्ट-पुष्ट था, पर पीछे धी

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शान्ता ने पत्र तो भेजा, पर उसको उत्तर आने की कोई आशा न थी। तीन दिन बीत गए, उसका नैराश्य दिनों-दिन बढ़ता जा रहा था। अगर कुछ अनुकूल उत्तर न आया, तो उमानाथ अवश्य ही उसका विवाह कर देंगे, यह सोचकर शान्ता क

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शान्ता को आश्रम में आए एक मास से ऊपर हो गया, लेकिन पद्मसिंह ने अभी तक अपने घर में किसी से इसकी चर्चा नहीं की। कभी सोचते, भैया को पत्र लिखूं, कभी सोचते, चलकर उनसे कहूं, कभी विट्ठलदास को भेजने का विचार

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पद्मसिंह की आत्मा किसी भांति इस तरमीम के स्वीकार करने में अपनी भूल स्वीकार न करती थी। उन्हें कदापि यह आशा न थी कि उनके मित्रगण एक गौण बात पर उनका इतना विरोध करेंगे। उन्हें प्रस्ताव के एक अंश के अस्वीक

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सदन जब सुमन को देखकर लौटा, तो उसकी दशा उस दरिद्र मनुष्य की-सी थी, जिसका वर्षों का धन चोरों ने हर लिया हो। वह सोचता था, सुमन मुझसे बोली क्यों नहीं, उसने मेरी ओर ताका क्यों नहीं? क्या वह मुझे इतना नीच

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प्रभाकर राव का क्रोध बहुत कुछ तो सदन के लेखों से ही शांत हो गया था और जब पद्मसिंह ने सदन के आग्रह से सुमन का पूरा वृत्तांत उन्हें लिख भेजा, तो वह सावधान हो गए। म्युनिसपैलिटी में प्रस्ताव को पास हुए ल

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एक महीना बीत गया। सदन ने अपने इस नए धंधे की चर्चा घर में किसी से न की। वह नित्य सबेरे उठकर गंगा-स्नान के बहाने चला जाता। वहां से दस बजे घर आता। भोजन करके फिर चल देता और तब का गया-गया घड़ी रात गए, घर ल

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बाबू विट्ठलदास न्यायप्रिय सरल मनुष्य थे, जिधर न्याय खींच ले जाता, उधर चले जाते थे। इसमें लेश-मात्र भी संकोच न होता था। जब उन्होंने पद्मसिंह को न्यायपथ से हटते देखा, तो उनका साथ छोड़ दिया और कई महीने त

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सदनसिंह का विवाह संस्कार हो गया। झोंपड़ा खूब सजाया गया था। वही मंडप का काम दे रहा था, लेकिन कोई भीड़-भाड़ न थी। पद्मसिंह उस दिन घर चले गए और मदनसिंह से सब समाचार कहा। वह यह सुनते ही आग हो गए, बोले– म

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जैसे सुंदर भाव के समावेश से कविता में जान पड़ जाती है और सुंदर रंगों से चित्र में, उसी प्रकार दोनों बहनों के आने से झोंपड़ी में जान आ गई। अंधी आंखों में पुतलियां पड़ गई हैं। मुर्झाई हुई कली शान्ता अब

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पंडित पद्मसिंह के चार-पांच मास के सदुद्योग का यह फल हुआ कि बीस-पच्चीस वेश्याओं ने अपनी लड़कियों को अनाथालय में भेजना स्वीकार कर लिया। तीन वेश्याओं ने अपनी सारी संपत्ति अनाथालय के निमित्त अर्पण कर दी,

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पंडित मदनसिंह की कई महीने तक यह दशा थी कि जो कोई उनके पास आता, उसी से सदन की बुराई करते-कपूत है, भ्रष्ट है, शोहदा है, लुच्चा है, एक कानी कौड़ी तो दूंगा नहीं, भीख मांगता फिरेगा, तब आटे-दाल का भाव मालूम

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जिस प्रकार कोई मनुष्य लोभ के वश होकर आभूषण चुरा लेता है, पर विवेक होने पर उसे देखने में भी लज्जा आती है, उसी प्रकार सदन भी सुमन से बचता फिरता था। इतना ही नहीं, वह उसे नीची दृष्टि से देखता था और उसकी उ

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संध्या का समय है। आकाश पर लालिमा छाई हुई है और मंद वायु गंगा की लहरों पर क्रीड़ा कर रही है, उन्हें गुदगुदा रही है। वह अपने करुण नेत्रों से मुस्कराती है और कभी-कभी खिलखिलाकर हंस पड़ती है, तब उसके मोती

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एक साल बीत गया। पंडित मदनसिंह पहले तीर्थ यात्रा पर उधार खाए बैठे थे। जान पड़ता था, सदन के घर आते ही एक दिन भी न ठहरेंगे, सीधे बद्रीनाथ पहुंचकर दम लेंगे, पर जब से सदन आ गया है, उन्होंने भूलकर भी तीर्थ-

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कार्तिक का महीना था। पद्मसिंह सुभद्रा को लेकर गंगा-स्नान कराने ले गए थे। लौटती बार वह अलईपुर की ओर से आ रहे थे। सुभद्रा गाड़ी की खिड़की से बाहर झांकती चली आती थी और सोचती थी कि यहाँ इस सन्नाटे में लोग

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