बाबू विट्ठलदास अधूरा काम न करते थे। पद्मसिंह की ओर से निराश होकर उन्हें यह चिंता होने लगी कि सुमनबाई के लिए पचास रुपए मासिक का चंदा कैसे करूं? उनकी स्थापित की हुई संस्थाएं चंदों ही से चल रही थीं, लेकिन चंदों के वसूल होने में सदैव कठिनाइयों का सामना होता था। विधवाश्रम की इमारत बनाने में हाथ लगाया, लेकिन दो साल से उसकी दीवारें गिरती जाती थीं। उन पर छप्पर डालने के लिए रुपए हाथ न आते थे। फ्री लाइब्रेरी की पुस्तकें दीमकों का आहार बनती जाती थीं। आलमारियां बनाने के लिए द्रव्य का अभाव था, लेकिन इन बाधाओं के होते हुए भी चंदे के सिवा धन संग्रह का उन्हें और कोई उपाय न सूझा। सेठ बलभद्रदास शहर के प्रधान नेता, आनरेरी मजिस्ट्रेट और म्युनिसिपल बोर्ड के चेयरमैन थे। पहले उनकी सेवा में उपस्थित हुए। सेठजी अपने बंगले में आरामकुर्सी पर लेटे हुए हुक्का पी रहे थे। बहुत ही दुबले-पतले, गोरे-चिट्ठे आदमी थे, बड़े रसिक, बड़े शौकीन। वह प्रत्येक काम में बहुत सोच-समझकर हाथ डालते थे। विट्ठलदास का प्रस्ताव सुनकर बोले– प्रस्ताव तो बहुत उत्तम है, लेकिन यह बताइए, सुमन को आप रखना कहां चाहते हैं?
विट्ठलदास– विधवाश्रम में।
बलभद्र– आश्रम सारे नगर में बदनाम हो जाएगा और संभव है कि अन्य विधवाएं भी छोड़ भागें।
विट्ठलदास– तो अलग मकान लेकर रख दूंगा।
बलभद्र– मुहल्ले के नवयुवकों में छुरी चल जाएगी।
विट्ठलदास– तो फिर आप ही कोई उपाय बताइए।
बलभद्र– मेरी सम्पत्ति तो यह है कि आप इस झगड़े में न पड़े, जिस स्त्री के लोक-निंदा की लाज नहीं, उसे कोई शक्ति नहीं सुधार सकती। यह नियम है कि जब हमारा कोई अंग विकृत हो जाता है, तो उसे काट डालते हैं, जिससे उसका विष समस्त शरीर को नष्ट न कर डाले। समाज में भी उसी नियम का पालन करना चाहिए। मैं देखता हूं कि आप मुझसे सहमत नहीं हैं, लेकिन मेरा जो कुछ विचार था, वह मैंने स्पष्ट कर दिया। आश्रम की प्रबंधकारिणी सभा का एक मेंबर मैं भी तो हूं! मैं किसी तरह इस वेश्या को आश्रम में रखने की सलाह न दूंगा।
विट्ठलदास ने रोष से कहा– सारांश यह है कि इस काम में आप मुझे कोई सहायता नहीं दे सकते? जब आप जैसे महापुरुषों का यह हाल है, तो दूसरों से क्या आशा हो सकती है? मैंने आपका बहुत समय नष्ट किया, इसके लिए क्षमा कीजिएगा।
यह कहकर विट्ठलदास उठ खड़े हुए और सेठ चिम्मनलाल की सेवा में पहुंचे। यह सांवले रंग के बेडौल मनुष्य थे। बहुत ही स्थूल, ढीले-ढाले, शरीर में हाड़ की जगह मांस और मांस की जगह वायु भरी हुई थी। उनके विचार भी शरीर ही के समान बेडौल थे। वह ऋषि-धर्म सभा के सभापति, रामलीला कमेटी के चेयरमैन और रामलीला परिषद् के प्रबन्धकर्ता थे। राजनीति को विषभरा सांप समझते थे और समाचारपत्रों को सांप की बांबी। उच्च अधिकारियों से मिलने की धुन थी। अंग्रेजों के समाज में उनका विशेष मान था। वहां उनके सद्गुणों की बड़ी प्रशंसा होती थी। वह उदार न थे, न कृपण। इस विषय में चंदे की नामावली उनका मान निश्चय किया करती थी। उनमें एक बड़ा गुण था, जो उनकी दुर्बलताओं को छिपाए रहता था। यह उनकी विनोदशीलता थी।
विट्ठलदास का प्रस्ताव सुनकर बोले– महाशय, आप भी बिल्कुल शुष्क मनुष्य हैं। आपमें जरा भी रस नहीं। मुद्दत के बाद दालमंडी में एक चीज नजर आई, आप उसे भी गायब करने पर तुले हुए हैं। कम-से-कम अब की रामलीला तो हो जाने दीजिए। राजगद्दी के दिन उसका जलसा होगा, धूम मच जाएगी। आखिर तुर्किनें आकर मंदिर को भ्रष्ट करती हैं, ब्राह्मणी रहे तो क्या बुरा है! खैर, यह तो दिल्लगी हुई, क्षमा कीजिएगा। आपको धन्यवाद है कि ऐसे-ऐसे शुभ कार्य आपके हाथों पूरे होते हैं। कहां है चंदे की फेहरिस्त?
विट्ठलदास ने सिर खुजलाते हुए कहा– अभी तो मैं केवल सेठ बलभद्रदासजी के पास गया था, लेकिन आप जानते ही हैं, वह एक बैठकबाज हैं, इधर-उधर की बातें करके टाल दिया।
अगर बलभद्रदास ने एक लिखा होता, तो यहां दो में संदेह न था। दो लिखते तो चार निश्चित था। जब गुण कहीं शून्य हो, तो गुणनफल शून्य के सिवा और क्या हो सकता था, लेकिन बहाना क्या करते? तुरंत एक आश्रय मिल गया। बोले-महाशय, मुझे आपसे पूरी सहानुभूति है। लेकिन बलभद्रदास ने कुछ समझकर ही टाला होगा। जब मैं भी दूर तक सोचता हूं, तो इस प्रस्ताव में कुछ राजनीति का रंग दिखाई देता है, इसमें जरा भी संदेह नहीं। आप चाहें इसे उस दृष्टि से न देखते हों, लेकिन मुझे तो इसमें गुप्त राजनीति भरी हुई साफ नजर आती है। मुसलमानों को यह बात अवश्य बुरी मालूम होगी, वह जाकर अधिकारियों से इसकी शिकायत करेंगे। अधिकारियों को आप जानते ही हैं, आंखें नहीं, केवल कान होते हैं। उन्हें तुरंत किसी षड्यंत्र का संदेह हो जाएगा।
विट्ठलदास ने झुंझलाकर कहा– साफ-साफ क्यों नहीं कहते, मैं कुछ नहीं देना चाहता?
चिम्मनलाल– आप ऐसा ही समझ लीजिए। मैंने सारी जाति का कोई ठेका थोड़े ही लिया है?
विट्ठलदास का मनोरथ यहां भी पूरा न हुआ, लेकिन यह उनके लिए कुछ नई बात न थी। ऐसे निराशाजनक अनुभव उन्हें नित्य ही हुआ करते थे। यहां से डॉक्टर श्यामाचरण के पास पहुंचे। डॉक्टर महोदय बड़े समझदार और विद्वान पुरुष थे। शहर के प्रधान राजनीतिक नेता थे, उनकी वकालत खूब चमकी हुई थी। बहुत तौल-तौल कर मुंह से शब्द निकालते। उनकी मौन गंभीरता विचारशीलता का द्योतक समझी जाती थी। शांति के भक्त थे, इसलिए उनके विरोध से न किसी को हानि थी, न उनके योग से किसी को लाभ। सभी तरह के लोग उन्हें अपना मित्र समझते थे, सभी अपना शत्रु। वह अपनी कमिश्नरी की ओर से सूबे की सलाहकारी सभा के सभासद थे। विट्ठलदास की बात सुनकर बोले– मेरे योग्य जो सेवा हो, वह मैं करने को तैयार हूं। लेकिन उद्योग यह होना चाहिए कि उन कुप्रथाओं का सुधार किया जाए, जिनके कारण ऐसी समस्याएँ उपस्थित होती हैं। इस समय आप एक की रक्षा कर ही लेंगे, तो इससे क्या होगा? यहां तो नित्य ही ऐसी दुर्घटनाएं होती रहती हैं। मूल कारणों का सुधार होना चाहिए। कहिए तो कौंसिल में कोई प्रश्न करूं?
विट्ठलदास उछलकर बोले– जी हां, यह तो बहुत ही उत्तम होगा।
डॉक्टर साहब ने तुरंत प्रश्नों की एक माला तैयार की–
१. क्या गवर्नमेंट बता सकती है कि गत वर्ष वेश्याओं की संख्या कितनी बढ़ी?
२. क्या गवर्नमेंट ने इस बात का पता लगाया है कि इस वृद्धि के क्या कारण हैं और गवर्नमेंट उसे रोकने के लिए क्या करना उपाय करना चाहती हैं?
३. ये कारण कहां तक मनोविकारों से संबंध रखते हैं, कहां तक आर्थिक स्थिति से और कहां तक सामाजिक कुप्रथाओं से?
इसके बाद डॉक्टर साहब अपने मुवक्किलों से बातचीत करने लगे, विट्ठलदास आध घंटे तक बैठे रहे, अंत में अधीर होकर बोले– तो मुझे क्या आज्ञा होती है?
श्यामाचरण– आप इत्मीनान रखें, अब की कौंसिल की बैठक में गवर्नमेंट का ध्यान इस ओर आकर्षित करूंगा।
विट्ठलदास के जी में आया कि डॉक्टर साहब को आड़े हाथों लूं, किंतु कुछ सोचकर चुप रह गए। फिर किसी बड़े आदमी के पास जाने का साहस न हुआ। लेकिन उस कर्मवीर ने उद्योग से मुंह नहीं मोड़ा। नित्य किसी सज्जन के पास जाते और उससे सहायता की याचना करते। यह उद्योग निष्फल तो नहीं हुआ। उन्हें कई सौ रुपए के वचन और कई सौ नकद मिल गए, लेकिन तीस रुपए मासिक की जो कमी थी, वह इतने धन से क्या पूरी होती? तीन महीने की दौड़-धूप के बाद वह बड़ी मुश्किल से दस रुपए मासिक का प्रबंध करने में सफल हो सके।
अंत में जब उन्हें अधिक सहायता की कोई आशा न रही तो वह एक दिन प्रातःकाल सुमनबाई के पास गए। वह इन्हें देखते ही कुछ अनमनी-सी होकर बोली– कहिए महाशय, कैसे कृपा की?
विट्ठलदास– तुम्हें अपना वचन याद है?
सुमन– इतने दिनों की बातें अगर मुझे भूल जाएं, तो मेरा दोष नहीं।
विट्ठलदास– मैंने तो बहुत चाहा कि शीघ्र ही प्रबंध हो जाए, लेकिन ऐसी जाति से पाला पड़ा है, जिसमें जातीयता का सर्वथा लोप हो गया है। तिस पर भी मेरा उद्योग बिल्कुल व्यर्थ नहीं हुआ। मैंने तीस रुपए मासिक का प्रबंध कर दिया और आशा है कि और जो कसर है, वह भी पूरी हो जाएगी। अब तुमसे मेरी यही प्रार्थना है कि इसे स्वीकार करो और आज ही इस नरककुंड को छोड़ दो।
सुमन– शर्माजी को आप नहीं ला सके क्या?
विट्ठलदास– वह किसी तरह आने पर राजी न हुए। इस तीस रुपए में बीस रुपए मासिक का वचन उन्हीं ने दिया है।
सुमन ने विस्मित होकर कहा– अच्छा! वह तो बड़े उदार निकले। सेठों से कुछ मदद मिली?
विट्ठलदास– सेठों की बात न पूछो। चिम्मनलाल रामलीला के लिए हजार-दो हजार रुपए खुशी से दे देंगे। बलभद्रदास से अफसरों की बधाई के लिए इससे भी अधिक मिल सकता है, लेकिन इस विषय में उन्होंने कोरा जवाब दिया।
सुमन इस समय सदन के प्रेमजाल में फंसी हुई थी। प्रेम का आनंद उसे कभी नहीं प्राप्त हुआ था, इस दुर्लभ रत्न को पाकर वह उसे हाथ से नहीं जाने देना चाहती थी। यद्यपि वह जानती थी कि इस प्रेम का परिणाम वियोग के सिवा और कुछ नहीं हो सकता, लेकिन उसका मन कहता था कि जब तक वह आनंद मिलता है, तब तक उसे क्यों न भोगूं। आगे चलकर न जाने क्या होगा, जीवन की नाव न जाने किस-किस भंवर में पड़ेगी, न जाने कहां-कहां भटकेगी। भावी चिंताओं को वह अपने पास न आने देती थी, क्योंकि उधर भयंकर अंधकार के सिवा और कुछ न सूझता था। अतएव जीवन के सुधार करता वह उत्साह, जिसके वशीभूत होकर उसने विट्ठलदास से वह प्रस्ताव किए थे, क्षीण हो गया था। इस समय विट्ठलदास सौ रुपए मासिक का लोभ दिखाते, तो भी वह खुश न होती, किंतु एक बार जो बात खुद ही उठाई थी, उससे फिरते हुए शर्म आती थी। बोली– मैं इसका जवाब कल दूंगी। अभी कुछ सोच लेने दीजिए।
विट्ठलदास– इसमें क्या सोचना-समझना है?
सुमन– कुछ नहीं, लेकिन कल ही पर रखिए।
रात के दस बज गए थे। शरद् ऋतु की सुनहरी चांदनी छिटकी हुई थी। सुमन खिड़की से नीलवर्ण आकाश की ओर ताक रही थी। जैसे चांदनी के प्रकाश में तारागण की ज्योति मलिन पड़ गई थी उसी प्रकार उसके हृदय में चंद्ररूपी सुविचार ने विकासरूपी तारागण को ज्योतिहीन कर दिया था।
सुमन के सामने एक कठिन समस्या उपस्थित थी, विट्ठलदास को क्या उत्तर दूं?
आज प्रातःकाल उसने कल जवाब देने का बहाना करके विट्ठलदास को टाला था। लेकिन दिन-भर के सोच-विचार ने उसके विचारों में कुछ संशोधन कर दिया था।
सुमन को यद्यपि यहां भोग-विलास के सभी सामान प्राप्त थे लेकिन बहुधा उसे ऐसे मनुष्यों की आवभगत करनी पड़ती थी, जिनकी सूरत से उसे घृणा होती थी, जिनकी बातों को सुनकर उसका जी मिचलाने लगता था। अभी उसके मन में उत्तम भावों का सर्वथा लोप नहीं हुआ था। वह उस अधोगति को नहीं पहुंची थी, जहां दुर्व्यसन हृदय के समस्त भावों को नष्ट कर देता है।
इसमें संदेह नहीं कि वह विलास की सामग्रियों पर जान देती थी, लेकिन इन सामग्रियों की प्राप्ति के लिए जिस बेहयाई की जरूरत थी, वह उसके लिए असह्य थी और कभी-कभी एकांत में वह अपनी वर्तमान दशा की पूर्वावस्था से तुलना किया करती थी। वहां यह टीमटाम न थी, किंतु वह अपने समाज में आदर की दृष्टि से देखी जाती थी। वह अपनी पड़ोसिनों के सामने अपनी कुलीनता पर गर्व कर सकती थी, अपनी धार्मिकता और भक्तिभाव का रोब जमा सकती थी। किसी के सम्मुख उसका सिर नीचा नहीं होता था। लेकिन यहां उसके सगर्व हृदय को पग-पग पर लज्जा से मुंह छिपाना पड़ता था। उसे ज्ञात होता था कि मैं किसी कुलटा के सामने भी सिर उठाने योग्य नहीं हूं। जो निरादर और अपमान उसे उस समय सहने पड़ते थे, उनकी अपेक्षा यहां की प्रेमवार्ता और आंखों की सनकियां अधिक दुःखजनक प्रतीत होती थीं और उसके भावपूर्ण हृंदय पर कुठाराघात कर देती थीं। तब उसका व्यथित हृदय पद्मसिंह पर दांत पीसकर रह जाता था। यदि उस निर्दय मनुष्य ने अपनी बदनामी के भय से मेरी अवहेलना न की होती, तो मुझे इस पापकुंड में कूंदने का साहस न होता। अगर वह मुझे चार दिन भी पड़ा रहने देते, तो कदाचित् मैं अपने घर लौट जाती। अथवा वह (गजाधर) ही मुझे मना ले जाते, फिर उसी प्रकार लड़-झगड़कर जीवन के दिन काटने-कटने लगते। इसलिए उसने विट्ठलदास से पद्मसिंह को अपने साथ लाने की शर्त की थी।
लेकिन आज जब विट्ठलदास से उसे ज्ञात हुआ कि शर्माजी मुझे उबारने के लिए कितने उत्सुक हो रहे हैं और कितनी उदारता के साथ मेरी सहायता करने पर तैयार हैं, तो उनके प्रति घृणा के स्थान पर उसके मन में श्रद्धा उत्पन्न हुई। वह बड़े सज्जन पुरुष हैं। मैं खामखाह अपने दुराचार का दोष उनके सिर रखती हूं। उन्होंने मुझ पर दया की है। मैं जाकर उनके पैरों पर गिर पडूंगी और कहूंगी कि आपने इस अभागिन का उपकार किया है, उसका बदला आपको ईश्वर देंगे। यह कंगन भी लौटा दूं, जिससे उन्हें यह संतोष हो जाए कि जिस आत्मा की मैंने रक्षा की है, वह सर्वथा उसके अयोग्य नहीं है। बस, वहां से आकर इस पाप के मायाजाल से निकल भागूं।
लेकिन सदन को कैसे भुलाऊंगी?
अपने मन की इस चंचलता पर वह झुंझला पड़ी क्या उस पापमय प्रेम के लिए जीवन-सुधारक इस दुर्लभ अवसर को हाथ से जाने दूं? चार दिन की चांदनी के लिए सदैव पाप के अंधकार में पड़ी रहूं? अपने हाथ से एक सरल हृदय युवक का जीवन नष्ट करूं? जिस सज्जन पुरुष ने मेरे साथ वह सद्व्यवहार किया है, उन्हीं के साथ यह छल! यह कपट! नहीं, मैं दूषित प्रेम को हृदय से निकाल दूंगी। सदन को भूल जाऊंगी। उससे कहूंगी, तुम भी मुझे इस मायाजाल से निकलने दो।
आह! मुझे कैसा धोखा हुआ! यह स्थान दूर से कितना सुहावना, कितना मनोरम, कितना सुखमय दिखाई देता था। मैंने इसे फूलों का बाग समझा, लेकिन है क्या? एक भयंकर वन, मांसाहरी पशुओं और विषैले कीड़ों से भरा हुआ!
यह नदी दूर से चांद की चादर-सी बिछी हुई कैसी भली मालूम होती थी। पर अंदर क्या मिलता है? बड़े-बड़े विकराल जल-जंतुओं का क्रीड़ा-स्थल! सुमन इसी प्रकार विचार-सागर में मग्न थी। उसे यह उत्कंठा हो रही थी कि किसी तरह सवेरा हो जाए और विट्ठलदास आ जाए, किसी तरह यहां से निकल भागूं। आधी रात बीत गई और उसे नींद न आई। धीरे-धीरे उसे शंका होने लगी कि कहीं सबेरे विट्ठलदास न आए तो क्या होगा? क्या मुझे फिर यहां प्रातःकाल से संध्या तक मीरासियों और धाड़ियों की चापलूसियां सुननी पड़ेंगी। फिर पाप-रजोलिप्त पुतलियों का आदर-सम्मान करना पड़ेगा? सुमन को यहां रहते हुए अभी छह मास भी पूरे न हुए थे, लेकिन इतने ही दिनों में उसे यहां का पूरा अनुभव हो गया था। उसके यहां सारे दिन मीरासियों का जमघट रहता था। वह अपने दुराचार, छल और क्षुद्रता की कथाएं बड़े गर्व से कहते। उनमें कोई चतुर गिरहकट था, कोई धूर्त ताश खेलनेवाले, कोई टपके की विद्या में निपुण, कोई दीवार फांदने के फन का उस्ताद और सबके-सब अपने दुस्साहस और दुर्बलता पर फूले हुए। पड़ोस की रमणियां भी नित्य आती थीं, रंगी, बनी-ठनीं, दीपक के समान जगमगाती हुईं, किंतु यह स्वर्ण-पात्र थे, हलाहल से भरे हुए पात्र– उनमें कितना छिछोरापन था! कितना छल! कितनी कुवासना! वह अपनी निर्लज्जता और कुकर्मों के वृत्तांत कितने मजे में ले-लेकर कहतीं। उनमें लज्जा का अंश भी न रहा था। सदैव ठगने की, छलने की धुन, मन सदैव पाप-तृष्णा में लिप्त।
शहर में जो लोग सच्चरित्र थे, उन्हें यहां खूब गालियां दी जाती थीं, उनकी खूब हंसी उड़ाई जाती थी बुद्धू, गौखा आदि की पदवियां दी जाती थीं। दिन-भर सारे शहर की चोरी और डाके, हत्या और व्यभिचार, गर्भपात और विश्वासघात की घटनाओं की चर्चा रहती थी। यहां का आदर और प्रेम अब अपने यथार्थ रूप में दिखाई देता था। यह प्रेम नहीं था, आदार नहीं था, केवल कामलिप्सा थी।
अब तक सुमन धैर्य के साथ वे सारी विपत्तियां झेलती थीं। उसने समझ लिया था कि जब इसी नरककुंड में जीवन व्यतीत करना है, तो इन बातों से कहां तक भागूं? नरक में पड़कर नारकीय धर्म का पालन करना अनिवार्य था। पहली बार विट्ठलदास जब उसके पास आए थे, तो उसने मन में उनकी उपेक्षा की थी। उस समय तक उसे यहां के रंग-ढंग का ज्ञान न था। लेकिन आज मुक्ति का द्वार सामने खुला देखकर इस कारागार में उसे क्षण-भर भी ठहरना असह्य हो रहा था। जिस तरह अवसर पाकर मनुष्य की पाप-चेष्टा जाग्रत हो जाती है, उसी प्रकार अवसर पाकर उसकी धर्म-चेष्टा भी जाग्रत हो जाती है।
रात के तीन बजे थे। सुमन अभी तक करवटें बदल रही थी, उसका मन बलात् सदन की ओर खिंचता था। ज्यों-ज्यों प्रभात निकट आता था, उसकी व्यग्रता बढ़ती जाती थी। वह अपने मन को समझा रही थी। तू इस प्रेम पर फूला हुआ है? क्या तुझे मालूम नहीं कि इसका आधार केवल रंग-रूप है! यह प्रेम नहीं है, प्रेम की लालसा है। यहां कोई सच्चा प्रेम करने नहीं आता। जिस भांति मंदिर में कोई सच्ची उपासना करने नहीं जाता, उसी प्रकार इस मंडी में कोई प्रेम का सौदा करने नहीं जाता, सब लोग केवल मन बहलाने के लिए आते हैं। इस प्रेम के भ्रम में मत पड़।
अरुणोदय के समय सुमन को नींद आ गई।