*आदिकाल में जब मनुष्य इस धरा धाम पर आया तो ईश्वर की दया एवं सनातन धर्म की छाया में उसने आचरण को महत्व देते हुए अपने जीवन को दिव्य बनाने का प्रयास किया | हमारे पूर्वजों एवं महापुरुषों ने मनुष्य के आचरण को ही महत्व दिया था क्योंकि जब मनुष्य आचरण युक्त होता है , जब उसके भीतर सदाचरण होते हैं तो उसमें संतोष , विवेक एवं शीतलता के साथ-साथ अपनी इंद्रियों का दमन करने का गुण भी प्रकट हो जाता है | पूर्वकाल में हमारे इसी देश भारत में आचरण को ही सीढ़ी बनाकर अनेक महापुरुषों ने सफलता के उच्च शिखर को स्पर्श किया था | आध्यात्मिक क्षेत्र में आचरण का बहुत महत्व है | सामान्य जीवन में यदि मनुष्य आचरण हीन हो जाता था तो उसे समाज बहिष्कृत कर देता था | जब मनुष्य के अंदर आचरण का प्रादुर्भाव होता है तो सर्वप्रथम उसके हृदय में दया , करुणा एवं एक दूसरे का सम्मान करने का भाव उत्पन्न हो जाता है | अपने पालन-पोषण के साथ ही मनुष्य करुणा भाव से अपने अगल-बगल दीन दुखियों का भी ध्यान रखता था क्योंकि सनातन की दिव्यता एवं मान्यता वसुधैव कुटुंबकम की रही है जिसमें संपूर्ण धरती को अपना परिवार कहा गया है | जब परिवार का कोई भी सदस्य दुखी हो तो स्वयं को सुख कैसे मिल सकता है ? इसी भावना से हमारे पूर्वजों ने समाज को एक साथ लेकर चलने का संकल्प लेते हुए एक दूसरे के सुख - दुख में सहभागिता की परंपरा बनाई थी | ऐसे समाज में ईर्ष्या एवं घृणा का कोई स्थान नहीं था |अपनी इन्हीं भावों एवं आचरणों के पालन में अग्रगण्य होने के कारण ही हमारे देश को विश्व गुरु की उपाधि मिली थी | और जब मनुष्य के आचरण दिव्य होते थे उनमें अभिमान नहीं होता था किसी का विरोध नहीं होता था तो लोग निरोगी भी हुआ करते थे | निरोगी होने का सबसे बड़ा कारण था कि हमारे पूर्वज प्रकृति का संरक्षण करते थे और प्रकृति से प्राप्त दिव्य औषधियों का सेवन करके निरोगी बने रहते थे , परंतु धीरे-धीरे समय परिवर्तित हो गया और हम आधुनिक युग में आ गये |*
*आज आधुनिकता की चकाचौंध में मनुष्य स्वयं को विकासशील एवं विकसित कहने में गर्व का आभास कर रहा है परंतु आज कलयुग ने मनुष्य को बिल्कुल अस्त व्यस्त कर डाला है | आज आचरण कहीं-कहीं ही देखने को मिल रहा है | दुराचरण का साम्राज्य विस्तृत होता जा रहा है | रिश्तों की मर्यादा तार-तार हो रही है तो इसका एक ही कारण है कि आज मनुष्य अपनी अनियंत्रित इंद्रियों का दास हो गया है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" बताना चाहूंगा कि आज जो भी हो रहा है इसको बहुत पहले गोस्वामी तुलसीदासजी मानस में लिख गए हैं :-- "इरिषा परुषाच्छर लोलुपता ! भरि पूरि रही समता विगता !! सब लोग विसोक वियोग हये ! वर्णाश्रम धर्म आचार गये !!" अर्थात :- आज ईर्ष्या एवं दूसरे के प्रति कड़वे वचन और लालच भरपूर हो रहे हैं | समत्व की भावना का अभाव हो गया है | लोग वियोग और शोक से भरे पड़े हैं | इस सब का कारण एक ही है आज हमने अपनी सनातन की मान्यताओं को मानना बंद कर दिया है | आज मनुष्य आचरणहीन हो रहा है | एक दूसरे का सम्मान , इंद्रियों का दमन , दान , दया , करुणा के भाव मनुष्य में उत्पन्न ही नहीं हो पा रहे हैं , क्योंकि आज मनुष्य ने अपने अगल-बगल लोगों का ध्यान देना बंद कर दिया है स्वयं में ही व्यस्त रहने वाला मनुष्य समाज से विमुख हो होता चला जा रहा है | आज आवश्यकता है कि हम अपने ग्रंथों का अवलोकन करके अपने पूर्वजों की कृत्यों का अनुसरण करें जिससे कि पुन: वही भाव हमारी भीतर उत्पन्न हो सके अन्यथा एक दूसरे की निंदा एवं एक दूसरे से ईर्ष्या करके मनुष्य कभी भी सफलता नहीं प्राप्त कर सकता | हां ! यह कहा जा सकता है कि उसे क्षणिक सफलता तो मिल सकती है परंतु वह चिरस्थाई कभी नहीं हो सकती |*
*आचरण से हीन होकर कोई भी कहीं भी क्षण भर के लिए तो सम्मानित हो सकता है परंतु उसका यह सम्मान सदैव नहीं बना रह सकता इसलिए मनुष्य को अपने आचरण का विशेष ध्यान रखना चाहिए |*