*आदिकाल में मानवमात्र को शिक्षित करने के लिए हमारे ऋषियों / महर्षियों ने स्थान - स्थान पर निशुल्क शिक्षा देने के लिए आश्रमों का निर्माण किया था | जिसमें दूर दूर के छात्र आ करके शिक्षा ग्रहण करते थे , जिससे उनका चरित्र निर्माण होता था | परोपकार की भावना से आश्रम का निर्माण होता था , एवं बिना भेदभाव के सबको समान शिक्षा दी जाती थी | विद्वानों में अहंकार की भावना नहीं होती थी निरहंकारी बनकर सब को एक साथ लेकर चलने का कार्य किया जाता था | समय-समय पर इन आश्रमों में सत्संग भी आयोजित होते थे जिससे वहां के छात्रों को दिव्य जीवन दर्शन प्राप्त होता था | इन सत्संगों में आश्रम से पढ़ कर विद्वान बने छात्र आपस में बिना किसी
देश भावना के दिव्य सत्संग करते थे | कभी किसी को नीचे गिराने की भावना नहीं होती थी , और एक विशेषता थी कि आश्रम चाहे छोटा हो या बड़ा गुरुजन एक ही आश्रम का निर्माण करके उसी में अपना जीवन समर्पित कर देते थे , कभी उनके मन में यह विचार नहीं आता था कि हमारे आश्रमों की संख्या बढ़े ! क्योंकि वे जानते थे कि ऐसा करने से हमारा समय और श्रम तो अधिक लगेगा साथ ही ऊर्जा भी विभाजित हो जाएगी | शिष्यों के मन में कभी विचार नहीं आता था कि हम भी अलग से आश्रम खोलें , जब तक कि उनकी शिक्षा नहीं पूर्ण हो जाती थी और गुरु का आदेश नहीं मिल जाता था | तब तक वे आश्रमों से पलायन नहीं करते थे | ऐसा करके वे अद्वितीय विद्वान बन कर समाज का मार्गदर्शन करने के योग्य बनते थे |* *आज के आधुनिक एवं इंटरनेट के युग में इन आश्रमों का स्थान फेसबुक एवं व्हाट्सएप ने ले लिया है | अनेक विद्वान तरह-तरह के समूह बनाकर सत्संगों का संचालन कर रहे हैं | सुदूर क्षेत्र के भाँति - भाँति के विद्वान इन समूहों में अपनी
ज्ञान पिपासा को शांत करने के साथ ही ज्ञान बांटने का कार्य भी कर रहे हैं | परंतु हास्यास्पद यह है कि आज विद्वानों के मध्य इन समूहों का निर्माण करने की होड़ जैसी लग गई है | ऐसा लगता है कि जिस के पास जितने समूह वह उतना बड़ा विद्वान माना जाएगा | जबकि यह सत्य है कि अधिक कार्यशालायें हो जाने पर मनुष्य सब में उतना समय नहीं दे पाता है जितना उसको देना चाहिए | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" आज इन समूहों को देख कर यह कह सकता हूं कि व्यक्ति कुछ दिन किसी समूह में थोड़ा ज्ञानार्जन कर लेने के बाद स्वयं के समूह का निर्माण करके अपनी विद्वता दिखाने का प्रयास करने लगता है | और जब वहां विद्वानों के द्वारा सत्संग प्रारंभ होता है तो ऐसे समूह निर्माणकर्ता बगले झांकते दिखाई पड़ते हैं | "अधजल गगरी छलकत जाय" की कहावत आज चरितार्थ हो रही है | आज विद्वता यदि कहीं दिखाई पड़ती तो वह इन समूहों पर ही दिखाई पड़ती है | एक से एक विद्वान गूगल आदि स्रोतों का सहारा लेकर के अपनी विद्वता का प्रदर्शन कर रहे हैं | एक बात और विशेष दिख रही है कि ऐसे विद्वानों में अहंकार स्वमेव प्रकट हो जाता है | ऐसे विद्वानों से यही कहना चाहूंगा कि अपना योगदान एक जगह दे कर के स्वयं के साथ अपने साथ जुड़े हुए लोगों को भी परिमार्जित करने का कार्य करें जिससे कि इन विद्वानों को उचित मार्गदर्शन प्राप्त हो सके |* *सनातन
धर्म ने सदैव पात्र देखकर ज्ञान देने का निर्देश दिया है | क्योंकि कुपात्र को यदि ज्ञान मिल जाता है तो वह मानव मात्र के लिए घातक ही सिद्ध होता है |*