*इस संपूर्ण सृष्टि में जहां अनेकों जीव भ्रमण कर रहे हैं वही मनुष्य इन जीवों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है | मनुष्य सर्वश्रेष्ठ हुआ है अपने ज्ञान एवं कर्मों से | मनुष्य के कर्म तभी दिव्य हो पाते हैं जब वह अपने जीवन में अध्यात्म का सहारा लेता है | मानव जीवन में अध्यात्म का बहुत महत्व है | आध्यात्मिक होने का क्या अर्थ है यदि इसको देखा जाय तो स्पष्ट हो जाता है कि आध्यात्मिक व्यक्ति का एक ही उद्देश्य होता है आत्मज्ञान की प्राप्ति करना , क्योंकि बिना आत्मज्ञान की प्राप्ति किए संसार के जितने भी ज्ञान हैं सब को आत्मसात कर लेने के बाद ही मनुष्य स्वयं का कल्याण नहीं कर सकता है | आत्म ज्ञान क्या है ? इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है ?? इस विषय पर हमारे मनीषियों का कहना है कि आत्मज्ञान को ज्ञान के स्तर पर , ऊर्जा के स्तर पर , या सचेतन के स्तर पर प्राप्त किया जा सकता है | इस संपूर्ण सृष्टि पर शासन करता है मनुष्य , और मनुष्य प्रशासन करती हैं उसकी भावनाएं और इन्हीं भावनाओं के वशीभूत होकर मानव भटक जाता है | कभी-कभी मनुष्य चाहता है कि हम क्रोध नहीं करेंगे परंतु भावनाओं में भटक कर वह अपने क्रोध का प्रदर्शन कर ही देता है | जब मनुष्य स्वयं को नहीं जान पाता है तो बार-बार छोटी-छोटी भावनाओं में बहकर के क्रियाकलाप करने लगता है जिससे आसपास का समाज भी प्रभावित होता है | इन भावनाओं को बस में करने के लिए मनुष्य नें कई उपाय भी किए परंतु वह सफल नहीं हुआ | यदि इन भावनाओं पर विजय प्राप्त करना है तो मनुष्य को अध्यात्म का सहारा लेना ही पड़ेगा क्योंकि अध्यात्म का प्रथम अध्याय अपने चंचल मन को बस में करने की शिक्षा देता है क्योंकि मनुष्य के अंदर समस्त भावनाएं मन क् ही द्वारा प्रसारित होती है | मनुष्य का मन इतना विचित्र होता है कि वह स्वतंत्र होकर कार्य करना चाहता है आध्यात्मिक पुरुषों ने इसी मन को अपने बस में करके अपने भावनाओं के ऊपर विजय प्राप्त करते हुए इस संसार में सफलताएं प्राप्त की हैं | आध्यात्मिक व्यक्ति जिसे आत्मज्ञान हो गया है उसके लिए भावनाओं का कोई महत्व नहीं रह जाता है वह इनके स्तर से ऊपर उठकर अपने क्रियाकलाप मानव कल्याण के लिए संपादित करता है |*
*आज अनेक लोग आध्यात्मिक बनने का प्रयास तो करते हैं परंतु अपने सद्गुरु , माता-पिता या मित्रों के द्वारा दिए गए किसी सद्ज्ञान को ग्रहण नहीं कर पाते हैं | आज मनुष्य संसार के विषय में तो जानना चाहता है परंतु आत्मज्ञान प्राप्त करके स्वयं के विषय में जानना उसके लिए बड़ा कठिन है क्योंकि आज मनुष्य करने के लिए नहीं बल्कि कहने के लिए आध्यात्मिक बनना चाहता है | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि जब तक मनुष्य स्वयं की भावनाओं के ऊपर विजय नहीं प्राप्त कर सकता तब तक वह आध्यात्म का पथिक नहीं बन सकता | अध्यात्म का पथ वैसे है तो बहुत सरल परंतु आज के युग में जहां मनुष्य अपनी भावनाओं में बहकर एक दूसरे का प्राण हरण कर रहा है , किसी का भी अपमान करने के लिए तैयार बैठा रहता है , किसी को भी कुछ कह देने से भी परहेज नहीं करता ऐसे में वह कितना बड़ा आध्यात्मिक होगा यह विचारणीय विषय है | यह मायामय संसार बहुत ही दुष्कर है इसमें रहकर के मन एवं माया के चक्रव्यूह से वही बच सकता है जो अपनी भावनाओं को अपने बस में करना जानता है | मनुष्य की भावना इतनी प्रबल होती है कि मनुष्य इन भावनाओं में बह कर अनेकों ऐसे कृत्य कर देता है जिसके कारण वह इस चक्रव्यूह में उलझ कर रह जाता है | यदि आध्यात्मिक बनना है तो सर्वप्रथम इन्हीं भावनाओं पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए | आज छोटी-छोटी बातों पर जिस प्रकार मनुष्य का क्रोध भड़क जाता है और उस क्रोध में आकर मनुष्य अपने सद्गुरु , माता पिता एवं एक भरे पूरे समाज का अपमान करके वहां से निकल जाता है और फिर स्वयं को विद्वान बनाकर स्थापित करने का प्रयास करता है विचार कीजिए यह उसकी विद्वता है या मूर्खता ?*
*मनुष्य की भावनाएं इस प्रकार की होती हैं कि सब कुछ अपने मन के अनुसार चाहती हैं परंतु इस विचित्र संसार में यह सम्भव नहीं हो पाता तब मनुष्य भावनाओं में बहकर भटक जाता है |*