*संपूर्ण जीवन काल में मनुष्य अपनी जीवन शैली , रहन सहन एवं परिवेश का सुधार करता रहता है जिससे वो अमूल्य जीवन को अच्छे से अच्छे जी सके | भाँति - भाँति के साबुन आदि के कृत्रिम साधनों का उपयोग करके शरीर को चमका कर , अच्छे से अच्छा वस्त्र पहन करके , अपने घर को रंग रोगन करके मनुष्य समाज में चमकना तो चाहता है परंतु इन बाहरी सुधारों से मनुष्य का सुधार नहीं होने वाला है | हमारे महापुरुषों ने मनुष्य को आत्मसुधार करने की प्रक्रिया बताते हुए उसे आंतरिक रूप से चमकने का मार्ग बताया था | आत्म सुधार एक दिन में नहीं हो सकता है बल्कि यह जीवन भर चलने वाली प्रक्रिया है | समयानुसार मनुष्य बाल्यकाल से लेकर जीवन के अंतिम पड़ाव तक स्वयं में सुधार करता रहता है | जिस प्रकार पृथ्वी के अंदर अमूल्य निधियां छुपी हुई है उसी प्रकार मानव में भी अनेक उत्कृष्ट गुण छिपे हुए हैं परंतु इन्हें पहचानने वालों की आवश्यकता होती है | जिस प्रकार एक साधारण मजदूर पृथ्वी खोदते समय उसमें से निकलने वाले हैं रत्नों की पहचान नहीं कर पाता है उसी प्रकार साधारण मनुष्य भी अपने अंदर के गुणों को नहीं पहचान पाता है | जिस प्रकार हीरे की पहचान जौहरी ही कर सकता है उसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य को जौहरी बन करके अपने भीतर छुपे हुए पारस पत्थर को पहचानाना आत्मसुधार का प्रथम कदम कहा जा सकता | परिवर्तन प्रकृति का नियम है परंतु यह परिवर्तन मनुष्य में आत्मसुधार के माध्यम से ही हो सकता है | जिस दिन मनुष्य आत्मसुधार करके अपने भीतर छिपे पारस पत्थर को पहचान लेता है उसी दिन से उसका जीवन सुख और आनंद से परिपूर्ण हो जाता है | समय-समय पर जैसी परिस्थिति हो उसी प्रकार मनुष्य को आत्म परिवर्तन करते रहना चाहिए इस संपूर्ण सृष्टि के समस्त जड़ - चेतन स्वयं में समयानुसार परिवर्तन करते रहते हैं | इस धरा धाम पर मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो आत्म परिवर्तन की कला को ठीक से नहीं अपना पाता है यही कारण है कि मनुष्य जीवन भर दुख एवं झंझावातों से घिरा रहता है |*
*आज के भौतिकवादी एवं भोगवादी युग में प्रत्येक व्यक्ति संपन्नता चाहता है और इस चाहत में आज मनुष्य नैतिक अनैतिक सभी साधनों का प्रयोग कर रहा है | प्रतिस्पर्धा के इस युग में मनुष्य अपनी आत्मा को भी बेंचते हुए दिखाई पड़ रहा है परंतु मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" यह भी देख रहा हूं कि आज मनुष्य इतना सब कुछ करने के बाद भी सुखी नहीं हो पा रहा है क्योंकि यह सत्य है कि प्रतिस्पर्धा के जो तरीके मनुष्य अपना रहा है उस छीना झपटी के परिवेश में कोई भी कभी भी सुखी नहीं रह सकता है | इतना सब होने के बाद भी मनुष्य आत्मसुधार अर्थात स्वयं में परिवर्तन नहीं करना चाहता है | आज समाज में लाखों युवा शिक्षा प्राप्त करके सरकारी नौकरियों के लिए भटक रहे और सरकारी नौकरी न मिलने के कारण अनेक लोग आत्महत्या भी कर रहे हैं इसका यही कारण है कि ऐसे लोगों ने शिक्षा को प्राप्त कर ली परंतु आत्मसुधार अर्थात स्वावलंबी बनने की शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाये | इसीलिए आत्म परिवर्तन की राह दिखाई गई थी कि मनुष्य देश , काल , परिस्थिति के अनुसार स्वयं में परिवर्तन कर ले | आत्म परिवर्तन एवं आत्म सुधार के द्वारा ही मानव जीवन को दिव्य बनाया जा सकता है बिना आत्म परिवर्तन के कोई भी परिवर्तन समाज में नहीं हो सकता | आज का मनुष्य अपने भीतर छुपे हुए रत्नों को नहीं पहचान पा रहा है | इस सुरदुर्लभ मानव शरीर को पाने के बाद भी मनुष्य भटक रहा है तो उसका एक ही कारण है कि उसने स्वयं को ना को पहचाना है और ना ही पहचानने का प्रयास कर रहा है | इस दिव्य जीवन को दिव्यता बनाने के लिए स्वयं को पहचान कर आत्म सुधार करने की सतत प्रक्रिया अपनाते रहना चाहिए तभी यह मानव जीवन सफल हो सकता है |*
*मनुष्य दूसरों को तो बहुत जल्दी पहचान जाता है परंतु स्वयं को पहचानने का प्रयास नहीं करता है और यह सत्य है कि जब तक मनुष्य स्वयं को नहीं पहचानेगा तब तक उसमें सुधार की कोई प्रक्रिया नहीं अपनाई जा सकती है इसलिए स्वयं को पहचान कर आत्म सुधार करने का प्रयास अवश्य करना चाहिए |*